[द्विसप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
पाण्डवोंके राजसूययज्ञका आयोजन और जरासन्धका उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा तु सभामध्ये आस्थितो मुनिभिर्वृतः।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः॥
मूलम्
एकदा तु सभामध्ये आस्थितो मुनिभिर्वृतः।
ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैर्भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ १-२ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः।
शृण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह॥
मूलम्
आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः।
शृण्वतामेव चैतेषामाभाष्येदमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही॥ १-२॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः।
यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत् सम्पादय नः प्रभो॥
मूलम्
क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः।
यक्ष्ये विभूतीर्भवतस्तत् सम्पादय नः प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरने कहा—गोविन्द! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय-यज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता हूँ। प्रभो! आप कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिये॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विभूतीः देवान् ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति
ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति।
विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्ग-
माशासते यदि त आशिष ईश नान्ये॥
मूलम्
त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति
ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति।
विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्ग-
माशासते यदि त आशिष ईश नान्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनाभ! आपके चरणकमलोंकी पादुकाएँ समस्त अमंगलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आशिषो नाशासते यदि अपवर्गं विन्दन्ति अन्ये अपवर्गात् बहिर्भूताः ॥४-५॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् देवदेव भवतश्चरणारविन्द-
सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः।
ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां
निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम्॥
मूलम्
तद् देवदेव भवतश्चरणारविन्द-
सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः।
ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां
निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके भी आराध्यदेव! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो! कुरुवंशी और सृंजयवंशी नरपतियोंमें जो लोग आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्
सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः।
संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र॥
मूलम्
न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्
सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः।
संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वपरभेदमतिस्तव न स्यात्सर्वसुहृत्त्वादित्यर्थः ॥ ६-२४ ॥
श्लोक-७
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन।
कल्याणी येन ते कीर्तिर्लोकाननु भविष्यति॥
मूलम्
सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन।
कल्याणी येन ते कीर्तिर्लोकाननु भविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—शत्रु विजयी धर्मराज! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय-यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मंगलमयी कीर्तिका विस्तार होगा॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो।
सर्वेषामपि भूतानामीप्सितः क्रतुराडयम्॥
मूलम्
ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो।
सर्वेषामपि भूतानामीप्सितः क्रतुराडयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें—और कहाँतक कहें, समस्त प्राणियोंको अभीष्ट है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे।
सम्भृत्य सर्वसम्भारानाहरस्व महाक्रतुम्॥
मूलम्
विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे।
सम्भृत्य सर्वसम्भारानाहरस्व महाक्रतुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते ते भ्रातरो राजन् लोकपालांशसम्भवाः।
जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः॥
मूलम्
एते ते भ्रातरो राजन् लोकपालांशसम्भवाः।
जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! आपके चारों भाई वायु , इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सद्गुणोंसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया।
विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः॥
मूलम्
न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया।
विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है?॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः।
भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान्॥
मूलम्
निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः।
भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवं दक्षिणस्यामादिशत् सह सृञ्जयैः।
दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम्।
प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः॥
मूलम्
सहदेवं दक्षिणस्यामादिशत् सह सृञ्जयैः।
दिशि प्रतीच्यां नकुलमुदीच्यां सव्यसाचिनम्।
प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरने सृंजयवंशी वीरोंके साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते विजित्य नृपान् वीरा
आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा।
अजातशत्रवे भूरि
द्रविणं नृप यक्ष्यते॥
मूलम्
ते विजित्य नृपान् वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा।
अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उन भीमसेन आदि वीरोंने अपने बल-पौरुषसे सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिरको बहुत-सा धन लाकर दिया॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वाजितं जरासन्धं
नृपतेर् ध्यायतो हरिः।
आहोपायं तम् एवाद्य
उद्धवो यमुवाच ह॥
मूलम्
श्रुत्वाजितं जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः।
आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजीने बतलाया था॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो
ब्रह्मलिङ्गधरास् त्रयः।
जग्मुर् गिरिव्रजं तात
बृहद्-रथ-सुतो यतः॥
मूलम्
भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिङ्गधरास्त्रयः।
जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण—ये तीनों ही ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम्।
ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्गिनः॥
मूलम्
ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम्।
ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्गिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की—॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तानर्थिनो दूरमागतान्।
तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद् वयं कामयामहे॥
मूलम्
राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तानर्थिनो दूरमागतान्।
तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद् वयं कामयामहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किमकार्यमसाधुभिः।
किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम्॥
मूलम्
किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किमकार्यमसाधुभिः।
किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शीके लिये पराया कौन है?॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम्।
नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः॥
मूलम्
योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम्।
नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान् शरीरसे ऐसे अविनाशी यशका संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करनेयोग्य है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः।
व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः॥
मूलम्
हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः।
व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आप तो जानते ही होंगे—राजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्नके दाने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथिको अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीरके द्वारा अविनाशी पदको प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हमलोगोंको निराश मत कीजिये॥ २१॥
श्लोक-२२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि।
राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत्॥
मूलम्
स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि।
राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जरासन्धने उन लोगोंकी आवाज, सूरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी प्रत्यंचाकी रगड़के चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्गानि बिभ्रति।
ददामि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम्॥
मूलम्
राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्गानि बिभ्रति।
ददामि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे हिचकिचाहट न होगी॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलेर्नु श्रूयते कीर्तिर्वितता दिक्ष्वकल्मषा।
ऐश्वर्याद् भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना॥
मूलम्
बलेर्नु श्रूयते कीर्तिर्वितता दिक्ष्वकल्मषा।
ऐश्वर्याद् भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
विष्णुभगवान्ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन, ऐश्वर्य—सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे।
जानन्नपि महीं प्रादाद् वार्यमाणोऽपि दैत्यराट्॥
मूलम्
श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे।
जानन्नपि महीं प्रादाद् वार्यमाणोऽपि दैत्यराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्ने देवराज इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्रस्य इन्द्रार्थम् ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना।
देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः॥
मूलम्
जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना।
देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीरसे जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्राह्मणार्थाय जीवता विपुलं यशो नेहता इत्यन्वयः ईहता सम्पादयता ॥ २६-३६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान्।
हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः॥
मूलम्
इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान्।
हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सचमुच जरासन्धकी बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेनसे कहा—‘ब्राह्मणो! आपलोग मनचाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आपलोगोंको अपना सिर भी दे सकता हूँ’॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे।
युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकाङ्क्षिणः॥
मूलम्
युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे।
युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्नकाङ्क्षिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘राजेन्द्र! हमलोग अन्नके इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम्।
अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम्॥
मूलम्
असौ वृकोदरः पार्थस्तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम्।
अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः।
आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः॥
मूलम्
एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः।
आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढ़कर बोला—‘अरे मूर्खो! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवचेतसा।
मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः॥
मूलम्
न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवचेतसा।
मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु कृष्ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्धमें तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़ूँगा॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं तु वयसा तुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः।
अर्जुनो न भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम॥
मूलम्
अयं तु वयसा तुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः।
अर्जुनो न भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोड़का वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लड़ूँगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़के हैं’॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम्।
द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद् बहिः॥
मूलम्
इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम्।
द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद् बहिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ।
जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ॥
मूलम्
ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ।
जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर चोट करने लगे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च।
चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्गिणोः॥
मूलम्
मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च।
चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्गिणोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दायें-बायें तरह-तरहके पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे—मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमंचपर युद्धका अभिनय कर रहे हों॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः।
गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः॥
मूलम्
ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः।
गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब एककी गदा दूसरेकी गदासे टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियोंके दाँत आपसमें भिड़कर चटचटा रहे हों या बड़े जोरसे बिजली तड़क रही हो॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने
अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून्।
चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे
संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्य्वोः॥
मूलम्
ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने
अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून्।
चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे
संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्य्वोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब दो हाथी क्रोधमें भरकर लड़ने लगते हैं और आककी डालियाँ तोड़-तोड़कर एक-दूसरेपर प्रहार करते हैं, उस समय एक-दूसरेकी चोटसे वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक-दूसरेके कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियोंपर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अंगोंसे टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जत्रव इति जत्रुष्वित्यर्थः । उपेत्य परस्परं सङ्गत्य जङ्घादीन् उपेत्येति वान्वयः ॥ ३७ - ३९ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ
क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्पर्शैरपिष्टाम्।
शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासी-
न्निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः॥
मूलम्
इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ
क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्पर्शैरपिष्टाम्।
शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासी-
न्निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूँसोंसे एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी चोट करते, मानो लोहेका घन गिर रहा हो। एक-दूसरेपर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियोंकी तरह उनके थप्पड़ों और घूँसोंका कठोर शब्द बिजलीकी कड़कड़ाहटके समान जान पड़ता था॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अपिष्टां पेषणमकुर्वताम् ॥ ४०-४१ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः।
निर्विशेषमभूद् युद्धमक्षीणजवयोर्नृप॥
मूलम्
तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः।
निर्विशेषमभूद् युद्धमक्षीणजवयोर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जरासन्ध और भीमसेन दोनोंकी गदा-युद्धमें कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः।
दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्वन्निशि तिष्ठतोः॥
मूलम्
एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः।
दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्वन्निशि तिष्ठतोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों वीर रातके समय मित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और लड़ते। महाराज! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः।
न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव॥
मूलम्
एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः।
न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण! मैं युद्धमें जरासन्धको जीत नहीं सकता॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रोर्जन्ममृती विद्वान् जीवितं च जराकृतम्।
पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः॥
मूलम्
शत्रोर्जन्ममृती विद्वान् जीवितं च जराकृतम्।
पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोड़कर इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका संचार किया और जरासन्धके वधका उपाय सोचा॥ ४२॥
पार्थं भीमम् ॥४२-४८॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः।
दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया॥
मूलम्
सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः।
दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और इशारेसे भीमसेनको दिखाया॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः।
गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले॥
मूलम्
तद् विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः।
गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान् श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं पादं पदाऽऽक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः।
गुदतः पाटयामास शाखामिव महागजः॥
मूलम्
एकं पादं पदाऽऽक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः।
गुदतः पाटयामास शाखामिव महागजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके।
एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः॥
मूलम्
एकपादोरुवृषणकटिपृष्ठस्तनांसके।
एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोगोंने देखा कि जरासन्धके शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा,नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकारो महानासीन्निहते मगधेश्वरे।
पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्युतौ॥
मूलम्
हाहाकारो महानासीन्निहते मगधेश्वरे।
पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्युतौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा बड़े जोरसे ‘हाय-हाय!’ पुकारने लगी। भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिंगन करके उनका सत्कार किया॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहदेवं तत्तनयं भगवान् भूतभावनः।
अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः।
मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये॥
मूलम्
सहदेवं तत्तनयं भगवान् भूतभावनः।
अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः।
मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता। वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर उसके पुत्र सहदेवका अभिषेक कर दिया और जरासन्धने जिन राजाओंको कैदी बना रखा था, उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया॥ ४८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे जरासन्धवधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७२॥