[त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
रुक्मिणीहरण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः।
प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत्॥
मूलम्
वैदर्भ्याः स तु सन्देशं निशम्य यदुनन्दनः।
प्रगृह्य पाणिना पाणिं प्रहसन्निदमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका यह सन्देश सुनकर अपने हाथसे ब्राह्मणदेवताका हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि।
वेदाहं रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः॥
मूलम्
तथाहमपि तच्चित्तो निद्रां च न लभे निशि।
वेदाहं रुक्मिणा द्वेषान्ममोद्वाहो निवारितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—ब्राह्मणदेवता! जैसे विदर्भराजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हींमें लगा रहता है। कहाँतक कहूँ, मुझे रातके समय नींदतक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मीने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान् मृधे।
मत्परामनवद्याङ्गीमेधसोऽग्निशिखामिव॥
मूलम्
तामानयिष्य उन्मथ्य राजन्यापसदान् मृधे।
मत्परामनवद्याङ्गीमेधसोऽग्निशिखामिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु ब्राह्मणदेवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियोंको मथकर—एक-दूसरेसे रगड़कर मनुष्य उनमेंसे आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्धमें उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकोंको तहस-नहस करके अपनेसे प्रेम करनेवाली परमसुन्दरी राजकुमारीको मैं निकाल लाऊँगा॥ ३॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः।
रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम्॥
मूलम्
उद्वाहर्क्षं च विज्ञाय रुक्मिण्या मधुसूदनः।
रथः संयुज्यतामाशु दारुकेत्याह सारथिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मधुसूदन श्रीकृष्णने यह जानकर कि रुक्मिणीके विवाहकी लग्न परसों रात्रिमें ही है, सारथिको आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ’॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चाश्वैः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः।
युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः॥
मूलम्
स चाश्वैः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः।
युक्तं रथमुपानीय तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दारुक भगवान्के रथमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान्के सामने खड़ा हो गया॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः।
आनर्त्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः॥
मूलम्
आरुह्य स्यन्दनं शौरिर्द्विजमारोप्य तूर्णगैः।
आनर्त्तादेकरात्रेण विदर्भानगमद्धयैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवताको पहले रथपर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा एक ही रातमें आनर्त-देशसे विदर्भदेशमें जा पहुँचे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशं गतः।
शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन् कर्माण्यकारयत्॥
मूलम्
राजा स कुण्डिनपतिः पुत्रस्नेहवशं गतः।
शिशुपालाय स्वां कन्यां दास्यन् कर्माण्यकारयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मीके स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपालको देनेके लिये विवाहोत्सवकी तैयारी करा रहे थे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरं सम्मृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम्।
चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम्॥
मूलम्
पुरं सम्मृष्टसंसिक्तमार्गरथ्याचतुष्पथम्।
चित्रध्वजपताकाभिस्तोरणैः समलङ्कृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नगरके राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उनपर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः।
जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद्गृहैरगुरुधूपितैः॥
मूलम्
स्रग्गन्धमाल्याभरणैर्विरजोऽम्बरभूषितैः।
जुष्टं स्त्रीपुरुषैः श्रीमद्गृहैरगुरुधूपितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँके स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रोंसे सजे हुए थे। वहाँके सुन्दर-सुन्दर घरोंमेंसे अगरके धूपकी सुगन्ध फैल रही थी॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितॄन् देवान् समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप।
भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम्॥
मूलम्
पितॄन् देवान् समभ्यर्च्य विप्रांश्च विधिवन्नृप।
भोजयित्वा यथान्यायं वाचयामास मङ्गलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! राजा भीष्मकने पितर और देवताओंका विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्।
अहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥
मूलम्
सुस्नातां सुदतीं कन्यां कृतकौतुकमङ्गलाम्।
अहतांशुकयुग्मेन भूषितां भूषणोत्तमैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुशोभित दाँतोंवाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणीजीको स्नान कराया गया, उनके हाथोंमें मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणोंसे विभूषित की गयीं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः।
पुरोहितोऽथर्वविद् वै जुहाव ग्रहशान्तये॥
मूलम्
चक्रुः सामर्ग्यजुर्मन्त्रैर्वध्वा रक्षां द्विजोत्तमाः।
पुरोहितोऽथर्वविद् वै जुहाव ग्रहशान्तये॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंसे उनकी रक्षा की और अथर्ववेदके विद्वान् पुरोहितने ग्रह-शान्तिके लिये हवन किया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्।
प्रादाद् धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः॥
मूलम्
हिरण्यरूप्यवासांसि तिलांश्च गुडमिश्रितान्।
प्रादाद् धेनूश्च विप्रेभ्यो राजा विधिविदां वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियोंके बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणोंको दीं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै।
कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम्॥
मूलम्
एवं चेदिपती राजा दमघोषः सुताय वै।
कारयामास मन्त्रज्ञैः सर्वमभ्युदयोचितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोषने भी अपने पुत्र शिशुपालके लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणोंसे अपने पुत्रके विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः।
पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ॥
मूलम्
मदच्युद्भिर्गजानीकैः स्यन्दनैर्हेममालिभिः।
पत्त्यश्वसङ्कुलैः सैन्यैः परीतः कुण्डिनं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोनेकी मालाओंसे सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारोंकी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च।
निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने॥
मूलम्
तं वै विदर्भाधिपतिः समभ्येत्याभिपूज्य च।
निवेशयामास मुदा कल्पितान्यनिवेशने॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदर्भराज भीष्मकने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथाके अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगोंको पहलेसे ही निश्चित किये हुए जनवासोंमें आनन्दपूर्वक ठहरा दिया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः।
आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः॥
मूलम्
तत्र शाल्वो जरासन्धो दन्तवक्त्रो विदूरथः।
आजग्मुश्चैद्यपक्षीयाः पौण्ड्रकाद्याः सहस्रशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बारातमें शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपालके सहस्रों मित्र नरपति आये थे॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्।
यद्यागत्य हरेत् कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः॥
मूलम्
कृष्णरामद्विषो यत्ताः कन्यां चैद्याय साधितुम्।
यद्यागत्य हरेत् कृष्णो रामाद्यैर्यदुभिर्वृतः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यद्यागत्य हरेत् तदा चैद्याय साधितुं यत्ता इत्यन्वयः ॥ १८-२१ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः।
आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः॥
मूलम्
योत्स्यामः संहतास्तेन इति निश्चितमानसाः।
आजग्मुर्भूभुजः सर्वे समग्रबलवाहनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजीके विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपालको ही मिले, इस विचारसे आये थे। उन्होंने अपने-अपने मनमें यह पहलेसे ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण बलराम आदि यदुवंशियोंके साथ आकर कन्याको हरनेकी चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओंने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे॥ १८-१९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वैतद् भगवान् रामो विपक्षीयनृपोद्यमम्।
कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः॥
मूलम्
श्रुत्वैतद् भगवान् रामो विपक्षीयनृपोद्यमम्।
कृष्णं चैकं गतं हर्तुं कन्यां कलहशङ्कितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विपक्षी राजाओंकी इस तैयारीका पता भगवान् बलरामजीको लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारीका हरण करनेके लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़ेकी बड़ी आशंका हुई॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः।
त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद् गजाश्वरथपत्तिभिः॥
मूलम्
बलेन महता सार्धं भ्रातृस्नेहपरिप्लुतः।
त्वरितः कुण्डिनं प्रागाद् गजाश्वरथपत्तिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वे श्रीकृष्णका बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भ्रातृस्नेहसे उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलोंकी बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुरके लिये चल पड़े॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः।
प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा॥
मूलम्
भीष्मकन्या वरारोहा काङ्क्षन्त्यागमनं हरेः।
प्रत्यापत्तिमपश्यन्ती द्विजस्याचिन्तयत्तदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर परमसुन्दरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्णकी तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्तामें पड़ गयीं; सोचने लगीं॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रत्यापत्तिं पुनरागमनम् ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः।
नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्।
सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः॥
मूलम्
अहो त्रियामान्तरित उद्वाहो मेऽल्पराधसः।
नागच्छत्यरविन्दाक्षो नाहं वेद्म्यत्र कारणम्।
सोऽपि नावर्ततेऽद्यापि मत्सन्देशहरो द्विजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! अब मुझ अभागिनीके विवाहमें केवल एक रातकी देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान् अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जानेवाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभीतक नहीं लौटे॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अल्पराधसः मन्दभाग्यायाः ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्।
मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः॥
मूलम्
अपि मय्यनवद्यात्मा दृष्ट्वा किञ्चिज्जुगुप्सितम्।
मत्पाणिग्रहणे नूनं नायाति हि कृतोद्यमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि भगवान् श्रीकृष्णका स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़नेके लिये—मुझे स्वीकार करनेके लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं?॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जुगुप्सितम् अपराधम् ॥ २४-२९ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः।
देवी वा विमुखा गौरी रुद्राणी गिरिजा सती॥
मूलम्
दुर्भगाया न मे धाता नानुकूलो महेश्वरः।
देवी वा विमुखा गौरी रुद्राणी गिरिजा सती॥
अनुवाद (हिन्दी)
ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान् शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वतीजी मुझसे अप्रसन्न हों’॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा।
न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले॥
मूलम्
एवं चिन्तयती बाला गोविन्दहृतमानसा।
न्यमीलयत कालज्ञा नेत्रे चाश्रुकलाकुले॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रुक्मिणीजी इसी उधेड़-बुनमें पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान्ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हींको सोचते-सोचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसूभरे नेत्र बन्द कर लिये॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप।
वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन् प्रियभाषिणः॥
मूलम्
एवं वध्वाः प्रतीक्षन्त्या गोविन्दागमनं नृप।
वाम ऊरुर्भुजो नेत्रमस्फुरन् प्रियभाषिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतमके आगमनका प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः।
अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह॥
मूलम्
अथ कृष्णविनिर्दिष्टः स एव द्विजसत्तमः।
अन्तःपुरचरीं देवीं राजपुत्रीं ददर्श ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही भगवान् श्रीकृष्णके भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुरमें राजकुमारी रुक्मिणीको इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती।
आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता॥
मूलम्
सा तं प्रहृष्टवदनमव्यग्रात्मगतिं सती।
आलक्ष्य लक्षणाभिज्ञा समपृच्छच्छुचिस्मिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
सती रुक्मिणीजीने देखा ब्राह्मण-देवताका मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरेपर किसी प्रकारकी घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणोंसे ही समझ गयीं कि भगवान् श्रीकृष्ण आ गये! फिर प्रसन्नतासे खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवतासे पूछा॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या आवेदयत् प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्।
उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति॥
मूलम्
तस्या आवेदयत् प्राप्तं शशंस यदुनन्दनम्।
उक्तं च सत्यवचनमात्मोपनयनं प्रति॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणदेवताने निवेदन किया कि ‘भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं।’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारीजी! आपको ले जानेकी उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है’॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आवेदवत् वाक्यसम्प्राप्तं कथमित्यपेक्षायां यदुनन्दनं प्राप्तं शशसेत्याह ॥३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा।
न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा॥
मूलम्
तमागतं समाज्ञाय वैदर्भी हृष्टमानसा।
न पश्यन्ती ब्राह्मणाय प्रियमन्यन्ननाम सा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के शुभागमनका समाचार सुनकर रुक्मिणीजीका हृदय आनन्दातिरेकसे भर गया। उन्होंने इसके बदलेमें ब्राह्मणके लिये भगवान्के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत्की समग्र लक्ष्मी ब्राह्मणदेवताको सौंप दी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ।
अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः॥
मूलम्
प्राप्तौ श्रुत्वा स्वदुहितुरुद्वाहप्रेक्षणोत्सुकौ।
अभ्ययात्तूर्यघोषेण रामकृष्णौ समर्हणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भीष्मकने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी मेरी कन्याका विवाह देखनेके लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजाकी सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रुत्वेति भीष्मक इत्यध्याहारः ॥ ३३-३५ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः।
उपायनान्यभीष्टानि विधिवत् समपूजयत्॥
मूलम्
मधुपर्कमुपानीय वासांसि विरजांसि सः।
उपायनान्यभीष्टानि विधिवत् समपूजयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्निवेशनं श्रीमदुपकल्प्य महामतिः।
ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा॥
मूलम्
तयोर्निवेशनं श्रीमदुपकल्प्य महामतिः।
ससैन्ययोः सानुगयोरातिथ्यं विदधे यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मकजी बड़े बुद्धिमान् थे। भगवान्के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान्को सेना और साथियोंके सहित समस्त सामग्रियोंसे युक्त निवासस्थानमें ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः।
यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत्॥
मूलम्
एवं राज्ञां समेतानां यथावीर्यं यथावयः।
यथाबलं यथावित्तं सर्वैः कामैः समर्हयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदर्भराज भीष्मकजीके यहाँ निमन्त्रणमें जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धनके अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः।
आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम्॥
मूलम्
कृष्णमागतमाकर्ण्य विदर्भपुरवासिनः।
आगत्य नेत्राञ्जलिभिः पपुस्तन्मुखपङ्कजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदर्भदेशके नागरिकोंने जब सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान्के निवासस्थानपर आये और अपने नयनोंकी अंजलिमें भर-भरकर उनके वदनारविन्दका मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा।
असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः॥
मूलम्
अस्यैव भार्या भवितुं रुक्मिण्यर्हति नापरा।
असावप्यनवद्यात्मा भैष्म्याः समुचितः पतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे आपसमें इस प्रकार बातचीत करते थे—रुक्मिणी इन्हींकी अर्द्धांगिनी होनेके योग्य है, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणीके ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होनेके योग्य नहीं है॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्।
अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः॥
मूलम्
किञ्चित्सुचरितं यन्नस्तेन तुष्टस्त्रिलोककृत्।
अनुगृह्णातु गृह्णातु वैदर्भ्याः पाणिमच्युतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्ममें कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान् हमपर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भराजकुमारी रुक्मिणीजीका पाणिग्रहण करें’॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः।
कन्या चान्तःपुरात् प्रागाद् भटैर्गुप्ताम्बिकालयम्॥
मूलम्
एवं प्रेमकलाबद्धा वदन्ति स्म पुरौकसः।
कन्या चान्तःपुरात् प्रागाद् भटैर्गुप्ताम्बिकालयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणीजी अन्तःपुरसे निकलकर देवीजीके मन्दिरके लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षामें नियुक्त थे॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्।
सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम्॥
मूलम्
पद्भ्यां विनिर्ययौ द्रष्टुं भवान्याः पादपल्लवम्।
सा चानुध्यायती सम्यङ्मुकुन्दचरणाम्बुजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्रके चरण-कमलोंका चिन्तन करती हुई भगवती भवानीके पाद-पल्लवोंका दर्शन करनेके लिये पैदल ही चलीं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता।
गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः।
मृदङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥
मूलम्
यतवाङ्मातृभिः सार्धं सखीभिः परिवारिता।
गुप्ता राजभटैः शूरैः सन्नद्धैरुद्यतायुधैः।
मृदङ्गशङ्खपणवास्तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओरसे उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथोंमें अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानोपहारबलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः।
स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः॥
मूलम्
नानोपहारबलिभिर्वारमुख्याः सहस्रशः।
स्रग्गन्धवस्त्राभरणैर्द्विजपत्न्यः स्वलङ्कृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ोंसे सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकारके उपहार तथा पूजन आदिकी सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वाराङ्गनाएँ भी साथ थीं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गायन्तश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः।
परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः॥
मूलम्
गायन्तश्च स्तुवन्तश्च गायका वाद्यवादकाः।
परिवार्य वधूं जग्मुः सूतमागधवन्दिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गवैये गाते जाते थे, बाजेवाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिनके चारों ओर जय-जयकार करते—विरद बखानते जा रहे थे॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा।
उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम्॥
मूलम्
आसाद्य देवीसदनं धौतपादकराम्बुजा।
उपस्पृश्य शुचिः शान्ता प्रविवेशाम्बिकान्तिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवीजीके मन्दिरमें पहुँचकर रुक्मिणीजीने अपने कमलके सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतरसे पवित्र एवं शान्तभावसे युक्त होकर अम्बिकादेवीके मन्दिरमें प्रवेश किया॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः।
भवानीं वन्दयाञ्चक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम्॥
मूलम्
तां वै प्रवयसो बालां विधिज्ञा विप्रयोषितः।
भवानीं वन्दयाञ्चक्रुर्भवपत्नीं भवान्विताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-सी विधि-विधान जाननेवाली बड़ी-बूढ़ी ब्राह्मणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान् शंकरकी अर्द्धांगिनी भवानीको और भगवान् शंकरजीको भी रुक्मिणीजीसे प्रणाम करवाया॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्।
भूयात् पतिर्मे भगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम्॥
मूलम्
नमस्ये त्वाम्बिकेऽभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्।
भूयात् पतिर्मे भगवान् कृष्णस्तदनुमोदताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मिणीजीने भगवतीसे प्रार्थना की—‘अम्बिकामाता! आपकी गोदमें बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेशजीको तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान् श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों’॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्यभूषणैः।
नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक्॥
मूलम्
अद्भिर्गन्धाक्षतैर्धूपैर्वासःस्रङ्माल्यभूषणैः।
नानोपहारबलिभिः प्रदीपावलिभिः पृथक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद रुक्मिणीजीने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकारके नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियोंसे अम्बिकादेवीकी पूजा की॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्।
लवणापूपताम्बूलकण्ठसूत्रफलेक्षुभिः॥
मूलम्
विप्रस्त्रियः पतिमतीस्तथा तैः समपूजयत्।
लवणापूपताम्बूलकण्ठसूत्रफलेक्षुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उक्त सामग्रियोंसे तथा नमक, पूआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईखसे सुहागिन ब्राह्मणियोंकी भी पूजा की॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः।
ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः॥
मूलम्
तस्यै स्त्रियस्ताः प्रददुः शेषां युयुजुराशिषः।
ताभ्यो देव्यै नमश्चक्रे शेषां च जगृहे वधूः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ब्राह्मणियोंने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिनने ब्राह्मणियों और माता अम्बिकाको नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्।
प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना॥
मूलम्
मुनिव्रतमथ त्यक्त्वा निश्चक्रामाम्बिकागृहात्।
प्रगृह्य पाणिना भृत्यां रत्नमुद्रोपशोभिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजा-अर्चाकी विधि समाप्त हो जानेपर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठीसे जगमगाते हुए करकमलके द्वारा एक सहेलीका हाथ पकड़कर वे गिरिजामन्दिरसे बाहर निकलीं॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां देवमायामिव वीरमोहिनीं
सुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम्।
श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलां
व्यञ्जत्स्तनीं कुन्तलशङ्कितेक्षणाम्॥
मूलम्
तां देवमायामिव वीरमोहिनीं
सुमध्यमां कुण्डलमण्डिताननाम्।
श्यामां नितम्बार्पितरत्नमेखलां
व्यञ्जत्स्तनीं कुन्तलशङ्कितेक्षणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रुक्मिणीजी भगवान्की मायाके समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरोंको भी मोहित कर लेनेवाली थीं। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर और पतला था। मुखमण्डलपर कुण्डलोंकी शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण-अवस्थाकी सन्धिमें स्थित थीं। नितम्बपर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्षःस्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकोंके कारण कुछ चंचल हो रही थी॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति-
शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्।
पदा चलन्तीं कलहंसगामिनीं
शिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना।
विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता
यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः॥
मूलम्
शुचिस्मितां बिम्बफलाधरद्युति-
शोणायमानद्विजकुन्दकुड्मलाम्।
पदा चलन्तीं कलहंसगामिनीं
शिञ्जत्कलानूपुरधामशोभिना।
विलोक्य वीरा मुमुहुः समागता
यशस्विनस्तत्कृतहृच्छयार्दिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके होठोंपर मनोहर मुसकान थी। उनके दाँतोंकी पाँत थी तो कुन्दकलीके समान परम उज्ज्वल, परन्तु पके हुए कुँदरूके समान लाल-लाल होठोंकी चमकसे उसपर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवोंके पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलोंसे पैदल ही राजहंसकी गतिसे चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छबि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेवने ही भगवान्का कार्य सिद्ध करनेके लिये अपने बाणोंसे उनका हृदय जर्जर कर दिया॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-
व्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः।
पेतुः क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा
यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम्॥
मूलम्
यां वीक्ष्य ते नृपतयस्तदुदारहास-
व्रीडावलोकहृतचेतस उज्झितास्त्राः।
पेतुः क्षितौ गजरथाश्वगता विमूढा
यात्राच्छलेन हरयेऽर्पयतीं स्वशोभाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मिणीजी इस प्रकार इस उत्सवयात्राके बहाने मन्द-मन्द गतिसे चलकर भगवान् श्रीकृष्णपर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुसकान तथा लजीली चितवनपर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथोंसे अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ोंसे धरतीपर आ गिरे॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ
प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा।
उत्सार्य वामकरजैरलकानपाङ्गैः
प्राप्तान् ह्रियैक्षत नृपान् ददृशेऽच्युतं सा॥
मूलम्
सैवं शनैश्चलयती चलपद्मकोशौ
प्राप्तिं तदा भगवतः प्रसमीक्षमाणा।
उत्सार्य वामकरजैरलकानपाङ्गैः
प्राप्तान् ह्रियैक्षत नृपान् ददृशेऽच्युतं सा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनकी प्रतीक्षा करती हुई अपने कमलकी कलीके समान सुकुमार चरणोंको बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही थीं। उन्होंने अपने बायें हाथकी अँगुलियोंसे मुखकी ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियोंकी ओर लजीली चितवनसे देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन हुए॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां राजकन्यां रथमारुरुक्षतीं
जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्।
रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं
राजन्यचक्रं परिभूय माधवः॥
मूलम्
तां राजकन्यां रथमारुरुक्षतीं
जहार कृष्णो द्विषतां समीक्षताम्।
रथं समारोप्य सुपर्णलक्षणं
राजन्यचक्रं परिभूय माधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमारी रुक्मिणीजी रथपर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान् श्रीकृष्णने समस्त शत्रुओंके देखते-देखते उनकी भीड़मेंसे रुक्मिणीजीको उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओंके सिरपर पाँव रखकर उन्हें अपने उस रथपर बैठा लिया, जिसकी ध्वजापर गरुड़का चिह्न लगा हुआ था॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः
सृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः॥
मूलम्
ततो ययौ रामपुरोगमैः शनैः
सृगालमध्यादिव भागहृद्धरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद जैसे सिंह सियारोंके बीचमेंसे अपना भाग ले जाय, वैसे ही रुक्मिणीजीको लेकर भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी आदि यदुवंशियोंके साथ वहाँसे चल पड़े॥ ५६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
हरिः सिंहः ॥ ५६-५७ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं
परे जरासन्धवशा न सेहिरे।
अहो धिगस्मान् यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं केसरिणां मृगैरिव॥
मूलम्
तं मानिनः स्वाभिभवं यशःक्षयं
परे जरासन्धवशा न सेहिरे।
अहो धिगस्मान् यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं केसरिणां मृगैरिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जरासन्धके वशवर्ती अभिमानी राजाओंको अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्तिका नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे—‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हमलोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंहके भागको हरिन ले जाय उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये’॥ ५७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुक्मिणीहरणं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५३॥