[द्विषष्टितमोऽध्यायः]
भागसूचना
ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तमः।
तत्र युद्धमभूद् घोरं हरिशङ्करयोर्महत्।
एतत् सर्वं महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि॥
मूलम्
बाणस्य तनयामूषामुपयेमे यदूत्तमः।
तत्र युद्धमभूद् घोरं हरिशङ्करयोर्महत्।
एतत् सर्वं महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—महायोगसम्पन्न मुनीश्वर! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजीने बाणासुरकी पुत्री ऊषासे विवाह किया था और इस प्रसंगमें भगवान् श्रीकृष्ण और शंकरजीका बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तान्त विस्तारसे सुनाइये॥ १॥
मूलम्
द्विषष्टितमः स्फुटार्थः ॥ १-३५ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्विषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६२ ॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः।
येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी॥
मूलम्
बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन्महात्मनः।
येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! महात्मा बलिकी कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामनरूपधारी भगवान्को सारी पृथ्वीका दान कर दिया था। उनके सौ लड़के थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तिरतः सदा।
मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः॥
मूलम्
तस्यौरसः सुतो बाणः शिवभक्तिरतः सदा।
मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैत्यराज बलिका औरस पुत्र बाणासुर भगवान् शिवकी भक्तिमें सदा रत रहता था। समाजमें उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बातका धनी था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यमकरोत् पुरा।
तस्य शम्भोः प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः।
सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम्॥
मूलम्
शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यमकरोत् पुरा।
तस्य शम्भोः प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः।
सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुरमें राज्य करता था। भगवान् शंकरकी कृपासे इन्द्रादि देवता नौकर-चाकरकी तरह उसकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान् शंकर ताण्डव नृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथोंसे अनेकों प्रकारके बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः।
वरेणच्छन्दयामास स तं वव्रे पुराधिपम्॥
मूलम्
भगवान् सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः।
वरेणच्छन्दयामास स तं वव्रे पुराधिपम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सचमुच भगवान् शंकर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतोंके एकमात्र स्वामी प्रभुने बाणासुरसे कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ बाणासुरने कहा—‘भगवन्! आप मेरे नगरकी रक्षा करते हुए यहीं रहा करें’॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एकदाऽऽह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः।
किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदाम्बुजम्॥
मूलम्
स एकदाऽऽह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः।
किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशंस्तत्पदाम्बुजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन बल-पौरुषके घमंडमें चूर बाणासुरने अपने समीप ही स्थित भगवान् शंकरके चरणकमलोंको सूर्यके समान चमकीले मुकुटसे छूकर प्रणाम किया और कहा—॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम्।
पुंसामपूर्णकामानां कामपूरामराङ्घ्रिपम्॥
मूलम्
नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम्।
पुंसामपूर्णकामानां कामपूरामराङ्घ्रिपम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवाधिदेव! आप समस्त चराचर जगत्के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगोंके मनोरथ अबतक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करनेके लिये आप कल्पवृक्ष हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत्।
त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम्॥
मूलम्
दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत्।
त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परन्तु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकीमें आपको छोड़कर मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कण्डूत्या निभृतैर्दोर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम्।
आद्यायां चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः॥
मूलम्
कण्डूत्या निभृतैर्दोर्भिर्युयुत्सुर्दिग्गजानहम्।
आद्यायां चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आदिदेव! एक बार मेरी बाहोंमें लड़नेके लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजोंकी ओर चला। परन्तु वे भी डरके मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्गमें अपनी बाहोंकी चोटसे मैंने बहुतसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला था’॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा।
त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा।
त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणासुरकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरने तनिक क्रोधसे कहा—‘रे मूढ़! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान योद्धासे तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप।
प्रतीक्षन् गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः॥
मूलम्
इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप।
प्रतीक्षन् गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बाणासुरकी बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान् शंकरकी बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान् शंकरके आदेशानुसार उस युद्धकी प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्यका नाश होनेवाला था॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम्।
कन्यालभत कान्तेन प्रागदृष्टश्रुतेन सा॥
मूलम्
तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम्।
कन्यालभत कान्तेन प्रागदृष्टश्रुतेन सा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बाणासुरकी एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्नमें उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्धजीके साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्यकी बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजीको न तो कभी देखा था और न सुना ही था॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी।
सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम्॥
मूलम्
सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी।
सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वप्नमें ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे! तुम कहाँ हो?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलताके साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियोंके बीचमें हूँ, बहुत ही लज्जित हुई॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डश्चित्रलेखा च तत्सुता।
सख्यपृच्छत् सखीमूषां कौतूहलसमन्विता॥
मूलम्
बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डश्चित्रलेखा च तत्सुता।
सख्यपृच्छत् सखीमूषां कौतूहलसमन्विता॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बाणासुरके मन्त्रीका नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरेकी सहेलियाँ थीं। चित्रलेखाने ऊषासे कौतूहलवश पूछा—॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कं त्वं मृगयसे सुभ्रूः कीदृशस्ते मनोरथः।
हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये॥
मूलम्
कं त्वं मृगयसे सुभ्रूः कीदृशस्ते मनोरथः।
हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी! राजकुमारी! मैं देखती हूँ कि अभीतक किसीने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ़ रही हो और तुम्हारे मनोरथका क्या स्वरूप है?’॥ १५॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
ऊषोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः।
पीतवासा बृहद्बाहुर्योषितां हृदयङ्गमः॥
मूलम्
दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः।
पीतवासा बृहद्बाहुर्योषितां हृदयङ्गमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊषाने कहा—सखी! मैंने स्वप्नमें एक बहुत ही सुन्दर नवयुवकको देखा है। उसके शरीरका रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदलके समान हैं। शरीरपर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लम्बी-लम्बी हैं और वह स्त्रियोंका चित्त चुरानेवाला है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु।
क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे॥
मूलम्
तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु।
क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने पहले तो अपने अधरोंका मधुर मधु मुझे पिलाया, परन्तु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दुःखके सागरमें डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी! मैं अपने उसी प्राणवल्लभको ढूँढ़ रही हूँ॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
चित्रलेखोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते।
तमानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश॥
मूलम्
व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते।
तमानेष्ये नरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश॥
अनुवाद (हिन्दी)
चित्रलेखाने कहा—‘सखी! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकीमें कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्तचोर प्राणवल्लभको पहचानकर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा देवगन्धर्वसिद्धचारणपन्नगान्।
दैत्यविद्याधरान् यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत्॥
मूलम्
इत्युक्त्वा देवगन्धर्वसिद्धचारणपन्नगान्।
दैत्यविद्याधरान् यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यों कहकर चित्रलेखाने बात-की-बातमें बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्योंके चित्र बना दिये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनुजेषु च सा वृष्णीन् शूरमानकदुन्दुभिम्।
व्यलिखद् रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता॥
मूलम्
मनुजेषु च सा वृष्णीन् शूरमानकदुन्दुभिम्।
व्यलिखद् रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्योंमें उसने वृष्णिवंशी वसुदेवजीके पिता शूर, स्वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदिके चित्र बनाये। प्रद्युम्नका चित्र देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाङ्मुखी ह्रिया।
सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते॥
मूलम्
अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाङ्मुखी ह्रिया।
सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब उसने अनिरुद्धका चित्र देखा, तब तो लज्जाके मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा—‘मेरा वह प्राणवल्लभ यही है, यही है’॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी।
ययौ विहायसा राजन् द्वारकां कृष्णपालिताम्॥
मूलम्
चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी।
ययौ विहायसा राजन् द्वारकां कृष्णपालिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान् श्रीकृष्णके पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्गसे रात्रिमें ही भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहुँची॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र सुप्तं सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता।
गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्॥
मूलम्
तत्र सुप्तं सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता।
गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँगपर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धिके प्रभावसे उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके प्रियतमका दर्शन करा दिया॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना।
दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम्॥
मूलम्
सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना।
दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभको पाकर आनन्दकी अधिकतासे उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजीके साथ अपने महलमें विहार करने लगी। परीक्षित्! उसका अन्तःपुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँकतक नहीं सकता था॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
परार्घ्यवासःस्रग्गन्धधूपदीपासनादिभिः।
पानभोजनभक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषयार्चितः॥
मूलम्
परार्घ्यवासःस्रग्गन्धधूपदीपासनादिभिः।
पानभोजनभक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषयार्चितः॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रवृद्धस्नेहया तया।
नाहर्गणान् स बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः॥
मूलम्
गूढः कन्यापुरे शश्वत्प्रवृद्धस्नेहया तया।
नाहर्गणान् स बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊषाका प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियोंसे, सुमधुर पेय (पीनेयोग्य पदार्थ—दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खाने-योग्य) और भक्ष्य (निगल जानेयोग्य) पदार्थोंसे तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषासे अनिरुद्धजीका बड़ा सत्कार करती। ऊषाने अपने प्रेमसे उनके मनको अपने वशमें कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्याके अन्तःपुरमें छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बातका भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये॥ २५-२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम्।
हेतुभिर्लक्षयाञ्चक्रुराप्रीतां दुरवच्छदैः॥
मूलम्
तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम्।
हेतुभिर्लक्षयाञ्चक्रुराप्रीतां दुरवच्छदैः॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भटा आवेदयाञ्चक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम्।
विचेष्टितं लक्षयामः कन्यायाः कुलदूषणम्॥
मूलम्
भटा आवेदयाञ्चक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम्।
विचेष्टितं लक्षयामः कन्यायाः कुलदूषणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यदुकुमार अनिरुद्धजीके सहवाससे ऊषाका कुआँरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीरपर ऐसे चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बातकी सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारोंने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुषसे सम्बन्ध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुरसे निवेदन किया—‘राजन्! हमलोग आपकी अविवाहिता राजकुमारीका जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुलपर बट्टा लगानेवाला है॥ २७-२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनपायिभिरस्माभिर्गुप्तायाश्च गृहे प्रभो।
कन्याया दूषणं पुम्भिर्दुष्प्रेक्षाया न विद्महे॥
मूलम्
अनपायिभिरस्माभिर्गुप्तायाश्च गृहे प्रभो।
कन्याया दूषणं पुम्भिर्दुष्प्रेक्षाया न विद्महे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महलका पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्याको बाहरके मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गयी? इसका कारण हमारी समझमें नहीं आ रहा है’॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः।
त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद् यदूद्वहम्॥
मूलम्
ततः प्रव्यथितो बाणो दुहितुः श्रुतदूषणः।
त्वरितः कन्यकागारं प्राप्तोऽद्राक्षीद् यदूद्वहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! पहरेदारोंसे यह समाचार जानकर कि कन्याका चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुरके हृदयमें बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट ऊषाके महलमें जा धमका और देखा कि अनिरुद्धजी वहाँ बैठे हुए हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं
श्यामं पिशङ्गाम्बरमम्बुजेक्षणम्।
बृहद्भुजं कुण्डलकुन्तलत्विषा
स्मितावलोकेन च मण्डिताननम्॥
मूलम्
कामात्मजं तं भुवनैकसुन्दरं
श्यामं पिशङ्गाम्बरमम्बुजेक्षणम्।
बृहद्भुजं कुण्डलकुन्तलत्विषा
स्मितावलोकेन च मण्डिताननम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! अनिरुद्धजी स्वयं कामावतार प्रद्युम्नजीके पुत्र थे। त्रिभुवनमें उनके जैसा सुन्दर और कोई न था। साँवरा-सलोना शरीर और उसपर पीताम्बर फहराता हुआ, कमलदलके समान बड़ी-बड़ी कोमल आँखें, लम्बी-लम्बी भुजाएँ , कपोलोंपर घुँघराली अलकें और कुण्डलोंकी झिलमिलाती हुई ज्योति, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे मुखकी शोभा अनूठी हो रही थी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीव्यन्तमक्षैः प्रिययाभिनृम्णया
तदङ्गसङ्गस्तनकुङ्कुमस्रजम्।
बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां
तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः॥
मूलम्
दीव्यन्तमक्षैः प्रिययाभिनृम्णया
तदङ्गसङ्गस्तनकुङ्कुमस्रजम्।
बाह्वोर्दधानं मधुमल्लिकाश्रितां
तस्याग्र आसीनमवेक्ष्य विस्मितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनिरुद्धजी उस समय अपनी सब ओरसे सज-धजकर बैठी हुई प्रियतमा ऊषाके साथ पासे खेल रहे थे। उनके गलेमें बसंती बेलाके बहुत सुन्दर पुष्पोंका हार सुशोभित हो रहा था और उस हारमें ऊषाके अंगका सम्पर्क होनेसे उसके वक्षःस्थलकी केशर लगी हुई थी। उन्हें ऊषाके सामने ही बैठा देखकर बाणासुर विस्मित—चकित हो गया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं प्रविष्टं वृतमाततायिभि-
र्भटैरनीकैरवलोक्य माधवः।
उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो
यथान्तको दण्डधरो जिघांसया॥
मूलम्
स तं प्रविष्टं वृतमाततायिभि-
र्भटैरनीकैरवलोक्य माधवः।
उद्यम्य मौर्वं परिघं व्यवस्थितो
यथान्तको दण्डधरो जिघांसया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अनिरुद्धजीने देखा कि बाणासुर बहुत-से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महलोंमें घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देनेके लिये लोहेका एक भयंकर परिघ लेकर डट गये, मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिघृक्षया तान् परितः प्रसर्पतः
शुनो यथा सूकरयूथपोऽहनत्।
ते हन्यमाना भवनाद् विनिर्गता
निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः॥
मूलम्
जिघृक्षया तान् परितः प्रसर्पतः
शुनो यथा सूकरयूथपोऽहनत्।
ते हन्यमाना भवनाद् विनिर्गता
निर्भिन्नमूर्धोरुभुजाः प्रदुद्रुवुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणासुरके साथ आये हुए सैनिक उनको पकड़नेके लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जाते—ठीक वैसे ही, जैसे सूअरोंके दलका नायक कुत्तोंको मार डाले! अनिरुद्धजीकी चोटसे उन सैनिकोंके सिर, भुजा, जंघा आदि अंग टूट-फूट गये और वे महलोंसे निकल भागे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं नागपाशैर्बलिनन्दनो बली
घ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह।
ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला
बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत्॥
मूलम्
तं नागपाशैर्बलिनन्दनो बली
घ्नन्तं स्वसैन्यं कुपितो बबन्ध ह।
ऊषा भृशं शोकविषादविह्वला
बद्धं निशम्याश्रुकलाक्ष्यरौदिषीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बली बाणासुरने देखा कि यह तो मेरी सारी सेनाका संहार कर रहा है, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने नागपाशसे उन्हें बाँध लिया। ऊषाने जब सुना कि उसके प्रियतमको बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषादसे विह्वल हो गयी; उसके नेत्रोंसे आँसूकी धारा बहने लगी, वह रोने लगी॥ ३५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धेऽनिरुद्धबन्धो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥ ६२॥