[त्रिसप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
जरासन्धके जेलसे छूटे हुए राजाओंकी बिदाई और भगवान्का इन्द्रप्रस्थ लौट आना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलया युधि निर्जिताः।
ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः॥
मूलम्
अयुते द्वे शतान्यष्टौ लीलया युधि निर्जिताः।
ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जरासन्धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओंको जीतकर पहाड़ोंकी घाटीमें एक किलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान् श्रीकृष्णके छोड़ देनेपर जब वे वहाँसे निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ १-५ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः।
ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥
मूलम्
क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः।
ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भूखसे दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलमें बंद रहनेके कारण उनके शरीरका एक-एक अंग ढीला पड़ गया था। वहाँसे निकलते ही उन नरपतियोंने देखा कि सामने भगवान् श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंगका रेशमी वस्त्र फहरा रहा है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम्।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
मूलम्
श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम्।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्महस्तं गदाशङ्खरथाङ्गैरुपलक्षितम्।
किरीटहारकटककटिसूत्राङ्गदाचितम्॥
मूलम्
पद्महस्तं गदाशङ्खरथाङ्गैरुपलक्षितम्।
किरीटहारकटककटिसूत्राङ्गदाचितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चार भुजाएँ हैं—जिनमें गदा, शंख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्षःस्थलपर सुनहली रेखा—श्रीवत्सका चिह्न है और कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नताका सदन है। कानोंमें मकराकृति कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोंका हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा पा रहे हैं॥ ३-४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया।
पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया॥
मूलम्
भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया।
पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः।
प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोहर्रेः॥
मूलम्
जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः।
प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोहर्रेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान् श्रीकृष्णको देखकर उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और बाहुओंसे आलिंगन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान्के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया॥ ५-६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रम्भन्तं परिरम्भं कुर्वन्तम् ॥ ६-१०॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णसन्दर्शनाह्लादध्वस्तसंरोधनक्लमाः।
प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः॥
मूलम्
कृष्णसन्दर्शनाह्लादध्वस्तसंरोधनक्लमाः।
प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे उन राजाओंको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणीसे भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे॥ ७॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
राजान ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय।
प्रपन्नान् पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः॥
मूलम्
नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय।
प्रपन्नान् पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंने कहा—शरणागतोंके सारे दुःख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसारमें दुःखका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो! अब आप हमारी रक्षा कीजिये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैनं नाथान्वसूयामो मागधं मधुसूदन।
अनुग्रहो यद् भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो॥
मूलम्
नैनं नाथान्वसूयामो मागधं मधुसूदन।
अनुग्रहो यद् भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुसूदन! हमारे स्वामी! हम मगधराज जरासन्धका कोई दोष नहीं देखते। भगवन्! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मीसे च्युत कर दिये गये॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः।
त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः॥
मूलम्
राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः।
त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकी—कल्याणकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियोंको ही अचल मान बैठता है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम्।
एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वस्तु चक्षते॥
मूलम्
मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम्।
एवं वैकारिकीं मायामयुक्ता वस्तु चक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णाके जलको ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील मायाको सत्य वस्तु मान लेते हैं॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैकारिकीं मायां स्रक्चन्दनादिशब्दादिविकारात्मिकां प्रकृतिं वस्तु चक्षते प्रकृतिपरिणामरूपं भोग्यं नित्यं मन्यत इत्यर्थः ॥११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो
जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः।
घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो
मृत्युं परस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः॥
मूलम्
वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो
जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः।
घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो
मृत्युं परस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! पहले हमलोग धन-सम्पत्तिके नशेमें चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वीको जीत लेनेके लिये एक-दूसरेकी होड़ करते थे और अपनी ही प्रजाका नाश करते रहते थे! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ था, और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े हैं, इस बातकी भी हम तनिक परवा नहीं करते थे॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अस्याः भूमेः इतरेतरस्पृधः परस्परं स्पर्धमानाः नष्टबुद्धय इत्यर्थः ॥१२-१३॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा
दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः।
कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया
विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते॥
मूलम्
त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा
दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः।
कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया
विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! कालकी गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसीके टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगोंको श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथो न राज्यं मृगतृष्णिरूपितं
देहेन शश्वत् पतता रुजां भुवा।
उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो
क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम्॥
मूलम्
अथो न राज्यं मृगतृष्णिरूपितं
देहेन शश्वत् पतता रुजां भुवा।
उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो
क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विभो! यह शरीर दिनोदिन क्षीण होता जा रहा है। रोगोंकी तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीरसे भोगे जानेवाले राज्यकी अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णाके जलके समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुननेमें ही आकर्षक जान पड़ते हैं॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रुजां भुवा दुःखोत्पादकेन कर्णयोः रोचनं क्रियाफलमपेक्षमाण इत्यर्थः ॥ १४-३५ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः।
स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह॥
मूलम्
तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः।
स्मृतिर्यथा न विरमेदपि संसरतामिह॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलोंकी विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसारकी किसी भी योनिमें जन्म क्यों न लेना पड़े॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥
मूलम्
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रणाम करनेवालोंके क्लेशका नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्दके प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है॥ १६॥
श्लोक-१७
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः।
तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा॥
मूलम्
संस्तूयमानो भगवान् राजभिर्मुक्तबन्धनैः।
तानाह करुणस्तात शरण्यः श्लक्ष्णया गिरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कारागारसे मुक्त राजाओंने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभुने बड़ी मधुर वाणीसे उनसे कहा॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्यप्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे।
सुदृढा जायते भक्तिर्बाढमाशंसितं तथा॥
मूलम्
अद्यप्रभृति वो भूपा मय्यात्मन्यखिलेश्वरे।
सुदृढा जायते भक्तिर्बाढमाशंसितं तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—नरपतियो! तुम-लोगोंने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें तुमलोगोंकी निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिणः।
श्रियैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम्॥
मूलम्
दिष्ट्या व्यवसितं भूपा भवन्त ऋतभाषिणः।
श्रियैश्वर्यमदोन्नाहं पश्य उन्मादकं नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरपतियो! तुमलोगोंने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है। तुमलोगोंने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर बहुत-से लोग उच्छृंखल और मतवाले हो जाते हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे।
श्रीमदाद् भ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्यनरेश्वराः॥
मूलम्
हैहयो नहुषो वेनो रावणो नरकोऽपरे।
श्रीमदाद् भ्रंशिताः स्थानाद् देवदैत्यनरेश्वराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमदके कारण अपने स्थानसे, पदसे च्युत हो गये॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्त एतद् विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत्।
मां यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ॥
मूलम्
भवन्त एतद् विज्ञाय देहाद्युत्पाद्यमन्तवत्।
मां यजन्तोऽध्वरैर्युक्ताः प्रजा धर्मेण रक्षथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग यह समझ लो कि शरीर और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानीसे मन और इन्द्रियोंको वशमें रखकर यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करो॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तन्वन्तः प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ।
प्राप्तं प्राप्तं च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ॥
मूलम्
सन्तन्वन्तः प्रजातन्तून् सुखं दुःखं भवाभवौ।
प्राप्तं प्राप्तं च सेवन्तो मच्चित्ता विचरिष्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग अपनी वंश-परम्पराकी रक्षाके लिये, भोगके लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्धके अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि—जो कुछ भी प्राप्त हों, उन्हें समानभावसे मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतव्रताः।
मय्यावेश्य मनः सम्यङ् मामन्ते ब्रह्म यास्यथ॥
मूलम्
उदासीनाश्च देहादावात्मारामा धृतव्रताः।
मय्यावेश्य मनः सम्यङ् मामन्ते ब्रह्म यास्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देह और देहके सम्बन्धियोंसे किसी प्रकारकी आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आपमें, आत्मामें ही रमण करो और भजन तथा आश्रमके योग्य व्रतोंका पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्तमें तुमलोग मुझ ब्रह्मस्वरूपको ही प्राप्त हो जाओगे॥ २३॥
श्लोक-२४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः।
तेषां न्ययुङ्क्त पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि॥
मूलम्
इत्यादिश्य नृपान् कृष्णो भगवान् भुवनेश्वरः।
तेषां न्ययुङ्क्त पुरुषान् स्त्रियो मज्जनकर्मणि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भुवनेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने राजाओंको यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि करानेके लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत।
नरदेवोचितैर्वस्त्रैर्भूषणैः स्रग्विलेपनैः॥
मूलम्
सपर्यां कारयामास सहदेवेन भारत।
नरदेवोचितैर्वस्त्रैर्भूषणैः स्रग्विलेपनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जरासन्धके पुत्र सहदेवसे उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान् समलङ्कृतान्।
भोगैश्च विविधैर्युक्तांस्ताम्बूलाद्यैर्नृपोचितैः॥
मूलम्
भोजयित्वा वरान्नेन सुस्नातान् समलङ्कृतान्।
भोगैश्च विविधैर्युक्तांस्ताम्बूलाद्यैर्नृपोचितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे स्नान करके वस्त्राभूषणसे सुसज्जित हो चुके, तब भगवान्ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थोंका भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकारके राजोचित भोग दिलवाये॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः।
विरेजुर्मोचिताः क्लेशात् प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः॥
मूलम्
ते पूजिता मुकुन्देन राजानो मृष्टकुण्डलाः।
विरेजुर्मोचिताः क्लेशात् प्रावृडन्ते यथा ग्रहाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार उन बंदी राजाओंको सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशोंसे छुटकारा पाकर तथा कानोंमें झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतुका अन्त हो जानेपर तारे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथान् सदश्वानारोप्य मणिकाञ्चनभूषितान्।
प्रीणय्य सूनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत्॥
मूलम्
रथान् सदश्वानारोप्य मणिकाञ्चनभूषितान्।
प्रीणय्य सूनृतैर्वाक्यैः स्वदेशान् प्रत्ययापयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें सुवर्ण और मणियोंसे भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ोंसे युक्त रथोंपर चढ़ाया, मधुर वाणीसे तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशोंको भेज दिया॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
त एवं मोचिताः कृच्छ्रात् कृष्णेन सुमहात्मना।
ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः॥
मूलम्
त एवं मोचिताः कृच्छ्रात् कृष्णेन सुमहात्मना।
ययुस्तमेव ध्यायन्तः कृतानि च जगत्पतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने उन राजाओंको महान् कष्टसे मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णके रूप, गुण और लीलाओंका चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानीको चले गये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम्।
यथान्वशासद् भगवांस्तथा चक्रुरतन्द्रिताः॥
मूलम्
जगदुः प्रकृतिभ्यस्ते महापुरुषचेष्टितम्।
यथान्वशासद् भगवांस्तथा चक्रुरतन्द्रिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उन लोगोंने अपनी-अपनी प्रजासे परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानीसे भगवान्के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः।
पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात् सहदेवेन पूजितः॥
मूलम्
जरासन्धं घातयित्वा भीमसेनेन केशवः।
पार्थाभ्यां संयुतः प्रायात् सहदेवेन पूजितः॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः।
हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः॥
मूलम्
गत्वा ते खाण्डवप्रस्थं शङ्खान् दध्मुर्जितारयः।
हर्षयन्तः स्वसुहृदो दुर्हृदां चासुखावहाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भीमसेनके द्वारा जरासन्धका वध करवाकर भीमसेन और अर्जुनके साथ जरासन्धनन्दन सहदेवसे सम्मानित होकर इन्द्र-प्रस्थके लिये चले। उन विजयी वीरोंने इन्द्रप्रस्थके पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रोंको सुख और शत्रुओंको बड़ा दुःख हुआ॥ ३१-३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः।
मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथः॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा प्रीतमनस इन्द्रप्रस्थनिवासिनः।
मेनिरे मागधं शान्तं राजा चाप्तमनोरथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रप्रस्थ निवासियोंका मन उस शंखध्वनिको सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिरका राजसूय-यज्ञ करनेका संकल्प एक प्रकारसे पूरा हो गया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः।
सर्वमाश्रावयाञ्चक्रुरात्मना यदनुष्ठितम्॥
मूलम्
अभिवन्द्याथ राजानं भीमार्जुनजनार्दनाः।
सर्वमाश्रावयाञ्चक्रुरात्मना यदनुष्ठितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्णने राजा युधिष्ठिरकी वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्धके वधके लिये करना पड़ा था॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम्।
आनन्दाश्रुकलां मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन॥
मूलम्
निशम्य धर्मराजस्तत् केशवेनानुकम्पितम्।
आनन्दाश्रुकलां मुञ्चन् प्रेम्णा नोवाच किञ्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्णके इस परम अनुग्रहकी बात सुनकर प्रेमसे भर गये, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इति श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीये दशमस्कन्धोत्तरार्धे त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णाद्यागमने त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७३॥