[एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
कालयवनका भस्म होना, मुचुकुन्दकी कथा
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्।
दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम्॥
मूलम्
तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्।
दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उज्जिहानम् उद्गच्छन्तम् ॥ १ - ३५ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्।
पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम्॥
मूलम्
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्।
पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम्॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्।
मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
श्लोक-४
वासुदेवो ह्ययमिति पुमाञ्छ्रीवत्सलाञ्छनः।
चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः॥
मूलम्
नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्।
मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
श्लोक-४
वासुदेवो ह्ययमिति पुमाञ्छ्रीवत्सलाञ्छनः।
चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति।
निरायुधश्चलन् पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः॥
मूलम्
लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति।
निरायुधश्चलन् पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा नगरके मुख्य द्वारसे निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशासे चन्द्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उसपर रेशमी पीताम्बरकी छटा निराली ही थी; वक्षःस्थलपर स्वर्णरेखाके रूपमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहा था और गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हालके खिले हुए कमलके समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमलपर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलोंकी छटा निराली ही थी। मन्द-मन्द मुसकान देखनेवालोंका मन चुराये लेती थी। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवनने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारदजीने जो-जो लक्षण बतलाये थे— वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, चार भुजाएँ , कमलके-से नेत्र, गलेमें वनमाला और सुन्दरताकी सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्रके पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्रके ही लड़ूँगा’॥ १—५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्।
अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम्॥
मूलम्
इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्।
अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्णकी ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमिसे भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभुको पकड़नेके लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे।
नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम्॥
मूलम्
हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे।
नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पगपर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान् उसे बहुत दूर एक पहाड़की गुफामें ले गये॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्।
इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः॥
मूलम्
पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्।
इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालयवन पीछेसे बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंशमें पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान्को पानेमें समर्थ न हो सका॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं क्षिप्तोऽपि भगवान् प्राविशद् गिरिकन्दरम्।
सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम्॥
मूलम्
एवं क्षिप्तोऽपि भगवान् प्राविशद् गिरिकन्दरम्।
सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके आक्षेप करते रहनेपर भी भगवान् उस पर्वतकी गुफामें घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्यको सोते हुए देखा॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्।
इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत्॥
मूलम्
नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्।
इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर कालयवनने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह—मानो इसे कुछ पता ही न हो—साधुबाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ने उसे कसकर एक लात मारी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने।
दिशो विलोकयन् पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम्॥
मूलम्
स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने।
दिशो विलोकयन् पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पुरुष वहाँ बहुत दिनोंसे सोया हुआ था। पैरकी ठोकर लगनेसे वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखनेपर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत।
देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत् क्षणात्॥
मूलम्
स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत।
देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत् क्षणात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जानेसे कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवनके शरीरमें आग पैदा हो गयी और वह क्षणभरमें जलकर राखका ढेर हो गया॥ १२॥
श्लोक-१३
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को नाम स पुमान् ब्रह्मन् कस्य किंवीर्य एव च।
कस्माद् गुहां गतः शिश्ये किन्तेजो यवनार्दनः॥
मूलम्
को नाम स पुमान् ब्रह्मन् कस्य किंवीर्य एव च।
कस्माद् गुहां गतः शिश्ये किन्तेजो यवनार्दनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! जिसके दृष्टिपातमात्रसे कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंशका था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वतकी गुफामें जाकर क्यों सो रहा था?॥ १३॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्।
मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः॥
मूलम्
स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्।
मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मान्धाताके पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे।
असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम्॥
मूलम्
स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे।
असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार इन्द्रादि देवता असुरोंसे अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षाके लिये राजा मुचुकुन्दसे प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनोंतक उनकी रक्षा की॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्।
राजन् विरमतां कृच्छ्राद् भवान् नः परिपालनात्॥
मूलम्
लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्।
राजन् विरमतां कृच्छ्राद् भवान् नः परिपालनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बहुत दिनोंके बाद देवताओंको सेनापतिके रूपमें स्वामि-कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगोंने राजा मुचुकुन्दसे कहा—‘राजन्! आपने हमलोगोंकी रक्षाके लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरलोके परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्।
अस्मान् पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः॥
मूलम्
नरलोके परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्।
अस्मान् पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरशिरोमणे! आपने हमारी रक्षाके लिये मनुष्यलोकका अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवनकी अभिलाषाएँ तथा भोगोंका भी परित्याग कर दिया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः।
प्रजाश्च तुल्यकालीया नाधुना सन्ति कालिताः॥
मूलम्
सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः।
प्रजाश्च तुल्यकालीया नाधुना सन्ति कालिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समयकी प्रजामेंसे कोई नहीं रहा है। सब-के-सब कालके गालमें चले गये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो बलीयान् बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः।
प्रजाः कालयते क्रीडन् पशुपालो यथा पशून्॥
मूलम्
कालो बलीयान् बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः।
प्रजाः कालयते क्रीडन् पशुपालो यथा पशून्॥
अनुवाद (हिन्दी)
काल समस्त बलवानोंसे भी बलवान् है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओंको अपने वशमें रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेलमें सारी प्रजाको अपने अधीन रखता है॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः।
एक एवेश्वरस्तस्य भगवान् विष्णुरव्ययः॥
मूलम्
वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः।
एक एवेश्वरस्तस्य भगवान् विष्णुरव्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्षके अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देनेकी सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान् विष्णुमें ही है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः।
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया॥
मूलम्
एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः।
अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम यशस्वी राजा मुचुकुन्दने देवताओंके इस प्रकार कहनेपर उनकी वन्दना की और बहुत थके होनेके कारण निद्राका ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींदसे भरकर पर्वतकी गुफामें जा सोये॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतनः।
स त्वया दृष्टमात्रस्तु भस्मीभवतु तत्क्षणात्॥
मूलम्
स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतनः।
स त्वया दृष्टमात्रस्तु भस्मीभवतु तत्क्षणात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवताओंने कह दिया था कि ‘राजन्! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीचमें ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा’॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यवने भस्मसान्नीते भगवान् सात्वतर्षभः।
आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते॥
मूलम्
यवने भस्मसान्नीते भगवान् सात्वतर्षभः।
आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्॥
मूलम्
तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम्॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
मूलम्
चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया।
चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्।
अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम्॥
मूलम्
प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्।
अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम्॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः।
शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा॥
मूलम्
पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः।
शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दको अपना दर्शन दिया। भगवान् श्रीकृष्णका श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघके समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थलपर श्रीवत्स और गलेमें कौस्तुभमणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्तीमाला अलग ही घुटनोंतक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नतासे खिला हुआ था। कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठोंपर प्रेमभरी मुसकराहट थी और नेत्रोंकी चितवन अनुरागकी वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंहके समान निर्भीक चाल! राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान् और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान्की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये—उनके तेजसे हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान् अपने तेजसे दुर्द्धर्ष जान पड़ते थे; राजाने तनिक शंकित होकर पूछा॥ २३—२७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
मुचुकुन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे।
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके॥
मूलम्
को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे।
पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा मुचुकुन्दने कहा—‘आप कौन हैं? इस काँटोंसे भरे हुए घोर जंगलमें आप कमलके समान कोमल चरणोंसे क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वतकी गुफामें ही पधारनेका क्या प्रयोजन था?॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंस्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान् वा विभावसुः।
सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालोऽपरोऽपि वा॥
मूलम्
किंस्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान् वा विभावसुः।
सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालोऽपरोऽपि वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या आप समस्त तेजस्वियोंके मूर्तिमान् तेज अथवा भगवान् अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं?॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्।
यद् बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा॥
मूलम्
मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्।
यद् बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओंके आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर—इन तीनोंमेंसे पुरुषोत्तम भगवान् नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरेको दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्तिसे इस गुफाका अँधेरा भगा रहे हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव।
स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते॥
मूलम्
शुश्रूषतामव्यलीकमस्माकं नरपुङ्गव।
स्वजन्म कर्म गोत्रं वा कथ्यतां यदि रोचते॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदयसे उसे सुननेके इच्छुक हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः।
मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो॥
मूलम्
वयं तु पुरुषव्याघ्र ऐक्ष्वाकाः क्षत्रबन्धवः।
मुचुकुन्द इति प्रोक्तो यौवनाश्वात्मजः प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारेमें पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम है मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराज मान्धाताका पुत्र हूँ॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयोपहतेन्द्रियः।
शयेऽस्मिन् विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना॥
मूलम्
चिरप्रजागरश्रान्तो निद्रयोपहतेन्द्रियः।
शयेऽस्मिन् विजने कामं केनाप्युत्थापितोऽधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत दिनोंतक जागते रहनेके कारण मैं थक गया था। निद्राने मेरी समस्त इन्द्रियोंकी शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसीसे मैं इस निर्जन स्थानमें निर्द्वन्द्व सो रहा था। अभी-अभी किसीने मुझे जगा दिया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना।
अनन्तरं भवाञ्छ्रीमान् लक्षितोऽमित्रशातनः॥
मूलम्
सोऽपि भस्मीकृतो नूनमात्मीयेनैव पाप्मना।
अनन्तरं भवाञ्छ्रीमान् लक्षितोऽमित्रशातनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अवश्य उसके पापोंने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद शत्रुओंके नाश करनेवाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः।
हतौजसो महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम्॥
मूलम्
तेजसा तेऽविषह्येण भूरि द्रष्टुं न शक्नुमः।
हतौजसो महाभाग माननीयोऽसि देहिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! आप समस्त प्राणियोंके माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेजसे मेरी शक्ति खो गयी है। मैं आपको बहुत देरतक देख भी नहीं सकता॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऐश्वर्यप्रसरणेन समर्थतेजसा हतौजसो वयं न शक्नुम इत्यन्वयः ॥ ३५ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान् भूतभावनः।
प्रत्याह प्रहसन् वाण्या मेघनादगभीरया॥
मूलम्
एवं सम्भाषितो राज्ञा भगवान् भूतभावनः।
प्रत्याह प्रहसन् वाण्या मेघनादगभीरया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राजा मुचुकुन्दने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियोंके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्णने हँसते हुए मेघध्वनिके समान गम्भीर वाणीसे कहा—॥ ३६॥
श्लोक-३७
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः।
न शक्यन्तेऽनुसंख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि॥
मूलम्
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेऽङ्ग सहस्रशः।
न शक्यन्तेऽनुसंख्यातुमनन्तत्वान्मयापि हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हजारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उनकी गिनती करके नहीं बतला सकता॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद् रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः।
गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित्॥
मूलम्
क्वचिद् रजांसि विममे पार्थिवान्युरुजन्मभिः।
गुणकर्माभिधानानि न मे जन्मानि कर्हिचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मोंमें पृथ्वीके छोटे-छोटे धूल-कणोंकी गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामोंको कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्वचिज्जन्मभिः उपलक्षितः रजांसि लोकान् ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप।
अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः॥
मूलम्
कालत्रयोपपन्नानि जन्मकर्माणि मे नृप।
अनुक्रमन्तो नैवान्तं गच्छन्ति परमर्षयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मोंका वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम।
विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये।
भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च॥
मूलम्
तथाप्यद्यतनान्यङ्ग शृणुष्व गदतो मम।
विज्ञापितो विरिञ्चेन पुराहं धर्मगुप्तये।
भूमेर्भारायमाणानामसुराणां क्षयाय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होनेपर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामोंका वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्माजीने मुझसे धर्मकी रक्षा और पृथ्वीके भार बने हुए असुरोंका संहार करनेके लिये प्रार्थना की थी॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः।
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम्॥
मूलम्
अवतीर्णो यदुकुले गृह आनकदुन्दुभेः।
वदन्ति वासुदेवेति वसुदेवसुतं हि माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींकी प्रार्थनासे मैंने यदुवंशमें वसुदेवजीके यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेवजीका पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः।
अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा॥
मूलम्
कालनेमिर्हतः कंसः प्रलम्बाद्याश्च सद्द्विषः।
अयं च यवनो दग्धो राजंस्ते तिग्मचक्षुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अबतक मैं कालनेमि असुरका, जो कंसके रूपमें पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरोंका संहार कर चुका हूँ। राजन्! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणासे तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अयं चेति ते तिग्मचक्षुषा उपकरणभूतेन मयैव दग्ध इत्यर्थः ॥ ४२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः।
प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः॥
मूलम्
सोऽहं तवानुग्रहार्थं गुहामेतामुपागतः।
प्रार्थितः प्रचुरं पूर्वं त्वयाहं भक्तवत्सलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही मैं तुमपर कृपा करनेके लिये ही इस गुफामें आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरान् वृणीष्व राजर्षे सर्वान् कामान् ददामि ते।
मां प्रपन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम्॥
मूलम्
वरान् वृणीष्व राजर्षे सर्वान् कामान् ददामि ते।
मां प्रपन्नो जनः कश्चिन्न भूयोऽर्हति शोचितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरणमें आ जाता है उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे॥ ४४॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः।
ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन्॥
मूलम्
इत्युक्तस्तं प्रणम्याह मुचुकुन्दो मुदान्वितः।
ज्ञात्वा नारायणं देवं गर्गवाक्यमनुस्मरन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्दको वृद्ध गर्गका यह कथन याद आ गया कि यदुवंशमें भगवान् अवतीर्ण होनेवाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान् नारायण हैं। आनन्दसे भरकर उन्होंने भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की॥ ४५॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
मुचुकुन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमोहितोऽयं जन ईश मायया
त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्।
सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते
गृहेषु योषित् पुरुषश्च वञ्चितः॥
मूलम्
विमोहितोऽयं जन ईश मायया
त्वदीयया त्वां न भजत्यनर्थदृक्।
सुखाय दुःखप्रभवेषु सज्जते
गृहेषु योषित् पुरुषश्च वञ्चितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुचुकुन्दने कहा—‘प्रभो! जगत्के सभी प्राणी आपकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थमें ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुखके लिये घर-गृहस्थीके उन झंझटोंमें फँस जाते हैं, जो सारे दुःखोंके मूल स्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं॥ ४६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
योषित्पुरुषश्च योषिदात्मकः पुरुषात्मकश्च लोक इत्यर्थः ॥ ४६ ।॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं
कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ।
पादारविन्दं न भजत्यसन्मति-
र्गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः॥
मूलम्
लब्ध्वा जनो दुर्लभमत्र मानुषं
कथञ्चिदव्यङ्गमयत्नतोऽनघ।
पादारविन्दं न भजत्यसन्मति-
र्गृहान्धकूपे पतितो यथा पशुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पापरूप संसारसे सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्यका जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजनके लिये कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान्की अहैतुक कृपासे उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसारमें ही लगा देते हैं और तुच्छ विषयसुखके लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें पड़े रहते हैं—भगवान्के चरणकमलोंकी उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशुके समान हैं, जो तुच्छ तृणके लोभसे अँधेरे कूएँमें गिर जाता है॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो
राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः।
मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभू-
ष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया॥
मूलम्
ममैष कालोऽजित निष्फलो गतो
राज्यश्रियोन्नद्धमदस्य भूपतेः।
मर्त्यात्मबुद्धेः सुतदारकोशभू-
ष्वासज्जमानस्य दुरन्तचिन्तया॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मीके मदसे मैं मतवाला हो रहा था। इस मरनेवाले शरीरको ही तो मैं आत्मा—अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वीके लोभ-मोहमें ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओंकी चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवनका यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल—व्यर्थ चला गया॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलेवरेऽस्मिन् घटकुड्यसन्निभे
निरूढमानो नरदेव इत्यहम्।
वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपै-
र्गां पर्यटंस्त्वागणयन् सुदुर्मदः॥
मूलम्
कलेवरेऽस्मिन् घटकुड्यसन्निभे
निरूढमानो नरदेव इत्यहम्।
वृतो रथेभाश्वपदात्यनीकपै-
र्गां पर्यटंस्त्वागणयन् सुदुर्मदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीतके समान मिट्टीका है और दृश्य होनेके कारण उन्हींके समान अपनेसे अलग भी है, उसीको मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपनेको मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदलकी चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियोंसे घिरकर मैं पृथ्वीमें इधर-उधर घूमता रहता॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया
प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्।
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे
क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः॥
मूलम्
प्रमत्तमुच्चैरितिकृत्यचिन्तया
प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम्।
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे
क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्योंकी चिन्तामें पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्तिसे विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है। संसारमें बाँध रखनेवाले विषयोंके लिये उसकी लालसा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूखके कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहेको दबोच लेता है, वैसे ही कालरूपसे सदा-सर्वदा सावधान रहनेवाले आप एकाएक उस प्रमादग्रस्त प्राणीपर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं॥ ५०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्वमप्रमत्त इति अन्तकरूपस्त्वमप्रमत्तोऽभिपद्यते इत्यर्थः । क्षुल्लेलिहानः क्षुधा लोलजिह्वः ॥ ५० ॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्
मतङ्गजैर्वा नरदेवसंज्ञितः।
स एव कालेन दुरत्ययेन ते
कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः॥
मूलम्
पुरा रथैर्हेमपरिष्कृतैश्चरन्
मतङ्गजैर्वा नरदेवसंज्ञितः।
स एव कालेन दुरत्ययेन ते
कलेवरो विट्कृमिभस्मसंज्ञितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पहले सोनेके रथोंपर अथवा बड़े-बड़े गजराजोंपर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध कालका ग्रास बनकर बाहर फेंक देनेपर पक्षियोंकी विष्ठा, धरतीमें गाड़ देनेपर सड़कर कीड़ा और आगमें जला देनेपर राखका ढेर बन जाता है॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो
वरासनस्थः समराजवन्दितः।
गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां
क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते॥
मूलम्
निर्जित्य दिक्चक्रमभूतविग्रहो
वरासनस्थः समराजवन्दितः।
गृहेषु मैथुन्यसुखेषु योषितां
क्रीडामृगः पूरुष ईश नीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जिसने सारी दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़नेवाला संसारमें कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणोंमें सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगनेके लिये, जो घर-गृहस्थीकी एक विशेष वस्तु है, स्त्रियोंके पास जाता है, तब उनके हाथका खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है॥ ५२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अभूतविग्रहः असञ्जातयुद्ध: ॥ ५२ ॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोति कर्माणि तपस्सुनिष्ठितो
निवृत्तभोगस्तदपेक्षया ददत्।
पुनश्च भूयेयमहं स्वराडिति
प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते॥
मूलम्
करोति कर्माणि तपस्सुनिष्ठितो
निवृत्तभोगस्तदपेक्षया ददत्।
पुनश्च भूयेयमहं स्वराडिति
प्रवृद्धतर्षो न सुखाय कल्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलनेकी इच्छासे ही दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट् होऊँ।’ ऐसी कामना रखकर तपस्यामें भलीभाँति स्थित हो शुभकर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता॥ ५३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तदपेक्षया भोगेच्छया ॥ ५३ ॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-
ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः।
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः॥
मूलम्
भवापवर्गो भ्रमतो यदा भवे-
ज्जनस्य तर्ह्यच्युत सत्समागमः।
सत्सङ्गमो यर्हि तदैव सद्गतौ
परावरेशे त्वयि जायते मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहनेवाले भगवन्! जीव अनादिकालसे जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटक रहा है। जब उस चक्करसे छूटनेका समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतोंके आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत्के एकमात्र स्वामी आपमें जीवकी बुद्धि अत्यन्त दृढ़तासे लग जाती है॥ ५४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भवापवर्गः संसारनाशः तदा भवेत् आसनः स्यात् तर्हि तदा ॥ ५४ ॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो
राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया।
यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया
वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः॥
मूलम्
मन्ये ममानुग्रह ईश ते कृतो
राज्यानुबन्धापगमो यदृच्छया।
यः प्रार्थ्यते साधुभिरेकचर्यया
वनं विविक्षद्भिरखण्डभूमिपैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रहकी वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रमके—अनायास ही मेरे राज्यका बन्धन टूट गया। साधु-स्वभावके चक्रवर्ती राजा भी जब अपना राज्य छोड़कर एकान्तमें भजन-साधन करनेके उद्देश्यसे वनमें जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये बड़े प्रेमसे आपसे प्रार्थना किया करते हैं॥ ५५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भूमिपै-राजर्षिभिः ॥ ५५ ॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-
दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद् वरं विभो।
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे
वृणीत आर्यो वरमात्मबन्धनम्॥
मूलम्
न कामयेऽन्यं तव पादसेवना-
दकिञ्चनप्रार्थ्यतमाद् वरं विभो।
आराध्य कस्त्वां ह्यपवर्गदं हरे
वृणीत आर्यो वरमात्मबन्धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणोंकी सेवाके अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमानसे रहित हैं, वे लोग भी केवल उसीके लिये प्रार्थना करते रहते हैं। भगवन्! भला, बतलाइये तो सही—मोक्ष देनेवाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपनेको बाँधनेवाले सांसारिक विषयोंका वर माँगे॥ ५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् विसृज्याशिष ईश सर्वतो
रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः।
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं
त्वां ज्ञप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम्॥
मूलम्
तस्माद् विसृज्याशिष ईश सर्वतो
रजस्तमःसत्त्वगुणानुबन्धनाः।
निरञ्जनं निर्गुणमद्वयं परं
त्वां ज्ञप्तिमात्रं पुरुषं व्रजाम्यहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे सम्बन्ध रखनेवाली समस्त कामनाओंको छोड़कर केवल मायाके लेशमात्र सम्बन्धसे रहित, गुणातीत, एक—अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ॥ ५७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निरञ्जनं सुखदुःखरहितम् । निर्गुणं गुणत्रयरहितम् अद्वयं द्वितीयरहितं समाभ्यधिकरहितत्वात् । ईश्वरद्वित्वं हि नास्ति । ज्ञप्तिमात्रं कचिदपि जडत्वरहितम् ॥ ५७ ॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-
रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्।
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्म-
न्नभयमृतमशोकं पाहि माऽऽपन्नमीश॥
मूलम्
चिरमिह वृजिनार्तस्तप्यमानोऽनुतापै-
रवितृषषडमित्रोऽलब्धशान्तिः कथञ्चित्।
शरणद समुपेतस्त्वत्पदाब्जं परात्म-
न्नभयमृतमशोकं पाहि माऽऽपन्नमीश॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं अनादिकालसे अपने कर्मफलोंको भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी। मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयोंकी प्यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी किसी प्रकार एक क्षणके लिये भी मुझे शान्ति न मिली। शरणदाता! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोकसे रहित चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ। सारे जगत्के एकमात्र स्वामी! परमात्मन्! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये॥ ५८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऋतं पूवैरभिगतं सत्यं नित्यं वा ॥ ५८ ॥
श्लोक-५९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता।
वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः॥
मूलम्
सार्वभौम महाराज मतिस्ते विमलोर्जिता।
वरैः प्रलोभितस्यापि न कामैर्विहता यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटिका है। यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देनेका प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओंके अधीन न हुई॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्।
न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित्॥
मूलम्
प्रलोभितो वरैर्यत्त्वमप्रमादाय विद्धि तत्।
न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भिद्यते क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तुम्हें जो वर देनेका प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानीकी परीक्षाके लिये। मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओंसे इधर-उधर नहीं भटकती॥ ६०॥
श्लोक-६१
विश्वास-प्रस्तुतिः
युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः।
अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते पुनरुत्थितम्॥
मूलम्
युञ्जानानामभक्तानां प्राणायामादिभिर्मनः।
अक्षीणवासनं राजन् दृश्यते पुनरुत्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदिके द्वारा अपने मनको वशमें करनेका कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन्! उनका मन फिरसे विषयोंके लिये मचल पड़ता है॥ ६१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उत्थितं विषयेषु प्रवृत्तम् ॥ ६१ ॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः।
अस्त्वेव नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी॥
मूलम्
विचरस्व महीं कामं मय्यावेशितमानसः।
अस्त्वेव नित्यदा तुभ्यं भक्तिर्मय्यनपायिनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अपने मन और सारे मनोभावोंको मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वच्छन्दरूपसे पृथ्वीपर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी॥ ६२॥
श्लोक-६३
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून् न्यवधीर्मृगयादिभिः।
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः॥
मूलम्
क्षात्रधर्मस्थितो जन्तून् न्यवधीर्मृगयादिभिः।
समाहितस्तत्तपसा जह्यघं मदुपाश्रितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने क्षत्रियधर्मका आचरण करते समय शिकार आदिके अवसरोंपर बहुत-से पशुओंका वध किया है। अब एकाग्रचित्तसे मेरी उपासना करते हुए तपस्याके द्वारा उस पापको धो डालो॥ ६३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृगयादिभिः लोकरक्षाऽनुपयुक्तव्यापारैः ॥ ६३ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।। ५१ ।।
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मन्यनन्तरे राजन् सर्वभूतसुहृत्तमः।
भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम्॥
मूलम्
जन्मन्यनन्तरे राजन् सर्वभूतसुहृत्तमः।
भूत्वा द्विजवरस्त्वं वै मामुपैष्यसि केवलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अगले जन्ममें तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियोंके सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्माको प्राप्त करोगे’॥ ६४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे मुचुकुन्दस्तुतिर्नामैकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५१॥