[अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः।
सैरन्ध्र्याः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ॥
मूलम्
अथ विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः।
सैरन्ध्र्याः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तदनन्तर सबके आत्मा तथा सब कुछ देखनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपनेसे मिलनकी आकांक्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जाका प्रिय करने—उसे सुख देनेकी इच्छासे उसके घर गये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम्।
मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनासनैः।
धूपैः सुरभिभिर्दीपैः स्रग्गन्धैरपि मण्डितम्॥
मूलम्
महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम्।
मुक्तादामपताकाभिर्वितानशयनासनैः।
धूपैः सुरभिभिर्दीपैः स्रग्गन्धैरपि मण्डितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुब्जाका घर बहुमूल्य सामग्रियोंसे सम्पन्न था। उसमें शृंगार-रसका उद्दीपन करनेवाली बहुत-सी साधन-सामग्री भी भरी हुई थी। मोतीकी झालरें और स्थान-स्थानपर झंडियाँ भी लगी हुई थीं। चँदोवे तने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठनेके लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर आसन लगाये हुए थे। धूपकी सुगन्ध फैल रही थी। दीपककी शिखाएँ जगमगा रही थीं। स्थान-स्थानपर फूलोंके हार और चन्दन रखे हुए थे॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहं तमायान्तमवेक्ष्य साऽऽसनात्
सद्यः समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा।
यथोपसङ्गम्य सखीभिरच्युतं
सभाजयामास सदासनादिभिः॥
मूलम्
गृहं तमायान्तमवेक्ष्य साऽऽसनात्
सद्यः समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा।
यथोपसङ्गम्य सखीभिरच्युतं
सभाजयामास सदासनादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्को अपने घर आते देख कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसनसे उठ खड़ी हुई और सखियोंके साथ आगे बढ़कर उसने विधिपूर्वक भगवान्का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारोंसे उनकी विधिपूर्वक पूजा की॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोद्धवः साधु तयाभिपूजितो
न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम्।
कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं
विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः॥
मूलम्
तथोद्धवः साधु तयाभिपूजितो
न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम्।
कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं
विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुब्जाने भगवान्के परमभक्त उद्धवजीकी भी समुचित रीतिसे पूजा की; परन्तु वे उसके सम्मानके लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरतीपर ही बैठ गये। (अपने स्वामीके सामने उन्होंने आसनपर बैठना उचित न समझा।) भगवान् श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दस्वरूप होनेपर भी लोकाचारका अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेजपर जा बैठे॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा मज्जनालेपदुकूलभूषण-
स्रग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभिः।
प्रसाधितात्मोपससार माधवं
सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः॥
मूलम्
सा मज्जनालेपदुकूलभूषण-
स्रग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभिः।
प्रसाधितात्मोपससार माधवं
सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुब्जा स्नान, अंगराग, वस्त्र, आभूषण, हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल और सुधासव आदिसे अपनेको खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भावके साथ भगवान्की ओर देखती हुई उनके पास आयी॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहूय कान्तां नवसङ्गमह्रिया
विशङ्कितां कङ्कणभूषिते करे।
प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया
रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया॥
मूलम्
आहूय कान्तां नवसङ्गमह्रिया
विशङ्कितां कङ्कणभूषिते करे।
प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया
रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुब्जा नवीन मिलनके संकोचसे कुछ झिझक रही थी। तब श्यामसुन्दर श्रीकृष्णने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कंकणसे सुशोभित कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे। परीक्षित्! कुब्जाने इस जन्ममें केवल भगवान्को अंगराग अर्पित किया था, उसी एक शुभकर्मके फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सानङ्गतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णो-
र्जिघ्रन्त्यनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती।
दोर्भ्यां स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्त-
मानन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्॥
मूलम्
सानङ्गतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णो-
र्जिघ्रन्त्यनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती।
दोर्भ्यां स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्त-
मानन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुब्जा भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको अपने काम-संतप्त हृदय, वक्षःस्थल और नेत्रोंपर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदयकी सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्षःस्थलसे सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दरका अपनी दोनों भुजाओंसे गाढ़ आलिंगन करके कुब्जाने दीर्घकालसे बढ़े हुए विरहतापको शान्त किया॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम्।
अङ्गरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत॥
मूलम्
सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्रापमीश्वरम्।
अङ्गरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कुब्जाने केवल अंगराग समर्पित किया था। उतनेसे ही उसे उन सर्वशक्तिमान् भगवान्की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्षके अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु उस दुर्भगाने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियोंकी भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा—॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया।
रमस्व नोत्सहे त्यक्तुं सङ्गं तेऽम्बुरुहेक्षण॥
मूलम्
आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया।
रमस्व नोत्सहे त्यक्तुं सङ्गं तेऽम्बुरुहेक्षण॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता’॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः।
सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितम्॥
मूलम्
तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः।
सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सबका मान रखनेवाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धवजीके साथ अपने सर्वसम्मानित घरपर लौट आये॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम्।
यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात् कुमनीष्यसौ॥
मूलम्
दुराराध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम्।
यो वृणीते मनोग्राह्यमसत्त्वात् कुमनीष्यसौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीवके लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि है; क्योंकि वास्तवमें विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ—नहींके बराबर है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः।
किञ्चिच्चिकीर्षयन् प्रागादक्रूरप्रियकाम्यया॥
मूलम्
अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः।
किञ्चिच्चिकीर्षयन् प्रागादक्रूरप्रियकाम्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और उद्धवजीके साथ अक्रूरजीकी अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेनेके लिये उनके घर गये॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तान् नरवरश्रेष्ठानाराद् वीक्ष्य स्वबान्धवान्।
प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभ्यनन्दत॥
मूलम्
स तान् नरवरश्रेष्ठानाराद् वीक्ष्य स्वबान्धवान्।
प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभ्यनन्दत॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने दूरसे ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोक शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आनन्दसे भरकर उनका अभिनन्दन और आलिंगन किया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः।
पूजयामास विधिवत् कृतासनपरिग्रहान्॥
मूलम्
ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः।
पूजयामास विधिवत् कृतासनपरिग्रहान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको नमस्कार किया तथा उद्धवजीके साथ उन दोनों भाइयोंने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आरामसे आसनोंपर बैठ गये, तब अक्रूरजी उन लोगोंकी विधिवत् पूजा करने लगे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पादावनेजनीरापो धारयञ्छिरसा नृप।
अर्हणेनाम्बरैर्दिव्यैर्गन्धस्रग्भूषणोत्तमैः॥
मूलम्
पादावनेजनीरापो धारयञ्छिरसा नृप।
अर्हणेनाम्बरैर्दिव्यैर्गन्धस्रग्भूषणोत्तमैः॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चित्वा शिरसाऽऽनम्य पादावङ्कगतौ मृजन्।
प्रश्रयावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत॥
मूलम्
अर्चित्वा शिरसाऽऽनम्य पादावङ्कगतौ मृजन्।
प्रश्रयावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उन्होंने पहले भगवान्के चरण धोकर चरणोदक सिरपर धारण किया और फिर अनेकों प्रकारकी पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध, माला और श्रेष्ठ आभूषणोंसे उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणोंको अपनी गोदमें लेकर दबाने लगे। उसी समय उन्होंने विनयावनत होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे कहा—॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम्।
भवद्भ्यामुद्धृतं कृच्छ्राद् दुरन्ताच्च समेधितम्॥
मूलम्
दिष्ट्या पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम्।
भवद्भ्यामुद्धृतं कृच्छ्राद् दुरन्ताच्च समेधितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्यकी बात है कि पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनोंने युदवंशको बहुत बड़े संकटसे बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ।
भवद्भ्यां न विना किञ्चित् परमस्ति न चापरम्॥
मूलम्
युवां प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ।
भवद्भ्यां न विना किञ्चित् परमस्ति न चापरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप दोनों जगत्के कारण और जगद्रूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है, न कारण और न तो कार्य॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभिः।
ईयते बहुधा ब्रह्मन् श्रुतप्रत्यक्षगोचरम्॥
मूलम्
आत्मसृष्टमिदं विश्वमन्वाविश्य स्वशक्तिभिः।
ईयते बहुधा ब्रह्मन् श्रुतप्रत्यक्षगोचरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मन्! आपने ही अपनी शक्तिसे इसकी रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियोंसे इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूपमें प्रतीत हो रहे हैं॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रकृतिपुरुषकालैः सृष्टमित्यन्वयः सत्त्वरजस्तमोभिरेवेत्यर्थः ईयते प्रतीयते श्रतिप्रत्यक्ष गोचरः प्रत्यक्षश्रुतिगोचरः वेदान्तयोगिप्रत्यक्षगोचरो वा ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि भूतेषु चराचरेषु
मह्यादयो योनिषु भान्ति नाना।
एवं भवान् केवल आत्मयोनि-
ष्वात्माऽऽत्मतन्त्रो बहुधा विभाति॥
मूलम्
यथा हि भूतेषु चराचरेषु
मह्यादयो योनिषु भान्ति नाना।
एवं भवान् केवल आत्मयोनि-
ष्वात्माऽऽत्मतन्त्रो बहुधा विभाति॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पृथ्वी आदि कारणतत्त्वोंसे ही उनके कार्य स्थावर-जंगम शरीर बनते हैं; वे उनमें अनुप्रविष्ट-से होकर अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं, परन्तु वास्तवमें वे कारणरूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परन्तु अपने कार्यरूप जगत्में स्वेच्छासे अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं। यह भी आपकी एक लीला ही है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
केवल एकरूपः आत्मा स्वयं योनिरुपादानं येषां तेषु पदार्थेषु स्वेन रूपेणावस्थितस्य गुणक्रमान्वयाभाव उक्तः ॥ २०-२१ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृजस्यथो लुम्पसि पासि विश्वं
रजस्तमः सत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः।
न बध्यसे तद्गुणकर्मभिर्वा
ज्ञानात्मनस्ते क्व च बन्धहेतुः॥
मूलम्
सृजस्यथो लुम्पसि पासि विश्वं
रजस्तमः सत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः।
न बध्यसे तद्गुणकर्मभिर्वा
ज्ञानात्मनस्ते क्व च बन्धहेतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणरूप अपनी शक्तियोंसे क्रमशः जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणोंसे अथवा उनके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे बन्धनमें नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध ज्ञानस्वरूप हैं। ऐसी स्थितिमें आपके लिये बन्धनका कारण ही क्या हो सकता है?॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्
भवो न साक्षान्न भिदाऽऽत्मनः स्यात्।
अतो न बन्धस्तव नैव मोक्षः
स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः॥
मूलम्
देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्
भवो न साक्षान्न भिदाऽऽत्मनः स्यात्।
अतो न बन्धस्तव नैव मोक्षः
स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! स्वयं आत्मवस्तुमें स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होनेके कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकारका भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष! आपमें अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार बन्धन या मोक्षकी जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथ जीवशरीरकस्यापि तस्य जीवगतबन्धमोक्षाद्यस्पर्शनमाह । देहादीति । अनिरूपितत्वात् भोगार्थतया निरूपितत्वाभावात् चिदात्मनः जीवान्तरात्मनः तव भवः संसारः साक्षान्नास्ति शरीरभूतजीवस्येत्यर्थः । यथा सिंहस्य श्वेत इत्यत्र श्वैत्यं देहगतं तद्वत् कामाद्यभावहेतुरविवेकाभावः ॥ २२-२३ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयोदितोऽयं जगतो हिताय
यदा यदा वेदपथः पुराणः।
बाध्येत पाखण्डपथैरसद्भि-
स्तदा भवान् सत्त्वगुणं बिभर्ति॥
मूलम्
त्वयोदितोऽयं जगतो हिताय
यदा यदा वेदपथः पुराणः।
बाध्येत पाखण्डपथैरसद्भि-
स्तदा भवान् सत्त्वगुणं बिभर्ति॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने जगत्के कल्याणके लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथसे चलनेवाले दुष्टोंके द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः
स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः।
अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांश-
राज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन्॥
मूलम्
स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः
स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः।
अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांश-
राज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वही आप इस समय अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये यहाँ वसुदेवजीके घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरोंके अंशसे उत्पन्न नाममात्रके शासकोंकी सौ-सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे और यदुवंशके यशका विस्तार करेंगे॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वितन्वन्निति “लक्षणहेत्वोः क्रियाया”मिति शतृप्रत्ययः यशो विस्तारयितुमवतीर्णोऽसीत्यर्थः ॥ २४-२५ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा
यः सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्तिः।
यत्पादशौचसलिलं त्रिजगत् पुनाति
स त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः॥
मूलम्
अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा
यः सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्तिः।
यत्पादशौचसलिलं त्रिजगत् पुनाति
स त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियातीत परमात्मन्! सारे देवता, पितर, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणोंकी धोवन गंगाजी तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। आप सारे जगत्के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्यकी सीमा न रही॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्
भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात्।
सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामा-
नात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य॥
मूलम्
कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्
भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात्।
सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामा-
नात्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप प्रेमी भक्तोंके परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं—जरा-सी सेवाको भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरेकी शरणमें जायगा? आप अपना भजन करनेवाले प्रेमी भक्तकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँतक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस है, अपने उस आत्माका भी आप दान कर देते हैं॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऋतगिरः सत्यवाक्यात् त्वत्तः अपरमित्यन्वयः आत्मानमपीति ददासीति मोक्षप्रदत्वमुक्तं यस्य आत्मनः उपचयापचया वृद्धिहासौ न ॥ २६-२९॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो
योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः।
छिन्ध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेह-
देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम्॥
मूलम्
दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो
योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः।
छिन्ध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेह-
देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्तोंके कष्ट मिटानेवाले और जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूपको नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्यकी बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदिके मोहकी रस्सीसे बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी मायाका खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धनको शीघ्र काट दीजिये’॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान् हरिः।
अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः सम्मोहयन्निव॥
मूलम्
इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान् हरिः।
अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः सम्मोहयन्निव॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार भक्त अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने मुसकराकर अपनी मधुर वाणीसे उन्हें मानो मोहित करते हुए कहा॥ २८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा।
वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः॥
मूलम्
त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा।
वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘तात! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंशमें अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदाके हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपाके पात्र हैं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः।
श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः॥
मूलम्
भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः।
श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना परम कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतोंकी सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओंसे भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओंमें तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतोंमें नहीं॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सत्तमा: उत्कृष्टतमाः देवा इन्द्रादयः स्वप्रयोजनपराः नतु साधवः ते परोपकारपराः ॥ ३०–३३ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥
मूलम्
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल जलके तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदिकी बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं। चाचाजी! उनकी तो बहुत दिनोंतक श्रद्धासे सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परन्तु संतपुरुष तो अपने दर्शनमात्रसे पवित्र कर देते हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवान् सुहृदां वै नः श्रेयाञ्छ्रेयश्चिकीर्षया।
जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम्॥
मूलम्
स भवान् सुहृदां वै नः श्रेयाञ्छ्रेयश्चिकीर्षया।
जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाचाजी! आप हमारे हितैषी सुहृदोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवोंका हित करनेके लिये तथा उनका कुशल-मंगल जाननेके लिये हस्तिनापुर जाइये॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितर्युपरते बालाः सहमात्रा सुदुःखिताः।
आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम॥
मूलम्
पितर्युपरते बालाः सहमात्रा सुदुःखिताः।
आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डुके मर जानेपर अपनी माता कुन्तीके साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःखमें पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः।
समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक्॥
मूलम्
तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः।
समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबलकी भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होनेके कारण वे पाण्डवोंके साथ अपने पुत्रों-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अम्बिकापुत्रः धृतराष्ट्रः अन्धदृक् अन्धः ॥ ३४-३६ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसुरिकृतशुकपक्षीये अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ जानीहि तद्वृत्तमधुना साध्वसाधु वा।
विज्ञाय तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत्॥
मूलम्
गच्छ जानीहि तद्वृत्तमधुना साध्वसाधु वा।
विज्ञाय तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदोंको सुख मिले’॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः।
सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ॥
मूलम्
इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः।
सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरजीको इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजीके साथ वहाँसे अपने घर लौट आये॥ ३६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४८॥