५६ स्यमन्तकोपाख्यानम्

भागसूचना

स्यमन्तकमणिकी कथा, जाम्बवती और सत्यभामाके साथ श्रीकृष्णका विवाह

प्रस्तावः

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितः+++(←सत्रजित)+++ स्वतनयां
कृष्णाय कृत-किल्बिषः।
स्यमन्तकेन मणिना
स्वयम् उद्यम्य दत्तवान्

मूलम्

सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः।
स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सत्राजित् ने श्रीकृष्णको झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराधका मार्जन करनेके लिये उसने स्वयं स्यमन्तकमणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णको सौंप दी॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितः+++(←सत्रजित)+++ किम् अकरोद्
ब्रह्मन् कृष्णस्य किल्बिषः।
स्यमन्तकः कुतस् तस्य
कस्माद् दत्ता सुता हरेः २

मूलम्

सत्राजितः किमकरोद् ब्रह्मन् कृष्णस्य किल्बिषम्।
स्यमन्तकः कुतस्तस्य कस्माद् दत्ता सुता हरेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! सत्राजित् ने भगवान् श्रीकृष्णका क्या अपराध किया था? उसे स्यमन्तकमणि कहाँसे मिली? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी?॥ २॥

स्यमन्तक-मणि-प्राप्तिः

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् सत्राजितः+++(←सत्रजित्)+++ सूर्यो
भक्तस्य परमः सखा
प्रीतस् तस्मै मणिं प्रादात्
स च तुष्टः स्यमन्तकम् ३

मूलम्

आसीत् सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा।
प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात् सूर्यस्तुष्टः स्यमन्तकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! सत्राजित् भगवान् सूर्यका बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्तिसे प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान‍्ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे स्यमन्तकमणि दी थी॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं बिभ्रन् मणिं कण्ठे
भ्राजमानो यथा रविः।
प्रविष्टो द्वारकां राजन्
तेजसा नोपलक्षितः ४

मूलम्

स तं बिभ्रन् मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रविः।
प्रविष्टो द्वारकां राजंस्तेजसा नोपलक्षितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्राजित् उस मणिको गलेमें धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित्! जब सत्राजित् द्वारकामें आया, तब अत्यन्त तेजस्विताके कारण लोग उसे पहचान न सके॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विलोक्य जना दूरात्
तेजसा मुष्ट+++(=चुरित)+++-दृष्टयः+++([प्र५])+++।
+++(क्रीडार्थं)+++ दीव्यते ऽक्षैर् भगवते
शशंसुः सूर्य-शङ्किताः ५

मूलम्

तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः।
दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशङ्किताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूरसे ही उसे देखकर लोगोंकी आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं। लोगोंने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगोंने भगवान‍्के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे॥ ५॥

कृष्णसूचनम्

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायण नमस् ते ऽस्तु
शङ्ख-चक्र-गदा-धर।
दामोदरारविन्दाक्ष
गोविन्द यदु-नन्दन ६

मूलम्

नारायण नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर।
दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोगोंने कहा—‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष आयाति सविता
त्वां दिदृक्षुर् जगत्-पते।
मुष्णन् गभस्ति-चक्रेण
नृणां चक्षूंषि तिग्म-गुः ७

मूलम्

एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते।
मुष्णन् गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्व् अन्विच्छन्ति ते मार्गं
त्रिलोक्यां विबुध-र्षभाः।
ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु
द्रष्टुं त्वां यात्य् अजः प्रभो ८

मूलम्

नन्वन्विच्छन्ति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः।
ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’॥ ८॥

श्लोक-९

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य बाल-वचनं
प्रहस्याम्बुज-लोचनः।
प्राह नासौ रविर् देवः
सत्राजिन् मणिना ज्वलन् ९

मूलम्

निशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचनः।
प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अनजान पुरुषोंकी यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है, जो मणिके कारण इतना चमक रहा है॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजित् स्वगृहं श्रीमत्
कृत-कौतुक-मङ्गलम्।
प्रविश्य देव-सदने
मणिं +++(पुरोहित-)+++विप्रैर् न्यवेशयत् १०

मूलम्

सत्राजित् स्वगृहं श्रीमत् कृतकौतुकमङ्गलम्।
प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया। घरपर उसके शुभागमनके उपलक्ष्यमें मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणोंके द्वारा स्यमन्तकमणिको एक देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया॥ १०॥

अर्थलाभः

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिने दिने स्वर्ण-भारान्
अष्टौ
सृजति प्रभो।
दुर्भिक्ष-मार्य्-अरिष्टानि
सर्पाधि-व्याधयो ऽशुभाः
न सन्ति मायिनस् तत्र
यत्रास्ते ऽभ्यर्चितो मणिः ११

मूलम्

दिने दिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो।
दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः।
न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वह मणि प्रतिदिन आठ भार1 सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियोंका उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(सत्राजित्)+++ याचितो मणिं क्वापि
यदु-राजाय+++(=उग्रसेनाय)+++ शौरिणा+++(=शूरसेनपैत्रेण [कृष्णेन])+++।
नैवार्थ-कामुकः प्रादाद्
याच्ञा-भङ्गम् अतर्कयन् १२

मूलम्

स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा।
नैवार्थकामुकः प्रादाद् याच्ञाभङ्गमतर्कयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार भगवान् श्रीकृष्णने प्रसंगवश कहा—‘सत्राजित्! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेनको दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान‍्की आज्ञाका उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया॥ १२॥

प्रसेन-मरणम्

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तम् एकदा मणिं कण्ठे
प्रतिमुच्य महाप्रभम्।
+++(सत्राजिद्-भ्राता)+++ प्रसेनो हयम् आरुह्य
मृगायां व्यचरद् वने १३

मूलम्

तमेकदा मणिं कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्।
प्रसेनो हयमारुह्य मृगयां व्यचरद् वने॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेनने उस परम प्रकाशमयी मणिको अपने गलेमें धारण कर लिया और फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसेनं सहयं हत्वा
मणिम् आच्छिद्य केशरी
गिरिं विशन् जाम्बवता
निहतो
मणिम् इच्छता १४

मूलम्

प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केसरी।
गिरं विशञ्जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ एक सिंहने घोड़े सहित प्रसेनको मार डाला और उस मणिको छीन लिया। वह अभी पर्वतकी गुफामें प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला॥ १४॥

अपवादः

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि चक्रे कुमारस्य
मणिं क्रीडनकं बिले।

अपश्यन् भ्रातरं भ्राता
सत्राजित् पर्यतप्यत १५

मूलम्

सोऽपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले।
अपश्यन् भ्रातरं भ्राता सत्राजित् पर्यतप्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। अपने भाई प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित् को बड़ा दुःख हुआ॥ १५॥

अपवादः

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

“प्रायः कृष्णेन निहतो
मणि-ग्रीवो वनं गतः।
भ्राता ममे"ति तच् छ्रुत्वा
कर्णे कर्णे ऽजपन् जनाः १६

मूलम्

प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः।
भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णे कर्णेऽजपञ्जनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था।’ सत्राजित् की यह बात सुनकर लोग आपसमें कानाफूसी करने लगे॥ १६॥

सत्यप्रतिपादनयत्नः

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस् तद् उपश्रुत्य
दुर्यशो लिप्तम् आत्मनि।
मार्ष्टुं प्रसेन-पदवीम्
अन्वपद्यत नागरैः १७

मूलम्

भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि।
मार्ष्टुं प्रसेनपदवीमन्वपद्यत नागरैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्णने सुना कि यह कलंकका टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढ़नेके लिये वनमें गये॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं प्रसेनं अश्वं च
वीक्ष्य केशरिणा वने।
तं चाद्रिपृष्ठे निहतम्
ऋक्षेण ददृशुर् जनाः १८

मूलम्

हतं प्रसेनमश्वं च वीक्ष्य केसरिणा वने।
तं चाद्रिपृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ खोजते-खोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें सिंहने प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है। जब वे लोग सिंहके पैरोंका चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछने सिंहको भी मार डाला है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋक्ष-राज-बिलं भीमम्
अन्धेन तमसा वृतम्।
एको विवेश भगवान्
अवस्थाप्य बहिः प्रजाः १९

मूलम्

ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसाऽऽवृतम्।
एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकारसे भरी हुई ऋक्षराजकी भयंकर गुफामें प्रवेश किया॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र दृष्ट्वा मणि-प्रेष्ठं
बाल-क्रीडनकं कृतम्।
हर्तुं कृत-मतिस् तस्मिन्न्
अवतस्थे ऽर्भकान्तिके २०

मूलम्

तत्र दृष्ट्वा मणिश्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्।
हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकान्तिके॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तकको बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके पास जा खड़े हुए॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तम् अपूर्वं नरं दृष्ट्वा
धात्री चुक्रोश भीतवत्।
तच् छ्रुत्वा ऽभ्यद्रवत् क्रुद्धो
जाम्बवान् बलिनां वरः २१

मूलम्

तमपूर्वं नरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्।
तच्छ्रुत्वाभ्यद्रवत् क्रुद्धो जाम्बवान् बलिनां वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै भगवता तेन
युयुधे स्वामिना ऽऽत्मनः।
पुरुषं प्राकृतं मत्वा
कुपितो नानुभाव-वित् २२

मूलम्

स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः।
पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान‍्की महिमा, उनके प्रभावका पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे युद्ध करने लगे॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वन्द्व-युद्धं सुतुमुलम्
उभयोर् विजिगीषतोः।
आयुधाश्म-द्रुमैर् दोर्भिः
क्रव्यार्थे श्येनयोर् इव २३

मूलम्

द्वन्द्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः।
आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार मांसके लिये दो बाज आपसमें लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोंका प्रहार किया, फिर शिलाओंका, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरेपर फेंकने लगे। अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् तद् अष्टाविंशाहम्
इतरेतर-मुष्टिभिः।
वज्र-निष्पेष-परुषैर्
अविश्रमम् अहर्-निशम् २४

मूलम्

आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः।
वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वज्र-प्रहारके समान कठोर घूँसोंसे आपसमें वे अट्ठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण-मुष्टि-विनिष्पात-
निष्पिष्टाङ्गोरु-बन्धनः।
क्षीण-सत्त्वः स्विन्न-गात्रस्
तम् आहातीव विस्मितः २५

मूलम्

कृष्णमुष्टिविनिष्पातनिष्पिष्टाङ्गोरुबन्धनः।
क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके घूँसोंकी चोटसे जाम्बवान् के शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित—चकित होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—॥ २५॥

कृष्णस्तुतिः

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाने त्वां सर्व-भूतानां
प्राण ओजः सहो बलम्।
विष्णुं पुराण-पुरुषं
प्रभविष्णुम् अधीश्वरम् २६

मूलम्

जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्।
विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं॥ २६॥

मूलम्

ओजः प्रवृत्तिसामर्थ्यं सहो वेगः बलन्धारणसामर्थ्यम् प्राणादीनां निर्वाहकमित्यर्थः ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि विश्व-सृजां स्रष्टा,
सृष्टानाम् अपि यच् च सत् +++(→त्रिषु गुणेषु प्रज्ञापूर्णांशः)+++।
कालः कलयताम्, ईशः
पर आत्मा तथात्मनाम् २७

मूलम्

त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृज्यानामपि यच्च सत्।
कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथाऽऽत्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप विश्वके रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए पदार्थोंमें भी सत्तारूपसे आप ही विराजमान हैं। कालके जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओंके परम आत्मा भी आप ही हैं॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्येषद्-उत्कलित-रोषकटाक्ष-मोक्षैर्
वर्त्मादिशत् क्षुभित-नक्र-तिमिङ्गलो ऽब्धिः
सेतुः कृतः, स्वयश-उज्ज्वलिता च लङ्का
रक्षःशिरांसि भुवि पेतुर् इषु-क्षतानि २८

मूलम्

यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षै-
र्वर्त्मादिशत् क्षुभितनक्रतिमिङ्गिलोऽब्धिः।
सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लङ्का
रक्षःशिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रोंमें तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्रकी ओर देखा था। उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लंकाका विध्वंस किया। आपके बाणोंसे कट-कटकर राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)’॥ २८॥

कृष्णायार्पणम्

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति विज्ञात-विज्ञानम्
ऋक्ष-राजानम् अच्युतः।
व्याजहार महाराज
भगवान् देवकीसुतः २९

मूलम्

इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः।
व्याजहार महाराज भगवान् देवकीसुतः॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमृश्यारविन्दाक्षः
पाणिना शं-करेण तम्।
कृपया परया भक्तं
मेघ-गम्भीरया गिरा ३०

मूलम्

अभिमृश्यारविन्दाक्षः पाणिना शङ्करेण तम्।
कृपया परया भक्तं प्रेमगम्भीरया गिरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान‍्को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमलको उनके शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम-गम्भीर वाणीसे अपने भक्त जाम्बवान् जी से कहा—॥ २९-३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

मणि-हेतोर् इह प्राप्ता
वयम् ऋक्ष-पते बिलम्।
मिथ्याभिशापं प्रमृजन्न्
आत्मनो मणिनामुना ३१

मूलम्

मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्।
मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऋक्षराज! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं। इस मणिके द्वारा मैं अपनेपर लगे झूठे कलंकको मिटाना चाहता हूँ’॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्य् उक्तः स्वां दुहितरं
कन्यां जाम्बवतीं मुदा।
अर्हणार्थं स मणिना
कृष्णायोपजहार ह ३२

मूलम्

इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा।
अर्हणार्थं स मणिना कृष्णायोपजहार ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के ऐसा कहनेपर जाम्बवान् ने बड़े आनन्दसे उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवतीको मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया॥ ३२॥

पौरसान्त्वनम्

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः
प्रविष्टस्य बिलं जनाः
प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि
दुःखिताः स्वपुरं ययुः ३३

मूलम्

अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः प्रविष्टस्य बिलं जनाः।
प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण जिन लोगोंको गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारकाको लौट गये॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य देवकी देवी
रुक्मिण्य् आनक-दुन्दुभिः+++(=वसुदेवः)+++।
सुहृदो ज्ञातयो ऽशोचन्
बिलात् कृष्णम् अनिर्गतम् ३४

मूलम्

निशम्य देवकी देवी रुक्मिण्यानकदुन्दुभिः।
सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन् बिलात् कृष्णमनिर्गतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफामेंसे नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितं शपन्तस् ते
दुःखिता द्वारकौकसः।
उपतस्थुश् चन्द्रभागां
दुर्गां कृष्णोपलब्धये ३५

मूलम्

सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारकौकसः।
उपतस्थुर्महामायां दुर्गां कृष्णोपलब्धये॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तु +++(दुर्गा-)+++देव्य्-उपस्थानात्
प्रत्यादिष्टाशिषा स च।
प्रादुर्-बभूव सिद्धार्थः
स+++(नव)+++दारो हर्षयन् हरिः ३६

मूलम्

तेषां तु देव्युपस्थानात् प्रत्यादिष्टाशिषा स च।
प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन् हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीचमें मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके साथ सफल मनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्य हृषीकेशं
मृतं पुनर् इवागतम्।
सह पत्न्या मणि-ग्रीवं
सर्वे जात-महोत्सवाः ३७

मूलम्

उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्।
सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्राजितं समाहूय
सभायां राज-सन्निधौ।
प्राप्तिं चाख्याय भगवान्
मणिं तस्मै न्यवेदयत् ३८

मूलम्

सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ।
प्राप्तिं चाख्याय भगवान् मणिं तस्मै न्यवेदयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर भगवान‍्ने सत्राजित् को राजसभामें महाराज उग्रसेनके पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित् को सौंप दी॥ ३८॥

सत्राजित्-पश्चात्-तापः

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चाति-व्रीडितो रत्नं
गृहीत्वावाङ्-मुखस् ततः।
अनुतप्यमानो भवनम्
अगमत्
स्वेन पाप्मना ३९+++(5)+++

मूलम्

स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वावाङ्मुखस्ततः।
अनुतप्यमानो भवनमगमत् स्वेन पाप्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽनुध्यायंस् तद् एवाघं
बलवद्-विग्रहाकुलः।
कथं मृजाम्य् आत्मरजः
प्रसीदेद् वा ऽच्युतः कथम् ४०

मूलम्

सोऽनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्विग्रहाकुलः।
कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद् वाच्युतः कथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान् के साथ विरोध करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ? मुझपर भगवान् श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्,
न शपेद् वा जनो यथा।
अदीर्घ-दर्शनं क्षुद्रं
मूढं द्रविण-लोलुपम् ४१

मूलम्

किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद् वा जनो यथा।
अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धनके लोभसे मैं बड़ी मूढ़ताका काम कर बैठा॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दास्ये दुहितरं तस्मै
स्त्री-रत्नं रत्नम् एव च।
उपायोऽयं समीचीनस्
तस्य शान्तिर् न चान्यथा ४२

मूलम्

दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च।
उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही श्रीकृष्णको दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है’॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं व्यवसितो बुद्ध्या
सत्राजित् स्व-सुतां शुभाम्।
मणिं च स्वयम् उद्यम्य
कृष्णायोपजहार ह ४३

मूलम्

एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित् स्वसुतां शुभाम्।
मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्राजित् ने अपनी विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां सत्यभामां भगवान्
उपयेमे यथा-विधि।
बहुभिर् याचितां शील-
रूपौदार्य-गुणान्विताम् ४४

मूलम्

तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि।
बहुभिर्याचितां शीलरूपौदार्यगुणान्विताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद‍्गुणोंसे सम्पन्न थीं। बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन लोगोंने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवान् आह - न मणिं
प्रतीच्छामो वयं नृप।
तवास्तां देव-भक्तस्य
वयं च +++(तदुद्भव-सुवर्ण-)+++फल-भागिनः ४५

मूलम्

भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप।
तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने सत्राजित् से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान‍्के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात् उससे निकले हुए सोनेके अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

( अवधिः अन्तः आशिषाम् आज्ञाष्टसिद्धीनाम् ) फलभागिनः दुर्भिक्षादिशन्तिफलभागिनः ॥ २७-४५ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चषष्टाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५६॥


  1. भारका परिमाण इस प्रकार है—
    चतुर्भिर्व्रीहिभिर्गुंजं गुंजान्पंच पणं पणान्।
    अष्टौ धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुरः पलम्।
    तुलां पलशतं प्राहुर्भारं स्याद्विंशतिस्तुलाः॥
    अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान) की एक गुंजा, पाँच गुंजाका एक पण, आठ पणका एक धरण, आठ धरणका एक कर्ष, चार कर्षका एक पल, सौ पलकी एक तुला और बीस तुलाका एक भार कहलाता है।’ ↩︎