५८ अष्टमहिष्युद्वाहः

[अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान् श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा पाण्डवान् द्रष्टुं प्रतीतान् पुरुषोत्तमः।
इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान् युयुधानादिभिर्वृतः॥

मूलम्

एकदा पाण्डवान् द्रष्टुं प्रतीतान् पुरुषोत्तमः।
इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान् युयुधानादिभिर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब पाण्डवोंका पता चल गया था कि वे लाक्षाभवनमें जले नहीं हैं। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम्।
उत्तस्थुर्युगपद् वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम्॥

मूलम्

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम्।
उत्तस्थुर्युगपद् वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राणका संचार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्राणा इन्द्रियाणि मुख्यम् पञ्चवृत्तिप्राणम् ॥ २-१२ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः।
सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः॥

मूलम्

परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः।
सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णका आलिंगन किया, उनके अंग-संगसे इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान‍्की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्न हो गये॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्।
फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्।
फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और अर्जुनको हृदयसे लगाया। नकुल और सहदेवने भगवान‍्के चरणोंकी वन्दना की॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता।
नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत॥

मूलम्

परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता।
नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान् श्रीकृष्णके पास आयी और उन्हें प्रणाम किया॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः।
निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत॥

मूलम्

तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः।
निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंने भगवान् श्रीकृष्णके समान ही वीर सात्यकिका भी स्वागत-सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसनपर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियोंका भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्णके चारों ओर आसनोंपर बैठ गये॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथां समागत्य कृताभिवादन-
स्तयातिहार्दार्द्रदृशाभिरम्भितः।
आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां
पितृष्वसारं परिपृष्टबान्धवः॥

मूलम्

पृथां समागत्य कृताभिवादन-
स्तयातिहार्दार्द्रदृशाभिरम्भितः।
आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां
पितृष्वसारं परिपृष्टबान्धवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी कुशल-क्षेम पूछी और भगवान‍्ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकण्ठाश्रुलोचना।
स्मरन्ती तान् बहून् क्लेशान् क्लेशापायात्मदर्शनम्॥

मूलम्

तमाह प्रेमवैक्लव्यरुद्धकण्ठाश्रुलोचना।
स्मरन्ती तान् बहून् क्लेशान् क्लेशापायात्मदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय प्रेमकी विह्वलतासे कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे। भगवान‍्के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपनेको बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशोंका अन्त करनेके लिये ही हुआ करता है, उन भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगीं—॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदैव कुशलं नोऽभूत् सनाथास्ते कृता वयम्।
ज्ञातीन् नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया॥

मूलम्

तदैव कुशलं नोऽभूत् सनाथास्ते कृता वयम्।
ज्ञातीन् नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः।
तथापि स्मरतां शश्वत् क्लेशान् हंसि हृदि स्थितः॥

मूलम्

न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः।
तथापि स्मरतां शश्वत् क्लेशान् हंसि हृदि स्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत‍्के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होनेपर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो’॥ १०॥

श्लोक-११

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर।
योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम्॥

मूलम्

किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर।
योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरजीने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इस बातका पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मोंमें या इस जन्ममें कौन-सा कल्याण-साधन किया है? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति वै वार्षिकान् मासान् राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्।
जनयन् नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः॥

मूलम्

इति वै वार्षिकान् मासान् राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्।
जनयन् नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान‍्का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसपर भगवान् श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्।
गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ॥

मूलम्

एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्।
गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं महत्।
बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत् परवीरहा॥

मूलम्

साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं महत्।
बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत् परवीरहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन वनमें शिकार खेलने गये, जो बहुत-से सिंह, बाघ आदि भयंकर जानवरोंसे भरा हुआ था॥ १३-१४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान् सूकरान् महिषान् रुरून्।
शरभान् गवयान् खड्गान् हरिणाञ्छशशल्लकान्॥

मूलम्

तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान् सूकरान् महिषान् रुरून्।
शरभान् गवयान् खड्गान् हरिणाञ्छशशल्लकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्होंने बहुत-से बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंगका एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आदि पशुओंपर अपने बाणोंका निशाना लगाया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान् पर्वण्युपागते।
तृट्परीतः परिश्रान्तो बीभत्सुर्यमुनामगात्॥

मूलम्

तान् निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान् पर्वण्युपागते।
तृट्परीतः परिश्रान्तो बीभत्सुर्यमुनामगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे जो यज्ञके योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्वका समय जानकर राजा युधिष्ठिरके पास ले गये। अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगनेपर यमुनाजीके किनारे गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ।
कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम्॥

मूलम्

तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ।
कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियोंने यमुनाजीमें हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्।
पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम्॥

मूलम्

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्।
पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस श्रेष्ठ सुन्दरीकी जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्णके भेजनेपर अर्जुनने उसके पास जाकर पूछा—॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः सख्या कृष्णेन ॥। १९-५८ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतोऽसि किं चिकीर्षसि।
मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने॥

मूलम्

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतोऽसि किं चिकीर्षसि।
मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? कहाँसे आयी हो? और क्या करना चाहती हो? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि! तुम अपनी सारी बात बतलाओ’॥ १९॥

श्लोक-२०

मूलम् (वचनम्)

कालिन्द्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती।
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता॥

मूलम्

अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती।
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालिन्दीने कहा—‘मैं भगवान् सूर्यदेवकी पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान् विष्णुको पतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्।
तुष्यतां मे स भगवान् मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः॥

मूलम्

नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्।
तुष्यतां मे स भगवान् मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान‍्को छोड़कर और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथोंके एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले।
निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम्॥

मूलम्

कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले।
निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजलमें मेरे पिता सूर्यने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसीमें मैं रहती हूँ। जबतक भगवान‍्का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी’॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथावदद् गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्।
रथमारोप्य तद् विद्वान् धर्मराजमुपागमत्॥

मूलम्

तथावदद् गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्।
रथमारोप्य तद् विद्वान् धर्मराजमुपागमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने जाकर भगवान् श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं। वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद‍्भुतम्।
कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा॥

मूलम्

यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद‍्भुतम्।
कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पाण्डवोंकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके रहनेके लिये एक अत्यन्त अद‍्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्माके द्वारा बनवा दिया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस्तत्र निवसन् स्वानां प्रियचिकीर्षया।
अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्यास सारथिः॥

मूलम्

भगवांस्तत्र निवसन् स्वानां प्रियचिकीर्षया।
अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्यास सारथिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् इस बार पाण्डवोंको आनन्द देने और उनका हित करनेके लिये वहाँ बहुत दिनोंतक रहे। इसी बीच अग्निदेवको खाण्डव-वन दिलानेके लिये वे अर्जुनके सारथि भी बने॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयाञ्छ्वेतान‍्‍‍रथं नृप।
अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः॥

मूलम्

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्धयाञ्छ्वेतान‍्‍‍रथं नृप।
अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

खाण्डव-वनका भोजन मिल जानेसे अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुनको गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्।
यस्मिन् दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः॥

मूलम्

मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्।
यस्मिन् दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

खाण्डव-दाहके समय अर्जुनने मय दानवको जलनेसे बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुनसे मित्रता करके उनके लिये एक परम अद‍्भुत सभा बना दी। उसी सभामें दुर्योधनको जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम हो गया था॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तेन समनुज्ञातः सुहृद‍्भिश्चानुमोदितः।
आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः॥

मूलम्

स तेन समनुज्ञातः सुहृद‍्भिश्चानुमोदितः।
आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ दिनोंके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियोंका अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदिके साथ द्वारका लौट आये॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते।
वितन्वन् परमानन्दं स्वानां परममङ्गलम्॥

मूलम्

अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते।
वितन्वन् परमानन्दं स्वानां परममङ्गलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ आकर उन्होंने विवाहके योग्य ऋतु और ज्यौतिष-शास्त्रके अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्नमें कालिन्दीजीका पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियोंको परम मंगल और परमानन्दकी प्राप्ति हुई॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ।
स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम्॥

मूलम्

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ।
स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवन्ती (उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा। परन्तु विन्द और अनुविन्दने अपनी बहिनको रोक दिया॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः।
प्रसह्य हृतवान् कृष्णो राजन् राज्ञां प्रपश्यताम्॥

मूलम्

राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः।
प्रसह्य हृतवान् कृष्णो राजन् राज्ञां प्रपश्यताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी। भगवान् श्रीकृष्ण राजाओंकी भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नग्नजिन्नाम कौसल्य आसीद् राजातिधार्मिकः।
तस्य सत्याभवत् कन्या देवी नाग्नजिती नृप॥

मूलम्

नग्नजिन्नाम कौसल्य आसीद् राजातिधार्मिकः।
तस्य सत्याभवत् कन्या देवी नाग्नजिती नृप॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्त गोवृषान्।
तीक्ष्णशृङ्गान् सुदुर्धर्षान् वीरगन्धासहान् खलान्॥

मूलम्

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्त गोवृषान्।
तीक्ष्णशृङ्गान् सुदुर्धर्षान् वीरगन्धासहान् खलान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम था सत्या; नग्नजित् की पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित्! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे॥ ३२-३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान् सात्वतां पतिः।
जगाम कौसल्यपुरं सैन्येन महता वृतः॥

मूलम्

तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान् सात्वतां पतिः।
जगाम कौसल्यपुरं सैन्येन महता वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कोसलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः।
अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन् प्रतिनन्दितः॥

मूलम्

स कोसलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः।
अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन् प्रतिनन्दितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोसलनरेश महाराज नग्नजित् ने बड़ी प्रसन्नतासे उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया। भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरं विलोक्याभिमतं समागतं
नरेन्द्रकन्या चकमे रमापतिम्।
भूयादयं मे पतिराशिषोऽमलाः
करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः॥

मूलम्

वरं विलोक्याभिमतं समागतं
नरेन्द्रकन्या चकमे रमापतिम्।
भूयादयं मे पतिराशिषोऽमलाः
करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नग्नजित् की कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें’॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति
श्रीरब्जजः सगिरिशः सहलोकपालैः।
लीलातनूः स्वकृतसेतुपरीप्सयेशः
काले दधत् स भगवान् मम केन तुष्येत्॥

मूलम्

यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति
श्रीरब्जजः सगिरिशः सहलोकपालैः।
लीलातनूः स्वकृतसेतुपरीप्सयेशः
काले दधत् स भगवान् मम केन तुष्येत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाग्नजिती सत्या मन-ही मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकजका पराग अपने सिरपर धारण करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय-समयपर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं’॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते।
आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः॥

मूलम्

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते।
आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! राजा नग्नजित् ने भगवान् श्रीकृष्णकी विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत‍्के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य! मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’॥ ३८॥

श्लोक-३९

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह भगवान् हृष्टः कृतासनपरिग्रहः।
मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन॥

मूलम्

तमाह भगवान् हृष्टः कृतासनपरिग्रहः।
मेघगम्भीरया वाचा सस्मितं कुरुनन्दन॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! राजा नग्नजित् का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान् श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे कहा॥ ३९॥

श्लोक-४०

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता
राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः।
तथापि याचे तव सौहृदेच्छया
कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम्॥

मूलम्

नरेन्द्र याच्ञा कविभिर्विगर्हिता
राजन्यबन्धोर्निजधर्मवर्तिनः।
तथापि याचे तव सौहृदेच्छया
कन्यां त्वदीयां न हि शुल्कदा वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजन्! जो क्षत्रिय अपने धर्ममें स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानोंने उसके इस कर्मकी निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्दका—प्रेमका सम्बन्ध स्थापित करनेके लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदलेमें कुछ शुल्क देनेकी प्रथा नहीं है॥ ४०॥

श्लोक-४१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः।
गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी॥

मूलम्

कोऽन्यस्तेऽभ्यधिको नाथ कन्यावर इहेप्सितः।
गुणैकधाम्नो यस्याङ्गे श्रीर्वसत्यनपायिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नग्नजित् ने कहा—‘प्रभो! आप समस्त गुणोंके धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्षःस्थलपर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आपसे बढ़कर कन्याके लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है?॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ।
पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया॥

मूलम्

किं त्वस्माभिः कृतः पूर्वं समयः सात्वतर्षभ।
पुंसां वीर्यपरीक्षार्थं कन्यावरपरीप्सया॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषयमें एक प्रण कर लिया है। कन्याके लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है—इत्यादि बातें जाननेके लिये ही ऐसा किया गया है॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः।
एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः॥

मूलम्

सप्तैते गोवृषा वीर दुर्दान्ता दुरवग्रहाः।
एतैर्भग्नाः सुबहवो भिन्नगात्रा नृपात्मजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! हमारे ये सातों बैल किसीके वशमें न आनेवाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारोंके अंगोंको खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन।
वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियः पते॥

मूलम्

यदिमे निगृहीताः स्युस्त्वयैव यदुनन्दन।
वरो भवानभिमतो दुहितुर्मे श्रियः पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वशमें कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्याके लिये अभीष्ट वर होंगे’॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं समयमाकर्ण्य बद्‍ध्वा परिकरं प्रभुः।
आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान्॥

मूलम्

एवं समयमाकर्ण्य बद्‍ध्वा परिकरं प्रभुः।
आत्मानं सप्तधा कृत्वा न्यगृह्णाल्लीलयैव तान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने राजा नग्नजित् का ऐसा प्रण सुनकर कमरमें फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेलमें ही उन बैलोंको नाथ लिया॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

बद्‍ध्वा तान् दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान् हतौजसः।
व्यकर्षल्लीलया बद्धान् बालो दारुमयान् यथा॥

मूलम्

बद्‍ध्वा तान् दामभिः शौरिर्भग्नदर्पान् हतौजसः।
व्यकर्षल्लीलया बद्धान् बालो दारुमयान् यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे बैलोंका घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान् श्रीकृष्ण उन्हें रस्सीसे बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा-सा बालक काठके बैलोंको घसीटता है॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः।
तां प्रत्यगृह्णाद् भगवान् विधिवत् सदृशीं प्रभुः॥

मूलम्

ततः प्रीतः सुतां राजा ददौ कृष्णाय विस्मितः।
तां प्रत्यगृह्णाद् भगवान् विधिवत् सदृशीं प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नग्नजित् को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णको अपनी कन्याका दान कर दिया और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्याका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्।
लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः॥

मूलम्

राजपत्न्यश्च दुहितुः कृष्णं लब्ध्वा प्रियं पतिम्।
लेभिरे परमानन्दं जातश्च परमोत्सवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानियोंने देखा कि हमारी कन्याको उसके अत्यन्त प्यारे भगवान् श्रीकृष्ण ही पतिके रूपमें प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः।
नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासः स्रगलङ्कृताः॥

मूलम्

शङ्खभेर्यानका नेदुर्गीतवाद्यद्विजाशिषः।
नरा नार्यः प्रमुदिताः सुवासः स्रगलङ्कृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शंख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पोंके हार और गहनोंसे सज-धजकर नगरके नर-नारी आनन्द मनाने लगे॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद् विभुः।
युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवाससाम्॥

मूलम्

दशधेनुसहस्राणि पारिबर्हमदाद् विभुः।
युवतीनां त्रिसाहस्रं निष्कग्रीवसुवाससाम्॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान् रथान्।
रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान् नरान्॥

मूलम्

नवनागसहस्राणि नागाच्छतगुणान् रथान्।
रथाच्छतगुणानश्वानश्वाच्छतगुणान् नरान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा नग्नजित् ने दस हजार गौएँ और तीन हजार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गलेमें स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेजमें दीं। इनके साथ ही नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेजमें दिये॥ ५०-५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ।
स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोसलः॥

मूलम्

दम्पती रथमारोप्य महत्या सेनया वृतौ।
स्नेहप्रक्लिन्नहृदयो यापयामास कोसलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोसलनरेश राजा नग्नजित् ने कन्या और दामादको रथपर चढ़ाकर एक बड़ी सेनाके साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहके उद्रेकसे द्रवित हो रहा था॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैतद् रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्।
भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा॥

मूलम्

श्रुत्वैतद् रुरुधुर्भूपा नयन्तं पथि कन्यकाम्।
भग्नवीर्याः सुदुर्मर्षा यदुभिर्गोवृषैः पुरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! यदुवंशियोंने और राजा नग्नजित् के बैलोंने पहले बहुत-से राजाओंका बल-पौरुष धूलमें मिला दिया था। जब उन राजाओंने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान् श्रीकृष्णकी यह विजय सहन न हुई। उन लोगोंने नाग्नजिती सत्याको लेकर जाते समय मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णको घेर लिया॥ ५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानस्यतः शरव्रातान् बन्धुप्रियकृदर्जुनः।
गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव॥

मूलम्

तानस्यतः शरव्रातान् बन्धुप्रियकृदर्जुनः।
गाण्डीवी कालयामास सिंहः क्षुद्रमृगानिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वे बड़े वेगसे उनपर बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुनने अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्णका प्रिय करनेके लिये गाण्डीव धनुष धारण करके—जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओंको खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियोंको मार-पीटकर भगा दिया॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया।
रेमे यदूनामृषभो भगवान् देवकीसुतः॥

मूलम्

पारिबर्हमुपागृह्य द्वारकामेत्य सत्यया।
रेमे यदूनामृषभो भगवान् देवकीसुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्याके साथ द्वारकामें आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसुः।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः॥

मूलम्

श्रुतकीर्तेः सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसुः।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्णः सन्तर्दनादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी फूआ श्रुतकीर्ति केकय-देशमें ब्याही गयी थीं। उनकी कन्याका नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदिने उसे स्वयं ही भगवान् श्रीकृष्णको दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्।
स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव॥

मूलम्

सुतां च मद्राधिपतेर्लक्ष्मणां लक्षणैर्युताम्।
स्वयंवरे जहारैकः स सुपर्णः सुधामिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

मद्रप्रदेशके राजाकी एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुड़ने स्वर्गसे अमृतका हरण किया था, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्णने स्वयंवरमें अकेले ही उसे हर लिया॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन् सहस्रशः।
भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः॥

मूलम्

अन्याश्चैवंविधा भार्याः कृष्णस्यासन् सहस्रशः।
भौमं हत्वा तन्निरोधादाहृताश्चारुदर्शनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियोंको वे भौमासुरको मारकर उसके बंदीगृहसे छुड़ा लाये थे॥ ५८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अष्टमहिष्युद्वाहो नामाष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५८॥