[एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेन्द्रयशोऽङ्कितम्।
ददर्श तत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम्॥
मूलम्
स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेन्द्रयशोऽङ्कितम्।
ददर्श तत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम्॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहपुत्रं च बाह्लीकं भारद्वाजं सगौतमम्।
कर्णं सुयोधनं द्रौणिं पाण्डवान् सुहृदोऽपरान्॥
मूलम्
सहपुत्रं च बाह्लीकं भारद्वाजं सगौतमम्।
कर्णं सुयोधनं द्रौणिं पाण्डवान् सुहृदोऽपरान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये। वहाँकी एक-एक वस्तुपर पुरुवंशी नरपतियोंकी अमरकीर्तिकी छाप लग रही है। वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रोंसे मिले॥ १-२॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथावदुपसङ्गम्य बन्धुभिर्गान्दिनीसुतः।
सम्पृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम्॥
मूलम्
यथावदुपसङ्गम्य बन्धुभिर्गान्दिनीसुतः।
सम्पृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियोंसे भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगोंने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियोंकी कुशलक्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजीने भी हस्तिनापुरवासियोंके कुशलमंगलके सम्बन्धमें पूछताछ की॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवास कतिचिन्मासान् राज्ञो वृत्तविवित्सया।
दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छन्दानुवर्तिनः॥
मूलम्
उवास कतिचिन्मासान् राज्ञो वृत्तविवित्सया।
दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छन्दानुवर्तिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अक्रूरजी यह जाननेके लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवोंके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनोंतक वहीं रहे। सच पूछो तो, धृतराष्ट्रमें अपने दुष्ट पुत्रोंकी इच्छाके विपरीत कुछ भी करनेका साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टोंकी सलाहके अनुसार ही काम करते थे॥ ४॥
वीरराघवः
वृत्तविवित्सया वृत्तं वेदितुमिच्छया ॥ १५ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्गुणान्।
प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्भिश्चिकीर्षितम्॥
मूलम्
तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्गुणान्।
प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्भिश्चिकीर्षितम्॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं च धार्तराष्ट्रैर्यद् गरदानाद्यपेशलम्।
आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च॥
मूलम्
कृतं च धार्तराष्ट्रैर्यद् गरदानाद्यपेशलम्।
आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीको कुन्ती और विदुरने यह बतलाया कि धृतराष्ट्रके लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवोंके प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवोंसे ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवोंका अनिष्ट करनेपर उतारू हो जाते हैं। अबतक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंने पाण्डवोंपर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं॥ ५-६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अपेशलम् अशुभम् अपीति पित्रादयः किं स्मरतीत्यर्थः ॥ ६-२८ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसृत्य तम्।
उवाच जन्मनिलयं स्मरन्त्यश्रुकलेक्षणा॥
मूलम्
पृथा तु भ्रातरं प्राप्तमक्रूरमुपसृत्य तम्।
उवाच जन्मनिलयं स्मरन्त्यश्रुकलेक्षणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अक्रूरजी कुन्तीके घर आये, तब वह अपने भाईके पास जा बैठीं। अक्रूरजीको देखकर कुन्तीके मनमें अपने मायकेकी स्मृति जग गयी और नेत्रोंमें आँसू भर आये। उन्होंने कहा—॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि स्मरन्ति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे।
भगिन्यो भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च॥
मूलम्
अपि स्मरन्ति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे।
भगिन्यो भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्यारे भाई! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुलकी स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं?॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रात्रेयो भगवान् कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः।
पैतृष्वसेयान् स्मरति रामश्चाम्बुरुहेक्षणः॥
मूलम्
भ्रात्रेयो भगवान् कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः।
पैतृष्वसेयान् स्मरति रामश्चाम्बुरुहेक्षणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयोंको भी याद करते हैं?॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सापत्नमध्ये शोचन्तीं वृकाणां हरिणीमिव।
सान्त्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च बालकान्॥
मूलम्
सापत्नमध्ये शोचन्तीं वृकाणां हरिणीमिव।
सान्त्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च बालकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं शत्रुओंके बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ। मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेड़ियोंके बीचमें पड़ गयी हो। मेरे बच्चे बिना बापके हो गये हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकोंको सान्त्वना देंगे?॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द शिशुभिश्चावसीदतीम्॥
मूलम्
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द शिशुभिश्चावसीदतीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीकृष्णको अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगीं—) ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्वके जीवनदाता हो। गोविन्द! मैं अपने बच्चोंके साथ दुःख-पर-दुःख भोग रही हूँ। तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चोंको बचाओ॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यत्तव पदाम्भोजात् पश्यामि शरणं नृणाम्।
बिभ्यतां मृत्युसंसारादीश्वरस्यापवर्गिकात्॥
मूलम्
नान्यत्तव पदाम्भोजात् पश्यामि शरणं नृणाम्।
बिभ्यतां मृत्युसंसारादीश्वरस्यापवर्गिकात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे श्रीकृष्ण! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं। मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसारसे डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलोंके अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने।
योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता॥
मूलम्
नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने।
योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! तुम मायाके लेशसे रहित परम शुद्ध हो। तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो। समस्त साधनों, योगों और उपायोंके स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो। श्रीकृष्ण! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। तुम मेरी रक्षा करो’॥ १३॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम्।
प्रारुदद् दुःखिता राजन् भवतां प्रपितामही॥
मूलम्
इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम्।
प्रारुदद् दुःखिता राजन् भवतां प्रपितामही॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्तमें जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको स्मरण करके अत्यन्त दुःखित हो गयीं और फफक-फफककर रोने लगीं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः।
सान्त्वयामासतुः कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः॥
मूलम्
समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः।
सान्त्वयामासतुः कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दुःखको समान दृष्टिसे देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओंने कुन्तीको उसके पुत्रोंके जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओंकी याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्मका नाश करनेके लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यास्यन् राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम्।
अवदत् सुहृदां मध्ये बन्धुभिः सौहृदोदितम्॥
मूलम्
यास्यन् राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम्।
अवदत् सुहृदां मध्ये बन्धुभिः सौहृदोदितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्रके पास आये। अबतक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रोंका पक्षपात करते हैं और भतीजोंके साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजीने कौरवोंकी भरी सभामें श्रीकृष्ण और बलरामजी आदिका हितैषितासे भरा सन्देश कह सुनाया॥ १६॥
श्लोक-१७
मूलम् (वचनम्)
अक्रूर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन।
भ्रातर्युपरते पाण्डावधुनाऽऽसनमास्थितः॥
मूलम्
भो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन।
भ्रातर्युपरते पाण्डावधुनाऽऽसनमास्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने कहा—महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियोंकी उज्ज्वल कीर्तिको और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेषरूपसे इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डुके परलोक सिधार जानेपर अब आप राज्यसिंहासनके अधिकारी हुए हैं॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मेण पालयन्नुर्वीं प्रजाः शीलेन रञ्जयन्।
वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि॥
मूलम्
धर्मेण पालयन्नुर्वीं प्रजाः शीलेन रञ्जयन्।
वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप धर्मसे पृथ्वीका पालन कीजिये। अपने सद्व्यवहारसे प्रजाको प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनोंके साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करनेसे ही आपको लोकमें यश और परलोकमें सद्गति प्राप्त होगी॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यथा त्वाचरल्ँलोके गर्हितोयास्यसे तमः।
तस्मात् समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च॥
मूलम्
अन्यथा त्वाचरल्ँलोके गर्हितोयास्यसे तमः।
तस्मात् समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोकमें आपकी निन्दा होगी और मरनेके बाद आपको नरकमें जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंके साथ समानताका बर्ताव कीजिये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेह चात्यन्तसंवासः कर्हिचित् केनचित् सह।
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः॥
मूलम्
नेह चात्यन्तसंवासः कर्हिचित् केनचित् सह।
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जानते ही हैं कि इस संसारमें कभी कहीं कोई किसीके साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही। राजन्! यह बात अपने शरीरके लिये भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदिको छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषयमें तो कहना ही क्या है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः प्रसूयते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥
मूलम्
एकः प्रसूयते जन्तुरेक एव प्रलीयते।
एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनीका, पाप-पुण्यका फल भी अकेला ही भुगतता है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मोपचितं वित्तं हरन्त्यन्येऽल्पमेधसः।
सम्भोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः॥
मूलम्
अधर्मोपचितं वित्तं हरन्त्यन्येऽल्पमेधसः।
सम्भोजनीयापदेशैर्जलानीव जलौकसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन स्त्री-पुत्रोंको हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’—इस प्रकारकी बातें बनाकर मूर्ख प्राणीके अधर्मसे इकट्ठे किये हुए धनको लूट लेते हैं, जैसे जलमें रहनेवाले जन्तुओंके सर्वस्व जलको उन्हींके सम्बन्धी चाट जाते हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम्।
तेऽकृतार्थं प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः॥
मूलम्
पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम्।
तेऽकृतार्थं प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीवको असन्तुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः।
असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तमः॥
मूलम्
स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः।
असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने धर्मसे विमुख है—सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोषका अनुभव न होगा और वह अपने पापोंकी गठरी सिरपर लादकर स्वयं घोर नरकमें जायगा॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माल्लोकमिमं राजन् स्वप्नमायामनोरथम्।
वीक्ष्यायम्यात्मनाऽऽत्मानं समः शान्तो भव प्रभो॥
मूलम्
तस्माल्लोकमिमं राजन् स्वप्नमायामनोरथम्।
वीक्ष्यायम्यात्मनाऽऽत्मानं समः शान्तो भव प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिनकी चाँदनी है, सपनेका खिलवाड़ है, जादूका तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्तिसे चित्तको रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्वमें स्थित हो जाइये और इस संसारकी ओरसे उपराम—शान्त हो जाइये॥ २५॥
श्लोक-२६
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान्।
तथानया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम्॥
मूलम्
यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान्।
तथानया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा धृतराष्ट्रने कहा—दानपते अक्रूरजी! आप मेरे कल्याणकी, भलेकी बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवालेको अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातोंसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले।
पुत्रानुरागविषमे विद्युत् सौदामनी यथा॥
मूलम्
तथापि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले।
पुत्रानुरागविषमे विद्युत् सौदामनी यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्तमें आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रोंकी ममताके कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वतके शिखरपर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशोंकी है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान्।
भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥
मूलम्
ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान्।
भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजी! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधानमें उलटफेर कर सके। उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं
सृष्ट्वा गुणान् विभजते तदनुप्रविष्टः।
तस्मै नमो दुरवबोधविहारतन्त्र-
संसारचक्रगतये परमेश्वराय॥
मूलम्
यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं
सृष्ट्वा गुणान् विभजते तदनुप्रविष्टः।
तस्मै नमो दुरवबोधविहारतन्त्र-
संसारचक्रगतये परमेश्वराय॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की मायाका मार्ग अचिन्त्य है। उसी मायाके द्वारा इस संसारकी सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलोंका विभाजन कर देते हैं। इस संसार-चक्रकी बेरोक-टोक चालमें उनकी अचिन्त्य लीला-शक्तिके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभुको नमस्कार करता हूँ॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दुर्विमर्शपथया इतरैर्ज्ञातुमशक्यप्रकारया मायया प्रकृत्या गुणान् विभजते ब्रह्मादिष्वित्यर्थः । अन्यैर्दुरवबोधः ईश्वरस्य विहारः क्रीडा ताराविहारतन्त्रात्मिक-संसारचक्रगतिप्रवर्तनायेत्यर्थः ॥ २९-३१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसुरिकृतशुकपक्षीये एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ४९ ॥
श्लोक-३०
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादवः।
सुहृद्भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात्॥
मूलम्
इत्यभिप्रेत्य नृपतेरभिप्रायं स यादवः।
सुहृद्भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्रका अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियोंसे प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम्।
पाण्डवान् प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम्॥
मूलम्
शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम्।
पाण्डवान् प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उन्होंने वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके सामने धृतराष्ट्रका वह सारा व्यवहार-बर्ताव,जो वे पाण्डवोंके साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजनेका वास्तवमें उद्देश्य भी यही था॥ ३१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ ४९॥
पादटिप्पनी
अनुवाद (समाप्ति)
॥ समाप्तमिदं दशमस्कन्धस्य पूर्वार्द्धम्॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥