[चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
शिशुपालके साथी राजाओंकी और रुक्मीकी हार तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी-विवाह
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः।
स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः॥
मूलम्
इति सर्वे सुसंरब्धा वाहानारुह्य दंशिताः।
स्वैः स्वैर्बलैः परिक्रान्ता अन्वीयुर्धृतकार्मुकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोधसे आगबबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेनाके साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान् श्रीकृष्णके पीछे दौड़े॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः।
तस्थुस्तत्संमुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते॥
मूलम्
तानापतत आलोक्य यादवानीकयूथपाः।
तस्थुस्तत्संमुखा राजन्विस्फूर्ज्य स्वधनूंषि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब यदुवंशियोंके सेनापतियोंने देखा कि शत्रुदल हमपर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुषका टंकार किया और घूमकर उनके सामने डट गये॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थे च कोविदाः।
मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा॥
मूलम्
अश्वपृष्ठे गजस्कन्धे रथोपस्थे च कोविदाः।
मुमुचुः शरवर्षाणि मेघा अद्रिष्वपो यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासन्धकी सेनाके लोग कोई घोड़ेपर, कोई हाथीपर, तो कोई रथपर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेदके बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियोंपर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ोंपर मूसलधार पानी बरसा रहे हों॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा।
सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना॥
मूलम्
पत्युर्बलं शरासारैश्छन्नं वीक्ष्य सुमध्यमा।
सव्रीडमैक्षत्तद्वक्त्रं भयविह्वललोचना॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने देखा कि उनके पति श्रीकृष्णकी सेना बाण-वर्षासे ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जाके साथ भयभीत नेत्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णके मुखकी ओर देखा॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने।
विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत् तावकैः शात्रवं बलम्॥
मूलम्
प्रहस्य भगवानाह मा स्म भैर्वामलोचने।
विनङ्क्ष्यत्यधुनैवैतत् तावकैः शात्रवं बलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने हँसकर कहा—‘सुन्दरी! डरो मत। तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओंकी सेनाको नष्ट किये डालती है’॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः।
अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान् रथान्॥
मूलम्
तेषां तद्विक्रमं वीरा गदसङ्कर्षणादयः।
अमृष्यमाणा नाराचैर्जघ्नुर्हयगजान् रथान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर गद और संकर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओंका पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणोंसे शत्रुओंके हाथी, घोड़े तथा रथोंको छिन्न-भिन्न करने लगे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि।
सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः॥
मूलम्
पेतुः शिरांसि रथिनामश्विनां गजिनां भुवि।
सकुण्डलकिरीटानि सोष्णीषाणि च कोटिशः॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः।
अश्वाश्वतरनागोष्ट्रखरमर्त्यशिरांसि च॥
मूलम्
हस्ताः सासिगदेष्वासाः करभा ऊरवोऽङ्घ्रयः।
अश्वाश्वतरनागोष्ट्रखरमर्त्यशिरांसि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बाणोंसे रथ, घोड़े और हाथियोंपर बैठे विपक्षी वीरोंके कुण्डल, किरीट और पगड़ियोंसे सुशोभित करोड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वीपर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्योंके सिर भी कट-कटकर रणभूमिमें लोटने लगे॥ ७-८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः।
राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः॥
मूलम्
हन्यमानबलानीका वृष्णिभिर्जयकाङ्क्षिभिः।
राजानो विमुखा जग्मुर्जरासन्धपुरःसराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें विजयकी सच्ची आकांक्षावाले यदुवंशियोंने शत्रुओंकी सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्धसे पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्।
नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन्॥
मूलम्
शिशुपालं समभ्येत्य हृतदारमिवातुरम्।
नष्टत्विषं गतोत्साहं शुष्यद्वदनमब्रुवन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नीके छिन जानेके कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदयमें उत्साह रह गया था और न तो शरीरपर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कहने लगा—॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज।
न प्रियाप्रिययो राजन् निष्ठा देहिषु दृश्यते॥
मूलम्
भो भोः पुरुषशार्दूल दौर्मनस्यमिदं त्यज।
न प्रियाप्रिययो राजन् निष्ठा देहिषु दृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शिशुपालजी! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं, यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन्! कोई भी बात सर्वदा अपने मनके अनुकूल ही हो या प्रतिकूल, इस सम्बन्धमें कुछ स्थिरता किसी भी प्राणीके जीवनमें नहीं देखी जाती॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा दारुमयी योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया।
एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः॥
मूलम्
यथा दारुमयी योषिन्नृत्यते कुहकेच्छया।
एवमीश्वरतन्त्रोऽयमीहते सुखदुःखयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कठपुतली बाजीगरकी इच्छाके अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छाके अधीन रहकर सुख और दुःखके सम्बन्धमें यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कुहकेक्षया ॥ १२-१४ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः।
त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्य एकमहं परम्॥
मूलम्
शौरेः सप्तदशाहं वै संयुगानि पराजितः।
त्रयोविंशतिभिः सैन्यैर्जिग्य एकमहं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखिये, श्रीकृष्णने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओंके साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बार—अठारहवीं बार उनपर विजय प्राप्त की॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्।
कालेन दैवयुक्तेन जानन् विद्रावितं जगत्॥
मूलम्
तथाप्यहं न शोचामि न प्रहृष्यामि कर्हिचित्।
कालेन दैवयुक्तेन जानन् विद्रावितं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी इस बातको लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्धके अनुसार काल भगवान् ही इस चराचर जगत्को झकझोरते रहते हैं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः।
पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः॥
मूलम्
अधुनापि वयं सर्वे वीरयूथपयूथपाः।
पराजिताः फल्गुतन्त्रैर्यदुभिः कृष्णपालितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियोंके भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंकी थोड़ी-सी सेनाने हमें हरा दिया है॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
फल्गुतन्त्रः अल्पबलैः ॥ १५ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि।
तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः॥
मूलम्
रिपवो जिग्युरधुना काल आत्मानुसारिणि।
तदा वयं विजेष्यामो यदा कालः प्रदक्षिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बार हमारे शत्रुओंकी ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हींके अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे’॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रदक्षिणः अनुकूलः ॥ १६-२२ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात् सानुगः पुरम्।
हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः॥
मूलम्
एवं प्रबोधितो मित्रैश्चैद्योऽगात् सानुगः पुरम्।
हतशेषाः पुनस्तेऽपि ययुः स्वं स्वं पुरं नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब मित्रोंने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियोंके साथ अपनी राजधानीको लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरनेसे बचे थे, अपने-अपने नगरोंको चले गये॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन् स्वसुः।
पृष्ठतोऽन्वगमत् कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली॥
मूलम्
रुक्मी तु राक्षसोद्वाहं कृष्णद्विडसहन् स्वसुः।
पृष्ठतोऽन्वगमत् कृष्णमक्षौहिण्या वृतो बली॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मिणीजीका बड़ा भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्णसे बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिनको श्रीकृष्ण हर ले जायँ और राक्षसरीतिसे बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणीसेना साथ ले ली और श्रीकृष्णका पीछा किया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्।
प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः॥
मूलम्
रुक्म्यमर्षी सुसंरब्धः शृण्वतां सर्वभूभुजाम्।
प्रतिजज्ञे महाबाहुर्दंशितः सशरासनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु रुक्मी क्रोधके मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियोंके सामने यह प्रतिज्ञा की—॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि वः॥
मूलम्
अहत्वा समरे कृष्णमप्रत्यूह्य च रुक्मिणीम्।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि वः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं आपलोगोंके बीचमें यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्धमें श्रीकृष्णको न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणीको न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा’॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः।
चोदयाश्वान् यतः कृष्णस्तस्य मे संयुगं भवेत्॥
मूलम्
इत्युक्त्वा रथमारुह्य सारथिं प्राह सत्वरः।
चोदयाश्वान् यतः कृष्णस्तस्य मे संयुगं भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यह कहकर वह रथपर सवार हो गया और सारथिसे बोला—‘जहाँ कृष्ण हो वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसीके साथ युद्ध होगा॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः।
नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता॥
मूलम्
अद्याहं निशितैर्बाणैर्गोपालस्य सुदुर्मतेः।
नेष्ये वीर्यमदं येन स्वसा मे प्रसभं हृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज मैं अपने तीखे बाणोंसे उस खोटी बुद्धिवाले ग्वालेके बल-वीर्यका घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिनको बलपूर्वक हर ले गया है’॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्।
रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत्॥
मूलम्
विकत्थमानः कुमतिरीश्वरस्याप्रमाणवित्।
रथेनैकेन गोविन्दं तिष्ठ तिष्ठेत्यथाह्वयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रुक्मीकी बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान्के तेज-प्रभावको बिलकुल नहीं जानता था। इसीसे इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथसे श्रीकृष्णके पास पहुँचकर ललकारने लगा—‘खड़ा रह! खड़ा रह!’॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अप्रमाणवित् । अनन्तपरिमाणवत्त्वमजानन् वेदान्तानभिज्ञ इत्यर्थः ॥ २३-३४ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः।
आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन॥
मूलम्
धनुर्विकृष्य सुदृढं जघ्ने कृष्णं त्रिभिः शरैः।
आह चात्र क्षणं तिष्ठ यदूनां कुलपांसन॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः।
हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः॥
मूलम्
कुत्र यासि स्वसारं मे मुषित्वा ध्वाङ्क्षवद्धविः।
हरिष्येऽद्य मदं मन्द मायिनः कूटयोधिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने धनुषको बलपूर्वक खींचकर भगवान् श्रीकृष्णको तीन बाण मारे और कहा—‘एक क्षण मेरे सामने ठहर! यदुवंशियोंके कुलकलंक! जैसे कौआ होमकी सामग्री चुराकर उड़ जाय, वैसे ही तू मेरी बहिनको चुराकर कहाँ भागा जा रहा है? अरे मन्द! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्धमें कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ॥ २४-२५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्।
स्मयन् कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम्॥
मूलम्
यावन्न मे हतो बाणैः शयीथा मुञ्च दारिकाम्।
स्मयन् कृष्णो धनुश्छित्त्वा षड्भिर्विव्याध रुक्मिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देख! जबतक मेरे बाण तुझे धरतीपर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्चीको छोड़कर भाग जा।’ रुक्मीकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उसपर छः बाण छोड़े॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टभिश्चतुरो वाहान् द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः।
स चान्यद् धनुरादाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः॥
मूलम्
अष्टभिश्चतुरो वाहान् द्वाभ्यां सूतं ध्वजं त्रिभिः।
स चान्यद् धनुरादाय कृष्णं विव्याध पञ्चभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही भगवान् श्रीकृष्णने आठ बाण उसके चार घोड़ोंपर और दो सारथिपर छोड़े और तीन बाणोंसे उसके रथकी ध्वजाको काट डाला। तब रुक्मीने दूसरा धनुष उठाया और भगवान् श्रीकृष्णको पाँच बाण मारे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्ताडितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः।
पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः॥
मूलम्
तैस्ताडितः शरौघैस्तु चिच्छेद धनुरच्युतः।
पुनरन्यदुपादत्त तदप्यच्छिनदव्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन बाणोंके लगनेपर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मीने इसके बाद एक और धनुष लिया, परन्तु हाथमें लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युतने उसे भी काट डाला॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ।
यद् यदायुधमादत्त तत् सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः॥
मूलम्
परिघं पट्टिशं शूलं चर्मासी शक्तितोमरौ।
यद् यदायुधमादत्त तत् सर्वं सोऽच्छिनद्धरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रुक्मीने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर—जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभीको भगवान्ने प्रहार करनेके पहले ही काट डाला॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया।
कृष्णमभ्यद्रवत् क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम्॥
मूलम्
ततो रथादवप्लुत्य खड्गपाणिर्जिघांसया।
कृष्णमभ्यद्रवत् क्रुद्धः पतङ्ग इव पावकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब रुक्मी क्रोधवश हाथमें तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे रथसे कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आगकी ओर लपकता है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः।
छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः॥
मूलम्
तस्य चापततः खड्गं तिलशश्चर्म चेषुभिः।
छित्त्वासिमाददे तिग्मं रुक्मिणं हन्तुमुद्यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान्ने देखा कि रुक्मी मुझपर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणोंसे उसकी ढाल-तलवारको तिल-तिल करके काट दिया और उसको मार डालनेके लिये हाथमें तीखी तलवार निकाल ली॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला।
पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती॥
मूलम्
दृष्ट्वा भ्रातृवधोद्योगं रुक्मिणी भयविह्वला।
पतित्वा पादयोर्भर्तुरुवाच करुणं सती॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब रुक्मिणीजीने देखा कि ये तो हमारे भाईको अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भयसे विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर गिरकर करुण-स्वरमें बोलीं—॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगेश्वराप्रमेयात्मन् देवदेव जगत्पते।
हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज॥
मूलम्
योगेश्वराप्रमेयात्मन् देवदेव जगत्पते।
हन्तुं नार्हसि कल्याण भ्रातरं मे महाभुज॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवताओंके भी आराध्यदेव! जगत्पते! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओंको कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान् हैं, परन्तु कल्याणस्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैयाको मारना आपके योग्य काम नहीं है’॥ ३३॥
श्लोक-३४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया परित्रासविकम्पिताङ्गया
शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया।
कातर्यविस्रंसितहेममालया
गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत॥
मूलम्
तया परित्रासविकम्पिताङ्गया
शुचावशुष्यन्मुखरुद्धकण्ठया।
कातर्यविस्रंसितहेममालया
गृहीतपादः करुणो न्यवर्तत॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—रुक्मिणीजीका एक-एक अंग भयके मारे थर-थर काँप रहा था। शोककी प्रबलतासे मुँह सूख गया था, गला रुँध गया था। आतुरतावश सोनेका हार गलेसे गिर पड़ा था और इसी अवस्थामें वे भगवान्के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परमदयालु भगवान् उन्हें भयभीत देखकर करुणासे द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मीको मार डालनेका विचार छोड़ दिया॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
करुणः। कृपावान्
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं
सश्मश्रुकेशं प्रवपन् व्यरूपयत्।
तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं
यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः॥
मूलम्
चैलेन बद्ध्वा तमसाधुकारिणं
सश्मश्रुकेशं प्रवपन् व्यरूपयत्।
तावन्ममर्दुः परसैन्यमद्भुतं
यदुप्रवीरा नलिनीं यथा गजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी रुक्मी उनके अनिष्टकी चेष्टासे विमुख न हुआ। तब भगवान् श्रीकृष्णने उसको उसीके दुपट्टेसे बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगहसे मूँड़कर उसे कुरूप बना दिया। तबतक यदुवंशी वीरोंने शत्रुकी अद्भुत सेनाको तहस-नहस कर डाला—ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवनको रौंद डालता है॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यरूपयत् वैरूप्यमायादयन् प्रावयत् श्मश्रु केशशून्यमकरोत् वैरूप्यं हि वपतस्तस्मादभूदित्यर्थः ॥ ३५-३७ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्।
तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः।
विमुच्य बद्धं करुणो भगवान् कृष्णमब्रवीत्॥
मूलम्
कृष्णान्तिकमुपव्रज्य ददृशुस्तत्र रुक्मिणम्।
तथाभूतं हतप्रायं दृष्ट्वा सङ्कर्षणो विभुः।
विमुच्य बद्धं करुणो भगवान् कृष्णमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे लोग उधरसे लौटकर श्रीकृष्णके पास आये तो देखा कि रुक्मी दुपट्टेसे बँधा हुआ अधमरी अवस्थामें पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान् भगवान् बलरामजीको बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्णसे कहा—॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्।
वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः॥
मूलम्
असाध्विदं त्वया कृष्ण कृतमस्मज्जुगुप्सितम्।
वपनं श्मश्रुकेशानां वैरूप्यं सुहृदो वधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्ण! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हमलोगोंके योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धीकी दाढ़ी-मूँछ मूँड़कर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकारका वध ही है’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैवास्मान् साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया।
सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक् पुमान्॥
मूलम्
मैवास्मान् साध्व्यसूयेथा भ्रातुर्वैरूप्यचिन्तया।
सुखदुःखदो न चान्योऽस्ति यतः स्वकृतभुक् पुमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद बलरामजीने रुक्मिणीको सम्बोधन करके कहा— ‘साध्वी! तुम्हारे भाईका रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हमलोगोंसे बुरा न मानना; क्योंकि जीवको सुख-दुःख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्मका फल भोगना पड़ता है’॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रुक्मिणी प्रत्याह- मैवेति ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति।
त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः॥
मूलम्
बन्धुर्वधार्हदोषोऽपि न बन्धोर्वधमर्हति।
त्याज्यः स्वेनैव दोषेण हतः किं हन्यते पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब श्रीकृष्णसे बोले—‘कृष्ण! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करनेयोग्य अपराध करे तो भी अपने ही सम्बन्धियोंके द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराधसे ही मर चुका है, मरे हुएको फिर क्या मारना?’॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
बन्धोरिति पञ्चमी ॥ ३९-४० ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः।
भ्रातापि भ्रातरं हन्याद् येन घोरतरस्ततः॥
मूलम्
क्षत्रियाणामयं धर्मः प्रजापतिविनिर्मितः।
भ्रातापि भ्रातरं हन्याद् येन घोरतरस्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी! ब्रह्माजीने क्षत्रियोंका धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाईको मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है’॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः।
मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि॥
मूलम्
राज्यस्य भूमेर्वित्तस्य स्त्रियो मानस्य तेजसः।
मानिनोऽन्यस्य वा हेतोः श्रीमदान्धाः क्षिपन्ति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद श्रीकृष्णसे बोले—‘भाई कृष्ण! यह ठीक है कि जो लोग धनके नशेमें अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारणसे अपने बन्धुओंका भी तिरस्कार कर दिया करते हैं’॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्षिपन्ति निरस्यन्ति ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्।
यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत्॥
मूलम्
तवेयं विषमा बुद्धिः सर्वभूतेषु दुर्हृदाम्।
यन्मन्यसे सदाभद्रं सुहृदां भद्रमज्ञवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वे रुक्मिणीजीसे बोले—‘साध्वी! तुम्हारे भाई-बन्धु समस्त प्राणियोंके प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मंगलके लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियोंकी भाँति अमंगल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धिकी विषमता है॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुहृदामाशास्यं भद्रम् असुहृदामपकारिणामपि त्वं मन्यसे आकाङ्क्षसे अतो भूतेषु बुद्धिविषमा नैकरूपा मन्यत इति पाठे लोके सुहृदां भद्रं च यन्मन्यते अतो विषमा बुद्धिरित्यर्थः ॥ ४२-४३ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्ममोहो नृणामेष कल्प्यते देवमायया।
सुहृद् दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम्॥
मूलम्
आत्ममोहो नृणामेष कल्प्यते देवमायया।
सुहृद् दुर्हृदुदासीन इति देहात्ममानिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवि! जो लोग भगवान्की मायासे मोहित होकर देहको ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हींको ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्।
नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः॥
मूलम्
एक एव परो ह्यात्मा सर्वेषामपि देहिनाम्।
नानेव गृह्यते मूढैर्यथा ज्योतिर्यथा नभः॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त देहधारियोंकी आत्मा एक ही है और कार्य-कारणसे, मायासे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियोंके भेदसे जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परन्तु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीरके भेदसे आत्माका भेद मानते हैं॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुहृच्छत्रूदासीन-विभागस्याज्ञानकल्पितत्वमुपपादयति । एक एवेति । सर्वेषामपि देहिनां जीवात्मनाम् अन्तरात्मा एक एव पर: गूढतयावस्थाने दृष्टान्तमाह । यथा ज्योतिः काष्ठेष्वग्नरिवेत्यर्थः तद्गतदोषास्पर्शे दृष्टान्तमाह-यथा नभ इति । एकस्य परमात्मनो जगच्छरीरभूतमिति एकशरीरभूतपाणिपादादिषु शत्रुमित्रादिविभागोऽनुपपन्नः तथा विमूढैः परमात्मशरीरत्वानभिज्ञैः नानेव शत्रुमित्रादिविभागयुक्तमिव जगद्विज्ञायत इत्यर्थः ॥ ४४ ॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः।
आत्मन्यविद्यया क्लृप्तः संसारयति देहिनम्॥
मूलम्
देह आद्यन्तवानेष द्रव्यप्राणगुणात्मकः।
आत्मन्यविद्यया क्लृप्तः संसारयति देहिनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर आदि और अन्तवाला है। पञ्चभूत, पञ्चप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मामें उसके अज्ञानसे ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है’, उसको जन्म-मृत्युके चक्करमें ले जाता है॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
द्रव्यप्राणगुणात्मकः पञ्चभूतज्ञानेन्द्रियगुणत्रयकार्यतत्त्वान्तरसमुदायः अविद्यया प्रकृत्या क्लृप्तः देहः संसारयति जन्मजरामरणादिदुःखं जयति देहिनां जीवात्मनामिति ॥ ४५ ॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्चासतः सति।
तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः॥
मूलम्
नात्मनोऽन्येन संयोगो वियोगश्चासतः सति।
तद्धेतुत्वात्तत्प्रसिद्धेर्दृग्रूपाभ्यां यथा रवेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साध्वी! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्यके द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्यके साथ नेत्र और रूपका न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसारकी सत्ता आत्मसत्ताके कारण जान पड़ती है, समस्त संसारका प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्माके साथ दूसरे असत् पदार्थोंका संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है?॥ ४६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परमात्मनो देहसम्बन्धाधीनदुःखाद्यन्वयो नास्तीत्याह - नान्मन इति । सतीति संबुद्धिः आत्मनः परमात्मनः असता देहेन जीवस्येव संयोगवियोगो न भवतः तत्प्रसिद्धः देहोत्पत्तेस्तद्वेतुत्वात् परमात्मसङ्कल्पहेतुत्वात् परमात्माधारत्वात् देहः परमात्मनो न बन्धक इत्यर्थः । तदधीनेन तस्य बन्धाभावे दृष्टान्तमाह । दृग्रूपाभ्यां यथा रवेरिति । आदित्येनानुग्राह्यं चक्षुस्तेन प्रकाश्यं रूपम् उभाभ्यामादित्यस्य न संसर्गः दूरस्थत्वात् एव परमात्माधनेन देन अन्तिक स्थितस्यापि दूरस्थत्वेन न तत्कृतदोषान्वय इत्यर्थः ॥ ४६ ॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्।
कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव॥
मूलम्
जन्मादयस्तु देहस्य विक्रिया नात्मनः क्वचित्।
कलानामिव नैवेन्दोर्मृतिर्ह्यस्य कुहूरिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना ये सारे विकार शरीरके ही होते हैं, आत्माके नहीं। जैसे कृष्णपक्षमें कलाओंका ही क्षय होता है, चन्द्रमाका नहीं, परन्तु अमावस्याके दिन व्यवहारमें लोग चन्द्रमाका ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीरके ही होते हैं, परन्तु लोग उसे भ्रमवश अपना—अपने आत्माका मान लेते हैं॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जन्मादय इति । कलानामेव जन्मादयः न चन्द्रस्य एवं पृथिव्यादितत्त्वानामेव जन्मादयः न जीवस्य मृतिरस्य कूहूरिव अस्य जीवस्य मरणं चन्द्रस्य कुहूरिवेत्यन्वयः । सा नष्टेन्दुकला पञ्चदशी कुहुश्चन्द्रस्य कलानाश इव जीवस्य देहस्य मृतिरित्यर्थः ॥ ४७ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाशयान आत्मानं विषयान्फलमेव च।
अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाऽऽप्नोत्यबुधो भवम्॥
मूलम्
यथाशयान आत्मानं विषयान्फलमेव च।
अनुभुङ्क्तेऽप्यसत्यर्थे तथाऽऽप्नोत्यबुधो भवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थके न होनेपर भी स्वप्नमें भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलोंका अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठमूठ संसार-चक्रका अनुभव करते हैं॥ ४८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अर्थेऽसत्यपि अस्थिरेऽपि स्थिरत्वबुद्धया स्वप्नार्थाननुभवति जाग्रद्दशायामपि तद्वत्वं विषय वबुद्ध्यानुभवतीत्यर्थः ॥ ४८-५२ ॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्।
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते॥
मूलम्
तस्मादज्ञानजं शोकमात्मशोषविमोहनम्।
तत्त्वज्ञानेन निर्हृत्य स्वस्था भव शुचिस्मिते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये साध्वी! अज्ञानके कारण होनेवाले इस शोकको त्याग दो। यह शोक अन्तःकरणको मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोड़कर तुम अपने स्वरूपमें स्थित हो जाओ’॥ ४९॥
श्लोक-५०
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता।
वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे॥
मूलम्
एवं भगवता तन्वी रामेण प्रतिबोधिता।
वैमनस्यं परित्यज्य मनो बुद्ध्या समादधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब बलरामजीने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणीजीने अपने मनका मैल मिटाकर विवेक-बुद्धिसे उसका समाधान किया॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः।
स्मरन् विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः॥
मूलम्
प्राणावशेष उत्सृष्टो द्विड्भिर्हतबलप्रभः।
स्मरन् विरूपकरणं वितथात्ममनोरथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मीकी सेना और उसके तेजका नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्तकी सारी आशा-अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओंने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जानेकी कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत् पुरम्।
अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद् रुषा॥
मूलम्
चक्रे भोजकटं नाम निवासाय महत् पुरम्।
अहत्वा दुर्मतिं कृष्णमप्रत्यूह्य यवीयसीम्।
कुण्डिनं न प्रवेक्ष्यामीत्युक्त्वा तत्रावसद् रुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः उसने अपने रहनेके लिये भोजकट नामकी एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्णको मारे बिना और अपनी छोटी बहिनको लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा॥ ५२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अप्रत्यूह्य पुनरानयनमकृत्वा ॥ ५२-५३ ॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्।
पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह॥
मूलम्
भगवान् भीष्मकसुतामेवं निर्जित्य भूमिपान्।
पुरमानीय विधिवदुपयेमे कुरूद्वह॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सब राजाओंको जीत लिया और विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीको द्वारकामें लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे।
अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप॥
मूलम्
तदा महोत्सवो नॄणां यदुपुर्यां गृहे गृहे।
अभूदनन्यभावानां कृष्णे यदुपतौ नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! उस समय द्वारकापुरीमें घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँके सभी लोगोंका यदुपति श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम जो था॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः।
पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः॥
मूलम्
नरा नार्यश्च मुदिताः प्रमृष्टमणिकुण्डलाः।
पारिबर्हमुपाजह्रुर्वरयोश्चित्रवाससोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँके सभी नर-नारी मणियोंके चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्दसे भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिनको अनेकों भेंटकी सामग्रियाँ उपहारमें दीं॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वृष्णिपुर्युत्तभितेन्द्रकेतुभि-
र्विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः।
बभौ प्रतिद्वार्युपक्लृप्तमङ्गलै-
रापूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः॥
मूलम्
सा वृष्णिपुर्युत्तभितेन्द्रकेतुभि-
र्विचित्रमाल्याम्बररत्नतोरणैः।
बभौ प्रतिद्वार्युपक्लृप्तमङ्गलै-
रापूर्णकुम्भागुरुधूपदीपकैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय द्वारकाकी अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी-बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचेतक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ , वस्त्र और रत्नोंके तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वारपर दूब, खील आदि मंगलकी वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जलभरे कलश, अरगजा और धूपकी सुगन्ध तथा दीपावलीसे बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी॥ ५६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उत्तभितैः स्थापितैः उपक्लृप्तमङ्गलैः, क्लृप्तमङ्गलद्रव्यर्दीपैश्च ॥ ५६-६० ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्याया ॥ ५४ ॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्।
गजैर्द्वास्सु परामृष्टरम्भापूगोपशोभिता॥
मूलम्
सिक्तमार्गा मदच्युद्भिराहूतप्रेष्ठभूभुजाम्।
गजैर्द्वास्सु परामृष्टरम्भापूगोपशोभिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियोंके मदसे द्वारकाकी सड़क और गलियोंका छिड़काव हो गया था। प्रत्येक दरवाजेपर केलोंके खंभे और सुपारीके पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे॥ ५७॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुसृञ्जयकैकेयविदर्भयदुकुन्तयः।
मिथो मुमुदिरे तस्मिन् सम्भ्रमात् परिधावताम्॥
मूलम्
कुरुसृञ्जयकैकेयविदर्भयदुकुन्तयः।
मिथो मुमुदिरे तस्मिन् सम्भ्रमात् परिधावताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस उत्सवमें कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धुवर्गोंमें कुरु, सृञ्जय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशोंके लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे॥ ५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः।
राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः॥
मूलम्
रुक्मिण्या हरणं श्रुत्वा गीयमानं ततस्ततः।
राजानो राजकन्याश्च बभूवुर्भृशविस्मिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ-तहाँ रुक्मिणीहरणकी ही गाथा गायी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वारकायामभूद् राजन् महामोदः पुरौकसाम्।
रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम्॥
मूलम्
द्वारकायामभूद् राजन् महामोदः पुरौकसाम्।
रुक्मिण्या रमयोपेतं दृष्ट्वा कृष्णं श्रियः पतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! भगवती लक्ष्मीजीको रुक्मिणीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णके साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियोंको परम आनन्द हुआ॥ ६०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिण्युद्वाहे चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५४॥