६९ कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनम्

[एकोनसप्ततितमोऽध्यायः]

भागसूचना

देवर्षि नारदजीका भगवान‍्की गृहचर्या देखना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम्।
कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः॥

मूलम्

नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम्।
कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षुः स्म नारदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवर्षि नारदने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियोंके साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मनमें भगवान‍्की रहन-सहन देखनेकी बड़ी अभिलाषा हुई॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत् पृथक्।
गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत्॥

मूलम्

चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत् पृथक्।
गृहेषु द्व्यष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोचने लगे—अहो, यह कितने आश्चर्यकी बात है कि भगवान् श्रीकृष्णने एक ही शरीरसे एक ही समय सोलह हजार महलोंमें अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियोंका पाणिग्रहण किया॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत्।
पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम्॥

मूलम्

इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत्।
पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारद इस उत्सुकतासे प्रेरित होकर भगवान‍्की लीला देखनेके लिये द्वारका आ पहुँचे। वहाँके उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पोंसे लदे वृक्षोंसे परिपूर्ण थे, उनपर तरह-तरहके पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्फुल्लेन्दीवराम्भोजकह्लारकुमुदोत्पलैः।
छुरितेषु सरस्सूच्चैः कूजितां हंससारसैः॥

मूलम्

उत्फुल्लेन्दीवराम्भोजकह्लारकुमुदोत्पलैः।
छुरितेषु सरस्सूच्चैः कूजितां हंससारसैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मल जलसे भरे सरोवरोंमें नीले, लाल और सफेद रंगके भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोईं) और नवजात कमलोंकी मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उनमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः।
महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥

मूलम्

प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतैः।
महामरकतप्रख्यैः स्वर्णरत्नपरिच्छदैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारकापुरीमें स्फटिकमणि और चाँदीके नौ लाख महल थे। वे फर्श आदिमें जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभासे जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरोंकी बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः
शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः।
संसिक्तमार्गाङ्गणवीथिदेहलीं
पतत्पताकाध्वजवारितातपाम्॥

मूलम्

विभक्तरथ्यापथचत्वरापणैः
शालासभाभी रुचिरां सुरालयैः।
संसिक्तमार्गाङ्गणवीथिदेहलीं
पतत्पताकाध्वजवारितातपाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओंके रहनेके स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरोंके कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों, चौक, गली और दरवाजोंपर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तोंपर धूप नहीं आ पाती थी॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः।
हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्ट्रा कात्‍स्‍न्‍‍‍र्येन दर्शितम्॥

मूलम्

तस्यामन्तःपुरं श्रीमदर्चितं सर्वधिष्ण्यपैः।
हरेः स्वकौशलं यत्र त्वष्ट्रा कात्‍स्‍न्‍‍‍र्येन दर्शितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी द्वारकानगरीमें भगवान् श्रीकृष्णका बहुत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करनेमें विश्वकर्माने अपना सारा कला-कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र षोडशभिः सद्मसहस्रैः समलङ्कृतम्।
विवेशैकतमं शौरेः पत्नीनां भवनं महत्॥

मूलम्

तत्र षोडशभिः सद्मसहस्रैः समलङ्कृतम्।
विवेशैकतमं शौरेः पत्नीनां भवनं महत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अन्तःपुर (रनिवास) में भगवान‍्की रानियोंके सोलह हजारसे अधिक महल शोभायमान थे, उनमेंसे एक बड़े भवनमें देवर्षि नारदजीने प्रवेश किया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्टब्धं विद्रुमस्तम्भैर्वैदूर्यफलकोत्तमैः।
इन्द्रनीलमयैः कुड्यैर्जगत्या चाहतत्विषा॥

मूलम्

विष्टब्धं विद्रुमस्तम्भैर्वैदूर्यफलकोत्तमैः।
इन्द्रनीलमयैः कुड्यैर्जगत्या चाहतत्विषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महलमें मूँगोंके खम्भे, वैदूर्यके उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणिकी दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँकी गचें भी ऐसी इन्द्र-नीलमणियोंसे बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः।
दान्तैरासनपर्यङ्कैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥

मूलम्

वितानैर्निर्मितैस्त्वष्ट्रा मुक्तादामविलम्बिभिः।
दान्तैरासनपर्यङ्कैर्मण्युत्तमपरिष्कृतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वकर्माने बहुत-से ऐसे चँदोवे बना रखे थे, जिनमें मोतीकी लड़ियोंकी झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँतके बने हुए आसन और पलँग थे, जिनमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम्।
पुम्भिः सकञ्चुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥

मूलम्

दासीभिर्निष्ककण्ठीभिः सुवासोभिरलङ्कृतम्।
पुम्भिः सकञ्चुकोष्णीषसुवस्त्रमणिकुण्डलैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-सी दासियाँ गलेमें सोनेका हार पहने और सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये अपने-अपने काममें व्यस्त थे और महलकी शोभा बढ़ा रहे थे॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त-
ध्वान्तं विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग।
नृत्यन्ति यत्र विहितागुरुधूपमक्षै-
र्निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥

मूलम्

रत्नप्रदीपनिकरद्युतिभिर्निरस्त-
ध्वान्तं विचित्रवलभीषु शिखण्डिनोऽङ्ग।
नृत्यन्ति यत्र विहितागुरुधूपमक्षै-
र्निर्यान्तमीक्ष्य घनबुद्धय उन्नदन्तः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहटसे उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगरकी धूप देनेके कारण झरोखोंसे धूआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जोंपर बैठे हुए मोर बादलोंके भ्रमसे कूक-कूककर नाचने लगते॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् समानगुणरूपवयस्सुवेष-
दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या।
विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्म-
दण्डेन सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या॥

मूलम्

तस्मिन् समानगुणरूपवयस्सुवेष-
दासीसहस्रयुतयानुसवं गृहिण्या।
विप्रो ददर्श चमरव्यजनेन रुक्म-
दण्डेन सात्वतपतिं परिवीजयन्त्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदजीने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महलकी स्वामिनी रुक्मिणीजीके साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान‍्को सोनेकी डाँड़ीवाले चँवरसे हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महलमें रुक्मिणीजीके समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषावाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सन्निरीक्ष्य भगवान् सहसोत्थितः श्री-
पर्यङ्कतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः।
आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीट-
जुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥

मूलम्

तं सन्निरीक्ष्य भगवान् सहसोत्थितः श्री-
पर्यङ्कतः सकलधर्मभृतां वरिष्ठः।
आनम्य पादयुगलं शिरसा किरीट-
जुष्टेन साञ्जलिरवीविशदासने स्वे॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीको देखते ही समस्त धार्मिकोंके मुकुटमणि भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगसे सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारदके युगलचरणोंमें मुकुटयुक्त सिरसे प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसनपर बैठाया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना
बिभ्रज्जगद‍्गुरुतरोऽपि सतां पतिर्हि।
ब्रह्मण्यदेव इति यद‍्गुणनाम युक्तं
तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥

मूलम्

तस्यावनिज्य चरणौ तदपः स्वमूर्ध्ना
बिभ्रज्जगद‍्गुरुतरोऽपि सतां पतिर्हि।
ब्रह्मण्यदेव इति यद‍्गुणनाम युक्तं
तस्यैव यच्चरणशौचमशेषतीर्थम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्ण चराचर जगत‍्के परम गुरु हैं और उनके चरणोंका धोवन गंगाजल सारे जगत‍्को पवित्र करनेवाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतोंके परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुणके अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं ही नारदजीके पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिरपर धारण किया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्पूज्य देवऋषिवर्यमृषिः पुराणो
नारायणो नरसखो विधिनोदितेन।
वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तं
प्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम्॥

मूलम्

सम्पूज्य देवऋषिवर्यमृषिः पुराणो
नारायणो नरसखो विधिनोदितेन।
वाण्याभिभाष्य मितयामृतमिष्टया तं
प्राह प्रभो भगवते करवाम हे किम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरशिरोमणि नरके सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान् नारायणने शास्त्रोक्त विधिसे देवर्षिशिरोमणि भगवान् नारदकी पूजा की। इसके बाद अमृतसे भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दोंमें उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा—‘प्रभो! आप तो स्वयं समग्र ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्यसे पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें’?॥ १६॥

श्लोक-१७

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवाद‍्भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे
मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्।
निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां
स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥

मूलम्

नैवाद‍्भुतं त्वयि विभोऽखिललोकनाथे
मैत्री जनेषु सकलेषु दमः खलानाम्।
निःश्रेयसाय हि जगत्स्थितिरक्षणाभ्यां
स्वैरावतार उरुगाय विदाम सुष्ठु॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदने कहा—भगवन्! आप समस्त लोकोंके एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनोंसे प्रेम करते हैं और दुष्टोंको दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो! आपने जगत‍्की स्थिति और रक्षाके द्वारा समस्त जीवोंका कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे अवतार ग्रहण किया है। भगवन्! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नरनारायणीयं हि वैभवं वर्णयन् मुनिः । कृष्णं नारायणञ्चाहानन्तमूर्ति स्वशेषिणम् ॥
स्थितिः रक्षणञ्च विरोधिनिरसनं ताभ्यां तदर्थं निःश्रेयसाय मोक्षप्रदानाय स्वैरावतारः स्वेच्छावतारः ॥ १७-१८ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टं तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं
ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात्॥

मूलम्

दृष्टं तवाङ्घ्रियुगलं जनतापवर्गं
ब्रह्मादिभिर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
ध्यायंश्चराम्यनुगृहाण यथा स्मृतिः स्यात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलोंके दर्शन हुए हैं। आपके ये चरणकमल सम्पूर्ण जनताको परम साम्य, मोक्ष देनेमें समर्थ हैं। जिनके ज्ञानकी कोई सीमा ही नहीं है, वे ब्रह्मा, शंकर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदयमें उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तवमें वे श्रीचरण ही संसाररूप कूएँमें गिरे हुए लोगोंको बाहर निकलनेके लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलोंकी स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ जैसे रहूँ, उनके ध्यानमें तन्मय रहूँ॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्यदाविशद् गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः।
योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया॥

मूलम्

ततोऽन्यदाविशद् गेहं कृष्णपत्न्याः स नारदः।
योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका रहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महलमें गये॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

योगमाया आश्चर्यशक्तिः ॥ १९-४४ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च।
पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः॥

मूलम्

दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च।
पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजीके साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान‍्ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियोंद्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति।
क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णैरस्मदादिभिः॥

मूलम्

पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति।
क्रियते किं नु पूर्णानामपूर्णैरस्मदादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान‍्ने नारदजीसे अनजानकी तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण आत्माराम—आप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु।
स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद् गृहम्॥

मूलम्

अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु।
स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद् गृहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’ नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुताञ्छिशून्।
ततोऽन्यस्मिन् गृहेऽपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यमम्॥

मूलम्

तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुताञ्छिशून्।
ततोऽन्यस्मिन् गृहेऽपश्यन्मज्जनाय कृतोद्यमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः।
भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम्॥

मूलम्

जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः।
भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इसी प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न महलोंमें भगवान‍्को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञकुण्डोंमें हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम्।
एकत्र चासिचर्मभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु॥

मूलम्

क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम्।
एकत्र चासिचर्मभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके पैतरे बदल रहे हैं॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वैर्गजैः रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम्।
क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः॥

मूलम्

अश्वैर्गजैः रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम्।
क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रयन्तं च कस्मिंश्चिन्मन्त्रिभिश्चोद्धवादिभिः।
जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम्॥

मूलम्

मन्त्रयन्तं च कस्मिंश्चिन्मन्त्रिभिश्चोद्धवादिभिः।
जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वारांगनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुत्रचिद् द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः।
इतिहासपुराणानि शृण्वन्तं मङ्गलानि च॥

मूलम्

कुत्रचिद् द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः।
इतिहासपुराणानि शृण्वन्तं मङ्गलानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मंगलमय इतिहास-पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

हसन्तं हास्यकथया कदाचित् प्रियया गृहे।
क्वापि धर्मं सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित्॥

मूलम्

हसन्तं हास्यकथया कदाचित् प्रियया गृहे।
क्वापि धर्मं सेवमानमर्थकामौ च कुत्रचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं किसी पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैं—धनसंग्रह और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम्।
शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया॥

मूलम्

ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम्।
शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम्।
कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम्॥

मूलम्

कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम्।
कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान् बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषोंके कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम्।
दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः॥

मूलम्

पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम्।
दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके सदृश पत्नी और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रस्थापनोपानयनैरपत्यानां महोत्सवान्।
वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे॥

मूलम्

प्रस्थापनोपानयनैरपत्यानां महोत्सवान्।
वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी लोग विस्मित—चकित हो जाते थे॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः।
पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूपाराममठादिभिः॥

मूलम्

यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः।
पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूपाराममठादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा समस्त देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ , बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम्।
घ्नन्तं ततः पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः॥

मूलम्

चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम्।
घ्नन्तं ततः पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढ़कर मृगया कर रहे हैं, इस प्रकार यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका संग्रह कर रहे हैं॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यक्तलिङ्गं प्रकृतिष्वन्तःपुरगृहादिषु।
क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद‍्भावबुभुत्सया॥

मूलम्

अव्यक्तलिङ्गं प्रकृतिष्वन्तःपुरगृहादिषु।
क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद‍्भावबुभुत्सया॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कहीं प्रजामें तथा अन्तःपुरके महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान् योगेश्वर जो हैं॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव।
योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषो गतिम्॥

मूलम्

अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव।
योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीमीयुषो गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा—॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम्।
योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया॥

मूलम्

विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम्।
योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘योगेश्वर! आत्मदेव! आपकी योगमाया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान्।
पर्यटामि तवोद‍्गायन् लीलां भुवनपावनीम्॥

मूलम्

अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान्।
पर्यटामि तवोद‍्गायन् लीलां भुवनपावनीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन्! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरण करूँ’॥ ३९॥

श्लोक-४०

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मन् धर्मस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता।
तच्छिक्षयँल्लोकमिममास्थितः पुत्र मा खिदः॥

मूलम्

ब्रह्मन् धर्मस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता।
तच्छिक्षयँल्लोकमिममास्थितः पुत्र मा खिदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवर्षि नारदजी! मैं ही धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना॥ ४०॥

श्लोक-४१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम्।
तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह॥

मूलम्

इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम्।
तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग देखा॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम्।
मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः॥

मूलम्

कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम्।
मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना।
सम्यक् सभाजितः प्रीतस्तमेवानुस्मरन् ययौ॥

मूलम्

इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना।
सम्यक् सभाजितः प्रीतस्तमेवानुस्मरन् ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंमें उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान‍्का स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो
नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः।
रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां
सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः॥

मूलम्

एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो
नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः।
रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां
सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भगवान् नारायण सारे जगत‍्के कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ॥ ४४ ॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पूर्वं बदरिकाश्रमे तवाग्रे स्वस्य नारायणत्वात् ॥ ४४ ॥

श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्दे श्री सुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानीह विश्वविलयोद‍्भववृत्तिहेतुः
कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार।
यस्त्वङ्ग गायति शृणोत्यनुमोदते वा
भक्तिर्भवेद् भगवति ह्यपवर्गमार्गे॥

मूलम्

यानीह विश्वविलयोद‍्भववृत्तिहेतुः
कर्माण्यनन्यविषयाणि हरिश्चकार।
यस्त्वङ्ग गायति शृणोत्यनुमोदते वा
भक्तिर्भवेद् भगवति ह्यपवर्गमार्गे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित्! वे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है॥ ४५॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनं नामैकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥ ६९॥