६० श्रीकृष्णरुक्मिणीसंवादः

[षष्टितमोऽध्यायः]

भागसूचना

श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-संवाद

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्हिचित् सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद‍्गुरुम्।
पतिं पर्यचरद् भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः॥

मूलम्

कर्हिचित् सुखमासीनं स्वतल्पस्थं जगद‍्गुरुम्।
पतिं पर्यचरद् भैष्मी व्यजनेन सखीजनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन समस्त जगत‍्के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजीके पलँगपर आरामसे बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणीजी सखियोंके साथ अपने पतिदेवकी सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः।
स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः॥

मूलम्

यस्त्वेतल्लीलया विश्वं सृजत्यत्त्यवतीश्वरः।
स हि जातः स्वसेतूनां गोपीथाय यदुष्वजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जो सर्वशक्तिमान् भगवान् खेल-खेलमें ही इस जगत‍्की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं—वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नन्तर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना।
विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि॥

मूलम्

तस्मिन्नन्तर्गृहे भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना।
विराजिते वितानेन दीपैर्मणिमयैरपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीजीका महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिनमें मोतियोंकी लड़ियोंकी झालरें लटक रही थीं। मणियोंके दीपक जगमगा रहे थे॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भ्राजन्मुक्तादामविलम्बिना भ्राजत् विलम्बमानमुक्तादामवता ॥ ३-१२ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादितैः।
जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः॥

मूलम्

मल्लिकादामभिः पुष्पैर्द्विरेफकुलनादितैः।
जालरन्ध्रप्रविष्टैश्च गोभिश्चन्द्रमसोऽमलैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेला-चमेलीके फूल और हार मँह-मँह महक रहे थे। फूलोंपर झुंड-के-झुंड भौंरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखोंकी जालियोंमेंसे चन्द्रमाकी शुभ्र किरणें महलके भीतर छिटक रही थीं॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना।
धूपैरगुरुजै राजन् जालरन्ध्रविनिर्गतैः॥

मूलम्

पारिजातवनामोदवायुनोद्यानशालिना।
धूपैरगुरुजै राजन् जालरन्ध्रविनिर्गतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्यानमें पारिजातके उपवनकी सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखोंकी जालियोंमेंसे अगरके धूपका धूआँ बाहर निकल रहा था॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पयः फेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे।
उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम्॥

मूलम्

पयः फेननिभे शुभ्रे पर्यङ्के कशिपूत्तमे।
उपतस्थे सुखासीनं जगतामीश्वरं पतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे महलमें दूधके फेनके समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनोंसे युक्त सुन्दर पलँगपर भगवान् श्रीकृष्ण बड़े आनन्दसे विराजमान थे और रुक्मिणीजी त्रिलोकीके स्वामीको पतिरूपमें प्राप्त करके उनकी सेवा कर रही थीं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्।
तेन वीजयती देवी उपासाञ्चक्र ईश्वरम्॥

मूलम्

वालव्यजनमादाय रत्नदण्डं सखीकरात्।
तेन वीजयती देवी उपासाञ्चक्र ईश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीजीने अपनी सखीके हाथसे वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नोंकी डाँडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणीजी उसे डुला-डुलाकर भगवान‍्की सेवा करने लगीं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां
रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता।
वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार-
भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्‍च्‍या॥

मूलम्

सोपाच्युतं क्वणयती मणिनूपुराभ्यां
रेजेऽङ्गुलीयवलयव्यजनाग्रहस्ता।
वस्त्रान्तगूढकुचकुङ्कुमशोणहार-
भासा नितम्बधृतया च परार्ध्यकाञ्‍च्‍या॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके करकमलोंमें जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणोंमें मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अंचलके नीचे छिपे हुए स्तनोंकी केशरकी लालिमासे हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्बभागमें बहुमूल्य करधनीकी लड़ियाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान‍्के पास ही रहकर उनकी सेवामें संलग्न थीं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य
या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा।
प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ-
वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे॥

मूलम्

तां रूपिणीं श्रियमनन्यगतिं निरीक्ष्य
या लीलया धृततनोरनुरूपरूपा।
प्रीतः स्मयन्नलककुण्डलनिष्ककण्ठ-
वक्त्रोल्लसत्स्मितसुधां हरिराबभाषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीजीकी घुँघराली अलकें, कानोंके कुण्डल और गलेके स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्रसे मुसकराहटकी अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान‍्ने लीलाके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणीजी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेमसे मुसकराते हुए उनसे कहा॥ ९॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः।
महानुभावैः श्रीमद‍्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः॥

मूलम्

राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभिः।
महानुभावैः श्रीमद‍्भी रूपौदार्यबलोर्जितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालोंके समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बलमें भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन् स्मरदुर्मदान्।
दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान्॥

मूलम्

तान् प्राप्तानर्थिनो हित्वा चैद्यादीन् स्मरदुर्मदान्।
दत्ता भ्रात्रा स्वपित्रा च कस्मान्नो ववृषेऽसमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हींके साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँतक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरोंको, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्तिको, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया?॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रूः समुद्रं शरणं गतान्।
बलवद‍्भिः कृतद्वेषान् प्रायस्त्यक्तनृपासनान्॥

मूलम्

राजभ्यो बिभ्यतः सुभ्रूः समुद्रं शरणं गतान्।
बलवद‍्भिः कृतद्वेषान् प्रायस्त्यक्तनृपासनान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानोंसे हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासनके अधिकारसे भी हम वंचित ही हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्पष्टवर्त्मनां पुंसामलोकपथमीयुषाम्।
आस्थिताः पदवीं सुभ्रूः प्रायः सीदन्ति योषितः॥

मूलम्

अस्पष्टवर्त्मनां पुंसामलोकपथमीयुषाम्।
आस्थिताः पदवीं सुभ्रूः प्रायः सीदन्ति योषितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! हम किस मार्गके अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगोंको अच्छी तरह मालूम नहीं है। हमलोग लौकिक व्यवहारका भी ठीक-ठीक पालन नहीं करते, अनुनय-विनयके द्वारा स्त्रियोंको रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषोंका अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अलोकपथमीयुषां पुंसां पदवीमित्यन्वयः ॥ १३-२० ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः।
तस्मात् प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे॥

मूलम्

निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रियाः।
तस्मात् प्रायेण न ह्याढ्या मां भजन्ति सुमध्यमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! हम तो सदाके अकिंचन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिंचन लोगोंसे हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपनेको धनी समझनेवाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः।
तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित्॥

मूलम्

ययोरात्मसमं वित्तं जन्मैश्वर्याकृतिर्भवः।
तयोर्विवाहो मैत्री च नोत्तमाधमयोः क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है—उन्हींसे विवाह और मित्रताका सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपनेसे श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयादीर्घसमीक्षया।
वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा॥

मूलम्

वैदर्भ्येतदविज्ञाय त्वयादीर्घसमीक्षया।
वृता वयं गुणैर्हीना भिक्षुभिः श्लाघिता मुधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिताके कारण इन बातोंका विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकोंसे मेरी झूठी प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीनको वरण कर लिया॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्।
येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे॥

मूलम्

अथात्मनोऽनुरूपं वै भजस्व क्षत्रियर्षभम्।
येन त्वमाशिषः सत्या इहामुत्र च लप्स्यसे॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रियको वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोककी सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

चैद्यशाल्वजरासन्धदन्तवक्त्रादयो नृपाः।
मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः॥

मूलम्

चैद्यशाल्वजरासन्धदन्तवक्त्रादयो नृपाः।
मम द्विषन्ति वामोरु रुक्मी चापि तवाग्रजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी-सभी मुझसे द्वेष करते थे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये।
आनीतासि मया भद्रे तेजोऽपहरतासताम्॥

मूलम्

तेषां वीर्यमदान्धानां दृप्तानां स्मयनुत्तये।
आनीतासि मया भद्रे तेजोऽपहरतासताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्याणी! वे सब बल-पौरुषके मदसे अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसीको कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टोंका मान मर्दन करनेके लिये ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः॥

मूलम्

उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रियाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धनके लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेहसे सम्बन्धरहित दीपशिखाके समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्माके साक्षात्कारसे ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव।
मन्यमानामविश्लेषात् तद्दर्पघ्न उपारमत्॥

मूलम्

एतावदुक्त्वा भगवानात्मानं वल्लभामिव।
मन्यमानामविश्लेषात् तद्दर्पघ्न उपारमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके क्षणभरके लिये भी अलग न होनेके कारण रुक्मिणीजीको यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्वकी शान्तिके लिये इतना कहकर भगवान् चुप हो गये॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वल्लभां मन्यमानाम् अलं वल्लभीकृत्याभिमानवतीम् ॥ २१- ३३ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति त्रिलोकेशपतेस्तदाऽऽत्मनः
प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्।
आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-
श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह॥

मूलम्

इति त्रिलोकेशपतेस्तदाऽऽत्मनः
प्रियस्य देव्यश्रुतपूर्वमप्रियम्।
आश्रुत्य भीता हृदि जातवेपथु-
श्चिन्तां दुरन्तां रुदती जगाम ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब रुक्मिणीजीने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान‍्की यह अप्रिय वाणी सुनी—जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ताके अगाध समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया
भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः।
आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ
तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक्॥

मूलम्

पदा सुजातेन नखारुणश्रिया
भुवं लिखन्त्यश्रुभिरञ्जनासितैः।
आसिञ्चती कुङ्कुमरूषितौ स्तनौ
तस्थावधोमुख्यतिदुःखरुद्धवाक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने कमलके समान कोमल और नखोंकी लालिमासे कुछ-कुछ लाल प्रतीत होनेवाले चरणोंसे धरती कुरेदने लगीं। अंजनसे मिले हुए काले-काले आँसू केशरसे रँगे हुए वक्षःस्थलको धोने लगे। मुँह नीचेको लटक गया। अत्यन्त दुःखके कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धे-
र्हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात।
देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्
रम्भेव वायुविहता प्रविकीर्य केशान्॥

मूलम्

तस्याः सुदुःखभयशोकविनष्टबुद्धे-
र्हस्ताच्छ्लथद्वलयतो व्यजनं पपात।
देहश्च विक्लवधियः सहसैव मुह्यन्
रम्भेव वायुविहता प्रविकीर्य केशान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त व्यथा, भय और शोकके कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोगकी सम्भावनासे वे तत्क्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाईका कंगनतक खिसक गया। हाथका चँवर गिर पड़ा, बुद्धिकी विकलताके कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेगसे उखड़े हुए केलेके खंभेकी तरह धरतीपर गिर पड़ीं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्।
हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत॥

मूलम्

तद् दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः प्रियायाः प्रेमबन्धनम्।
हास्यप्रौढिमजानन्त्याः करुणः सोऽन्वकम्पत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणीजी हास्य-विनोदकी गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाशकी दृढ़ताके कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभावसे ही परम कारुणिक भगवान् श्रीकृष्णका हृदय उनके प्रति करुणासे भर गया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः।
केशान् समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत् पद्मपाणिना॥

मूलम्

पर्यङ्कादवरुह्याशु तामुत्थाप्य चतुर्भुजः।
केशान् समुह्य तद्वक्त्रं प्रामृजत् पद्मपाणिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार भुजाओंवाले वे भगवान् उसी समय पलँगसे उतर पड़े और रुक्मिणीजीको उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशोंको बाँधकर अपने शीतल करकमलोंसे उनका मुँह पोंछ दिया॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा।
आश्लिष्य बाहुना राजन्ननन्यविषयां सतीम्॥

मूलम्

प्रमृज्याश्रुकले नेत्रे स्तनौ चोपहतौ शुचा।
आश्लिष्य बाहुना राजन्ननन्यविषयां सतीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने उनके नेत्रोंके आँसू और शोकके आँसुओंसे भींगे हुए स्तनोंको पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखनेवाली उन सती रुक्मिणीजीको बाँहोंमें भरकर छातीसे लगा लिया॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः।
हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः॥

मूलम्

सान्त्वयामास सान्त्वज्ञः कृपया कृपणां प्रभुः।
हास्यप्रौढिभ्रमच्चित्तामतदर्हां सतां गतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझानेमें बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तोंके एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्यकी गम्भीरताके कारण रुक्मिणीजीकी बुद्धि चक्‍करमें पड़ गयी है और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्थाके अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणीजीको समझाया॥ २८॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्।
त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याऽऽचरितमङ्गने॥

मूलम्

मा मा वैदर्भ्यसूयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्।
त्वद्वचः श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याऽऽचरितमङ्गने॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—विदर्भनन्दिनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुननेके लिये ही मैंने हँसी-हँसीमें यह छलना की थी॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुखं च प्रेमसंरम्भस्फुरिताधरमीक्षितुम्।
कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम्॥

मूलम्

मुखं च प्रेमसंरम्भस्फुरिताधरमीक्षितुम्।
कटाक्षेपारुणापाङ्गं सुन्दरभ्रुकुटीतटम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहनेपर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोपसे किस प्रकार फड़कने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखनेसे नेत्रोंमें कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जानेके कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्।
यन्नर्मैर्नीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि॥

मूलम्

अयं हि परमो लाभो गृहेषु गृहमेधिनाम्।
यन्नर्मैर्नीयते यामः प्रियया भीरु भामिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी परमप्रिये! सुन्दरी! घरके काम-धंधोंमें रात-दिन लगे रहनेवाले गृहस्थोंके लिये घर-गृहस्थीमें इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अर्द्धांगिनीके साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घड़ियाँ सुखसे बिता ली जाती हैं॥ ३१॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवं भगवता राजन् वैदर्भी परिसान्त्विता।
ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ॥

मूलम्

सैवं भगवता राजन् वैदर्भी परिसान्त्विता।
ज्ञात्वा तत्परिहासोक्तिं प्रियत्यागभयं जहौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! जब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी प्राणप्रियाको इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतमने केवल परिहासमें ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदयसे यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्।
सव्रीडहासरुचिरस्निग्धापाङ्गेन भारत॥

मूलम्

बभाष ऋषभं पुंसां वीक्षन्ती भगवन्मुखम्।
सव्रीडहासरुचिरस्निग्धापाङ्गेन भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवनसे पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णका मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं—॥ ३३॥

श्लोक-३४

मूलम् (वचनम्)

रुक्मिण्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह
यद् वै भवान् भगवतोऽसदृशी विभूम्नः।
क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः
क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा॥

मूलम्

नन्वेवमेतदरविन्दविलोचनाह
यद् वै भवान् भगवतोऽसदृशी विभूम्नः।
क्व स्वे महिम्न्यभिरतो भगवांस्त्र्यधीशः
क्वाहं गुणप्रकृतिरज्ञगृहीतपादा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीजीने कहा—कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणोंसे युक्त, अनन्त भगवान‍्के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमामें स्थित, तीनों गुणोंके स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंसे सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणोंके अनुसार स्वभाव रखनेवाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओंके पीछे भटकनेवाले अज्ञानी लोग ही करते हैं॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यधीशः ब्रह्मेन्द्राणामधीशः गुणानां सत्त्वादीनां लोकानां वा अज्ञगृहीतपादा किरणः प्रभाव अज्ञानप्रतिबद्धज्ञानेत्यर्थः । गुणप्रकृतिः गुणवश्यास्वभावा एवं भगवतो रुक्मिण्याश्च एवम्विधा वादा: मनुष्यसाजात्यानुगुणाः इतरेषाम् अज्ञानात्मानुगुणः इतरेषाम् अज्ञानामिव लीलया ज्ञानानामिव न स्वाभाविकसार्वज्ञादि विरोधः ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः
शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा।
नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं
त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम्॥

मूलम्

सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरुक्रमान्तः
शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा।
नित्यं कदिन्द्रियगणैः कृतविग्रहस्त्वं
त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमोऽन्धम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भला, मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओंके भयसे समुद्रमें आ छिपे हैं। परन्तु राजा शब्दका अर्थ पृथ्वीके राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हींके भयसे अन्तःकरणरूप समुद्रमें चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्माके रूपमें विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओंसे वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो! आप राजसिंहासनसे रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणोंकी सेवा करनेवालोंने भी राजाके पदको घोर अज्ञानान्धकार समझकर दूरसे ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपलम्भनमात्रः ज्ञानस्वरूपः न कापि जडः ॥ ३५-३६ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां
वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्।
यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य
भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम्॥

मूलम्

त्वत्पादपद्ममकरन्दजुषां मुनीनां
वर्त्मास्फुटं नृपशुभिर्ननु दुर्विभाव्यम्।
यस्मादलौकिकमिवेहितमीश्वरस्य
भूमंस्तवेहितमथो अनु ये भवन्तम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मोंका मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयोंमें उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त! आपके मार्गपर चलनेवाले आपके भक्तोंकी भी चेष्टाएँ जब प्रायः अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्योंके आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है?॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्किञ्चनो ननु भवान् न यतोऽस्ति किञ्चिद्
यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः।
न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः
प्रेष्ठो भवान् बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम्॥

मूलम्

निष्किञ्चनो ननु भवान् न यतोऽस्ति किञ्चिद्
यस्मै बलिं बलिभुजोऽपि हरन्त्यजाद्याः।
न त्वा विदन्त्यसुतृपोऽन्तकमाढ्यतान्धाः
प्रेष्ठो भवान् बलिभुजामपि तेऽपि तुभ्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने अपनेको अकिंचन बतलाया है; परन्तु आपकी अकिंचनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखनेके लिये कुछ नहीं है। परन्तु जिन ब्रह्मा आदि देवताओंकी पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्य लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यताके अभिमानसे अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्युके रूपमें उनके सिरपर सवार हैं॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बलिभुजः हविर्भोक्तारः अजाद्याः ब्रह्माद्याः बलिभुजां ब्रह्मादीनां प्रेष्ठं प्रियतमं त्वाम् असुतृपः प्राणतपकाः न विदुस्तेऽपि ब्रह्मादयोपि तुभ्यं तव शेषभूता इत्यर्थः ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा
यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्।
तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः
पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न॥

मूलम्

त्वं वै समस्तपुरुषार्थमयः फलात्मा
यद्वाञ्छया सुमतयो विसृजन्ति कृत्स्नम्।
तेषां विभो समुचितो भवतः समाजः
पुंसः स्त्रियाश्च रतयोः सुखदुःखिनोर्न॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत‍्में जीवके लिये जितने भी वाञ्छनीय पदार्थ हैं—धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—उन सबके रूपमें आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियों—प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्योंके फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करनेके लिये सब कुछ छोड़ देते हैं। भगवन्! उन्हीं विवेकी पुरुषोंका आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुषके सहवाससे प्राप्त होनेवाले सुख या दुःखके वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करनेके योग्य नहीं हैं॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तेषां मुनीनां समाजः तवोचितः स्त्रीपुंसोरतयोः नः समुचितः अजितेन्द्रियाणां जन्तूनां न सुखायेत्यर्थः ॥ ३८-४० ॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव
आत्माऽऽत्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि।
हित्वा भवद‍्भ्रुव उदीरितकालवेग-
ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन् कुतोऽन्ये॥

मूलम्

त्वं न्यस्तदण्डमुनिभिर्गदितानुभाव
आत्माऽऽत्मदश्च जगतामिति मे वृतोऽसि।
हित्वा भवद‍्भ्रुव उदीरितकालवेग-
ध्वस्ताशिषोऽब्जभवनाकपतीन् कुतोऽन्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ठीक है कि भिक्षुकोंने आपकी प्रशंसा की है। परन्तु किन भिक्षुकोंने? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओंने आपकी महिमा और प्रभावका वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्तिको भी दण्ड न देनेका निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शितासे नहीं, इस बातको समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत‍्के आत्मा हैं और अपने प्रेमियोंको आत्मदान करते हैं। मैंने जान-बूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदिका भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहोंके इशारेसे पैदा होनेवाला काल अपने वेगसे उनकी आशा-अभिलाषाओंपर पानी फेर देता है। फिर दूसरोंकी—शिशुपाल, दन्तवक्त्र या जरासन्धकी तो बात ही क्या है?॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्
विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्।
सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून् स्वभागं
तेभ्यो भयाद् यदुदधिं शरणं प्रपन्नः॥

मूलम्

जाड्यं वचस्तव गदाग्रज यस्तु भूपान्
विद्राव्य शार्ङ्गनिनदेन जहर्थ मां त्वम्।
सिंहो यथा स्वबलिमीश पशून् स्वभागं
तेभ्यो भयाद् यदुदधिं शरणं प्रपन्नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओंसे भयभीत होकर समुद्रमें आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने शार्ङ्गधनुषके टंकारसे मेरे विवाहके समय आये हुए समस्त राजाओंको भगाकर अपने चरणोंमें समर्पित मुझ दासीको उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपनी कर्कश ध्वनिसे वन-पशुओंको भगाकर अपना भाग ले आवे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य-
जायन्तनाहुषगयादय ऐकपत्यम्।
राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष
सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम्॥

मूलम्

यद्वाञ्छया नृपशिखामणयोऽङ्गवैन्य-
जायन्तनाहुषगयादय ऐकपत्यम्।
राज्यं विसृज्य विविशुर्वनमम्बुजाक्ष
सीदन्ति तेऽनुपदवीं त इहास्थिताः किम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन कालके अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पानेकी अभिलाषासे तपस्या करने वनमें चले गये थे, वे आपके मार्गका अनुसरण करनेके कारण क्या किसी प्रकारका कष्ट उठा रहे हैं॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जायन्तः जयन्तीपुत्रः ऐकपत्यं पत्यन्तरशून्यम् ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्ध-
माघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्।
लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य
मर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टिः॥

मूलम्

कान्यं श्रयेत तव पादसरोजगन्ध-
माघ्राय सन्मुखरितं जनतापवर्गम्।
लक्ष्म्यालयं त्वविगणय्य गुणालयस्य
मर्त्या सदोरुभयमर्थविविक्तदृष्टिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमारका वरण कर लो। भगवन्! आप समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलोंकी सुगन्धका बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेनेमात्रसे लोग संसारके पाप-तापसे मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हींमें निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थको भलीभाँति समझनेवाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलोंकी सुगन्ध सूँघनेको मिल जाय और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगोंको वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयोंसे युक्त हैं! कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सन्मुखरितं सद्भिः स्तुत जनानामपवर्गहेतुं तव पादसरोजमाघ्राय का स्त्री तदनादृत्य अर्थविविक्तदष्टिः पुरुषार्थविषय विविक्तज्ञानवती स्यात् त्वत्पादपद्मोपेक्षिणी चेत् न पुरुषार्थाभिज्ञेत्यर्थः ॥ ४२ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीश-
मात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्।
स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या
यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः॥

मूलम्

तं त्वानुरूपमभजं जगतामधीश-
मात्मानमत्र च परत्र च कामपूरम्।
स्यान्मे तवाङ्घ्रिररणं सृतिभिर्भ्रमन्त्या
यो वै भजन्तमुपयात्यनृतापवर्गः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सारे जगत‍्के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोकमें समस्त आशाओंको पूर्ण करनेवाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मोंके अनुसार विभिन्न योनियोंमें भटकना पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करनेवालोंका मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करनेवाले तथा उन्हें अपना स्वरूपतक दे डालनेवाले आप परमेश्वरके चरणोंकी शरणमें रहूँ॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

या अपवर्गहेतुभूतं भगवन्तं वारयति जहाति सा नृताचेष्टेत्यर्थः ॥ ४३ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः
स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वबिडालभृत्याः।
यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्
युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता॥

मूलम्

तस्याः स्युरच्युत नृपा भवतोपदिष्टाः
स्त्रीणां गृहेषु खरगोश्वबिडालभृत्याः।
यत्कर्णमूलमरिकर्षण नोपयायाद्
युष्मत्कथा मृडविरिञ्चसभासु गीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्युत! शत्रुसूदन! गधोंके समान घरका बोझा ढोनेवाले, बैलोंके समान गृहस्थीके व्यापारोंमें जुते रहकर कष्ट उठानेवाले, कुत्तोंके समान तिरस्कार सहनेवाले, बिलावके समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासोंके समान स्त्रीकी सेवा करनेवाले शिशुपाल आदि राजालोग, जिन्हें वरण करनेके लिये आपने मुझे संकेत किया है—उसी अभागिनी स्त्रीके पति हों, जिनके कानोंमें भगवान् शंकर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरोंकी सभामें गायी जानेवाली आपकी लीलाकथाने प्रवेश नहीं किया है॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्त-
र्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्।
जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा
या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री॥

मूलम्

त्वक्श्मश्रुरोमनखकेशपिनद्धमन्त-
र्मांसास्थिरक्तकृमिविट्कफपित्तवातम्।
जीवच्छवं भजति कान्तमतिर्विमूढा
या ते पदाब्जमकरन्दमजिघ्रती स्त्री॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनुष्यका शरीर जीवित होनेपर भी मुर्दा ही है। ऊपरसे चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ , नख और केशोंसे ढका हुआ है; परन्तु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ़ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्दके मकरन्दकी सुगन्ध सूँघनेको नहीं मिली है॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विमूढा अज्ञा या स्त्री का त्वत्पादपमृजिघ्रती भवती स जीवच्छवं भजति ॥ ४५-५९ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीयं षष्टितमोऽध्याय ॥ ६० ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग
आत्मन् रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः।
यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो
मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा॥

मूलम्

अस्त्वम्बुजाक्ष मम ते चरणानुराग
आत्मन् रतस्य मयि चानतिरिक्तदृष्टेः।
यर्ह्यस्य वृद्धय उपात्तरजोऽतिमात्रो
मामीक्षसे तदु ह नः परमानुकम्पा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातोंपर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अतः आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलोंमें मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसारकी अभिवृद्धिके लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन।
अम्बाया इव हि प्रायः कन्यायाः स्याद् रतिः क्वचित्॥

मूलम्

नैवालीकमहं मन्ये वचस्ते मधुसूदन।
अम्बाया इव हि प्रायः कन्यायाः स्याद् रतिः क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुसूदन! आपने कहा कि किसी अनुरूप वरको वरण कर लो। मैं आपकी इस बातको भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुषके द्वारा जीती जानेपर भी काशीनरेशकी कन्या अम्बाके समान किसी-किसीकी दूसरे पुरुषमें भी प्रीति रहती है॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्।
बुधोऽसतीं न बिभृयात् तां बिभ्रदुभयच्युतः॥

मूलम्

व्यूढायाश्चापि पुंश्चल्या मनोऽभ्येति नवं नवम्।
बुधोऽसतीं न बिभृयात् तां बिभ्रदुभयच्युतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलटा स्त्रीका मन तो विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंकी ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्रीको अपने पास न रखे। उसे अपनानेवाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है॥ ४८॥

श्लोक-४९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्रि प्रलम्भिता।
मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत् सत्यमेव हि॥

मूलम्

साध्व्येतच्छ्रोतुकामैस्त्वं राजपुत्रि प्रलम्भिता।
मयोदितं यदन्वात्थ सर्वं तत् सत्यमेव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—साध्वी! राजकुमारी! यही बातें सुननेके लिये तो मैंने तुमसे हँसी-हँसीमें तुम्हारी वंचना की थी, तुम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनोंकी जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरशः सत्य है॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यान् यान् कामयसे कामान् मय्यकामाय भामिनि।
सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यदा॥

मूलम्

यान् यान् कामयसे कामान् मय्यकामाय भामिनि।
सन्ति ह्येकान्तभक्तायास्तव कल्याणि नित्यदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओंके समान बन्धनमें डालनेवाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओंसे मुक्त कर देती हैं॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे।
यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता॥

मूलम्

उपलब्धं पतिप्रेम पातिव्रत्यं च तेऽनघे।
यद्वाक्यैश्चाल्यमानाया न धीर्मय्यपकर्षिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुण्यमयी प्रिये! मैंने तुम्हारा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परन्तु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया।
कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया॥

मूलम्

ये मां भजन्ति दाम्पत्ये तपसा व्रतचर्यया।
कामात्मानोऽपवर्गेशं मोहिता मम मायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! मैं मोक्षका स्वामी हूँ। लोगोंको संसारसागरसे पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकारके व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवनके विषय-सुखकी अभिलाषासे मेरा भजन करते हैं, वे मेरी मायासे मोहित हैं॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं
वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्।
ते मन्दभाग्या निरयेऽपि ये नृणां
मात्रात्मकत्वान्निरयः सुसङ्गमः॥

मूलम्

मां प्राप्य मानिन्यपवर्गसम्पदं
वाञ्छन्ति ये सम्पद एव तत्पतिम्।
ते मन्दभाग्या निरयेऽपि ये नृणां
मात्रात्मकत्वान्निरयः सुसङ्गमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानिनी प्रिये! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओंका आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्माको प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुखके साधन सम्पत्तिकी ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषय सुख तो नरकमें और नरकके ही समान सूकर-कूकर आदि योनियोंमें भी प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु उन लोगोंका मन तो विषयोंमें ही लगा रहता है, इसलिये उन्हें नरकमें जाना भी अच्छा जान पड़ता है॥ ५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया
कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः।
सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो
ह्यसुम्भराया निकृतिञ्जुषः स्त्रियाः॥

मूलम्

दिष्ट्या गृहेश्वर्यसकृन्मयि त्वया
कृतानुवृत्तिर्भवमोचनी खलैः।
सुदुष्करासौ सुतरां दुराशिषो
ह्यसुम्भराया निकृतिञ्जुषः स्त्रियाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहेश्वरी प्राणप्रिये! यह बड़े आनन्दकी बात है कि तुमने अबतक निरन्तर संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियोंका चित्त दूषित कामनाओंसे भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिमें ही लगी रहनेके कारण अनेकों प्रकारके छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वादृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले।
प्राप्तान् नृपानवगणय्य रहोहरो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य॥

मूलम्

न त्वादृशीं प्रणयिनीं गृहिणीं गृहेषु
पश्यामि मानिनि यया स्वविवाहकाले।
प्राप्तान् नृपानवगणय्य रहोहरो मे
प्रस्थापितो द्विज उपश्रुतसत्कथस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानिनि! मुझे अपने घरभरमें तुम्हारे समान प्रेम करनेवाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाहमें आये हुए राजाओंकी उपेक्षा करके ब्राह्मणके द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य
प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्।
दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या
नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते॥

मूलम्

भ्रातुर्विरूपकरणं युधि निर्जितस्य
प्रोद्वाहपर्वणि च तद्वधमक्षगोष्ठ्याम्।
दुःखं समुत्थमसहोऽस्मदयोगभीत्या
नैवाब्रवीः किमपि तेन वयं जितास्ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाईको युद्धमें जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें चौसर खेलते समय बलरामजीने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जानेकी आशंकासे तुमने चुपचाप वह सारा दुःख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुणसे मैं तुम्हारे वश हो गया हूँ॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूतस्त्वयाऽऽत्मलभने सुविविक्तमन्त्रः
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्।
मत्वा जिहास इदमङ्गमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः॥

मूलम्

दूतस्त्वयाऽऽत्मलभने सुविविक्तमन्त्रः
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्।
मत्वा जिहास इदमङ्गमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयामः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने मेरी प्राप्तिके लिये दूतके द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परन्तु जब तुमने मेरे पहुँचनेमें कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वांगसुन्दर शरीर किसी दूसरेके योग्य न समझकर इसे छोड़नेका संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेमभाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका केवल अभिनन्दन करते हैं॥ ५७॥

श्लोक-५८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सौरतसंलापैर्भगवाञ्जगदीश्वरः।
स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन्॥

मूलम्

एवं सौरतसंलापैर्भगवाञ्जगदीश्वरः।
स्वरतो रमया रेमे नरलोकं विडम्बयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्योंकी-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेमको बढ़ानेवाले विनोदभरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीके साथ विहार करते हैं॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव।
आस्थितो गृहमेधीयान् धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः॥

मूलम्

तथान्यासामपि विभुर्गृहेषु गृहवानिव।
आस्थितो गृहमेधीयान् धर्मांल्लोकगुरुर्हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत‍्को शिक्षा देनेवाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियोंके महलोंमें भी गृहस्थोंके समान रहते और गृहस्थोचित धर्मका पालन करते थे॥ ५९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीकृष्णरुक्मिणीसंवादो नाम षष्टितमोऽध्यायः॥ ६०॥