[पञ्चाशत्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ।
मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान्॥
मूलम्
अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ।
मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भरतवंशशिरोमणि परीक्षित्! कंसकी दो रानियाँ थीं—अस्ति और प्राप्ति। पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते।
वेदयाञ्चक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम्॥
मूलम्
पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते।
वेदयाञ्चक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दुःखके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप।
अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम्॥
मूलम्
स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप।
अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परन्तु पीछे वह क्रोधसे तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः।
यदुराजधानीं मथुरां न्यरुणत् सर्वतोदिशम्॥
मूलम्
अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः।
यदुराजधानीं मथुरां न्यरुणत् सर्वतोदिशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
और तेईस अक्षौहिणी सेनाके साथ यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराको चारों ओरसे घेर लिया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्।
स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम्॥
मूलम्
निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्।
स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने देखा—जरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तयामास भगवान् हरिः कारणमानुषः।
तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम्॥
मूलम्
चिन्तयामास भगवान् हरिः कारणमानुषः।
तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनिष्यामि बलं ह्येतद् भुवि भारं समाहितम्।
मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम्॥
मूलम्
हनिष्यामि बलं ह्येतद् भुवि भारं समाहितम्।
मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम्॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिणीभिः संख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः।
मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम्॥
मूलम्
अक्षौहिणीभिः संख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः।
मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परन्तु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा॥ ७-८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे।
संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च॥
मूलम्
एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे।
संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया।
विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित्॥
मूलम्
अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया।
विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
समय-समयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रभवतः प्रकर्षेण भवतः ॥ १०-१२ ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात् सूर्यवर्चसौ।
रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ॥
मूलम्
एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात् सूर्यवर्चसौ।
रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया।
दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत्॥
मूलम्
आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया।
दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय भगवान्के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने-आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा—॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो।
एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च॥
मूलम्
पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो।
एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भाईजी! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानमास्थाय जह्येतद् व्यसनात् स्वान् समुद्धर।
एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत्॥
मूलम्
यानमास्थाय जह्येतद् व्यसनात् स्वान् समुद्धर।
एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये। भगवन्! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु।
एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात्॥
मूलम्
त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु।
एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात्॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्यौ बलेनाल्पीयसाऽऽवृतौ।
शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः॥
मूलम्
निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्यौ बलेनाल्पीयसाऽऽवृतौ।
शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक। पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽभूत् परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः।
तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम॥
मूलम्
ततोऽभूत् परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः।
तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया।
गुप्तेन हि त्वया मन्द न योस्त्ये याहि बन्धुहन्॥
मूलम्
न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया।
गुप्तेन हि त्वया मन्द न योस्त्ये याहि बन्धुहन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके शंखकी भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्धने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लड़नेमें मुझे लाज लग रही है। इतने दिनोंतक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द! तू तो अपने मामाका हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामनेसे भाग जा॥ १७-१८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह।
हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि॥
मूलम्
तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह।
हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलराम! यदि तेरे चित्तमें यह श्रद्धा हो कि युद्धमें मरनेपर स्वर्ग मिलता है तो तू आ, हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए शरीरको यहाँ छोड़कर स्वर्गमें जा अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल’॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
माञ्जहि मां वा जहि ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्।
न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः॥
मूलम्
न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्।
न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—मगधराज! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिरपर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई सन्निपातका रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बातपर ध्यान नहीं देता॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मूमूर्षया आतुरस्य तवेत्यर्थः ॥ २०-२२ ॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ
महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्।
ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी
सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः॥
मूलम्
जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ
महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्।
ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी
सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जैसे वायु बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लिया—यहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथा-
वलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे।
स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं
समाश्रिताः संमुमुहुः शुचार्दिताः॥
मूलम्
सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथा-
वलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे।
स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं
समाश्रिताः संमुमुहुः शुचार्दिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढ़कर युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्धभूमिमें भगवान् श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः
शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्।
स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं
व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम्॥
मूलम्
हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः
शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्।
स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं
व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीड़ित, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर—दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुषका टंकार किया॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शिलीमुखं रजः । पूरयामास ॥ २३-२५ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णन् निषङ्गादथ सन्दधच्छरान्
विकृष्य मुञ्चञ्छितबाणपूगान्।
निघ्नन् रथान् कुञ्जरवाजिपत्तीन्
निरन्तरं यद्वदलातचक्रम्॥
मूलम्
गृह्णन् निषङ्गादथ सन्दधच्छरान्
विकृष्य मुञ्चञ्छितबाणपूगान्।
निघ्नन् रथान् कुञ्जरवाजिपत्तीन्
निरन्तरं यद्वदलातचक्रम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वे तरकसमेंसे बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धकी चतुरंगिणी—हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाका संहार करने लगे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-
रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः।
रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः
पदातयश्छिन्नभुजोरुकन्धराः॥
मूलम्
निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-
रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः।
रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः
पदातयश्छिन्नभुजोरुकन्धराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे बहुत-से हाथियोंके सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यंग कट-कटकर गिर पड़े॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
संछिद्यमानद्विपदेभवाजिना-
मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः।
भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा
हतद्विपद्वीपहयग्रहाकुलाः॥
मूलम्
संछिद्यमानद्विपदेभवाजिना-
मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः।
भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा
हतद्विपद्वीपहयग्रहाकुलाः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ग्रहाकुलाः ग्रहः नक्रः ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोरुमीना नरकेशशैवला
धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः।
अच्छूरिकावर्तभयानका महा-
मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः॥
मूलम्
करोरुमीना नरकेशशैवला
धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः।
अच्छूरिकावर्तभयानका महा-
मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रवेकः श्रेष्ठः ॥ २७-२८ ॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे
मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्।
विनिघ्नतारीन् मुसलेन दुर्मदान्
सङ्कर्षणेनापरिमेयतेजसा॥
मूलम्
प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे
मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्।
विनिघ्नतारीन् मुसलेन दुर्मदान्
सङ्कर्षणेनापरिमेयतेजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान् बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंगसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियोंमें मनुष्योंकी भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहोंके समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके केश सेवारके समान, धनुष तरंगोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे जा रहे थे। उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह बढ़ रहा था॥ २६—२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं
दुरन्तपारं मगधेन्द्रपालितम्।
क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-
र्विक्रीडितं तज्जगदीशयोः परम्॥
मूलम्
बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं
दुरन्तपारं मगधेन्द्रपालितम्।
क्षयं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-
र्विक्रीडितं तज्जगदीशयोः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अर्णवं पर्वसमुद्रघोषोपमं विक्रीडितं परम् उत्कृष्टमभूत् ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः
समीहतेऽनन्तगुणः स्वलीलया।
न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रह-
स्तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते॥
मूलम्
स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः
समीहतेऽनन्तगुणः स्वलीलया।
न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रह-
स्तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मर्त्यानुविध्यस्य मर्त्याऽनुविधायिनः ॥ ३०-४८ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्।
हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा॥
मूलम्
जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्।
हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान् श्रीबलरामजीने जैसे एक सिंह दूसरे सिंहको पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः।
वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया॥
मूलम्
बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः।
वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परन्तु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसंमतः।
तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः॥
मूलम्
स मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसंमतः।
तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि।
स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः॥
मूलम्
वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि।
स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया। परन्तु रास्तेमें उसके साथी नरपतियोंने बहुत समझाया कि ‘राजन्! यदुवंशियोंमें क्या रखा है? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगोंने भगवान्की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये॥ ३३-३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा।
उपेक्षितो भगवता मगधान् दुर्मना ययौ॥
मूलम्
हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा।
उपेक्षितो भगवता मगधान् दुर्मना ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी। भगवान् बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः।
विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रिदशैरनुमोदितः॥
मूलम्
मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः।
विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रिदशैरनुमोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्तकर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदन—प्रशंसा कर रहे थे॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः।
उपगीयमानविजयः सूतमागधवन्दिभिः॥
मूलम्
माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः।
उपगीयमानविजयः सूतमागधवन्दिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान् श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था। भगवान् श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे थे॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः।
वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ॥
मूलम्
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः।
वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शंख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग आदि बाजे बजने लगे थे॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरलङ्कृताम्।
निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम्॥
मूलम्
सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरलङ्कृताम्।
निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मथुराकी एक-एक सड़क और गलीमें छिड़काव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था। ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः।
निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः॥
मूलम्
निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः।
निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय श्रीकृष्ण नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार, दही, अक्षत और जौ आदिके अंकुरोंकी उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्।
यदुराजाय तत् सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः॥
मूलम्
आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्।
यदुराजाय तत् सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः।
युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः॥
मूलम्
एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः।
युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्धने भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा।
हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽयादरिभिर्नृपः॥
मूलम्
अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा।
हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽयादरिभिर्नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु यादवोंने भगवान् श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टादशमसंग्रामे आगामिनि तदन्तरा।
नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत॥
मूलम्
अष्टादशमसंग्रामे आगामिनि तदन्तरा।
नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़ने ही वाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः।
नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीञ्छ्रुत्वाऽऽत्मसम्मितान्॥
मूलम्
रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः।
नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीञ्छ्रुत्वाऽऽत्मसम्मितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वाचिन्तयत् कृष्णः सङ्कर्षणसहायवान्।
अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत्॥
मूलम्
तं दृष्ट्वाचिन्तयत् कृष्णः सङ्कर्षणसहायवान्।
अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया— ‘अहो! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः।
मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वाऽऽगमिष्यति॥
मूलम्
यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः।
मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वाऽऽगमिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायेगा॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवयोर्युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः।
बन्धून् वधिष्यत्यथवा नेष्यते स्वपुरं बली॥
मूलम्
आवयोर्युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः।
बन्धून् वधिष्यत्यथवा नेष्यते स्वपुरं बली॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़नेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान् है॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्।
तत्र ज्ञातीन् समाधाय यवनं घातयामहे॥
मूलम्
तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्।
तत्र ज्ञातीन् समाधाय यवनं घातयामहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे’॥ ४९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
द्विपददुर्गमं मनुष्यदुष्प्रेवेशम् ॥ ४९-५० ॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सम्मन्त्र्य भगवान् दुर्गं द्वादशयोजनम्।
अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्॥
मूलम्
इति सम्मन्त्र्य भगवान् दुर्गं द्वादशयोजनम्।
अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान् श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगरकी लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्।
रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम्॥
मूलम्
दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्।
रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु-विज्ञान) और शिल्पकलाकी निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था॥ ५१॥
वीरराघवः
त्वाष्ट्रं त्वष्टृसम्बन्धि ॥ ५१-५२ ॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम्।
हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फाटिकाट्टालगोपुरैः॥
मूलम्
सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम्।
हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फाटिकाट्टालगोपुरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः।
रत्नकूटैर्गृहैर्हैमैर्महामरकतस्थलैः॥
मूलम्
राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः।
रत्नकूटैर्गृहैर्हैमैर्महामरकतस्थलैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी॥ ५३॥
वीरराघवः
आरकुटैः । पत्तलैः ॥ ५३-५८ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५० ॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वलभीभिश्च निर्मितम्।
चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत्॥
मूलम्
वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वलभीभिश्च निर्मितम्।
चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे। और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः।
यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते॥
मूलम्
सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः।
यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णके लिये पारिजातवृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोकके धर्म नहीं छू पाते थे॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामैककर्णान् वरुणो हयाञ्छुक्लान् मनोजवान्।
अष्टौ निधिपतिः कोशान् लोकपालो निजोदयान्॥
मूलम्
श्यामैककर्णान् वरुणो हयाञ्छुक्लान् मनोजवान्।
अष्टौ निधिपतिः कोशान् लोकपालो निजोदयान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्यामवर्णका था और जिनकी चाल मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्के पास भेज दीं॥ ५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यद् भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये।
सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप॥
मूलम्
यद् यद् भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये।
सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सभी लोकपालोंको भगवान् श्रीकृष्णने ही उनके अधिकारके निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर दीं॥ ५७॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः।
प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः।
निर्जगाम पुरद्वारात् पद्ममाली निरायुधः॥
मूलम्
तत्र योगप्रभावेण नीत्वा सर्वजनं हरिः।
प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः।
निर्जगाम पुरद्वारात् पद्ममाली निरायुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये॥ ५८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ५०॥