५७ स्यमन्तकोपाख्याने

[सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]

भागसूचना

स्यमन्तक-हरण, शतधन्वाका उद्धार और अक्रूरजीको फिरसे द्वारका बुलाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्।
कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून्॥

मूलम्

विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्।
कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णको इस बातका पता था कि लाक्षागृहकी आगसे पाण्डवोंका बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समयका कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजीके साथ हस्तिनापुर गये॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मं कृपं सविदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च।
तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः॥

मूलम्

भीष्मं कृपं सविदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च।
तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदना—सहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे—‘हाय-हाय! यह तो बड़े ही दुःखकी बात हुई’॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वैतदन्तरं राजन् शतधन्वानमूचतुः।
अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते॥

मूलम्

लब्ध्वैतदन्तरं राजन् शतधन्वानमूचतुः।
अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्माको अवसर मिल गया। उन लोगोंने शतधन्वासे आकर कहा—‘तुम सत्राजित् से मणि क्यों नहीं छीन लेते?॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽस्मभ्यं संप्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः।
कृष्णायादान्न सत्राजित् कस्माद् भ्रातरमन्वियात्॥

मूलम्

योऽस्मभ्यं संप्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः।
कृष्णायादान्न सत्राजित् कस्माद् भ्रातरमन्वियात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामाका विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगोंका तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय?’॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कस्मात् भ्रातरं नान्वियात् कस्मान्न म्रियेत् ॥ ४-११ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः।
शयानमवधील्लोभात् स पापः क्षीणजीवितः॥

मूलम्

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः।
शयानमवधील्लोभात् स पापः क्षीणजीवितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित् को मार डाला॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्।
हत्वा पशून् सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान्॥

मूलम्

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्।
हत्वा पशून् सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस समय स्त्रियाँ अनाथके समान रोने-चिल्लाने लगीं; परन्तु शतधन्वाने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओंकी हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँसे चम्पत हो गया॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता।
व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती॥

मूलम्

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता।
व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यभामाजीको यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच-बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्।
कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम्॥

मूलम्

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्।
कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शवको तेलके कड़ाहेमें रखवा दिया और आप हस्तिनापुरको गयीं। उन्होंने बड़े दुःखसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनाया—यद्यपि इन बातोंको भगवान् श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्।
अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः॥

मूलम्

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्।
अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी!’॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगत्य भगवांस्तस्मात् सभार्यः साग्रजः पुरम्।
शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः॥

मूलम्

आगत्य भगवांस्तस्मात् सभार्यः साग्रजः पुरम्।
शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि कृष्णोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया।
साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत्॥

मूलम्

सोऽपि कृष्णोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया।
साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान् श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी। तब कृतवर्माने कहा—॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः।
को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन्॥

मूलम्

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः।
को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्व-शक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोकमें सकुशल रह सके?॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हेलनमपराधम् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्‍द्वेषात्त्याजितः श्रिया।
जरासन्धः सप्तदश संयुगान् विरथो गतः॥

मूलम्

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्‍द्वेषात्त्याजितः श्रिया।
जरासन्धः सप्तदश संयुगान् विरथो गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मीको खो बैठा और अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदानमें हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत।
सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम्॥

मूलम्

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत।
सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम्॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च।
चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया॥

मूलम्

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च।
चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना।
दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः॥

मूलम्

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना।
दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शिलीन्ध्रं कोटरोत्थच्छत्राकम् ॥ १६-२८ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद‍्भुतकर्मणे।
अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः॥

मूलम्

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद‍्भुतकर्मणे।
अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कृतवर्माने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान‍्का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान् खेल-खेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं—इस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामें—जब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद‍्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ’॥ १४—१७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्।
तस्मिन् न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ॥

मूलम्

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्।
तस्मिन् न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने स्यमन्तक-मणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ।
अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन् गुरुद्रुहम्॥

मूलम्

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ।
अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन् गुरुद्रुहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वाका पीछा किया॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्।
पद‍्भ्यामधावत् सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद् रुषा॥

मूलम्

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्।
पद‍्भ्यामधावत् सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद् रुषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वाका घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान् श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना।
चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससो व्यचिनोन्मणिम्॥

मूलम्

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना।
चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससो व्यचिनोन्मणिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान‍्ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्।
वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते॥

मूलम्

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्।
वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जब मणि मिली नहीं तब भगवान् श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं’॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना।
कस्मिंश्चित् पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज॥

मूलम्

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना।
कस्मिंश्चित् पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं विदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम।
इत्युक्त्वा मिथिलां राजन् विवेश यदुनन्दनः॥

मूलम्

अहं विदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम।
इत्युक्त्वा मिथिलां राजन् विवेश यदुनन्दनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’ परीक्षित्! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः।
अर्हयामास विधिवदर्हणीयं समर्हणैः॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः।
अर्हयामास विधिवदर्हणीयं समर्हणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः।
मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना।
ततोऽशिक्षद् गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः॥

मूलम्

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः।
मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना।
ततोऽशिक्षद् गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः।
अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद् विभुः॥

मूलम्

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः।
अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद् विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान् श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै।
साकं सुहृद‍्भिर्भगवान् या याः स्युः साम्परायिकाः॥

मूलम्

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै।
साकं सुहृद‍्भिर्भगवान् या याः स्युः साम्परायिकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित् की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्।
व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ॥

मूलम्

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्।
व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित् के वधके लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान् श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

व्यूषतुः प्रोषितौ प्रयोजको वधकर्तुः प्रेरकौ ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन् वै द्वारकौकसाम्।
शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः॥

मूलम्

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन् वै द्वारकौकसाम्।
शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्।
मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम्॥

मूलम्

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्।
मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर द्वारकावासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान् श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय॥ ३०-३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रागुदाहृतं स्यमन्तकमाहात्म्यम् ॥ ३० ॥

इतिशब्दो वक्ष्यमाणप्रकानिरासः निकटे अक्रूरनिवाससमीपेऽपि ॥ ३१-३४ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै।
स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात् ततोऽवर्षत् स्म काशिषु॥

मूलम्

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै।
स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात् ततोऽवर्षत् स्म काशिषु॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह।
देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः॥

मूलम्

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह।
देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्।
इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः॥

मूलम्

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्।
इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’ परीक्षित्! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान‍्ने सोचा कि ‘इस उपद्रवका यही कारण नहीं है’ यह जानकर भी भगवान‍्ने दूत भेजकर अक्रूरजीको ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की॥ ३२—३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः।
विज्ञाताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह॥

मूलम्

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः।
विज्ञाताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्! भगवान् सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा—॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अखिलचित्तज्ञा सर्वाभिप्रायज्ञाः पुरुषा येन विज्ञाता स विज्ञाताऽखिलचित्तज्ञः बुद्धिमतां पुरुषाणां मार्ग जानाति इत्यर्थः ॥ ३५-३६ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना।
स्यमन्तको मणिः श्रीमान् विदितः पूर्वमेव नः॥

मूलम्

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना।
स्यमन्तको मणिः श्रीमान् विदितः पूर्वमेव नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चाचाजी! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद् गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः।
दायं निनीयापः पिण्डान् विमुच्यर्णं च शेषितम्॥

मूलम्

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद् गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः।
दायं निनीयापः पिण्डान् विमुच्यर्णं च शेषितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लड़कीके लड़के—उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दायमित्यादि-अपो निनीयेति उदकक्रियादिशास्त्रार्थोपलक्षणम् अर्थानामृणापाकरणस्य यावदपेक्षितं रिक्तं सर्वं दायं-गृह्णीयुरित्यर्थः ॥ ३७-३९ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः।
किन्तु मामग्रजः सम्यङ् न प्रत्येति मणिं प्रति॥

मूलम्

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः।
किन्तु मामग्रजः सम्यङ् न प्रत्येति मणिं प्रति॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह।
अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः॥

मूलम्

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह।
अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्र—बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका संचार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं’॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्।
आदाय वाससाच्छन्नं ददौ सूर्यसमप्रभम्॥

मूलम्

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्।
आदाय वाससाच्छन्नं ददौ सूर्यसमप्रभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान् श्रीकृष्णको दे दी॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आलब्ध उपालब्धः ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः।
विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत् प्रभुः॥

मूलम्

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः।
विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत् प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुनः अक्रूरजीको लौटा दिया॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रजः दोषम् ॥ ४१-४२ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५७ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वेतद् भगवत ईश्वरस्य विष्णो-
र्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च।
आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद् वा
दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम्॥

मूलम्

यस्त्वेतद् भगवत ईश्वरस्य विष्णो-
र्वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च।
आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद् वा
दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकोंका मार्जन करनेवाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकारकी अपकीर्ति और पापोंसे छूटकर शान्तिका अनुभव करता है॥ ४२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५७॥