[त्रिषष्टितमोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान् श्रीकृष्णके साथ बाणासुरका युद्ध
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बन्धूनां च भारत।
चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम्॥
मूलम्
अपश्यतां चानिरुद्धं तद्बन्धूनां च भारत।
चत्वारो वार्षिका मासा व्यतीयुरनुशोचताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! बरसातके चार महीने बीत गये। परन्तु अनिरुद्धजीका कहीं पता न चला। उनके घरके लोग, इस घटनासे बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारदात्तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च।
प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदेवताः॥
मूलम्
नारदात्तदुपाकर्ण्य वार्तां बद्धस्य कर्म च।
प्रययुः शोणितपुरं वृष्णयः कृष्णदेवताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन नारदजीने आकर अनिरुद्धका शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुरके सैनिकोंको हराना और फिर नागपाशमें बाँधा जाना—यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्णको ही अपना आराध्यदेव माननेवाले यदुवंशियोंने शोणितपुरपर चढ़ाई कर दी॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः साम्बोऽथ सारणः।
नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः॥
मूलम्
प्रद्युम्नो युयुधानश्च गदः साम्बोऽथ सारणः।
नन्दोपनन्दभद्राद्या रामकृष्णानुवर्तिनः॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतोदिशम्।
रुरुधुर्बाणनगरं समन्तात् सात्वतर्षभाः॥
मूलम्
अक्षौहिणीभिर्द्वादशभिः समेताः सर्वतोदिशम्।
रुरुधुर्बाणनगरं समन्तात् सात्वतर्षभाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब श्रीकृष्ण और बलरामजीके साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी—प्रद्युम्न, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदिने बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ व्यूह बनाकर चारों ओरसे बाणासुरकी राजधानीको घेर लिया॥ ३-४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम्।
प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ॥
मूलम्
भज्यमानपुरोद्यानप्राकाराट्टालगोपुरम्।
प्रेक्षमाणो रुषाविष्टस्तुल्यसैन्योऽभिनिर्ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बाणासुरने देखा कि यदुवंशियोंकी सेना नगरके उद्यान, परकोटों, बुर्जों और सिंहद्वारोंको तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगरसे निकल पड़ा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणार्थे भगवान् रुद्रः ससुतैः प्रमथैर्वृतः।
आरुह्य नन्दिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः॥
मूलम्
बाणार्थे भगवान् रुद्रः ससुतैः प्रमथैर्वृतः।
आरुह्य नन्दिवृषभं युयुधे रामकृष्णयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणासुरकी ओरसे साक्षात् भगवान् शंकर वृषभराज नन्दीपर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणोंके साथ रणभूमिमें पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीसे युद्ध किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीत् सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम्।
कृष्णशङ्करयो राजन् प्रद्युम्नगुहयोरपि॥
मूलम्
आसीत् सुतुमुलं युद्धमद्भुतं रोमहर्षणम्।
कृष्णशङ्करयो राजन् प्रद्युम्नगुहयोरपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान् श्रीकृष्णसे शंकरजीका और प्रद्युम्नसे स्वामिकार्तिकका युद्ध हुआ॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः।
साम्बस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः॥
मूलम्
कुम्भाण्डकूपकर्णाभ्यां बलेन सह संयुगः।
साम्बस्य बाणपुत्रेण बाणेन सह सात्यकेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णका युद्ध हुआ। बाणासुरके पुत्रके साथ साम्ब और स्वयं बाणासुरके साथ सात्यकि भिड़ गये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टुमागमन्॥
मूलम्
ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः सिद्धचारणाः।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा विमानैर्द्रष्टुमागमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानोंपर चढ़-चढ़कर युद्ध देखनेके लिये आ पहुँचे॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्करानुचराञ्छौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान्।
डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान्॥
मूलम्
शङ्करानुचराञ्छौरिर्भूतप्रमथगुह्यकान्।
डाकिनीर्यातुधानांश्च वेतालान् सविनायकान्॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेतमातृपिशाचांश्च कूष्माण्डान् ब्रह्मराक्षसान्।
द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः॥
मूलम्
प्रेतमातृपिशाचांश्च कूष्माण्डान् ब्रह्मराक्षसान्।
द्रावयामास तीक्ष्णाग्रैः शरैः शार्ङ्गधनुश्च्युतैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने अपने शार्ङ्गधनुषके तीखी नोकवाले बाणोंसे शंकरजीके अनुचरों—भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्मराक्षसोंको मार-मारकर खदेड़ दिया॥ १०-११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथग्विधानि प्रायुङ्क्त पिनाक्यस्त्राणि शार्ङ्गिणे।
प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः॥
मूलम्
पृथग्विधानि प्रायुङ्क्त पिनाक्यस्त्राणि शार्ङ्गिणे।
प्रत्यस्त्रैः शमयामास शार्ङ्गपाणिरविस्मितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिनाकपाणि शंकरजीने भगवान् श्रीकृष्णपर भाँति-भाँतिके अगणित अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग किया, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने बिना किसी प्रकारके विस्मयके उन्हें विरोधी शस्त्रास्त्रोंसे शान्त कर दिया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम्।
आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च॥
मूलम्
ब्रह्मास्त्रस्य च ब्रह्मास्त्रं वायव्यस्य च पार्वतम्।
आग्नेयस्य च पार्जन्यं नैजं पाशुपतस्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्मास्त्रकी शान्तिके लिये ब्रह्मास्त्रका, वायव्यास्त्रके लिये पार्वतास्त्रका, आग्नेयास्त्रके लिये पर्जन्यास्त्रका और पाशुपतास्त्रके लिये नारायणास्त्रका प्रयोग किया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहयित्वा तु गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम्।
बाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभिः॥
मूलम्
मोहयित्वा तु गिरिशं जृम्भणास्त्रेण जृम्भितम्।
बाणस्य पृतनां शौरिर्जघानासिगदेषुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने जृम्भणास्त्रसे (जिससे मनुष्यको जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेवजीको मोहित कर दिया। वे युद्धसे विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान् श्रीकृष्ण शंकरजीसे छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणोंसे बाणासुरकी सेनाका संहार करने लगे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्कन्दः प्रद्युम्नबाणौघैरर्द्यमानः समन्ततः।
असृग् विमुञ्चन् गात्रेभ्यः शिखिनापाक्रमद् रणात्॥
मूलम्
स्कन्दः प्रद्युम्नबाणौघैरर्द्यमानः समन्ततः।
असृग् विमुञ्चन् गात्रेभ्यः शिखिनापाक्रमद् रणात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर प्रद्युम्नने बाणोंकी बौछारसे स्वामिकार्तिकको घायल कर दिया, उनके अंग-अंगसे रक्तकी धारा बह चली, वे रणभूमि छोड़कर अपने वाहन मयूरद्वारा भाग निकले॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भाण्डः कूपकर्णश्च पेततुर्मुसलार्दितौ।
दुद्रुवुस्तदनीकानि हतनाथानि सर्वतः॥
मूलम्
कुम्भाण्डः कूपकर्णश्च पेततुर्मुसलार्दितौ।
दुद्रुवुस्तदनीकानि हतनाथानि सर्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे कुम्भाण्ड और कूपकर्णको घायल कर दिया, वे रणभूमिमें गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियोंको हताहत देखकर बाणासुरकी सारी सेना तितर-बितर हो गयी॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशीर्यमाणं स्वबलं दृष्ट्वा बाणोऽत्यमर्षणः।
कृष्णमभ्यद्रवत् संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम्॥
मूलम्
विशीर्यमाणं स्वबलं दृष्ट्वा बाणोऽत्यमर्षणः।
कृष्णमभ्यद्रवत् संख्ये रथी हित्वैव सात्यकिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब रथपर सवार बाणासुरने देखा कि श्रीकृष्ण आदिके प्रहारसे हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढ़कर सात्यकिको छोड़ दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णपर आक्रमण करनेके लिये दौड़ पड़ा॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनूंष्याकृष्य युगपद् बाणः पञ्चशतानि वै।
एकैकस्मिञ्छरौ द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मदः॥
मूलम्
धनूंष्याकृष्य युगपद् बाणः पञ्चशतानि वै।
एकैकस्मिञ्छरौ द्वौ द्वौ सन्दधे रणदुर्मदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रणोन्मत्त बाणासुरने अपने एक हजार हाथोंसे एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एकपर दो-दो बाण चढ़ाये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानि चिच्छेद भगवान् धनूंषि युगपद्धरिः।
सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शङ्खमपूरयत्॥
मूलम्
तानि चिच्छेद भगवान् धनूंषि युगपद्धरिः।
सारथिं रथमश्वांश्च हत्वा शङ्खमपूरयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ोंको भी धराशायी कर दिया एवं शंखध्वनि की॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्माता कोटरा नाम नग्ना मुक्तशिरोरुहा।
पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया॥
मूलम्
तन्माता कोटरा नाम नग्ना मुक्तशिरोरुहा।
पुरोऽवतस्थे कृष्णस्य पुत्रप्राणरिरक्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोटरा नामकी एक देवी बाणासुरकी धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्रके प्राणोंकी रक्षाके लिये बाल बिखेरकर नंग-धड़ंग भगवान् श्रीकृष्णके सामने आकर खड़ी हो गयी॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तिर्यङ्मुखो नग्नामनिरीक्षन् गदाग्रजः।
बाणश्च तावद् विरथश्छिन्नधन्वाविशत् पुरम्॥
मूलम्
ततस्तिर्यङ्मुखो नग्नामनिरीक्षन् गदाग्रजः।
बाणश्च तावद् विरथश्छिन्नधन्वाविशत् पुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने इसलिये कि कहीं उसपर दृष्टि न पड़ जाय, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तबतक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जानेके कारण अपने नगरमें चला गया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रिशिरास्त्रिपात्।
अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश॥
मूलम्
विद्राविते भूतगणे ज्वरस्तु त्रिशिरास्त्रिपात्।
अभ्यधावत दाशार्हं दहन्निव दिशो दश॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर जब भगवान् शंकरके भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैरवाला ज्वर दसों दिशाओंको जलाता हुआ-सा भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ नारायणो देवस्तं दृष्ट्वा व्यसृजज्ज्वरम्।
माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ॥
मूलम्
अथ नारायणो देवस्तं दृष्ट्वा व्यसृजज्ज्वरम्।
माहेश्वरो वैष्णवश्च युयुधाते ज्वरावुभौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकाबला करनेके लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपसमें लड़ने लगे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
माहेश्वरः समाक्रन्दन् वैष्णवेन बलार्दितः।
अलब्ध्वाभयमन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः।
शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयताञ्जलिः॥
मूलम्
माहेश्वरः समाक्रन्दन् वैष्णवेन बलार्दितः।
अलब्ध्वाभयमन्यत्र भीतो माहेश्वरो ज्वरः।
शरणार्थी हृषीकेशं तुष्टाव प्रयताञ्जलिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें वैष्णव ज्वरके तेजसे माहेश्वर ज्वर पीड़ित होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रतासे हाथ जोड़कर शरणमें लेनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना करने लगा॥ २४॥
श्लोक-२५
मूलम् (वचनम्)
ज्वर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि त्वानन्तशक्तिं परेशं
सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम्।
विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं
यत्तद् ब्रह्म ब्रह्मलिङ्गं प्रशान्तम्॥
मूलम्
नमामि त्वानन्तशक्तिं परेशं
सर्वात्मानं केवलं ज्ञप्तिमात्रम्।
विश्वोत्पत्तिस्थानसंरोधहेतुं
यत्तद् ब्रह्म ब्रह्मलिङ्गं प्रशान्तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्वरने कहा—प्रभो! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके कारण आप ही हैं। श्रुतियोंके द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारोंसे रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्ञप्तिमात्रं कापि जाड्यरहितं ब्रह्मलिङ्गं वेदप्रमाणकम् ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो
द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः।
तत्सङ्घातो बीजरोहप्रवाह-
स्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्ये॥
मूलम्
कालो दैवं कर्म जीवः स्वभावो
द्रव्यं क्षेत्रं प्राण आत्मा विकारः।
तत्सङ्घातो बीजरोहप्रवाह-
स्त्वन्मायैषा तन्निषेधं प्रपद्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सूत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पंचभूत—इन सबका संघात लिंगशरीर और बीजांकुर-न्यायके अनुसार उससे कर्म और कर्मसे फिर लिंग-शरीरकी उत्पत्ति—यह सब आपकी माया है। आप मायाके निषेधकी परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
देवं कालद्यभिमानिदेवता: स्वभाव: जडत्वाजडत्व-परिणामित्वादितत्तद्वस्तुस्वभावः द्रव्यं पृथिव्यादि क्षेत्रं पृथिव्याद्युत्पत्तिभूमिः प्रकृतिः प्राणः पञ्चवृत्तिः आत्मा मतिः विकारः अवस्थाभेदः सङ्घातः शरीरं बीजरोहप्रवाहकार्य कारणप्रवाहः त्वन्माया एषा त्वत्सङ्कल्परूपज्ञानाधीनं सर्वमित्यर्थः अधिकरणे घञ् त्वत् त्वत्तः कृतं भयं न भवेत् ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नै-
र्देवान् साधूँल्लोकसेतून् बिभर्षि।
हंस्युन्मार्गान् हिंसया वर्तमानान्
जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः॥
मूलम्
नानाभावैर्लीलयैवोपपन्नै-
र्देवान् साधूँल्लोकसेतून् बिभर्षि।
हंस्युन्मार्गान् हिंसया वर्तमानान्
जन्मैतत्ते भारहाराय भूमेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप अपनी लीलासे ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओंका पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरोंका संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही हुआ है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन
शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण।
तावत्तापो देहिनां तेऽङ्घ्रिमूलं
नो सेवेरन् यावदाशानुबद्धाः॥
मूलम्
तप्तोऽहं ते तेजसा दुःसहेन
शान्तोग्रेणात्युल्बणेन ज्वरेण।
तावत्तापो देहिनां तेऽङ्घ्रिमूलं
नो सेवेरन् यावदाशानुबद्धाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वरसे मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन्! देहधारी जीवोंको तभीतक ताप-सन्ताप रहता है, जबतक वे आशाके फंदोंमें फँसे रहनेके कारण आपके चरण-कमलोंकी शरण नहीं ग्रहण करते॥ २८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद् भयम्।
यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद् भयम्॥
मूलम्
त्रिशिरस्ते प्रसन्नोऽस्मि व्येतु ते मज्ज्वराद् भयम्।
यो नौ स्मरति संवादं तस्य त्वन्न भवेद् भयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘त्रिशिरा! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वरसे निर्भय हो जाओ। संसारमें जो कोई हम दोनोंके संवादका स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः।
बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम्॥
मूलम्
इत्युक्तोऽच्युतमानम्य गतो माहेश्वरो ज्वरः।
बाणस्तु रथमारूढः प्रागाद्योत्स्यञ्जनार्दनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तबतक बाणासुर रथपर सवार होकर भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये फिर आ पहुँचा॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः।
मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप॥
मूलम्
ततो बाहुसहस्रेण नानायुधधरोऽसुरः।
मुमोच परमक्रुद्धो बाणांश्चक्रायुधे नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बाणासुरने अपने हजार हाथोंमें तरह-तरहके हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोधमें भरकर चक्रपाणि भगवान् पर बाणोंकी वर्षा करने लगा॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्यतोऽस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना।
चिच्छेद भगवान् बाहून् शाखा इव वनस्पतेः॥
मूलम्
तस्यास्यतोऽस्त्राण्यसकृच्चक्रेण क्षुरनेमिना।
चिच्छेद भगवान् बाहून् शाखा इव वनस्पतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि बाणासुरने तो बाणोंकी झड़ी लगा दी है, तब वे छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्षकी छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाहुषुच्छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान् भवः।
भक्तानुकम्प्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत॥
मूलम्
बाहुषुच्छिद्यमानेषु बाणस्य भगवान् भवः।
भक्तानुकम्प्युपव्रज्य चक्रायुधमभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भक्तवत्सल भगवान् शंकरने देखा कि बाणासुरकी भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और स्तुति करने लगे॥ ३३॥
श्लोक-३४
मूलम् (वचनम्)
श्रीरुद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये।
यं पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम्॥
मूलम्
त्वं हि ब्रह्म परं ज्योतिर्गूढं ब्रह्मणि वाङ्मये।
यं पश्यन्त्यमलात्मान आकाशमिव केवलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरने कहा—प्रभो! आप वेदमन्त्रोंमें तात्पर्यरूपसे छिपे हुए परमज्योतिःस्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्ध हृदय महात्मागण आपके आकाशके समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वाङ्मये ब्रह्मणि उपनिषदि आकाशमिव केवलं निर्दोषम् ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु रेतो
द्यौः शीर्षमाशा श्रुतिरङ्घ्रिरुर्वी।
चन्द्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा
अहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्रः॥
मूलम्
नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु रेतो
द्यौः शीर्षमाशा श्रुतिरङ्घ्रिरुर्वी।
चन्द्रो मनो यस्य दृगर्क आत्मा
अहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्रः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाश आपकी नाभि है, अग्नि मुख है और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण है। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहमात्मा अन्तःकरणम् अहङ्काररूपम् “अहङ्कारोऽध्यात्मरुद्रस्तत्राधिदैवतम्” इति श्रुतेः । चन्द्रो मन इतिवत् कार्यकारणभावेन सामानाधिकरण्यं चन्द्रमा मनसो जातः" इति श्रुतेः एवं भगवत्मनः प्रसूतश्चन्द्रो देहिनां मनसोभिमानी । एवं भगवदीयाहङ्कारप्रसूतो रुद्रो भवत्यहङ्काराभिमानी- देवता ॥ ३५-३७ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोमाणि यस्यौषधयोऽम्बुवाहाः
केशा विरिञ्चो धिषणा विसर्गः।
प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः
स वै भवान् पुरुषो लोककल्पः॥
मूलम्
रोमाणि यस्यौषधयोऽम्बुवाहाः
केशा विरिञ्चो धिषणा विसर्गः।
प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्मः
स वै भवान् पुरुषो लोककल्पः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिंग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरोंके साथ जिसके शरीरकी तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवावतारोऽयमकुण्ठधामन्
धर्मस्य गुप्त्यै जगतो भवाय।
वयं च सर्वे भवतानुभाविता
विभावयामो भुवनानि सप्त॥
मूलम्
तवावतारोऽयमकुण्ठधामन्
धर्मस्य गुप्त्यै जगतो भवाय।
वयं च सर्वे भवतानुभाविता
विभावयामो भुवनानि सप्त॥
अनुवाद (हिन्दी)
अखण्ड ज्योतिःस्वरूप परमात्मन्! आपका यह अवतार धर्मकी रक्षा और संसारके अभ्युदय—अभिवृद्धिके लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभावसे ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनोंका पालन करते हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीय-
स्तुर्यः स्वदृग्घेतुरहेतुरीशः।
प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं
स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै॥
मूलम्
त्वमेक आद्यः पुरुषोऽद्वितीय-
स्तुर्यः स्वदृग्घेतुरहेतुरीशः।
प्रतीयसेऽथापि यथाविकारं
स्वमायया सर्वगुणप्रसिद्ध्यै॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदसे रहित हैं—एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीन अवस्थाओंमें अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तुके द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयंप्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परन्तु आपका न तो कोई कारण है और न तो आपमें कारणपना ही है। भगवन्! ऐसा होनेपर भी आप तीनों गुणोंकी विभिन्न विषमताओंको प्रकाशित करनेके लिये अपनी मायासे देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि शरीरोंके अनुसार भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रतीत होते हैं॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अद्वितीयः समाभ्यधिकरहितः ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव सूर्यः पिहितश्छायया स्वया
छायां च रूपाणि च सञ्चकास्ति।
एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्व-
मात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन्॥
मूलम्
यथैव सूर्यः पिहितश्छायया स्वया
छायां च रूपाणि च सञ्चकास्ति।
एवं गुणेनापिहितो गुणांस्त्व-
मात्मप्रदीपो गुणिनश्च भूमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलोंसे ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपोंको प्रकाशित करता है उसी प्रकार आप तो स्वयंप्रकाश हैं, परन्तु गुणोंके द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवोंको प्रकाशित करते हैं। वास्तवमें आप अनन्त हैं॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सूर्य्यः स्वच्छायया स्वकीय रश्मिनिवारणप्रभवजातया पिहितो न भवतीत्यपिहितः अनाच्छादितः सः छायां सञ्चकास्ति प्रकाशयति नैशे तमसि शास्त्रादिच्छायाया अदर्शनात् छायाया आदित्यप्रकाश्यत्वमित्यभिप्रायः गुणेन सत्त्वादिगुणेन गुणान् पृथिव्यादीन् आत्मप्रदीपः स्वप्रकाशः ॥ ३९-४० ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु।
उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे॥
मूलम्
यन्मायामोहितधियः पुत्रदारगृहादिषु।
उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति प्रसक्ता वृजिनार्णवे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपकी मायासे मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदिमें आसक्त हो जाते हैं और फिर दुःखके अपार सागरमें डूबने-उतराने लगते हैं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः।
यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः॥
मूलम्
देवदत्तमिमं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रियः।
यो नाद्रियेत त्वत्पादौ स शोच्यो ह्यात्मवञ्चकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारके मानवोंको यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं करता और आपके चरणकमलोंका आश्रय नहीं लेता—उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नृलोकं नरशरीरं देवदत्तं भाग्यलब्धं विसृजते इन्द्रियार्थार्थं शब्दादिविषयरूपप्रयोजनार्थम् ॥ ४१-५३ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम्।
विपर्ययेन्द्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन्॥
मूलम्
यस्त्वां विसृजते मर्त्य आत्मानं प्रियमीश्वरम्।
विपर्ययेन्द्रियार्थार्थं विषमत्त्यमृतं त्यजन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्युका ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दुःखरूप एवं तुच्छ विषयोंमें सुखबुद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख है कि अमृतको छोड़कर विष पी रहा है॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ब्रह्माथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः।
सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमीश्वरम्॥
मूलम्
अहं ब्रह्माथ विबुधा मुनयश्चामलाशयाः।
सर्वात्मना प्रपन्नास्त्वामात्मानं प्रेष्ठमीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं, ब्रह्मा, सारे देवता और विशुद्ध हृदयवाले ऋषि-मुनि सब प्रकारसे और सर्वात्मभावसे आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हमलोगोंके आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं त्वा जगत्स्थित्युदयान्तहेतुं
समं प्रशान्तं सुहृदात्मदैवम्।
अनन्यमेकं जगदात्मकेतं
भवापवर्गाय भजाम देवम्॥
मूलम्
तं त्वा जगत्स्थित्युदयान्तहेतुं
समं प्रशान्तं सुहृदात्मदैवम्।
अनन्यमेकं जगदात्मकेतं
भवापवर्गाय भजाम देवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं। आप सबमें सम, परम शान्त, सबके सुहृद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत्के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो! हम सब संसारसे मुक्त होनेके लिये आपका भजन करते हैं॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती
मयाभयं दत्तममुष्य देव।
सम्पाद्यतां तद् भवतः प्रसादो
यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः॥
मूलम्
अयं ममेष्टो दयितोऽनुवर्ती
मयाभयं दत्तममुष्य देव।
सम्पाद्यतां तद् भवतः प्रसादो
यथा हि ते दैत्यपतौ प्रसादः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देव! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लादपर आपका कृपाप्रसाद है, वैसा ही कृपाप्रसाद आप इसपर भी करें॥ ४५॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदात्थ भगवंस्त्वन्नः करवाम प्रियं तव।
भवतो यद् व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्॥
मूलम्
यदात्थ भगवंस्त्वन्नः करवाम प्रियं तव।
भवतो यद् व्यवसितं तन्मे साध्वनुमोदितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—भगवन्! आपकी बात मानकर—जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्धमें जैसा निश्चय किया था—मैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसीका अनुमोदन किया है॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः।
प्रह्रादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः॥
मूलम्
अवध्योऽयं ममाप्येष वैरोचनिसुतोऽसुरः।
प्रह्रादाय वरो दत्तो न वध्यो मे तवान्वयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलिका पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लादको वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वंशमें पैदा होनेवाले किसी भी दैत्यका वध नहीं करूँगा॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया।
सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः॥
मूलम्
दर्पोपशमनायास्य प्रवृक्णा बाहवो मया।
सूदितं च बलं भूरि यच्च भारायितं भुवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका घमंड चूर करनेके लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वीके लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यन्त्यजरामराः।
पार्षदमुख्यो भवतो नकुतश्चिद्भयोऽसुरः॥
मूलम्
चत्वारोऽस्य भुजाः शिष्टा भविष्यन्त्यजरामराः।
पार्षदमुख्यो भवतो नकुतश्चिद्भयोऽसुरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदोंमें मुख्य होगा। अब इसको किसीसे किसी प्रकारका भय नहीं है॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति लब्ध्वाभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः।
प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत्॥
मूलम्
इति लब्ध्वाभयं कृष्णं प्रणम्य शिरसासुरः।
प्राद्युम्निं रथमारोप्य सवध्वा समुपानयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णसे इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुरने उनके पास आकर धरतीमें माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्धजीको अपनी पुत्री ऊषाके साथ रथपर बैठाकर भगवान्के पास ले आया॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासः समलङ्कृतम्।
सपत्नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः॥
मूलम्
अक्षौहिण्या परिवृतं सुवासः समलङ्कृतम्।
सपत्नीकं पुरस्कृत्य ययौ रुद्रानुमोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने महादेवजीकी सम्मतिसे वस्त्रालंकारविभूषित ऊषा और अनिरुद्धजीको एक अक्षौहिणी सेनाके साथ आगे करके द्वारकाके लिये प्रस्थान किया॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वराजधानीं समलङ्कृतां ध्वजैः
सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम्।
विवेश शङ्खानकदुन्दुभिस्वनै-
रभ्युद्यतः पौरसुहृद्द्विजातिभिः॥
मूलम्
स्वराजधानीं समलङ्कृतां ध्वजैः
सतोरणैरुक्षितमार्गचत्वराम्।
विवेश शङ्खानकदुन्दुभिस्वनै-
रभ्युद्यतः पौरसुहृद्द्विजातिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्ण आदिके शुभागमनका समाचार सुनकर झंडियों और तोरणोंसे नगरका कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सड़कों और चौराहोंको चन्दन-मिश्रित जलसे सींच दिया गया। नगरके नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राह्मणोंने आगे आकर खूब धूमधामसे भगवान्का स्वागत किया। उस समय शंख, नगारों और ढोलोंकी तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने अपनी राजधानीमें प्रवेश किया॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवं कृष्णविजयं शङ्करेण च संयुगम्।
संस्मरेत् प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात् पराजयः॥
मूलम्
य एवं कृष्णविजयं शङ्करेण च संयुगम्।
संस्मरेत् प्रातरुत्थाय न तस्य स्यात् पराजयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जो पुरुष श्रीशंकरजीके साथ भगवान् श्रीकृष्णका युद्ध और उनकी विजयकी कथाका प्रातःकाल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती॥ ५३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धेऽनिरुद्धानयनं नाम त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥ ६३॥