[सप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान् श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास जरासन्धके कैदी राजाओंके दूतका आना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन्।
गृहीतकण्ठ्यः पतिभिर्माधव्यो विरहातुराः॥
मूलम्
अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन्।
गृहीतकण्ठ्यः पतिभिर्माधव्यो विरहातुराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठमें श्रीकृष्णने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोहकी आशंकासे व्याकुल हो जातीं और उन मुरगोंको कोसने लगतीं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयांस्यरूरुवन् कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः।
गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः॥
मूलम्
वयांस्यरूरुवन् कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः।
गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय पारिजातकी सुगन्धसे सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरे तालस्वरसे अपने संगीतकी तान छेड़ देते। पक्षियोंकी नींद उचट जाती और वे वंदीजनोंकी भाँति भगवान् श्रीकृष्णको जगानेके लिये मधुर स्वरसे कलरव करने लगते॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यदतिशोभनम्।
परिरम्भणविश्लेषात् प्रियबाह्वन्तरं गता॥
मूलम्
मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यदतिशोभनम्।
परिरम्भणविश्लेषात् प्रियबाह्वन्तरं गता॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मिणीजी अपने प्रियतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आलिंगन छूट जानेकी आशंकासे अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्तको भी असह्य समझने लगती थीं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्॥
मूलम्
ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः।
दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूपका ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठता था॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं
स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम्।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः
स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम्॥
मूलम्
एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं
स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम्।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाशहेतुभिः
स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकारकी उपाधि या उपाधिके कारण होनेवाला अन्य वस्तुका अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रियके द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित होती है, वैसे वह आत्मस्वरूप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूपमें ही सदा-सर्वदा और कालकी सीमाके परे भी एकरस स्थित रहनेके कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियोंके द्वारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्दस्वरूप है। उसीको समझानेके लिये ‘ब्रह्म’ नामसे कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूपका प्रतिदिन ध्यान करते॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एकं समाभ्यधिकरहितम् अद्वयं जात्यादिकल्पनारहितं स्वसंस्था स्वगतशक्तिभिर्लक्षितभाववृत्ति दृष्टया दृग्भिरुपलक्षितम् ॥ ५-१२ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि
क्रियाकलापं परिधाय वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो
हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः॥
मूलम्
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि
क्रियाकलापं परिधाय वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो
हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जलमें स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्यावन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्रीका जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषोंके पात्र आदर्श जो हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वाऽऽत्मनः कलाः।
देवानृषीन् पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान्॥
मूलम्
उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वाऽऽत्मनः कलाः।
देवानृषीन् पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान्॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
धेनूनां रुक्मशृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम्।
पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम्॥
मूलम्
धेनूनां रुक्मशृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम्।
पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम्॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह।
अलङ्कृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने॥
मूलम्
ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह।
अलङ्कृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद सूर्योदय होनेके समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करते। फिर कुलके बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाली सीधी-शान्त गौओंका दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियोंकी माला पहना दी जाती। सींगमें सोना और खुरोंमें चाँदी मढ़ दी जाती। वे ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिलके साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते॥ ७—९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोविप्रदेवतावृद्धगुरून् भूतानि सर्वशः।
नमस्कृत्यात्मसम्भूतीर्मङ्गलानि समस्पृशत्॥
मूलम्
गोविप्रदेवतावृद्धगुरून् भूतानि सर्वशः।
नमस्कृत्यात्मसम्भूतीर्मङ्गलानि समस्पृशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुलके बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियोंको प्रणाम करके मांगलिक वस्तुओंका स्पर्श करते॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम्।
वासोभिर्भूषणैः स्वीयैर्दिव्यस्रगनुलेपनैः॥
मूलम्
आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम्।
वासोभिर्भूषणैः स्वीयैर्दिव्यस्रगनुलेपनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यद्यपि भगवान्के शरीरका सहज सौन्दर्य ही मनुष्यलोकका अलंकार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पोंके हार और चन्दनादि दिव्य अंगरागसे अपनेको आभूषित करते॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः।
कामांश्च सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम्।
प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत॥
मूलम्
अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः।
कामांश्च सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम्।
प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे घी और दर्पणमें अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओंका दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुरमें रहनेवाले चारों वर्णोंके लोगोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी)प्रजाकी कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
संविभज्याग्रतो विप्रान् स्रक्ताम्बूलानुलेपनैः।
सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुङ्क्त ततः स्वयम्॥
मूलम्
संविभज्याग्रतो विप्रान् स्रक्ताम्बूलानुलेपनैः।
सुहृदः प्रकृतीर्दारानुपायुङ्क्त ततः स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियोंको बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काममें लाते॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विप्रान् सम्विभज्य सम्विभागेन प्रीणयित्वा ॥ १३-१६ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत् सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्भुतम्।
सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः॥
मूलम्
तावत् सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्भुतम्।
सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् यह सब करते होते, तबतक दारुक नामका सारथि सुग्रीव आदि घोड़ोंसे जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान्के सामने खड़ा हो जाता॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत्।
सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः॥
मूलम्
गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत्।
सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजीके साथ अपने हाथसे सारथिका हाथ पकड़कर रथपर सवार होते—ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान् सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः।
कृच्छ्राद् विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन् मनः॥
मूलम्
ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः।
कृच्छ्राद् विसृष्टो निरगाज्जातहासो हरन् मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रनिवासकी स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेमसे भरी चितवनसे उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्टसे उन्हें विदा करतीं। भगवान् मुसकराकर उनके चित्तको चुराते हुए महलसे निकलते॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः।
प्राविशद् यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः॥
मूलम्
सुधर्माख्यां सभां सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः।
प्राविशद् यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियोंके साथ सुधर्मा नामकी सभामें प्रवेश करते। उस सभाकी ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभामें जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु—ये छः ऊर्मियाँ नहीं सतातीं॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
षडूर्मयः अशनायापिपासाशोकमोहजरामृत्यदः ॥ १७-२६ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपविष्टः परमासने विभु-
र्बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन्।
वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो
यथोडुराजो दिवि तारकागणैः॥
मूलम्
तत्रोपविष्टः परमासने विभु-
र्बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन्।
वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो
यथोडुराजो दिवि तारकागणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण सब रानियोंसे अलग-अलग विदा होकर एक ही रूपमें सुधर्मा-सभामें प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासनपर विराज जाते। उनकी अंगकान्तिसे दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरोंके बीचमें यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा होती, जैसे आकाशमें तारोंसे घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपमन्त्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम्।
उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक्॥
मूलम्
तत्रोपमन्त्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम्।
उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सभामें विदूषकलोग विभिन्न प्रकारके हास्य-विनोदसे, नटाचार्य अभिनयसे और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्योंसे अलग-अलग अपनी टोलियोंके साथ भगवान्की सेवा करतीं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदङ्गवीणामुरजवेणुतालदरस्वनैः।
ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः॥
मूलम्
मृदङ्गवीणामुरजवेणुतालदरस्वनैः।
ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान्की स्तुति करते॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचिदासीना ब्रह्मवादिनः।
पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः॥
मूलम्
तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचिदासीना ब्रह्मवादिनः।
पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रोंकी व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियोंके चरित्र कह-कहकर सुनाते॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोऽपूर्वदर्शनः।
विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः॥
मूलम्
तत्रैकः पुरुषो राजन्नागतोऽपूर्वदर्शनः।
विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें राजसभाके द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालोंने भगवान्को उसके आनेकी सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः।
राज्ञामावेदयद् दुःखं जरासन्धनिरोधजम्॥
मूलम्
स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः।
राज्ञामावेदयद् दुःखं जरासन्धनिरोधजम्॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः।
प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरिव्रजे॥
मूलम्
ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः।
प्रसह्य रुद्धास्तेनासन्नयुते द्वे गिरिव्रजे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मनुष्यने परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्धके दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दुःख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया—॥ २३-२४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन।
वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः॥
मूलम्
कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन।
वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै॥
मूलम्
लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः
कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे।
यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां
सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासनासे विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओंमें भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूपसे सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालताका तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूपको नमस्कार करते हैं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः
सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः।
कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश
किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः॥
मूलम्
लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः
सद्रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः।
कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश
किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत्में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। ऐसी अवस्थामें प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञाके विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझमें नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमें—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कश्चित् किं त्वदीयं निदेशनम् आज्ञाम् अतियाति किम्वा तन्निरपेक्ष एव जनः स्वकर्मानुभवति तन्न विन्नः कर्मानुगुणमीश्वरो नियच्छतीत्यविरोधनिष्कर्षस्य दुर्विज्ञेयत्वमुक्तं भवति ॥ २७ ॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीश
शश्वद्भयेन मृतकेन धुरं वहामः।
हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं
क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह॥
मूलम्
स्वप्नायितं नृपसुखं परतन्त्रमीश
शश्वद्भयेन मृतकेन धुरं वहामः।
हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं
क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्नसुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्तःकरणके निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृतकेन शरीरेण धुरं वहामः शरीराख्यभरं वहामः ॥ २८ ॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्घ्रियुग्मो
बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात्।
यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको
बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः॥
मूलम्
तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्घ्रियुग्मो
बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात्।
यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको
बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता है और हमलोगोंको उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ोंको घेर रखे॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वियुङ्क्ष्व वियोजय अवीन् अजान् ॥ २९-३० ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र
भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम्।
जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो
युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद् विधेहि॥
मूलम्
यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र
भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम्।
जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो
युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद् विधेहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
चक्रपाणे! आपने अठारह बार जरासन्धसे युद्ध किया और सत्रह बार उसका मानमर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते हुए आपने हारनेका अभिनय किया। परन्तु इसीसे उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हमलोगोंको और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’॥ ३०॥
श्लोक-३१
मूलम् (वचनम्)
दूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्क्षिणः।
प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम्॥
मूलम्
इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्क्षिणः।
प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूतने कहा—भगवन्! जरासन्धके बंदी नरपतियोंने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलोंकी शरणमें हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनोंका कल्याण कीजिये॥ ३१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शं सुखम् ॥ ३१-३५ ॥
श्लोक-३२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः।
बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः॥
मूलम्
राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः।
बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजाओंका दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि परमतेजस्वी देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। उनकी सुनहरी जटाएँ चमक रही थीं। उन्हें देखकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो साक्षात् भगवान् सूर्य ही उदय हो गये हों॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः।
ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः।
ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा आदि समस्त लोकपालोंके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही सभासदों और सेवकोंके साथ हर्षित होकर उठ खड़े हुए और सिर झुकाकर उनकी वन्दना करने लगे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम्।
बभाषे सूनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम्॥
मूलम्
सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम्।
बभाषे सूनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब देवर्षि नारद आसन स्वीकार करके बैठ गये, तब भगवान्ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और अपनी श्रद्धासे उनको सन्तुष्ट करते हुए वे मधुर वाणीसे बोले—॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम्।
ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः॥
मूलम्
अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणामकुतोभयम्।
ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवर्षे! इस समय तीनों लोकोंमें कुशल-मंगल तो है न’? आप तीनों लोकोंमें विचरण करते रहते हैं, इससे हमें यह बहुत बड़ा लाभ है कि घर बैठे सबका समाचार मिल जाता है॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि तेऽविदितं किञ्चिल्लोकेष्वीश्वरकर्तृषु।
अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम्॥
मूलम्
न हि तेऽविदितं किञ्चिल्लोकेष्वीश्वरकर्तृषु।
अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईश्वरके द्वारा रचे हुए तीनों लोकोंमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों। अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव इस समय क्या करना चाहते हैं?’॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईश्वरकर्तृषु श्रीभगवत्प्रेरितचिन्तितादिसकलकर्मसु ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
श्रीनारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टा मया ते बहुशो दुरत्यया
माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः।
भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभि-
र्वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्भुतम्॥
मूलम्
दृष्टा मया ते बहुशो दुरत्यया
माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः।
भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभि-
र्वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवर्षि नारदजीने कहा—सर्वव्यापक अनन्त! आप विश्वके निर्माता हैं और इतने बड़े मायावी हैं कि बड़े-बड़े मायावी ब्रह्माजी आदि भी आपकी मायाका पार नहीं पा सकते? प्रभो! आप सबके घट-घटमें अपनी अचिन्त्य शक्तिसे व्याप्त रहते हैं—ठीक वैसे ही; जैसे अग्नि लकड़ियोंमें अपनेको छिपाये रखता है। लोगोंकी दृष्टि सत्त्व आदि गुणोंपर ही अटक जाती है, इससे आपको वे नहीं देख पाते। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार आपकी माया देखी है। इसलिये आप जो यों अनजान बनकर पाण्डवोंका समाचार पूछते हैं, इससे मुझे कोई कौतूहल नहीं हो रहा है॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मायाः आश्चर्यशक्तयः ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं
स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः।
यद् विद्यमानात्मतयावभासते
तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने॥
मूलम्
तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं
स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः।
यद् विद्यमानात्मतयावभासते
तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप अपनी मायासे ही इस जगत्की रचना और संहार करते हैं, और आपकी मायाके कारण ही यह असत्य होनेपर भी सत्यके समान प्रतीत होता है। आप कब क्या करना चाहते हैं, यह बात भलीभाँति कौन समझ सकता है। आपका स्वरूप सर्वथा अचिन्तनीय है। मैं तो केवल बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विद्यमानात्मतया जन्मादिविकाररहिततया अवभासते यत् तत्सदा अस्स्येव अध्यवसीय स्वतो विलक्षणस्य चिदचिद्वस्तुनः आत्मने शरीरिणे अस्वविलक्षणात्मने न स्वस्मात् स्वरूपात् विलक्षणः आत्मा बिग्रहो मस्थ तस्मै ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं
न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः।
लीलावतारैः स्वयशःप्रदीपकं
प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये॥
मूलम्
जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं
न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः।
लीलावतारैः स्वयशःप्रदीपकं
प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर और इससे सम्बन्ध रखनेवाली वासनाओंमें फँसकर जीव जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकता रहता है तथा यह नहीं जानता कि मैं इस शरीरसे कैसे मुक्त हो सकता हूँ। वास्तवमें उसीके हितके लिये आप नाना प्रकारके लीलावतार ग्रहण करके अपने पवित्र यशका दीपक जला देते हैं, जिसके सहारे वह इस अनर्थकारी शरीरसे मुक्त हो सके। इसलिये मैं आपकी शरणमें हूँ॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनर्थवहात् दुःखवहाच्छरीरात् प्रज्वालय सम्प्रकाशय ॥ ३९-४२ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम्।
राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम्॥
मूलम्
अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम्।
राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप स्वयं परब्रह्म हैं, तथापि मनुष्योंकी-सी लीलाका नाट्य करते हुए मुझसे पूछ रहे हैं। इसलिये आपके फुफेरे भाई और प्रेमी भक्त राजा युधिष्ठिर क्या करना चाहते हैं, यह बात मैं आपको सुनाता हूँ॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः।
पारमेष्ठ्यकामो नृपतिस्तद् भवाननुमोदताम्॥
मूलम्
यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः।
पारमेष्ठ्यकामो नृपतिस्तद् भवाननुमोदताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्मलोकमें किसीको जो भोग प्राप्त हो सकता है, वह राजा युधिष्ठिरको यहीं प्राप्त है। उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। फिर भी वे श्रेष्ठ यज्ञ राजसूयके द्वारा आपकी प्राप्तिके लिये आपकी आराधना करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषाका अनुमोदन कीजिये॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः।
दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः॥
मूलम्
तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः।
दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! उस श्रेष्ठ यज्ञमें आपका दर्शन करनेके लिये बड़े-बड़े देवता और यशस्वी नरपतिगण एकत्र होंगे॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः।
तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः॥
मूलम्
श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः।
तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्तेवसायिनश्चण्डाला: ईक्षाभिमर्शिनः चक्षुषा पश्यन्तः ॥ ४३-४४ ॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां
भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम्।
मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो
गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम्॥
मूलम्
यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां
भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम्।
मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो
गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिभुवन-मंगल! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मर्त्यलोकमें गंगाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है॥ ४४॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृह्णत्सु विजिगीषया।
वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः॥
मूलम्
तत्र तेष्वात्मपक्षेष्वगृह्णत्सु विजिगीषया।
वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सभामें जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बातके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्धपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अतः उन्हें नारदजीकी बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदिके शासक भगवान् श्रीकृष्णने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणीमें उद्धवजीसे कहा—॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अगृणत्सु जिगीषया स्वानपेक्षया अन्येषु राजसूयगमनपरेषु क्ष्वेडनं कुर्वत्सु ॥ ४५-४७ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन्मन्त्रार्थतत्त्ववित्।
तथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत्॥
मूलम्
त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन्मन्त्रार्थतत्त्ववित्।
तथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे’॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युपामन्त्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत्।
निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत॥
मूलम्
इत्युपामन्त्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत्।
निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उद्धवजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजानकी तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले॥ ४७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारे सप्ततितमोऽध्यायः॥ ७०॥