६७ द्विविदवधः

[सप्तषष्टितमोऽध्यायः]

भागसूचना

द्विविदका उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद‍्भुतकर्मणः।
अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः॥

मूलम्

भूयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद‍्भुतकर्मणः।
अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवान् बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलयकी सीमासे परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणीके विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादासे विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद‍्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानरः।
सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान्॥

मूलम्

नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानरः।
सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! द्विविद नामका एक वानर था। वह भौमासुरका सखा, सुग्रीवका मन्त्री और मैन्दका शक्तिशाली भाई था॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम्।
पुरग्रामाकरान् घोषानदहद् वह्निमुत्सृजन्॥

मूलम्

सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम्।
पुरग्रामाकरान् घोषानदहद् वह्निमुत्सृजन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसने सुना कि श्रीकृष्णने भौमासुरको मार डाला, तब वह अपने मित्रकी मित्रताके ऋणसे उऋण होनेके लिये राष्ट्र-विप्लव करनेपर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरोंकी बस्तियोंमें आग लगाकर उन्हें जलाने लगा॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत्।
आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः॥

मूलम्

क्वचित् स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत्।
आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ोंको उखाड़कर उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देशमें ही करता था। क्योंकि उसके मित्रको मारनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण उसी देशमें निवास करते थे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचित् समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्य तज्जलम्।
देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूलानमज्जयत्॥

मूलम्

क्वचित् समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यामुत्क्षिप्य तज्जलम्।
देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूलानमज्जयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विविद वानरमें दस हजार हाथियोंका बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्रमें खड़ा हो जाता और हाथोंसे इतना जल उछालता कि समुद्रतटके देश डूब जाते॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन्।
अदूषयच्छकृन्मूत्रैरग्नीन् वैतानिकान् खलः॥

मूलम्

आश्रमानृषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन्।
अदूषयच्छकृन्मूत्रैरग्नीन् वैतानिकान् खलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंकी सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियोंको तोड़-मरोड़कर चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्निकुण्डोंमें मलमूत्र डालकर अग्नियोंको दूषित कर देता॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्‍द्रोणीगुहासु सः।
निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्कारीव कीटकम्॥

मूलम्

पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्‍द्रोणीगुहासु सः।
निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्कारीव कीटकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भृंगी नामका कीड़ा दूसरे कीड़ोंको ले जाकर अपने बिलमें बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषोंको ले जाकर पहाड़ोंकी घाटियों तथा गुफाओंमें डाल देता। फिर बाहरसे बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः।
श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ॥

मूलम्

एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः।
श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह देशवासियोंका तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियोंको भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वतपर गया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापश्यद् यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम्।
सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम्॥

मूलम्

तत्रापश्यद् यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम्।
सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियोंके झुंडमें विराजमान हैं। उनका एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्षःस्थलपर कमलोंकी माला लटक रही है॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम्।
विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम्॥

मूलम्

गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम्।
विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्मादसे विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टः शाखामृगः शाखामारूढः कम्पयन् द्रुमान्।
चक्रे किलकिलाशब्दमात्मानं सम्प्रदर्शयन्॥

मूलम्

दुष्टः शाखामृगः शाखामारूढः कम्पयन् द्रुमान्।
चक्रे किलकिलाशब्दमात्मानं सम्प्रदर्शयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दुष्ट वानर वृक्षोंकी शाखाओंपर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता। कभी स्त्रियोंके सामने आकर किलकारी भी मारने लगता॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः।
हास्यप्रिया विजहसुर्बलदेवपरिग्रहाः॥

मूलम्

तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः।
हास्यप्रिया विजहसुर्बलदेवपरिग्रहाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

युवती स्त्रियाँ स्वभावसे ही चंचल और हास-परिहासमें रुचि रखनेवाली होती हैं। बलरामजीकी स्त्रियाँ उस वानरकी ढिठाई देखकर हँसने लगीं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता हेलयामास कपिर्भ्रूक्षेपैः सम्मुखादिभिः।
दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षतः॥

मूलम्

ता हेलयामास कपिर्भ्रूक्षेपैः सम्मुखादिभिः।
दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब वह वानर भगवान् बलरामजीके सामने ही उन स्त्रियोंकी अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुँह बनाता, घुड़कता॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं ग्राव्णा प्राहरत् क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः।
स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः॥

मूलम्

तं ग्राव्णा प्राहरत् क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः।
स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन्।
निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद् बलम्॥

मूलम्

गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन्।
निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद् बलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उसपर पत्थरका एक टुकड़ा फेंका। परन्तु द्विविदने उससे अपनेको बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजीकी अवहेलना करने लगा। उस धूर्तने मधुकलशको तो फोड़ ही डाला, स्त्रियोंके वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजीको क्रोधित करने लगा॥ १४-१५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हेलयामास अपराधेन कलुषीचकार ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः।
तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान्॥

मूलम्

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः।
तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान्॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विप्रचक्रे विकारः अनिष्टाचरणम् ॥ १६-१८ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया।
द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना॥

मूलम्

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया।
द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत्।
तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा॥

मूलम्

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत्।
तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम्।
मुसलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया॥

मूलम्

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम्।
मुसलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सुनन्देनाहनत् मुसलेनाहनत् ॥ १९-२३ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन्।
पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा॥

मूलम्

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन्।
पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनाहनत् सुसंक्रुद्धस्तं बलः शतधाच्छिनत्।
ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत्॥

मूलम्

तेनाहनत् सुसंक्रुद्धस्तं बलः शतधाच्छिनत्।
ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौड़कर बलरामजीके सिरपर उसे दे मारा। भगवान् बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसलसे उसपर प्रहार किया। मूसल लगनेसे द्विविदका मस्तक फट गया और उससे खूनकी धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वतसे गेरूका सोता बह रहा हो। परन्तु द्विविदने अपने सिर फटनेकी कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूड़कर बिना पत्तेका कर दिया और फिर उससे बलरामजीपर बड़े जोरका प्रहार किया।
बलरामजीने उस वृक्षके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविदने बड़े क्रोधसे दूसरा वृक्ष चलाया, परन्तु भगवान् बलरामजीने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया॥ १६—२१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः।
आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षमकरोद् वनम्॥

मूलम्

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः।
आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षमकरोद् वनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्षके टूट जानेपर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करनेकी चेष्टा करता। इस तरह सब ओरसे वृक्ष उखाड़-उखाड़कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वनको ही वृक्षहीन कर दिया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः।
तत् सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः॥

मूलम्

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः।
तत् सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृक्ष न रहे, तब द्विविदका क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढ़कर बलरामजीके ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानोंकी वर्षा करने लगा। परन्तु भगवान् बलरामजीने अपने मूसलसे उन सभी चट्टानोंको खेल-खेलमें ही चकनाचूर कर दिया॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः।
आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत्॥

मूलम्

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः।
आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें कपिराज द्विविद अपनी ताड़के समान लम्बी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अरूरुजत् अयोथवत् ॥ २४-२८ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्वे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन्॥

मूलम्

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब यदुवंश-शिरोमणि बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रु–स्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः।
पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि॥

मूलम्

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः।
पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे।
सुरसिद्धमुनीन्द्राणामासीत् कुसुमवर्षिणाम्॥

मूलम्

जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे।
सुरसिद्धमुनीन्द्राणामासीत् कुसुमवर्षिणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें देवता लोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो नमः’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निहत्य द्विविदं जगद्‍व्यतिकरावहम्।
संस्तूयमानो भगवाञ्जनैः स्वपुरमाविशत्॥

मूलम्

एवं निहत्य द्विविदं जगद्‍व्यतिकरावहम्।
संस्तूयमानो भगवाञ्जनैः स्वपुरमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! द्विविदने जगत‍्में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अतः भगवान् बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरीमें लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान् बलरामकी प्रशंसा कर रहे थे॥ २८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥ ६७॥