५९ पारिजातहरणनरकवधः

[एकोनषष्टितमोऽध्यायः]

भागसूचना

भौमासुरका उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओंके साथ भगवान‍्का विवाह

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः स्त्रियः।
निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः॥

मूलम्

यथा हतो भगवता भौमो येन च ताः स्त्रियः।
निरुद्धा एतदाचक्ष्व विक्रमं शार्ङ्गधन्वनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान् श्रीकृष्णने भौमासुरको, जिसने उन स्त्रियोंको बंदीगृहमें डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा? आप कृपा करके शार्ङ्ग–धनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णका वह विचित्र चरित्र सुनाइये॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रेण हृतच्छत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना।
हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्।
सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ॥

मूलम्

इन्द्रेण हृतच्छत्रेण हृतकुण्डलबन्धुना।
हृतामराद्रिस्थानेन ज्ञापितो भौमचेष्टितम्।
सभार्यो गरुडारूढः प्राग्ज्योतिषपुरं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! भौमासुरने वरुणका छत्र, माता अदितिके कुण्डल और मेरु पर्वतपर स्थित देवताओंका मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इसपर सबके राजा इन्द्र द्वारकामें आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको सुनायी। अब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और भौमासुरकी राजधानी प्राग्ज्योतिषपुरमें गये॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम्।
मुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत आवृतम्॥

मूलम्

गिरिदुर्गैः शस्त्रदुर्गैर्जलाग्न्यनिलदुर्गमम्।
मुरपाशायुतैर्घोरैर्दृढैः सर्वत आवृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राग्ज्योतिषपुरमें प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ोंकी किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रोंका घेरा लगाया हुआ था। फिर जलसे भरी खाईं थी, उसके बाद आग या बिजलीकी चहारदीवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्यने नगरके चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ फंदे (जाल) बिछा रखे थे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः।
चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना॥

मूलम्

गदया निर्बिभेदाद्रीन् शस्त्रदुर्गाणि सायकैः।
चक्रेणाग्निं जलं वायुं मुरपाशांस्तथासिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाकी चोटसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रोंकी मोरचे-बंदीको बाणोंसे छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्रके द्वारा अग्नि, जल और वायुकी चहारदीवारियोंको तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्यके फंदोंको तलवारसे काट-कूटकर अलग रख दिया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम्।
प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः॥

मूलम्

शङ्खनादेन यन्त्राणि हृदयानि मनस्विनाम्।
प्राकारं गदया गुर्व्या निर्बिभेद गदाधरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बड़े-बड़े यन्त्र—मशीनें वहाँ लगी हुई थीं, उनको तथा वीरपुरुषोंके हृदयको शंखनादसे विदीर्ण कर दिया और नगरके परकोटेको गदाधर भगवान‍्ने अपनी भारी गदासे ध्वंस कर डाला॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्ताशनिभीषणम्।
मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात्॥

मूलम्

पाञ्चजन्यध्वनिं श्रुत्वा युगान्ताशनिभीषणम्।
मुरः शयान उत्तस्थौ दैत्यः पञ्चशिरा जलात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के पांचजन्य शंखकी ध्वनि प्रलयकालीन बिजलीकी कड़कके समान महाभयंकर थी। उसे सुनकर मुर दैत्यकी नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अबतक वह जलके भीतर सो रहा था॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो
युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः।
ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखै-
रभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः॥

मूलम्

त्रिशूलमुद्यम्य सुदुर्निरीक्षणो
युगान्तसूर्यानलरोचिरुल्बणः।
ग्रसंस्त्रिलोकीमिव पञ्चभिर्मुखै-
रभ्यद्रवत्तार्क्ष्यसुतं यथोरगः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयंकर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान‍्की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुड़जीपर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखोंसे त्रिलोकीको निगल जायगा॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते
निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत् स पञ्चभिः।
स रोदसी सर्वदिशोऽन्तरं महा-
नापूरयन्नण्डकटाहमावृणोत्॥

मूलम्

आविध्य शूलं तरसा गरुत्मते
निरस्य वक्त्रैर्व्यनदत् स पञ्चभिः।
स रोदसी सर्वदिशोऽन्तरं महा-
नापूरयन्नण्डकटाहमावृणोत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने त्रिशूलको बड़े वेगसे घुमाकर गरुड़जी पर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखोंसे घोर सिंहनाद करने लगा। उसके सिंहनादका महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओंमें फैलकर सारे ब्रह्माण्डमें भर गया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते
हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा।
मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्
तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत॥

मूलम्

तदापतद् वै त्रिशिखं गरुत्मते
हरिः शराभ्यामभिनत्त्रिधौजसा।
मुखेषु तं चापि शरैरताडयत्
तस्मै गदां सोऽपि रुषा व्यमुञ्चत॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मुर दैत्यका त्रिशूल गरुड़की ओर बड़े वेगसे आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्तीसे उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्यके मुखोंमें भी भगवान‍्ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान् पर अपनी गदा चलायी॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं गदया गदां मृधे
गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा।
उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः
शिरांसि चक्रेण जहार लीलया॥

मूलम्

तामापतन्तीं गदया गदां मृधे
गदाग्रजो निर्बिभिदे सहस्रधा।
उद्यम्य बाहूनभिधावतोऽजितः
शिरांसि चक्रेण जहार लीलया॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने अपनी गदाके प्रहारसे मुर दैत्यकी गदाको अपने पास पहुँचनेके पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जानेके कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेलमें ही चक्रसे उसके पाँचों सिर उतार लिये॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो
निकृत्तशृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा।
तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः
प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः॥

मूलम्

व्यसुः पपाताम्भसि कृत्तशीर्षो
निकृत्तशृङ्गोऽद्रिरिवेन्द्रतेजसा।
तस्यात्मजाः सप्त पितुर्वधातुराः
प्रतिक्रियामर्षजुषः समुद्यताः॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसु-
र्वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः।
पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे
भौमप्रयुक्ता निरगन् धृतायुधाः॥

मूलम्

ताम्रोऽन्तरिक्षः श्रवणो विभावसु-
र्वसुर्नभस्वानरुणश्च सप्तमः।
पीठं पुरस्कृत्य चमूपतिं मृधे
भौमप्रयुक्ता निरगन् धृतायुधाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिर कटते ही मुर दैत्यके प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जलमें गिर पड़ा, जैसे इन्द्रके वज्रसे शिखर कट जानेपर कोई पर्वत समुद्रमें गिर पड़ा हो। मुर दैत्यके सात पुत्र थे—ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान् और अरुण। ये अपने पिताकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेनेके लिये क्रोधसे भरकर शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्यको अपना सेनापति बनाकर भौमासुरके आदेशसे श्रीकृष्णपर चढ़ आये॥ ११-१२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निरगमन् निर्गताः ॥ १२-१४ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः
शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः।
तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणै-
रमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह॥

मूलम्

प्रायुञ्जतासाद्य शरानसीन् गदाः
शक्त्यृष्टिशूलान्यजिते रुषोल्बणाः।
तच्छस्त्रकूटं भगवान् स्वमार्गणै-
रमोघवीर्यस्तिलशश्चकर्त ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वहाँ आकर बड़े क्रोधसे भगवान् श्रीकृष्णपर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे। परीक्षित्! भगवान‍्की शक्ति अमोघ और अनन्त है। उन्होंने अपने बाणोंसे उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पीठमुख्याननयद् यमक्षयं
निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः।
स्वानीकपानच्युतचक्रसायकै-
स्तथा निरस्तान् नरको धरासुतः॥

मूलम्

तान् पीठमुख्याननयद् यमक्षयं
निकृत्तशीर्षोरुभुजाङ्घ्रिवर्मणः।
स्वानीकपानच्युतचक्रसायकै-
स्तथा निरस्तान् नरको धरासुतः॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदै-
र्गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमत्।
दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं
सूर्योपरिष्टात् सतडिद्घनं यथा।
कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं
योधाश्च सर्वे युगपत् स्म विव्यधुः॥

मूलम्

निरीक्ष्य दुर्मर्षण आस्रवन्मदै-
र्गजैः पयोधिप्रभवैर्निराक्रमत्।
दृष्ट्वा सभार्यं गरुडोपरि स्थितं
सूर्योपरिष्टात् सतडिद्घनं यथा।
कृष्णं स तस्मै व्यसृजच्छतघ्नीं
योधाश्च सर्वे युगपत् स्म विव्यधुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के शस्त्रप्रहारसे सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्योंके सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभीको भगवान‍्ने यमराजके घर पहुँचा दिया। जब पृथ्वीके पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और बाणोंसे हमारी सेना और सेनापतियोंका संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ। वह समुद्रतटपर पैदा हुए बहुत-से मदवाले हाथियोंकी सेना लेकर नगरसे बाहर निकला। उसने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी पत्नीके साथ आकाशमें गरुड़पर स्थित हैं, जैसे सूर्यके ऊपर बिजलीके साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हो। भौमासुरने स्वयं भगवान‍्के ऊपर शतघ्नी नामकी शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकोंने भी एक ही साथ उनपर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े॥ १४-१५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निराक्रमत् निर्गतवात् ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो
विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः।
निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं
चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम्॥

मूलम्

तद् भौमसैन्यं भगवान् गदाग्रजो
विचित्रवाजैर्निशितैः शिलीमुखैः।
निकृत्तबाहूरुशिरोध्रविग्रहं
चकार तर्ह्येव हताश्वकुञ्जरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भगवान् श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंखवाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे। इससे उसी समय भौमासुरके सैनिकोंकी भुजाएँ , जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विचित्रवाजैः विचित्रपक्षैः ॥ १६-२४ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह।
हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णैः शरैरेकैकशस्त्रिभिः॥

मूलम्

यानि योधैः प्रयुक्तानि शस्त्रास्त्राणि कुरूद्वह।
हरिस्तान्यच्छिनत्तीक्ष्णैः शरैरेकैकशस्त्रिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भौमासुरके सैनिकोंने भगवान् पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमेंसे प्रत्येकको भगवान‍्ने तीन-तीन तीखे बाणोंसे काट गिराया॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान्।
गरुत्मता हन्यमानास्तुण्डपक्षनखैर्गजाः॥

मूलम्

उह्यमानः सुपर्णेन पक्षाभ्यां निघ्नता गजान्।
गरुत्मता हन्यमानास्तुण्डपक्षनखैर्गजाः॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत।
दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकम्॥

मूलम्

पुरमेवाविशन्नार्ता नरको युध्ययुध्यत।
दृष्ट्वा विद्रावितं सैन्यं गरुडेनार्दितं स्वकम्॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः।
नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः॥

मूलम्

तं भौमः प्राहरच्छक्त्या वज्रः प्रतिहतो यतः।
नाकम्पत तया विद्धो मालाहत इव द्विपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़जीपर सवार थे और गरुड़जी अपने पंखोंसे हाथियोंको मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजोंकी मारसे हाथियोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमिसे भागकर नगरमें घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुड़जीकी मारसे पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उनपर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्रको भी विफल कर दिया था। परन्तु उसकी चोटसे पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसीने मतवाले गजराजपर फूलोंकी मालासे प्रहार किया हो॥ १८—२०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुमाददे वितथोद्यमः।
तद्विसर्गात् पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः।
अपाहरद् गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना॥

मूलम्

शूलं भौमोऽच्युतं हन्तुमाददे वितथोद्यमः।
तद्विसर्गात् पूर्वमेव नरकस्य शिरो हरिः।
अपाहरद् गजस्थस्य चक्रेण क्षुरनेमिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भौमासुरने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्णको मार डालनेके लिये एक त्रिशूल उठाया। परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान् श्रीकृष्णने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे हाथीपर बैठे हुए भौमासुरका सिर काट डाला॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लोक-२२
सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं
बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत्।
हाहेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा
माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे॥

मूलम्

श्लोक-२२
सकुण्डलं चारुकिरीटभूषणं
बभौ पृथिव्यां पतितं समुज्ज्वलत्।
हाहेति साध्वित्यृषयः सुरेश्वरा
माल्यैर्मुकुन्दं विकिरन्त ईडिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीटके सहित पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुरके सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषिलोग ‘साधु साधु’ कहने लगे और देवतालोग भगवान् पर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले
प्रतप्तजाम्बूनदरत्नभास्वरे।
सवैजयन्त्या वनमालयार्पयत्
प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम्॥

मूलम्

ततश्च भूः कृष्णमुपेत्य कुण्डले
प्रतप्तजाम्बूनदरत्नभास्वरे।
सवैजयन्त्या वनमालयार्पयत्
प्राचेतसं छत्रमथो महामणिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब पृथ्वी भगवान‍्के पास आयी। उसने भगवान् श्रीकृष्णके गलेमें वैजयन्तीके साथ वनमाला पहना दी और अदिति माताके जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोनेके एवं रत्नजटित थे, भगवान‍्को दे दिये तथा वरुणका छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्राचेतसं वारुणम् ॥ २३-२८ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम्।
प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया॥

मूलम्

अस्तौषीदथ विश्वेशं देवी देववरार्चितम्।
प्राञ्जलिः प्रणता राजन् भक्तिप्रवणया धिया॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसके बाद पृथ्वीदेवी बड़े-बड़े देवताओंके द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभाव भरे हृदयसे उनकी स्तुति करने लगीं॥ २४॥

श्लोक-२५

मूलम् (वचनम्)

भूमिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर।
भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

मूलम्

नमस्ते देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधर।
भक्तेच्छोपात्तरूपाय परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीदेवीने कहा—शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन्! आप अपने भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसीके अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको मैं नमस्कार करती हूँ॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये॥

मूलम्

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है। आप कमलकी माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमलसे खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमलके समान सुकुमार और भक्तोंके हृदयको शीतल करनेवाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे।
पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः॥

मूलम्

नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय विष्णवे।
पुरुषायादिबीजाय पूर्णबोधाय ते नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्यके आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होनेपर भी स्वयं वसुदेवनन्दनके रूपमें प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणोंके भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

मूलम्

अजाय जनयित्रेऽस्य ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये।
परावरात्मन् भूतात्मन् परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत‍्के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियोंके आश्रय ब्रह्म हैं। जगत‍्का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं— सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन्! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार नमस्कार॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वै सिसृक्षू रज उत्कटं प्रभो
तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः।
स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते
कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः॥

मूलम्

त्वं वै सिसृक्षू रज उत्कटं प्रभो
तमो निरोधाय बिभर्ष्यसंवृतः।
स्थानाय सत्त्वं जगतो जगत्पते
कालः प्रधानं पुरुषो भवान् परः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! जब आप जगत‍्की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुणको, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुणको, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं तब सत्त्वगुणको स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करनेपर भी आप इन गुणोंसे ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनोंके संयोग-वियोगके हेतु काल हैं तथा उन तीनोंसे परे भी हैं॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निरोधाय संहाराय तमो बिभषि स्थानाय स्थितये सत्त्वम् ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो
मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि।
कर्ता महानित्यखिलं चराचरं
त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः॥

मूलम्

अहं पयो ज्योतिरथानिलो नभो
मात्राणि देवा मन इन्द्रियाणि।
कर्ता महानित्यखिलं चराचरं
त्वय्यद्वितीये भगवन्नयं भ्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु , आकाश, पंचतन्मात्राएँ , मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्व—कहाँतक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत् आपके अद्वितीय स्वरूपमें भ्रमके कारण ही पृथक् प्रतीत हो रहा है॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अहं पृथिवी देवा: ज्ञानेन्द्रियाणि इन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि यद्वा, देवाः इन्द्रियाभिमानिदेवाः कर्त्ता देहे अहम्बुद्धिकरणहेतुत्वात् कर्त्तेत्यहङ्कारो विवक्षितः । म्रमः देवादीनां जीवाद्यभिमानभ्रमहेतुत्वात् पृथिव्यादित्तत्त्वजातं भ्रम इत्युच्यते अद्वितीये समाभ्यधिकरहिते भ्रमति आविस्तिरोभावादिभिरिति भ्रमः ॥ ३०-३२ ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं
भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः।
तत् पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं
शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम्॥

मूलम्

तस्यात्मजोऽयं तव पादपङ्कजं
भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः।
तत् पालयैनं कुरु हस्तपङ्कजं
शिरस्यमुष्याखिलकल्मषापहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुरका यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलोंकी शरणमें ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिरपर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत‍्के समस्त पाप-तापोंको नष्ट करनेवाला है॥ ३१॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति भूम्यार्थितो वाग्भिर्भगवान् भक्तिनम्रया।
दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत् सकलर्द्धिमत्॥

मूलम्

इति भूम्यार्थितो वाग्भिर्भगवान् भक्तिनम्रया।
दत्त्वाभयं भौमगृहं प्राविशत् सकलर्द्धिमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वीने भक्तिभावसे विनम्र होकर इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्तको अभयदान दिया और भौमासुरके समस्त सम्पत्तियोंसे सम्पन्न महलमें प्रवेश किया॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम्।
भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः॥

मूलम्

तत्र राजन्यकन्यानां षट्सहस्राधिकायुतम्।
भौमाहृतानां विक्रम्य राजभ्यो ददृशे हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर भगवान‍्ने देखा कि भौमासुरने बलपूर्वक राजाओंसे सोलह हजार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

राजभ्यो भौमेन आहृतानामित्यन्वयः ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवीरं विमोहिताः।
मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम्॥

मूलम्

तं प्रविष्टं स्त्रियो वीक्ष्य नरवीरं विमोहिताः।
मनसा वव्रिरेऽभीष्टं पतिं दैवोपसादितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उन राजकुमारियोंने अन्तःपुरमें पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्णको देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान‍्को अपने परम प्रियतम पतिके रूपमें वरण कर लिया॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दैवोपसादितं भाग्यलब्धम् ॥ ३४-४० ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयात् पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम्।
इति सर्वाः पृथक् कृष्णे भावेन हृदयं दधुः॥

मूलम्

भूयात् पतिरयं मह्यं धाता तदनुमोदताम्।
इति सर्वाः पृथक् कृष्णे भावेन हृदयं दधुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन राजकुमारियोंमेंसे प्रत्येकने अलग-अलग अपने मनमें यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषाको पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भावसे अपना हृदय भगवान‍्के प्रति निछावर कर दिया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः प्राहिणोद् द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः।
नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत्॥

मूलम्

ताः प्राहिणोद् द्वारवतीं सुमृष्टविरजोऽम्बराः।
नरयानैर्महाकोशान् रथाश्वान् द्रविणं महत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् श्रीकृष्णने उन राजकुमारियोंको सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियोंसे द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दन्तांस्तरस्विनः।
पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेषयामास केशवः॥

मूलम्

ऐरावतकुलेभांश्च चतुर्दन्तांस्तरस्विनः।
पाण्डुरांश्च चतुःषष्टिं प्रेषयामास केशवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐरावतके वंशमें उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतोंवाले सफेद रंगके चौंसठ हाथी भी भगवान‍्ने वहाँसे द्वारका भेजे॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले।
पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्राण्या च सप्रियः॥

मूलम्

गत्वा सुरेन्द्रभवनं दत्त्वादित्यै च कुण्डले।
पूजितस्त्रिदशेन्द्रेण सहेन्द्राण्या च सप्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अमरावतीमें स्थित देवराज इन्द्रके महलोंमें गये। वहाँ देवराज इन्द्रने अपनी पत्नी इन्द्राणीके साथ सत्यभामाजी और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की, तब भगवान‍्ने अदितिके कुण्डल उन्हें दे दिये॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारिजातं गरुत्मति।
आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत् पुरम्॥

मूलम्

चोदितो भार्ययोत्पाट्य पारिजातं गरुत्मति।
आरोप्य सेन्द्रान् विबुधान् निर्जित्योपानयत् पुरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे लौटते समय सत्यभामाजीकी प्रेरणासे भगवान् श्रीकृष्णने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़पर रख लिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओंको जीतकर उसे द्वारकामें ले आये॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः।
अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात् तद‍्गन्धासवलम्पटाः॥

मूलम्

स्थापितः सत्यभामाया गृहोद्यानोपशोभनः।
अन्वगुर्भ्रमराः स्वर्गात् तद‍्गन्धासवलम्पटाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने उसे सत्यभामाके महलके बगीचेमें लगा दिया। इससे उस बगीचेकी शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्षके साथ उसके गन्ध और मकरन्दके लोभी भौंरे स्वर्गसे द्वारकामें चले आये थे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययाच आनम्य किरीटकोटिभिः
पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम्।
सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महा-
नहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम्॥

मूलम्

ययाच आनम्य किरीटकोटिभिः
पादौ स्पृशन्नच्युतमर्थसाधनम्।
सिद्धार्थ एतेन विगृह्यते महा-
नहो सुराणां च तमो धिगाढ्यताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! देखो तो सही, जब इन्द्रको अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुटकी नोकसे भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श करके उनसे सहायताकी भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यताका है। धिक्‍कार है ऐसी धनाढ्यताको॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ययाचे इन्द्र इत्यध्याहारः सिद्धार्थ इति सप्तमी अथो प्रयोजने सिद्ध सतीत्यर्थः । इन्द्रः सिद्धार्थश्चाभूदिति वाक्यान्तरम् एतेन इन्द्रो महान् महापुरुषेण कृष्णेन महानपि युद्ध ेन प्रत्यर्थी क्रियते अहो सुरणामपि तमः मोहः आढ्यतां धिगित्यर्थः ॥ ४१-४२ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथो मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः।
यथोपयेमे भगवांस्तावद्रूपधरोऽव्ययः॥

मूलम्

अथो मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु ताः स्त्रियः।
यथोपयेमे भगवांस्तावद्रूपधरोऽव्ययः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने एक ही मुहूर्तमें अलग-अलग भवनोंमें अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियोंका शास्त्रोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान‍्के लिये इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहेषु तासामनपाय्यतर्क्यकृ-
न्निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः।
रेमे रमाभिर्निजकामसंप्लुतो
यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन्॥

मूलम्

गृहेषु तासामनपाय्यतर्क्यकृ-
न्निरस्तसाम्यातिशयेष्ववस्थितः।
रेमे रमाभिर्निजकामसंप्लुतो
यथेतरो गार्हकमेधिकांश्चरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्की पत्नियोंके अलग-अलग महलोंमें ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत‍्में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिककी तो बात ही क्या है। उन महलोंमें रहकर मति-गतिके परेकी लीला करनेवाले अविनाशी भगवान् श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्दमें मग्न रहते हुए लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा उन पत्नियोंके साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थीमें रहकर गृहस्थ-धर्मके अनुसार आचरण करता हो॥ ४३॥

मूलम्

अतर्क्यकृत् अचिन्त्यचेष्टितकारी ॥ ४३-४४ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः॥

मूलम्

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता
ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्।
भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग-
हासावलोकनवसङ्गमजल्पलज्जाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान‍्के वास्तविक स्वरूपको और उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान् श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ानेवाली लज्जासे युक्त होकर सब प्रकारसे भगवान‍्की सेवा करती रहती थीं॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युद‍्गमासनवरार्हणपादशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यै-
र्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥

मूलम्

प्रत्युद‍्गमासनवरार्हणपादशौच-
ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः ।
केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यै-
र्दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महलमें भगवान् पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान‍्की सेवा करतीं॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रमाभिः दासीशता अपि दासीशतयुक्ता अपि ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पारिजातहरणनरकवधो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥ ५९॥