[चतुःषष्टितमोऽध्यायः]
भागसूचना
नृग राजाकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदोपवनं राजन् जग्मुर्यदुकुमारकाः।
विहर्तुं साम्बप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः॥
मूलम्
एकदोपवनं राजन् जग्मुर्यदुकुमारकाः।
विहर्तुं साम्बप्रद्युम्नचारुभानुगदादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्न, चारुभानु और गद आदि यदुवंशी राजकुमार घूमनेके लिये उपवनमें गये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः।
जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम्॥
मूलम्
क्रीडित्वा सुचिरं तत्र विचिन्वन्तः पिपासिताः।
जलं निरुदके कूपे ददृशुः सत्त्वमद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ बहुत देरतक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उधर जलकी खोज करने लगे। वे एक कूएँके पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः।
तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृपयान्विताः॥
मूलम्
कृकलासं गिरिनिभं वीक्ष्य विस्मितमानसाः।
तस्य चोद्धरणे यत्नं चक्रुस्ते कृपयान्विताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह जीव पर्वतके समान आकारका एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका हृदय करुणासे भर आया और वे उसे बाहर निकालनेका प्रयत्न करने लगे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः।
नाशक्नुवन् समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः॥
मूलम्
चर्मजैस्तान्तवैः पाशैर्बद्ध्वा पतितमर्भकाः।
नाशक्नुवन् समुद्धर्तुं कृष्णायाचख्युरुत्सुकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिटको चमड़े और सूतकी रस्सियोंसे बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर निवेदन किया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान् विश्वभावनः।
वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया॥
मूलम्
तत्रागत्यारविन्दाक्षो भगवान् विश्वभावनः।
वीक्ष्योज्जहार वामेन तं करेण स लीलया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्के जीवनदाता कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण उस कूएँ पर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथसे खेल-खेलमें—अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उत्तमश्लोककराभिमृष्टो
विहाय सद्यः कृकलासरूपम्।
सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः
स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक्॥
मूलम्
स उत्तमश्लोककराभिमृष्टो
विहाय सद्यः कृकलासरूपम्।
सन्तप्तचामीकरचारुवर्णः
स्वर्ग्यद्भुतालङ्करणाम्बरस्रक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके करकमलोंका स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवताके रूपमें परिणत हो गया। अब उसके शरीरका रंग तपाये हुए सोनेके समान चमक रहा था। और उसके शरीरपर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पोंके हार शोभा पा रहे थे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं
जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः।
कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो
देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम्॥
मूलम्
पप्रच्छ विद्वानपि तन्निदानं
जनेषु विख्यापयितुं मुकुन्दः।
कस्त्वं महाभाग वरेण्यरूपो
देवोत्तमं त्वां गणयामि नूनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुषको गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारणको मालूम हो जाय, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुषसे पूछा—‘महाभाग! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशामिमां वा कतमेन कर्मणा
सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र।
आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो
यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम्॥
मूलम्
दशामिमां वा कतमेन कर्मणा
सम्प्रापितोऽस्यतदर्हः सुभद्र।
आत्मानमाख्याहि विवित्सतां नो
यन्मन्यसे नः क्षममत्र वक्तुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणमूर्ते! किस कर्मके फलसे तुम्हें इस योनिमें आना पड़ा था? वास्तवमें तुम इसके योग्य नहीं हो। हमलोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हमलोगोंको वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो’॥ ८॥
श्लोक-९
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना।
माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा॥
मूलम्
इति स्म राजा सम्पृष्टः कृष्णेनानन्तमूर्तिना।
माधवं प्रणिपत्याह किरीटेनार्कवर्चसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब अनन्तमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णने राजा नृगसे [क्योंकि वे ही इस रूपमें प्रकट हुए थे] इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्यके समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान्को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आनन्दमूर्त्तिना हृद्यमूर्त्तिना मानवः मनोः वंशप्रभवः ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
मूलम् (वचनम्)
नृग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृगो नाम नरेन्द्रोऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो।
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम्॥
मूलम्
नृगो नाम नरेन्द्रोऽहमिक्ष्वाकुतनयः प्रभो।
दानिष्वाख्यायमानेषु यदि ते कर्णमस्पृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा नृगने कहा—प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकुका पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसीने आपके सामने दानियोंकी गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानोंमें पड़ा होगा॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दानिषु दानशीलेषु ॥ १०-१३ ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः।
कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया॥
मूलम्
किं नु तेऽविदितं नाथ सर्वभूतात्मसाक्षिणः।
कालेनाव्याहतदृशो वक्ष्येऽथापि तवाज्ञया॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप समस्त प्राणियोंकी एक-एक वृत्तिके साक्षी हैं। भूत और भविष्यका व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञानमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है? फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन करनेके लिये कहता हूँ॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः।
यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददां स्म गाः॥
मूलम्
यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारकाः।
यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददां स्म गाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! पृथ्वीमें जितने धूलिकण हैं, आकाशमें जितने तारे हैं और वर्षामें जितनी जलकी धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-
गुणोपपन्नाः कपिला हेमशृङ्गीः।
न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा
दुकूलमालाभरणा ददावहम्॥
मूलम्
पयस्विनीस्तरुणीः शीलरूप-
गुणोपपन्नाः कपिला हेमशृङ्गीः।
न्यायार्जिता रूप्यखुराः सवत्सा
दुकूलमालाभरणा ददावहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्यायके धनसे प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगोंमें सोना मढ़ दिया गया था और खुरोंमें चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनोंसे सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैंने दी थीं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः
सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः।
तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः
प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः॥
मूलम्
स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्यः
सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्यः।
तपःश्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्यः
प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं युवावस्थासे सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारोंको—जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्टमें पड़े हुए कुटुम्बवाले, दम्भरहित तपस्वी, वेदपाठी, शिष्योंको विद्यादान करनेवाले तथा सच्चरित्र होते—वस्त्राभूषणसे अलंकृत करता और उन गौओंका दान करता॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तपःश्रुतब्रह्मवादान्विताः वदान्याः सन्तः तेभ्यः ॥ १४-२५ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः
कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः।
वासांसि रत्नानि परिच्छदान् रथा-
निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम्॥
मूलम्
गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिनः
कन्याः सदासीस्तिलरूप्यशय्याः।
वासांसि रत्नानि परिच्छदान् रथा-
निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ , पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियोंके सहित कन्याएँ , तिलोंके पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कूएँ , बावली आदि बनवाये॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यचिद् द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने।
सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये॥
मूलम्
कस्यचिद् द्विजमुख्यस्य भ्रष्टा गौर्मम गोधने।
सम्पृक्ताविदुषा सा च मया दत्ता द्विजातये॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेनेवाले), तपस्वी ब्राह्मणकी एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओंमें आ मिली। मुझे इस बातका बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजानमें उसे किसी दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्वोवाच ममेति तम्।
ममेति प्रतिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति॥
मूलम्
तां नीयमानां तत्स्वामी दृष्ट्वोवाच ममेति तम्।
ममेति प्रतिग्राह्याह नृगो मे दत्तवानिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उस गायको वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गायके असली स्वामीने कहा—‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जानेवाले ब्राह्मणने कहा—‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृगने मुझे इसका दान किया है’॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ।
भवान् दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद् भ्रमः॥
मूलम्
विप्रौ विवदमानौ मामूचतुः स्वार्थसाधकौ।
भवान् दातापहर्तेति तच्छ्रुत्वा मेऽभवद् भ्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों ब्राह्मण आपसमें झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करनेके लिये मेरे पास आये। एकने कहा—‘यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरेने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।’ भगवन्! उन दोनों ब्राह्मणोंकी बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै।
गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम्॥
मूलम्
अनुनीतावुभौ विप्रौ धर्मकृच्छ्रगतेन वै।
गवां लक्षं प्रकृष्टानां दास्याम्येषा प्रदीयताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने धर्मसंकटमें पड़कर उन दोनोंसे बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदलेमें एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आपलोग मुझे यह गाय दे दीजिये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः।
समुद्धरत मां कृच्छ्रात् पतन्तं निरयेऽशुचौ॥
मूलम्
भवन्तावनुगृह्णीतां किङ्करस्याविजानतः।
समुद्धरत मां कृच्छ्रात् पतन्तं निरयेऽशुचौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपलोगोंका सेवक हूँ। मुझसे अनजानमें यह अपराध बन गया है। मुझपर आपलोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्टसे तथा घोर नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये’॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्।
नान्यद् गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ॥
मूलम्
नाहं प्रतीच्छे वै राजन्नित्युक्त्वा स्वाम्यपाक्रमत्।
नान्यद् गवामप्ययुतमिच्छामीत्यपरो ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं इसके बदलेमें कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गायका स्वामी चला गया। ‘तुम इसके बदलेमें एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेनेका नहीं।’ इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे याम्यैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्।
यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे याम्यैर्दूतैर्नीतो यमक्षयम्।
यमेन पृष्टस्तत्राहं देवदेव जगत्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवाधिदेव जगदीश्वर! इसके बाद आयु समाप्त होनेपर यमराजके दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराजने मुझसे पूछा—॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्षे उताहो नृपते शुभम्।
नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः॥
मूलम्
पूर्वं त्वमशुभं भुङ्क्षे उताहो नृपते शुभम्।
नान्तं दानस्य धर्मस्य पश्ये लोकस्य भास्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम पहले अपने पापका फल भोगना चाहते हो या पुण्यका? तुम्हारे दान और धर्मके फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होनेवाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः।
तावदद्राक्षमात्मानं कृकलासं पतन् प्रभो॥
मूलम्
पूर्वं देवाशुभं भुञ्ज इति प्राह पतेति सः।
तावदद्राक्षमात्मानं कृकलासं पतन् प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! तब मैंने यमराजसे कहा—‘देव! पहले मैं अपने पापका फल भोगना चाहता हूँ।’ और उसी क्षण यमराजने कहा—‘तुम गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँसे गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव।
स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः॥
मूलम्
ब्रह्मण्यस्य वदान्यस्य तव दासस्य केशव।
स्मृतिर्नाद्यापि विध्वस्ता भवत्सन्दर्शनार्थिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मैं ब्राह्मणोंका सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बातकी उत्कट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायँ। इस प्रकार आपकी कृपासे मेरे पूर्वजन्मोंकी स्मृति नष्ट न हुई॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा
योगेश्वरैः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः।
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः
स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः॥
मूलम्
स त्वं कथं मम विभोऽक्षिपथः परात्मा
योगेश्वरैः श्रुतिदृशामलहृद्विभाव्यः।
साक्षादधोक्षज उरुव्यसनान्धबुद्धेः
स्यान्मेऽनुदृश्य इह यस्य भवापवर्गः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदोंकी दृष्टिसे (अभेददृष्टिसे) अपने हृदयमें आपका ध्यान करते रहते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन्! साक्षात् आप मेरे नेत्रोंके सामने कैसे आ गये! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकारके व्यसनों, दुःखद कर्मोंमें फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसारके चक्करसे छुटकारा मिलनेका समय आता है॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अक्षिपथः उरुव्यसनान्धबुद्धेः मम त्वं चक्षुविषयः श्रुतिदृशा वेदचक्षुषा अमलहृदि विभाव्यः चिन्त्यः यस्य भवापवर्गः । संसारनाशः तस्य त्वं शान्तहृदि दृश्यो भवसीत्यर्थः ॥ २६-२८ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम।
नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय॥
मूलम्
देवदेव जगन्नाथ गोविन्द पुरुषोत्तम।
नारायण हृषीकेश पुण्यश्लोकाच्युताव्यय॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवोंके स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियोंके स्वामी हैं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो।
यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम्॥
मूलम्
अनुजानीहि मां कृष्ण यान्तं देवगतिं प्रभो।
यत्र क्वापि सतश्चेतो भूयान्मे त्वत्पदास्पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओंके लोकमें जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलोंमें ही लगा रहे॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः॥
मूलम्
नमस्ते सर्वभावाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
कृष्णाय वासुदेवाय योगानां पतये नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप समस्त कार्यों और कारणोंके रूपमें विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त है और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगोंके स्वामी, योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वभावाय सर्वपदार्थशरीराय ॥ २९-३४ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना।
अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत् पश्यतां नृणाम्॥
मूलम्
इत्युक्त्वा तं परिक्रम्य पादौ स्पृष्ट्वा स्वमौलिना।
अनुज्ञातो विमानाग्र्यमारुहत् पश्यतां नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा नृगने इस प्रकार कहकर भगवान्की परिक्रमा की और अपने मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमानपर सवार हो गये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णः परिजनं प्राह भगवान् देवकीसुतः।
ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन्॥
मूलम्
कृष्णः परिजनं प्राह भगवान् देवकीसुतः।
ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा—॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि।
तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञामीश्वरमानिनाम्॥
मूलम्
दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि।
तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञामीश्वरमानिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो लोग अग्निके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठ-मूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं?॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया।
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि॥
मूलम्
नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया।
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुतः ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः॥
मूलम्
हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परन्तु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्।
प्रसह्य तु बलाद् भुक्तं दश पूर्वान् दशापरान्॥
मूलम्
ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्।
प्रसह्य तु बलाद् भुक्तं दश पूर्वान् दशापरान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लड़के और पौत्र—इन तीन पीढ़ियोंको ही चौपट करता है। परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढ़ियाँ और आगेकी भी दस पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दुरनुज्ञातं सम्यगनुज्ञारहितम् ॥ ३५-४४ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्वे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुष्षष्टितमोऽध्यायः ॥ ६४ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानो राजलक्ष्म्यान्धानात्मपातं विचक्षते।
निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः॥
मूलम्
राजानो राजलक्ष्म्यान्धानात्मपातं विचक्षते।
निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अधःपतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णन्ति यावतः पांसून् क्रन्दतामश्रुबिन्दवः।
विप्राणां हृतवृत्तीनां वदान्यानां कुटुम्बिनाम्॥
मूलम्
गृह्णन्ति यावतः पांसून् क्रन्दतामश्रुबिन्दवः।
विप्राणां हृतवृत्तीनां वदान्यानां कुटुम्बिनाम्॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः।
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः॥
मूलम्
राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः।
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन उदार हृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृंखल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दुःख भोगना पड़ता है॥ ३७-३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥
मूलम्
स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः।
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे ब्रह्मधनं भूयाद् यद् गृद्ध्वाल्पायुषो नराः।
पराजिताश्च्युता राज्याद् भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः॥
मूलम्
न मे ब्रह्मधनं भूयाद् यद् गृद्ध्वाल्पायुषो नराः।
पराजिताश्च्युता राज्याद् भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैं—उसे छीननेकी बात तो अलग रही—वे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः।
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः॥
मूलम्
विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः।
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मेरे आत्मीयो! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो। वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः।
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक्॥
मूलम्
यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः।
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लंघन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः।
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव॥
मूलम्
ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः।
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेको—अनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी—अधःपतनके गड्ढेमें डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गायने अनजानमें उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विश्राव्य भगवान् मुकुन्दो द्वारकौकसः।
पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम्॥
मूलम्
एवं विश्राव्य भगवान् मुकुन्दो द्वारकौकसः।
पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकावासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले गये॥ ४४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नृगोपाख्यानं नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥ ६४॥