[षट्षष्टितमोऽध्यायः]
भागसूचना
पौण्ड्रक और काशिराजका उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप।
वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत्॥
मूलम्
नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप।
वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् बलरामजी नन्दबाबाके व्रजमें गये हुए थे, तब पीछेसे करूष देशके अज्ञानी राजा पौण्ड्रकने भगवान् श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान् वासुदेव मैं हूँ’॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं वासुदेवो भगवानवतीर्णो जगत्पतिः।
इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम्॥
मूलम्
त्वं वासुदेवो भगवानवतीर्णो जगत्पतिः।
इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान् वासुदेव हैं और जगत्की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान् मान बैठा॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने।
द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः॥
मूलम्
दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने।
द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बच्चे आपसमें खेलते समय किसी बालकको ही राजा मान लेते हैं और वह राजाकी तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रकने अचिन्त्यगति भगवान् श्रीकृष्णकी लीला और रहस्य न जानकर द्वारकामें उनके पास दूत भेज दिया॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यथा बाला अङ्गतुल्यः बालकृतोऽबुधः बालैरज्ञैरबुधः कृतः ॥ १-७ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्।
कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत्॥
मूलम्
दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्।
कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पौण्ड्रकका दूत द्वारका आया और राजसभामें बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको उसने अपने राजाका यह सन्देश कह सुनाया—॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवोऽवतीर्णोऽहमेक एव न चापरः।
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज॥
मूलम्
वासुदेवोऽवतीर्णोऽहमेक एव न चापरः।
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद् बिभर्षि सात्वत।
त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद् देहि ममाहवम्॥
मूलम्
यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद् बिभर्षि सात्वत।
त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद् देहि ममाहवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुवंशी! तुमने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरणमें आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’॥ ६॥
श्लोक-७
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः।
उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा॥
मूलम्
कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः।
उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मन्दमति पौण्ड्रककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच दूतं भगवान् परिहासकथामनु।
उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे॥
मूलम्
उवाच दूतं भगवान् परिहासकथामनु।
उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यैर्विकत्थसे मन्निमित्तं विकत्थसे ॥ ८-१२ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः।
शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम्॥
मूलम्
मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः।
शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन लोगोंकी हँसी समाप्त होनेके बाद भगवान् श्रीकृष्णने दूतसे कहा—‘तुम जाकर अपने राजासे कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोड़ूँगा। इन्हें मैं तुझपर छोड़ूँगा और केवल तुझपर ही नहीं, तेरे उन सब साथियोंपर भी, जिनके बहकानेसे तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर—औंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियोंसे घिरकर सो जायगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तोंकी शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथकर खा जायँगे’॥ ८-९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति दूतस्तदाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्।
कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह॥
मूलम्
इति दूतस्तदाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्।
कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रकका दूत अपने स्वामीके पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान् श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था)॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः।
अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद् द्रुतम्॥
मूलम्
पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः।
अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद् द्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य काशिपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप।
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत् पौण्ड्रकं हरिः॥
मूलम्
तस्य काशिपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप।
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत् पौण्ड्रकं हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशीका राजा पौण्ड्रकका मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्! अब भगवान् श्रीकृष्णने पौण्ड्रकको देखा॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम्।
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम्॥
मूलम्
शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम्।
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पौण्ड्रकने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थलपर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अरि अरयुक्तं चक्रम् ॥ १३-१९ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्।
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
मूलम्
कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्।
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथकी ध्वजापर गरुड़का चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिरपर अमूल्य मुकुट था और कानोंमें मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यवेषं कृत्रिममास्थितम्।
यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरिः॥
मूलम्
दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यवेषं कृत्रिममास्थितम्।
यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः।
असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम्॥
मूलम्
शूलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः।
असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब शत्रुओंने भगवान् श्रीकृष्णपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार किया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयो-
र्बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्।
गदासिचक्रेषुभिरार्दयद् भृशं
यथा युगान्ते हुतभुक् पृथक् प्रजाः॥
मूलम्
कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयो-
र्बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्।
गदासिचक्रेषुभिरार्दयद् भृशं
यथा युगान्ते हुतभुक् पृथक् प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रलयके समय जिस प्रकार आग सभी प्रकारके प्राणियोंको जला देती है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रोंसे पौण्ड्रक तथा काशिराजके हाथी, रथ, घोड़े और पैदलकी चतुरंगिणी सेनाको तहस-नहस कर दिया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयोधनं तद्रथवाजिकुञ्जर-
द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः।
बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-
माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम्॥
मूलम्
आयोधनं तद्रथवाजिकुञ्जर-
द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः।
बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-
माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह रणभूमि भगवान्के चक्रसे खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटोंसे पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकरकी भयंकर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरोंका उत्साह और भी बढ़ रहा था॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भोः पौण्ड्रक यद् भवान्।
दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते॥
मूलम्
अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भोः पौण्ड्रक यद् भवान्।
दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्राण्युत्सृजामि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब भगवान् श्रीकृष्णने पौण्ड्रकसे कहा—‘रे पौण्ड्रक! तूने दूतके द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझपर छोड़ रहा हूँ॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्।
व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम्॥
मूलम्
त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्।
व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तूने झूठ-मूठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामोंको भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरणमें आनेकी बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्रजामि संयुगं नेच्छामि चेत् संयुगाद्भीतोऽस्मि चेत् त्वां शरणं व्रजामि नाहं भीत इत्यर्थः ॥ २० - २३ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्।
शिरोऽवृश्चद् रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः॥
मूलम्
इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्।
शिरोऽवृश्चद् रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ड्रकका तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पहाड़की चोटियोंको उड़ा दिया था॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा काशिपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः।
न्यपातयत् काशिपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः॥
मूलम्
तथा काशिपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः।
न्यपातयत् काशिपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार भगवान्ने अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वायु कमलका पुष्प गिरा देती है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मत्सरिणं हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः।
द्वारकामाविशत् सिद्धैर्गीयमानकथामृतः॥
मूलम्
एवं मत्सरिणं हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः।
द्वारकामाविशत् सिद्धैर्गीयमानकथामृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपने साथ डाह रखनेवाले पौण्ड्रकको और उसके सखा काशिनरेशको मारकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारकामें लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान्की अमृतमयी कथाका गान कर रहे थे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नित्यं भगवद्ध्यानप्रध्वस्ताखिलबन्धनः।
बिभ्राणश्च हरे राजन् स्वरूपं तन्मयोऽभवत्॥
मूलम्
स नित्यं भगवद्ध्यानप्रध्वस्ताखिलबन्धनः।
बिभ्राणश्च हरे राजन् स्वरूपं तन्मयोऽभवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! पौण्ड्रक भगवान्के रूपका, चाहे वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान्का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान्के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वरूपं वेषं विभ्राणस्तन्मयोऽभवत् तदीयवेषप्रचुरोऽभवत् शिरश्च्छेदेन दोषस्य प्रायश्चित्तं कृतम् अतो भगवदुद्ध्यानस्य फलमनन्तरमित्यभिप्रायः ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्।
किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिश्यिरे जनाः॥
मूलम्
शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्।
किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिश्यिरे जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर काशीमें राजमहलके दरवाजेपर एक कुण्डल-मण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह-तरहका सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि ‘यह क्या है, यह किसका सिर है?’॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
संशिश्यिरे संशयश्चक्रः ॥ २५-४० ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञः काशिपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः।
पौराश्च हा हता राजन् नाथ नाथेति प्रारुदन्॥
मूलम्
राज्ञः काशिपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः।
पौराश्च हा हता राजन् नाथ नाथेति प्रारुदन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेशका ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवारके लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे—‘हा नाथ! हा राजन्! हाय-हाय! हमारा तो सर्वनाश हो गया’॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पितुः।
निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः॥
मूलम्
सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पितुः।
निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्।
सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना॥
मूलम्
इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्।
सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशिनरेशका पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघातीको मारकर ही मैं पिताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। नादान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्योंके साथ अत्यन्त एकाग्रतासे भगवान् शंकरकी आराधना करने लगा॥ २७-२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद् भवः।
पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम्॥
मूलम्
प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद् भवः।
पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशी नगरीमें उसकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने वर देनेको कहा। सुदक्षिणने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघातीके वधका उपाय बतलाइये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्।
अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः॥
मूलम्
दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्।
अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः।
इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन् व्रती॥
मूलम्
साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः।
इत्यादिष्टस्तथा चक्रे कृष्णायाभिचरन् व्रती॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरने कहा—‘तुम ब्राह्मणोंके साथ मिलकर यज्ञके देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्निकी अभिचारविधिसे आराधना करो। इससे वह अग्नि प्रमथगणोंके साथ प्रकट होकर यदि ब्राह्मणोंके अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’ भगवान् शंकरकी ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिणने अनुष्ठानके उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान् श्रीकृष्णके लिये अभिचार (मारणका पुरश्चरण) करने लगा॥ ३०-३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः॥
मूलम्
ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्डसे अति भीषण अग्नि मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थे। आँखोंसे अंगारे बरस रहे थे॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्डकठोरास्यः स्वजिह्वया।
आलिहन् सृक्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलन्॥
मूलम्
दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्डकठोरास्यः स्वजिह्वया।
आलिहन् सृक्किणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियोंके कारण उसके मुखसे क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथमें त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमेंसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्।
सोऽभ्यधावद् वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन् दिशः॥
मूलम्
पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्।
सोऽभ्यधावद् वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन् दिशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ताड़के पेड़के समान बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेगसे धरतीको कँपाता हुआ और ज्वालाओंसे दसों दिशाओंको दग्ध करता हुआ द्वारकाकी ओर दौड़ा और बात-की-बातमें द्वारकाके पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः।
विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा॥
मूलम्
तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः।
विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अभिचारकी आगको बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलमें आग लगनेपर हरिन डर जाते हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः।
त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम्॥
मूलम्
अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः।
त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे लोग भयभीत होकर भगवान्के पास दौड़े हुए आये; भगवान् उस समय सभामें चौसर खेल रहे थे, उन लोगोंने भगवान्से प्रार्थना की—‘तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी! द्वारका नगरी इस आगसे भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता’॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्।
शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम्॥
मूलम्
श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्।
शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरणागतवत्सल भगवान्ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा—‘डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्यान्तर्बहिः साक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः।
विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत्॥
मूलम्
सर्वस्यान्तर्बहिः साक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः।
विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् सबके बाहर-भीतरकी जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशीसे चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकारके लिये अपने पास ही विराजमान चक्रसुदर्शनको आज्ञा दी॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं
जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्।
स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी
चक्रं मुकुन्दास्त्रमथाग्निमार्दयत्॥
मूलम्
तत् सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं
जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्।
स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी
चक्रं मुकुन्दास्त्रमथाग्निमार्दयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् मुकुन्दका प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र कोटि-कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान है। उसके तेजसे आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्निको कुचल डाला॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्यानलः प्रतिहतः स रथाङ्गपाणे-
रस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः।
वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं
सर्त्विग्जनं समदहत् स्वकृतोऽभिचारः॥
मूलम्
कृत्यानलः प्रतिहतः स रथाङ्गपाणे-
रस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः।
वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं
सर्त्विग्जनं समदहत् स्वकृतोऽभिचारः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके अस्त्र सुदर्शनचक्रकी शक्तिसे कृत्यारूप आगका मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँसे लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्योंके साथ सुदक्षिणको जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसीके विनाशका कारण हुआ॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं
वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्।
सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां
सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालाम्॥
मूलम्
चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं
वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्।
सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां
सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालाम्॥
मूलम्
चक्रं च विष्णोरिति समदहदित्यनुषङ्गः ॥ ४१-४३ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्वे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षट्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६६ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्।
भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत् कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः॥
मूलम्
दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्।
भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत् कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृत्याके पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभाभवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारोंके शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नोंके गोदामसे सुसज्जित थी। भगवान् श्रीकृष्णके सुदर्शनचक्रने सारी काशीको जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास लौट आया॥ ४१-४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतच्छ्रावयेन्मर्त्य उत्तमश्लोकविक्रमम्।
समाहितो वा शृणुयात् सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
मूलम्
य एतच्छ्रावयेन्मर्त्य उत्तमश्लोकविक्रमम्।
समाहितो वा शृणुयात् सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके इस चरित्रको एकाग्रताके साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है॥ ४३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥ ६६॥