[एकषष्टितमोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्की सन्ततिका वर्णन तथा अनिरुद्धके विवाहमें रुक्मीका मारा जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान् दश दशाबलाः।
अजीजनन्ननवमान्पितुः सर्वात्मसम्पदा॥
मूलम्
एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान् दश दशाबलाः।
अजीजनन्ननवमान्पितुः सर्वात्मसम्पदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणोंमें अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्।
प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः॥
मूलम्
गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्।
प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान् श्रीकृष्ण हमारे महलसे कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्णको मैं ही सबसे प्यारी हूँ। परीक्षित्! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान् श्रीकृष्णका तत्त्व—उनकी महिमा नहीं समझती थीं॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र-
सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः।
सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं
स्वैर्विभ्रमैः समशकन् वनिता विभूम्नः॥
मूलम्
चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र-
सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः।
सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं
स्वैर्विभ्रमैः समशकन् वनिता विभूम्नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्दमें एकरस स्थित भगवान् श्रीकृष्णके कमल-कलीके समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणीसे स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने शृंगारसम्बन्धी हावभावोंसे उनके मनको अपनी ओर खींचनेमें समर्थ न हो सकीं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणै-
र्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः॥
मूलम्
स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि-
भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः।
पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणै-
र्यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोलह हजारसे अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त मनोहर भौंहोंके इशारेसे ऐसे प्रेमके बाण चलाती थीं, जो काम-कलाके भावोंसे परिपूर्ण होते थे, परन्तु किसी भी प्रकारसे, किन्हीं साधनोंके द्वारा वे भगवान्के मन एवं इन्द्रियोंमें चंचलता नहीं उत्पन्न कर सकीं॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्मायावलोकः स्मयकार्यवलोकजम् ॥ ४-३१ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम्॥
मूलम्
इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्के वास्तविक स्वरूपको या उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागमकी लालसा आदिसे भगवान्की सेवा करती रहती थीं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यै-
र्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥
मूलम्
प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यै-
र्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महलमें भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने हाथों भगवान्की सेवा करतीं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः।
अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान् प्रद्युम्नादीन् गृणामि ते॥
मूलम्
तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः।
अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान् प्रद्युम्नादीन् गृणामि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! मैं कह चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके दस-दस पुत्र थे। उन रानियोंमें आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाहका वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्न आदि पुत्रोंका वर्णन करता हूँ॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्।
सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः॥
मूलम्
चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्।
सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः।
प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः॥
मूलम्
चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः।
प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मिणीके गर्भसे दस पुत्र हुए—प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान् श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे॥ ८-९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा।
चन्द्रभानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः॥
मूलम्
भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा।
चन्द्रभानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश।
साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित्॥
मूलम्
श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश।
साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित्॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान् द्रविडः क्रतुः।
जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसंमताः॥
मूलम्
विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान् द्रविडः क्रतुः।
जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसंमताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यभामाके भी दस पुत्र थे—भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवतीके भी साम्ब आदि दस पुत्र थे—साम्ब, सुमित्र, पुरुजित् , शतजित् , सहस्रजित् , विजय, चित्रकेतु , वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्णको बहुत प्यारे थे॥ १०—१२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरश्चन्द्रोऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान् वृषः।
आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान् कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः॥
मूलम्
वीरश्चन्द्रोऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान् वृषः।
आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान् कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाग्नजिती सत्याके भी दस पुत्र हुए—वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शंकु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः।
शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः॥
मूलम्
श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः।
शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालिन्दीके दस पुत्र ये थे—श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोटा सोमक॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः।
माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः॥
मूलम्
प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः।
माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मद्रदेशकी राजकुमारी लक्ष्मणाके गर्भसे प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजितका जन्म हुआ॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च।
महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः॥
मूलम्
वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च।
महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्रविन्दाके पुत्र थे—वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और क्षुधि॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
संग्रामजिद् बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्।
जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः॥
मूलम्
संग्रामजिद् बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्।
जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भद्राके पुत्र थे—संग्रामजित् , बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित् , जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः।
प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः॥
मूलम्
दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः।
प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन् नाम्ना भोजकटे पुरे।
एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप।
मातरः कृष्णजातानां सहस्राणि च षोडश॥
मूलम्
पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन् नाम्ना भोजकटे पुरे।
एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप।
मातरः कृष्णजातानां सहस्राणि च षोडश॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन पटरानियोंके अतिरिक्त भगवान्की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नका मायावती रतिके अतिरिक्त भोजकट-नगर-निवासी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे भी विवाह हुआ था। उसीके गर्भसे परम बलशाली अनिरुद्धका जन्म हुआ। परीक्षित्! श्रीकृष्णके पुत्रोंकी माताएँ ही सोलह हजारसे अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या करोड़ोंतक पहुँच गयी॥ १८-१९॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद् दुहितरं युधि।
कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते।
एतदाख्याहि मे विद्वन् द्विषोर्वैवाहिकं मिथः॥
मूलम्
कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद् दुहितरं युधि।
कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते।
एतदाख्याहि मे विद्वन् द्विषोर्वैवाहिकं मिथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—परम ज्ञानी मुनीश्वर! भगवान् श्रीकृष्णने रणभूमिमें रुक्मीका बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बातकी घातमें रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थितिमें उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रुके पुत्र प्रद्युम्नजीको कैसे ब्याह दी? कृपा करके बतलाइये! दो शत्रुओंमें—श्रीकृष्ण और रुक्मीमें फिरसे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ?॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्।
विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक् पश्यन्ति योगिनः॥
मूलम्
अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्।
विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक् पश्यन्ति योगिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहतीं; जो इन्द्रियोंसे परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीचमें किसी वस्तुकी आड़ होनेके कारण नहीं दीखतीं॥ २१॥
श्लोक-२२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया।
राज्ञः समेतान् निर्जित्य जहारैकरथो युधि॥
मूलम्
वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया।
राज्ञः समेतान् निर्जित्य जहारैकरथो युधि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! प्रद्युम्नजी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवतीने स्वयंवरमें उन्हींको वरमाला पहना दी। प्रद्युम्नजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियोंको जीत लिया और रुक्मवतीको हर लाये॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यप्यनुस्मरन् वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः।
व्यतरद् भागिनेयाय सुतां कुर्वन् स्वसुः प्रियम्॥
मूलम्
यद्यप्यनुस्मरन् वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः।
व्यतरद् भागिनेयाय सुतां कुर्वन् स्वसुः प्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णसे अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्नको अपनी बेटी ब्याह दी॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मिण्यास्तनयां राजन् कृतवर्मसुतो बली।
उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल॥
मूलम्
रुक्मिण्यास्तनयां राजन् कृतवर्मसुतो बली।
उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! दस पुत्रोंके अतिरिक्त रुक्मिणीजीके एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने उसके साथ विवाह किया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्यददाद्धरेः।
रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया।
जानन्नधर्मं तद् यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः॥
मूलम्
दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्यददाद्धरेः।
रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया।
जानन्नधर्मं तद् यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रुक्मीका भगवान् श्रीकृष्णके साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मीको इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाह-सम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह–बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नभ्युदये राजन् रुक्मिणी रामकेशवौ।
पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः॥
मूलम्
तस्मिन्नभ्युदये राजन् रुक्मिणी रामकेशवौ।
पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः।
दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय॥
मूलम्
तस्मिन् निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः।
दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंगनरेश आदि घमंडी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि ‘तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्।
इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षै रुक्म्यदीव्यत॥
मूलम्
अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्।
इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षै रुक्म्यदीव्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्।
तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद् बलम्।
दन्तान् सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः॥
मूलम्
शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्।
तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद् बलम्।
दन्तान् सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत होनेपर कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद् ग्लहं तत्राजयद् बलः।
जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः॥
मूलम्
ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद् ग्लहं तत्राजयद् बलः।
जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया। परन्तु रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है’॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्युना क्षुभितः श्रीमान् समुद्र इव पर्वणि।
जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे॥
मूलम्
मन्युना क्षुभितः श्रीमान् समुद्र इव पर्वणि।
जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदयमें इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमाके दिन समुद्रमें ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधके मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं चापि जितवान् रामो धर्मेणच्छलमाश्रितः।
रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति॥
मूलम्
तं चापि जितवान् रामो धर्मेणच्छलमाश्रितः।
रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई। परन्तु रुक्मीने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें’॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धर्मेण रामः जितवानित्यन्वयः छलमाश्रित्य रुक्मी मया जितमित्याहेत्यन्वयः ॥ ३२-४० ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीय एकषष्टितमोऽध्याय ॥ ६१ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः।
धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा॥
मूलम्
तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः।
धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशवाणीने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है’॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः।
सङ्कर्षणं परिहसन् बभाषे कालचोदितः॥
मूलम्
तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः।
सङ्कर्षणं परिहसन् बभाषे कालचोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा—॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः॥
मूलम्
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बलरामजी! आखिर आपलोग वन-वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणोंसे तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं’॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः।
क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि॥
मूलम्
रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः।
क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे।
दन्तानपातयत् क्रुद्धो योऽहसद् विवृतैर्द्विजैः॥
मूलम्
कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे।
दन्तानपातयत् क्रुद्धो योऽहसद् विवृतैर्द्विजैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परन्तु बलरामजीने दस ही कदमपर उसे पकड़ लिया और क्रोधसे उसके दाँत तोड़ डाले॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिताः।
राजानो दुद्रुवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः॥
मूलम्
अन्ये निर्भिन्नबाहूरुशिरसो रुधिरोक्षिताः।
राजानो दुद्रुवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओंकी भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत् साध्वसाधु वा।
रुक्मिणीबलयो राजन् स्नेहभङ्गभयाद्धरिः॥
मूलम्
निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत् साध्वसाधु वा।
रुक्मिणीबलयो राजन् स्नेहभङ्गभयाद्धरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि बलरामजीका समर्थन करनेसे रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मीकी मृत्युपर भला-बुरा कुछ भी न कहा॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं
रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्।
रामादयो भोजकटाद् दशार्हाः
सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः॥
मूलम्
ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं
रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्।
रामादयो भोजकटाद् दशार्हाः
सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अनिरुद्धजीका विवाह और शत्रुका वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर भगवान्के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचनाके साथ अनिरुद्धजीको श्रेष्ठ रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे द्वारकापुरीको चले आये॥ ४०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः॥ ६१॥