६५ यमुनाकर्षणम्

[पञ्चषष्टितमोऽध्यायः]

भागसूचना

श्रीबलरामजीका व्रजगमन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः।
सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

मूलम्

बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः।
सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् बलरामजीके मनमें व्रजके नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियोंसे मिलनेकी बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथपर सवार होकर द्वारकासे नन्दबाबाके व्रजमें आये॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च।
रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः॥

मूलम्

परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च।
रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनोंसे उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीचमें पाकर सबने बड़े प्रेमसे गले लगाया। बलरामजीने माता यशोदा और नन्दबाबाको प्रणाम किया। उन लोगोंने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पितरो यशोदानन्दगोपौ ॥ २-१० ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः।
इत्यारोप्याङ्कमालिङ्‍ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः॥

मूलम्

चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः।
इत्यारोप्याङ्कमालिङ्‍ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कहकर कि ‘बलरामजी! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्णके साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोदमें ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओंसे उन्हें भिगो दिया॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपवृद्धांश्च विधिवद् यविष्ठैरभिवन्दितः।
यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः॥

मूलम्

गोपवृद्धांश्च विधिवद् यविष्ठैरभिवन्दितः।
यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद बड़े-बड़े गोपोंको बलरामजीने और छोटे-छोटे गोपोंने बलरामजीको नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्धके अनुसार सबसे मिले-जुले॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः॥

मूलम्

समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद‍्गदया गिरा।
कृष्णे कमलपत्राक्षे संन्यस्ताखिलराधसः॥

मूलम्

पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद‍्गदया गिरा।
कृष्णे कमलपत्राक्षे संन्यस्ताखिलराधसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालोंके पास जाकर किसीसे हाथ मिलाया, किसीसे मीठी-मीठी बातें कीं, किसीको खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलरामजीकी थकावट दूर हो गयी, वे आरामसे बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालोंने कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्षतक त्याग रखा था। बलरामजीने जब उनके और उनके घरवालोंके सम्बन्धमें कुशलप्रश्न किया, तब उन्होंने प्रेम–गद‍्गद वाणीसे उनसे प्रश्न किया॥ ५-६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते।
कच्चित् स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः॥

मूलम्

कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते।
कच्चित् स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बलरामजी! वसुदेवजी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न? अब आपलोग स्त्री-पुत्र आदिके साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आप-लोगोंको हमारी याद भी आती है?॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः।
निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रिताः॥

मूलम्

दिष्ट्या कंसो हतः पापो दिष्ट्या मुक्ताः सुहृज्जनाः।
निहत्य निर्जित्य रिपून् दिष्ट्या दुर्गं समाश्रिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि पापी कंसको आपलोगोंने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियोंको बड़े कष्टसे बचा लिया। यह भी कम आनन्दकी बात नहीं है कि आपलोगोंने और भी बहुत-से शत्रुओंको मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आपलोग निवास करते हैं’॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः॥

मूलम्

गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् बलरामजीके दर्शनसे, उनकी प्रेमभरी चितवनसे गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा—‘क्यों बलरामजी! नगरनारियोंके प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल तो हैं न?॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित् स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति।
अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः॥

मूलम्

कच्चित् स्मरति वा बन्धून् पितरं मातरं च सः।
अप्यसौ मातरं द्रष्टुं सकृदप्यागमिष्यति।
अपि वा स्मरतेऽस्माकमनुसेवां महाभुजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माताकी भी याद आती है! क्या वे अपनी माताके दर्शनके लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे! क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी सेवाका भी कुछ स्मरण करते हैं॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄरपि।
यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो॥

मूलम्

मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄरपि।
यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जहिम त्यक्तवत्यः ॥ ११-३० ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः संछिन्नसौहृदः।
कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम्॥

मूलम्

ता नः सद्यः परित्यज्य गतः संछिन्नसौहृदः।
कथं नु तादृशं स्त्रीभिर्न श्रद्धीयेत भाषितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियोंको छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु , पति-पुत्र और बहिन-बेटियोंको भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बातमें हमारे सौहार्द और प्रेमका बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हमलोगोंको बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं—तुम्हारे उपकारका बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातोंपर विश्वास न कर लेती’॥ ११-१२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो
वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः।
गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-
स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः॥

मूलम्

कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो
वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः।
गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-
स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक गोपीने कहा—‘बलरामजी! हम तो गाँवकी गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातोंमें आ गयीं। परन्तु नगरकी स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चंचल और कृतघ्न श्रीकृष्णकी बातोंमें क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे!’ दूसरी गोपीने कहा—‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनानेमें तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना! उनकी सुन्दर मुसकराहट और प्रेमभरी चितवनसे नगर-नारियाँ भी प्रेमावेशसे व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातोंमें आकर अपनेको निछावर कर देती होंगी’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः॥

मूलम्

किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीसरी गोपीने कहा—‘अरी गोपियो! हमलोगोंको उसकी बातसे क्या मतलब है? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुरका समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसीकी तरह, भले ही दुःखसे क्यों न हो, कट ही जायगा’॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारु वीक्षितम्।
गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः॥

मूलम्

इति प्रहसितं शौरेर्जल्पितं चारु वीक्षितम्।
गतिं प्रेमपरिष्वङ्गं स्मरन्त्यो रुरुदुः स्त्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब गोपियोंके भाव-नेत्रोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णकी हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मूर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातोंकी मधुर स्मृतिमें तन्मय होकर रोने लगीं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयङ्गमैः।
सान्त्वयामास भगवान् नानानुनयकोविदः॥

मूलम्

सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयङ्गमैः।
सान्त्वयामास भगवान् नानानुनयकोविदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् बलरामजी नाना प्रकारसे अनुनयविनय करनेमें बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च।
रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन्॥

मूलम्

द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवमेव च।
रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वसन्तके दो महीने—चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रिके समय गोपियोंमें रहकर उनके प्रेमकी अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान् राम ही जो ठहरे!॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना।
यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः॥

मूलम्

पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना।
यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कुमुदिनीकी सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमाकी चाँदनी छिटककर यमुनाजीके तटवर्ती उपवनको उज्ज्वल कर देती और भगवान् बलराम गोपियोंके साथ वहीं विहार करते॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात्।
पतन्ती तद् वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत्॥

मूलम्

वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात्।
पतन्ती तद् वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरुणदेवने अपनी पुत्री वारुणीदेवीको वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्षके खोड़रसे बह निकली। उसने अपनी सुगन्धसे सारे वनको सुगन्धित कर दिया॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः।
आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ॥

मूलम्

तं गन्धं मधुधाराया वायुनोपहृतं बलः।
आघ्रायोपगतस्तत्र ललनाभिः समं पपौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुधाराकी वह सुगन्ध वायुने बलरामजीके पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो! उसकी महकसे आकृष्ट होकर बलरामजी गोपियोंको लेकर वहाँ पहुँच गये और उनके साथ उसका पान किया॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुधः।
वनेषु व्यचरत् क्षीबो मदविह्वललोचनः॥

मूलम्

उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुधः।
वनेषु व्यचरत् क्षीबो मदविह्वललोचनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गोपियाँ बलरामजीके चारों ओर उनके चरित्रका गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वनमें विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमदसे विह्वल हो रहे थे॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया।
बिभ्रत् स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम्॥

मूलम्

स्रग्व्येककुण्डलो मत्तो वैजयन्त्या च मालया।
बिभ्रत् स्मितमुखाम्भोजं स्वेदप्रालेयभूषितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गलेमें पुष्पोंका हार शोभा पा रहा था। वैजयन्तीकी माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कानमें कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्दपर मुसकराहटकी शोभा निराली ही थी। उसपर पसीनेकी बूँदें हिमकणके समान जान पड़ती थीं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः।
निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः।
अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह॥

मूलम्

स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः।
निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः।
अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वशक्तिमान् बलरामजीने जलक्रीडा करनेके लिये यमुनाजीको पुकारा। परन्तु यमुनाजीने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञाका उल्लंघन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलरामजीने क्रोधपूर्वक अपने हलकी नोकसे उन्हें खींचा॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाऽऽहुता।
नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्॥

मूलम्

पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाऽऽहुता।
नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कहा ‘पापिनी यमुने! मेरे बुलानेपर भी तू मेरी आज्ञाका उल्लंघन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचारका फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हलकी नोकसे सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम्।
उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप॥

मूलम्

एवं निर्भर्त्सिता भीता यमुना यदुनन्दनम्।
उवाच चकिता वाचं पतिता पादयोर्नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बलरामजीने यमुनाजीको इस प्रकार डाँटा-फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलरामजीके चरणोंपर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं—॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम्।
यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते॥

मूलम्

राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम्।
यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोकाभिराम बलरामजी! महाबाहो! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेषजी इस सारे जगत‍्को धारण करते हैं॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं भावं भगवतो भगवन् मामजानतीम्।
मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल॥

मूलम्

परं भावं भगवतो भगवन् मामजानतीम्।
मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल! मैं आपकी शरणमें हूँ। आप मेरी भूल-चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये’॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यमुञ्चद् यमुनां याचितो भगवान् बलः।
विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट्॥

मूलम्

ततो व्यमुञ्चद् यमुनां याचितो भगवान् बलः।
विजगाह जलं स्त्रीभिः करेणुभिरिवेभराट्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब यमुनाजीकी प्रार्थना स्वीकार करके भगवान् बलरामजीने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियोंके साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियोंके साथ जलक्रीडा करने लगे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासिताम्बरे।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम्॥

मूलम्

कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासिताम्बरे।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुनाजीसे बाहर निकले, तब लक्ष्मीजीने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोनेका सुन्दर हार दिया॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसित्वा वाससी नीले माला मामुच्य काञ्चनीम्।
रेजे स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः॥

मूलम्

वसित्वा वाससी नीले माला मामुच्य काञ्चनीम्।
रेजे स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीने नीले वस्त्र पहन लिये और सोनेकी माला गलेमें डाल ली। वे अंगराग लगाकर, सुन्दर भूषणोंसे विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्रका श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाऽऽकृष्टवर्त्मना।
बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि॥

मूलम्

अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाऽऽकृष्टवर्त्मना।
बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! यमुनाजी अब भी बलरामजीके खींचे हुए मार्गसे बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान् बलरामजीका यशगान कर रही हों॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आकृष्टवर्त्मना सूचयतीत्यन्वयः ॥ ३१-३२ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे।
रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम्॥

मूलम्

एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे।
रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीका चित्त व्रजवासिनी गोपियोंके माधुर्यसे इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समयका कुछ ध्यान ही न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रातके समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलरामजी व्रजमें विहार करते रहे॥ ३२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवविजये यमुनाकर्षणं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥ ६५॥