४६ नन्दशोकापनयनम्

[षट्चत्वारिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

उद्धवजीकी व्रजयात्रा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा।
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः॥

मूलम्

वृष्णीनां प्रवरो मन्त्री कृष्णस्य दयितः सखा।
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षादुद्धवो बुद्धिसत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उद्धवजी वृष्णिवंशियोंमें एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् बृहस्पतिजीके शिष्य और परम बुद्धिमान् थे। उनकी महिमाके सम्बन्धमें इससे बढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह भगवान् प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः॥

मूलम्

तमाह भगवान् प्रेष्ठं भक्तमेकान्तिनं क्वचित्।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रपन्नार्तिहरो हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन शरणागतोंके सारे दुःख हर लेनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने अपने प्रिय भक्त और एकान्तप्रेमी उद्धवजीका हाथ अपने हाथमें लेकर कहा—॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह।
गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय॥

मूलम्

गच्छोद्धव व्रजं सौम्य पित्रोर्नौ प्रीतिमावह।
गोपीनां मद्वियोगाधिं मत्सन्देशैर्विमोचय॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्यस्वभाव उद्धव! तुम व्रजमें जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरहकी व्याधिसे बहुत ही दुःखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदनासे मुक्त करो॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः।
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम्॥

मूलम्

ता मन्मनस्का मत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः।
मामेव दयितं प्रेष्ठमात्मानं मनसा गताः।
ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान् बिभर्म्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे उद्धव! गोपियोंका मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियोंको छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धिसे भी मुझीको अपना प्यारा, अपना प्रियतम—नहीं, नहीं; अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मोंको छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्यक्तदैहिकाः त्यक्तदेहभूषणाः ॥ १-८ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः।
स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः॥

मूलम्

मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः।
स्मरन्त्योऽङ्ग विमुह्यन्ति विरहौत्कण्ठ्यविह्वलाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! मैं उन गोपियोंका परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आनेसे वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरहकी व्यथासे विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथञ्चन।
प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥

मूलम्

धारयन्त्यतिकृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथञ्चन।
प्रत्यागमनसन्देशैर्बल्लव्यो मे मदात्मिकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्नसे अपने प्राणोंको किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवनका आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं’॥ ६॥

श्लोक-७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त उद्धवो राजन् संदेशं भर्तुरादृतः।
आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

मूलम्

इत्युक्त उद्धवो राजन् संदेशं भर्तुरादृतः।
आदाय रथमारुह्य प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदरसे अपने स्वामीका सन्देश लेकर रथपर सवार हुए और नन्दगाँवके लिये चल पड़े॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान् निम्लोचति विभावसौ।
छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः॥

मूलम्

प्राप्तो नन्दव्रजं श्रीमान् निम्लोचति विभावसौ।
छन्नयानः प्रविशतां पशूनां खुररेणुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम सुन्दर उद्धवजी सूर्यास्तके समय नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचे। उस समय जंगलसे गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरोंके आघातसे इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासितार्थेऽभियुध्यद‍्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः।
धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्॥

मूलम्

वासितार्थेऽभियुध्यद‍्भिर्नादितं शुष्मिभिर्वृषैः।
धावन्तीभिश्च वास्राभिरूधोभारैः स्ववत्सकान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजभूमिमें ऋतुमती गौओंके लिये मतवाले साँड़ आपसमें लड़ रहे थे। उनकी गर्जनासे सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनोंकी ब्यायी हुई गौएँ अपने थनोंके भारी भारसे दबी होनेपर भी अपने-अपने बछड़ोंकी ओर दौड़ रही थीं॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वासितार्थं संयोगार्थ शुष्मिभिर्मत्तैः ॥ ९-१४ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतस्ततो विलङ्घद‍्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः।
गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च॥

मूलम्

इतस्ततो विलङ्घद‍्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितैः।
गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां निःस्वनेन च॥

अनुवाद (हिन्दी)

सफेद रंगके बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहनेकी ‘घर-घर’ ध्वनिसे और बाँसुरियोंकी मधुर टेरसे अब भी व्रजकी अपूर्व शोभा हो रही थी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः।
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम्॥

मूलम्

गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयोः।
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनोंसे सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रजकी शोभा और भी बढ़ गयी थी॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितैः।
धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम्॥

मूलम्

अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितैः।
धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपोंके घरोंमें अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरोंकी पूजा की हुई थी। धूपकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरोंको पुष्पोंसे सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहोंसे सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्।
हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम्॥

मूलम्

सर्वतः पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम्।
हंसकारण्डवाकीर्णैः पद्मषण्डैश्च मण्डितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलोंसे लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलोंके वनसे शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वनमें विहार कर रहे थे॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्।
नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत्॥

मूलम्

तमागतं समागम्य कृष्णस्यानुचरं प्रियम्।
नन्दः प्रीतः परिष्वज्य वासुदेवधियार्चयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रजमें आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजीको गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आ गये हों॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्।
गतश्रमं पर्यपृच्छत् पादसंवाहनादिभिः॥

मूलम्

भोजितं परमान्नेन संविष्टं कशिपौ सुखम्।
गतश्रमं पर्यपृच्छत् पादसंवाहनादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

समयपर उत्तम अन्नका भोजन कराया और जब वे आरामसे पलँगपर बैठ गये, सेवकोंने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कशिपौ पर्यके ॥ १५-२४ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः।
आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद् वृतः॥

मूलम्

कच्चिदङ्ग महाभाग सखा नः शूरनन्दनः।
आस्ते कुशल्यपत्याद्यैर्युक्तो मुक्तः सुहृद् वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नन्दबाबाने उनसे पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेलसे छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशलसे तो हैं न?॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना।
साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा॥

मूलम्

दिष्ट्या कंसो हतः पापः सानुगः स्वेन पाप्मना।
साधूनां धर्मशीलानां यदूनां द्वेष्टि यः सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि अपने पापोंके फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। क्योंकि स्वभावसे ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियोंसे वह सदा द्वेष करता था॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्।
गोपान् व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम्॥

मूलम्

अपि स्मरति नः कृष्णो मातरं सुहृदः सखीन्।
गोपान् व्रजं चात्मनाथं गावो वृन्दावनं गिरिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छा उद्धवजी! श्रीकृष्ण कभी हमलोगोंकी भी याद करते हैं? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हींको अपना स्वामी और सर्वस्व माननेवाला यह व्रज है; उन्हींकी गौएँ , वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं?॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान् सकृदीक्षितुम्।
तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम्॥

मूलम्

अप्यायास्यति गोविन्दः स्वजनान् सकृदीक्षितुम्।
तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुहृद्-बान्धवोंको देखनेके लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवनसे युक्त मुखकमल देख तो लेते॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः।
दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना॥

मूलम्

दावाग्नेर्वातवर्षाच्च वृषसर्पाच्च रक्षिताः।
दुरत्ययेभ्यो मृत्युभ्यः कृष्णेन सुमहात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! श्रीकृष्णका हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानलसे, आँधी-पानीसे, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्युके निमित्तोंसे—जिन्हें टालनेका कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्।
हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः॥

मूलम्

स्मरतां कृष्णवीर्याणि लीलापाङ्गनिरीक्षितम्।
हसितं भाषितं चाङ्ग सर्वा नः शिथिलाः क्रियाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! हम श्रीकृष्णके विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदिका स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरिच्छैलवनोद्देशान् मुकुन्दपदभूषितान्।
आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम्॥

मूलम्

सरिच्छैलवनोद्देशान् मुकुन्दपदभूषितान्।
आक्रीडानीक्षमाणानां मनो याति तदात्मताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीडा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने अपने एक हाथपर उठा लिया था; ये वे ही वनके प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओंके साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ।
सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा॥

मूलम्

मन्ये कृष्णं च रामं च प्राप्ताविह सुरोत्तमौ।
सुराणां महदर्थाय गर्गस्य वचनं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओंका कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान् गर्गाचार्यजीने मुझसे ऐसा ही कहा था॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं तथा।
अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः॥

मूलम्

कंसं नागायुतप्राणं मल्लौ गजपतिं तथा।
अवधिष्टां लीलयैव पशूनिव मृगाधिपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सिंह बिना किसी परिश्रमके पशुओंको मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेलमें ही दस हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान् बलशाली गजराज कुवलयापीडा को मार डाला॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्।
बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद् गिरिम्॥

मूलम्

तालत्रयं महासारं धनुर्यष्टिमिवेभराट्।
बभञ्जैकेन हस्तेन सप्ताहमदधाद् गिरिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुषको वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ीको तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्णने एक हाथसे सात दिनोंतक गिरिराजको उठाये रखा था॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तालं परिमाणविशेषः ॥ २५-३० ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः।
दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया॥

मूलम्

प्रलम्बो धेनुकोऽरिष्टस्तृणावर्तो बकादयः।
दैत्याः सुरासुरजितो हता येनेह लीलया॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं सबके देखते-देखते खेल-खेलमें उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बक आदि उन बड़े-बड़े दैत्योंको मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरोंपर विजय प्राप्त कर ली थी’॥ २६॥

श्लोक-२७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः।
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः॥

मूलम्

इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्दः कृष्णानुरक्तधीः।
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबाका हृदय यों ही भगवान् श्रीकृष्णके अनुराग-रंगमें रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओंका एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेमकी बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलनेकी अत्यन्त उत्कण्ठा होनेके कारण उनका गला रुँध गया। वे चुप हो गये॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च।
शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत् स्नेहस्नुतपयोधरा॥

मूलम्

यशोदा वर्ण्यमानानि पुत्रस्य चरितानि च।
शृण्वन्त्यश्रूण्यवास्राक्षीत् स्नेहस्नुतपयोधरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशोदारानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबाकी बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्णकी एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रोंसे आँसू बहते जाते थे और पुत्रस्नेहकी बाढ़से उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहती जा रही थी॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः।
वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा॥

मूलम्

तयोरित्थं भगवति कृष्णे नन्दयशोदयोः।
वीक्ष्यानुरागं परमं नन्दमाहोद्धवो मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी नन्दबाबा और यशोदारानीके हृदयमें श्रीकृष्णके प्रति कैसा अगाध अनुराग है—यह देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनसे कहने लगे॥ २९॥

श्लोक-३०

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद।
नारायणेऽखिलगुरौ यत् कृता मतिरीदृशी॥

मूलम्

युवां श्लाघ्यतमौ नूनं देहिनामिह मानद।
नारायणेऽखिलगुरौ यत् कृता मतिरीदृशी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—हे मानद! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियोंमें अत्यन्त भाग्यवान् हैं, सराहना करनेयोग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत‍्के बनानेवाले और उसे ज्ञान देनेवाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदयमें ऐसा वात्सल्यस्नेह—पुत्रभाव है॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी
रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्।
अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य
ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ॥

मूलम्

एतौ हि विश्वस्य च बीजयोनी
रामो मुकुन्दः पुरुषः प्रधानम्।
अन्वीय भूतेषु विलक्षणस्य
ज्ञानस्य चेशात इमौ पुराणौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसारके उपादानकारण और निमित्तकारण भी हैं। भगवान् श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलरामजी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीरोंमें प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एतौ रामो मुकुन्दश्च बीजयोनी बीजभूतानां पृथिव्यादीनां कारणभूतौ पुरुषप्रधानं प्रधानं पुरुषमन्वीय अत एव योनि-भूतावित्यर्थः । विलक्षणस्य ज्ञानस्य ईशाते प्रवर्त्तकावित्यर्थः ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिञ्जनः प्राणवियोगकाले
क्षणं समावेश्य मनो विशुद्धम्।
निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति
परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः॥

मूलम्

यस्मिञ्जनः प्राणवियोगकाले
क्षणं समावेश्य मनो विशुद्धम्।
निर्हृत्य कर्माशयमाशु याति
परां गतिं ब्रह्ममयोऽर्कवर्णः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जीव मृत्युके समय अपने शुद्ध मनको एक क्षणके लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओंको धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्यके समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगतिको प्राप्त होता है॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदेव विवृणोति । यस्मिन्निति । निहत्य दग्ध्वा ब्रह्ममयः ज्ञानप्रचुरः अर्कवर्णः अप्राकृतरूपः ॥ ३२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् भवन्तावखिलात्महेतौ
नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ।
भावं विधत्तां नितरां महात्मन्
किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम्॥

मूलम्

तस्मिन् भवन्तावखिलात्महेतौ
नारायणे कारणमर्त्यमूर्तौ।
भावं विधत्तां नितरां महात्मन्
किं वावशिष्टं युवयोः सुकृत्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भगवान् ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये मनुष्यका-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनोंका ऐसा सुदृढ़ वात्सल्यभाव है; फिर महात्माओ! आप दोनोंके लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

किमवशिष्टं किं कर्त्तव्यं यवां कृतकृत्यावित्यर्थः ॥ ३३-३६ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः।
प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान् सात्वतां पतिः॥

मूलम्

आगमिष्यत्यदीर्घेण कालेन व्रजमच्युतः।
प्रियं विधास्यते पित्रोर्भगवान् सात्वतां पतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तवत्सल यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनोंमें व्रजमें आयेंगे और आप दोनोंको—अपने माँ-बापको आनन्दित करेंगे॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्।
यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत्॥

मूलम्

हत्वा कंसं रङ्गमध्ये प्रतीपं सर्वसात्वताम्।
यदाह वः समागत्य कृष्णः सत्यं करोति तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियोंके द्रोही कंसको रंगभूमिमें मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रजमें आऊँगा’ उस कथनको वे सत्य करेंगे॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके।
अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि॥

मूलम्

मा खिद्यतं महाभागौ द्रक्ष्यथः कृष्णमन्तिके।
अन्तर्हृदि स भूतानामास्ते ज्योतिरिवैधसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्दबाबा और माता यशोदाजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्णको अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठमें अग्नि सदा ही व्यापक रूपसे रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वदा विराजमान रहते हैं॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः।
नोत्तमो नाधमो नापि समानस्यासमोऽपि वा॥

मूलम्

न ह्यस्यास्ति प्रियः कश्चिन्नाप्रियो वास्त्यमानिनः।
नोत्तमो नाधमो नापि समानस्यासमोऽपि वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक शरीरके प्रति अभिमान न होनेके कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टिमें न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँतक कि विषमताका भाव रखनेवाला भी उनके लिये विषम नहीं है॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अमानिनः ममताभिमानरहितस्य समानस्य सर्वसमस्य ॥ ३७-३८ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः।
नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च॥

मूलम्

न माता न पिता तस्य न भार्या न सुतादयः।
नात्मीयो न परश्चापि न देहो जन्म एव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु।
क्रीडार्थः सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते॥

मूलम्

न चास्य कर्म वा लोके सदसन्मिश्रयोनिषु।
क्रीडार्थः सोऽपि साधूनां परित्राणाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस लोकमें उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओंके परित्राणके लिये, लीला करनेके लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियोंमें शरीर धारण करते हैं॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कल्पते कर्मवश्यो न भवति यद्वा स भगवान् परित्राणाय कल्पत इत्यर्थः ॥ ३९-४० ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्।
क्रीडन्नतीतोऽत्र गुणैः सृजत्यवति हन्त्यजः॥

मूलम्

सत्त्वं रजस्तम इति भजते निर्गुणो गुणान्।
क्रीडन्नतीतोऽत्र गुणैः सृजत्यवति हन्त्यजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् अजन्मा हैं। उनमें प्राकृत सत्त्व, रज आदिमेंसे एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणोंसे अतीत होनेपर भी लीलाके लिये खेल-खेलमें वे सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत‍्की रचना, पालन और संहार करते हैं॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते।
चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः॥

मूलम्

यथा भ्रमरिकादृष्ट्या भ्राम्यतीव महीयते।
चित्ते कर्तरि तत्रात्मा कर्तेवाहंधिया स्मृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेगसे चक्‍कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तवमें सब कुछ करनेवाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्तमें अहंबुद्धि हो जानेके कारण, भ्रमवश उसे आत्मा—अपना ‘मैं’ समझ लेनेके कारण, जीव अपनेको कर्ता समझने लगता है॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणैः सृष्ट्यादिव्यापारं कुर्वतोऽपि भगवतो जीवस्येव गुणकार्यभ्रमो नास्ति चेतनस्य व्यवस्थितस्यापि नास्तीत्याह । यथा भ्रमरिकादृष्टयति । अतिवेगभ्रमणक्रियानिष्ठ दृष्टया मही भूमिश्रम्यतीव ईयते प्रतीयते तत्र गुणवश्यतया जीवस्य चित्त कर्तरि भ्रमः कर्तरि करणे कर्तृत्वोपचारः भ्रमहेतुभू मिश्रम्यतीव ईयते प्रतीवते तत्र गुणवति जीवस्य मनस्यनवस्थितोऽपि आत्मा परमात्मा अकर्त्तैव भवति अहंधिया बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मीत्यादि प्रकारेण तच्छरीरकोऽहमिति मन्यमानः स्थितोऽप्यकर्तेव भवतीत्यर्थः ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान् हरिः।
सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः॥

मूलम्

युवयोरेव नैवायमात्मजो भगवान् हरिः।
सर्वेषामात्मजो ह्यात्मा पिता माता स ईश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण केवल आप दोनोंके ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियोंके आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सर्वेषामिति । मातापित्रादिशरीरकः परमात्मेत्यर्थः ॥ ४२-४९ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टं श्रुतं भूतभवद् भविष्यत्
स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च।
विनाच्युताद् वस्तु तरां न वाच्यं
स एव सर्वं परमार्थभूतः॥

मूलम्

दृष्टं श्रुतं भूतभवद् भविष्यत्
स्थास्नुश्चरिष्णुर्महदल्पकं च।
विनाच्युताद् वस्तु तरां न वाच्यं
स एव सर्वं परमार्थभूतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाबा! जो कुछ देखा या सुना जाता है—वह चाहे भूतसे सम्बन्ध रखता हो, वर्तमानसे अथवा भविष्यसे; स्थावर हो या जंगम हो, महान् हो अथवा अल्प हो—ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान् श्रीकृष्णसे पृथक् हो। बाबा! श्रीकृष्णके अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तवमें सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता
नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन्।
गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्
वास्तून् समभ्यर्च्य दधीन्यमन्थन्॥

मूलम्

एवं निशा सा ब्रुवतोर्व्यतीता
नन्दस्य कृष्णानुचरस्य राजन्।
गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्
वास्तून् समभ्यर्च्य दधीन्यमन्थन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपसमें बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहनेपर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घरकी देहलियोंपर वास्तुदेवका पूजन किया, अपने घरोंको झाड़-बुहारकर साफ किया और फिर दही मथने लगीं॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू
रज्जूर्विकर्षद‍्भुजकङ्कणस्रजः।
चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-
त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः॥

मूलम्

ता दीपदीप्तैर्मणिभिर्विरेजू
रज्जूर्विकर्षद‍्भुजकङ्कणस्रजः।
चलन्नितम्बस्तनहारकुण्डल-
त्विषत्कपोलारुणकुङ्कुमाननाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपियोंकी कलाइयोंमें कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गलेके हार हिल रहे थे। कानोंके कुण्डल हिल-हिलकर उनके कुंकुम-मण्डित कपोलोंकी लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणोंकी मणियाँ दीपककी ज्योतिसे और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभासे सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद‍्गायतीनामरविन्दलोचनं
व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद् ध्वनिः।
दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो
निरस्यते येन दिशाममङ्गलम्॥

मूलम्

उद‍्गायतीनामरविन्दलोचनं
व्रजाङ्गनानां दिवमस्पृशद् ध्वनिः।
दध्नश्च निर्मन्थनशब्दमिश्रितो
निरस्यते येन दिशाममङ्गलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गोपियाँ—कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णके मंगलमय चरित्रोंका गान कर रही थीं। उनका वह संगीत दही मथनेकी ध्वनिसे मिलकर और भी अद‍्भुत हो गया तथा स्वर्गलोकतक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओंका अमंगल मिटा देती है॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः।
दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन्॥

मूलम्

भगवत्युदिते सूर्ये नन्दद्वारि व्रजौकसः।
दृष्ट्वा रथं शातकौम्भं कस्यायमिति चाब्रुवन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् भुवनभास्करका उदय हुआ, तब व्रजांगनाओंने देखा कि नन्दबाबाके दरवाजेपर एक सोनेका रथ खड़ा है। वे एक-दूसरेसे पूछने लगीं ‘यह किसका रथ है?’॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः।
येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः॥

मूलम्

अक्रूर आगतः किं वा यः कंसस्यार्थसाधकः।
येन नीतो मधुपुरीं कृष्णः कमललोचनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी गोपीने कहा—‘कंसका प्रयोजन सिद्ध करनेवाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दरको यहाँसे मथुरा ले गया था’॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम्।
इति स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात् कृताह्निकः॥

मूलम्

किं साधयिष्यत्यस्माभिर्भर्तुः प्रेतस्य निष्कृतिम्।
इति स्त्रीणां वदन्तीनामुद्धवोऽगात् कृताह्निकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी दूसरी गोपीने कहा—‘क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंसका पिण्डदान करेगा? अब यहाँ उसके आनेका और क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपसमें बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्मसे निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुँचे॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अस्माभिः मृताभिरित्यभिप्रायः निष्कृतिं प्रतीकारम् ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्ध श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नन्दशोकापनयनं नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४६॥