[पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीकृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुलप्रवेश
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः।
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम्॥
मूलम्
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः।
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि माता-पिताको मेरे ऐश्वर्यका, मेरे भगवद्भावका ज्ञान हो गया है, परंतु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेहका सुख नहीं पा सकेंगे—) ऐसा सोचकर उन्होंने उनपर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनोंको मुग्ध रखकर उनकी लीलामें सहायक होती है॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उपलब्धार्थौ उपलब्धतत्त्वार्थौ ॥ १-२ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वतर्षभः।
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्॥
मूलम्
उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वतर्षभः।
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण बड़े भाई बलरामजीके साथ अपने माँ-बापके पास जाकर आदरपूर्वक और विनयसे झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दोंसे उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे—॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि।
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन् क्वचित्॥
मूलम्
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि।
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन् क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौगण्ड और किशोर-अवस्थाका सुख हमसे नहीं पा सके॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पुत्राभ्यामावाभ्यामावयोः अन्यत्र इत्यतीतकालो गत इत्यर्थः ॥ ३-२९ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके।
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम्॥
मूलम्
न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके।
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्दैववश हमलोगोंको आपके पास रहनेका सौभाग्य ही नहीं मिला। इसीसे बालकोंको माता-पिताके घरमें रहकर जो लाड़-प्यारका सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा॥
मूलम्
सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिता और माता ही इस शरीरको जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षकी प्राप्तिका साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्षतक जीकर माता और पिताकी सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकारसे उऋण नहीं हो सकता॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च।
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि॥
मूलम्
यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च।
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बापकी शरीर और धनसे सेवा नहीं करता, उसके मरनेपर यमदूत उसे उसके अपने शरीरका मांस खिलाते हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्।
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन् मृतः॥
मूलम्
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्।
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन् मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागतका भरण-पोषण नहीं करता—वह जीता हुआ भी मुर्देके समान ही है!॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः।
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः॥
मूलम्
तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः।
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंसके भयसे सदा उद्विग्नचित्त रहनेके कारण हम आपकी सेवा करनेमें असमर्थ रहे॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः।
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्॥
मूलम्
तत् क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः।
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंसने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परंतु हम परतन्त्र रहनेके कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके’॥ ९॥
श्लोक-१०
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा।
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम्॥
मूलम्
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा।
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपनी लीलासे मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरिकी इस वाणीसे मोहित हो देवकी-वसुदेवने उन्हें गोदमें उठा लिया और हृदयसे चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ।
न किंचिदूचतू राजन् बाष्पकण्ठौ विमोहितौ॥
मूलम्
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ।
न किंचिदूचतू राजन् बाष्पकण्ठौ विमोहितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे स्नेह-पाशसे बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओंकी धारासे उनका अभिषेक करने लगे। यहाँतक कि आँसुओंके कारण गला रुँध जानेसे वे कुछ बोल भी न सके॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकीसुतः।
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम्॥
मूलम्
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकीसुतः।
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार अपने माता-पिताको सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेनको यदुवंशियोंका राजा बना दिया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आह चास्मान् महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि।
ययातिशापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने॥
मूलम्
आह चास्मान् महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि।
ययातिशापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने॥
अनुवाद (हिन्दी)
और उनसे कहा—‘महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हमलोगोंपर शासन कीजिये। राजा ययातिका शाप होनेके कारण यदुवंशी राजसिंहासनपर नहीं बैठ सकते; (परंतु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको कोई दोष न होगा॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः।
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः॥
मूलम्
मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः।
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियोंके बारेमें तो कहना ही क्या है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसंबन्धान् दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्।
यदुवृष्ण्यन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान्॥
मूलम्
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसंबन्धान् दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्।
यदुवृष्ण्यन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान्॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्।
न्यवासयत् स्वगेहेषु वित्तैः संतर्प्य विश्वकृत्॥
मूलम्
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्।
न्यवासयत् स्वगेहेषु वित्तैः संतर्प्य विश्वकृत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे विश्वके विधाता हैं। उन्होंने, जो कंसके भयसे व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु , दाशार्ह और कुकुर आदि वंशोंमें उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियोंको ढूँढ़-ढूँढ़कर बुलवाया। उन्हें घरसे बाहर रहनेमें बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान्ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें खूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरोंमें बसा दिया॥ १५-१६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णसंकर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः।
गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः॥
मूलम्
कृष्णसंकर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः।
गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीके बाहुबलसे सुरक्षित थे। उनकी कृपासे उन्हें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरोंमें आनन्दसे विहार करने लगे॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्।
नित्यं प्रमुदितं श्रीमत् सदयस्मितवीक्षणम्॥
मूलम्
वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्।
नित्यं प्रमुदितं श्रीमत् सदयस्मितवीक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका वदन आनन्दका सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलानेवाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उसपर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र प्रवयसोऽप्यासन् युवानोऽतिबलौजसः।
पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः॥
मूलम्
तत्र प्रवयसोऽप्यासन् युवानोऽतिबलौजसः।
पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मथुराके वृद्ध पुरुष भी युवकोंके समान अत्यन्त बलवान् और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रोंके दोनोंसे बारंबार भगवान्के मुखारविन्दका अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ नन्दं समासाद्य भगवान् देवकीसुतः।
संकर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः॥
मूलम्
अथ नन्दं समासाद्य भगवान् देवकीसुतः।
संकर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबाके पास आये और गले लगनेके बाद उनसे कहने लगे—॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्।
पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि॥
मूलम्
पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्।
पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! आपने और माँ यशोदाने बड़े स्नेह और दुलारसे हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तानपर अपने शरीरसे भी अधिक स्नेह करते हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्।
शिशून् बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे॥
मूलम्
स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्।
शिशून् बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्हें पालन-पोषण न कर सकनेके कारण स्वजन-सम्बन्धियोंने त्याग दिया है, उन बालकोंको जो लोग अपने पुत्रके समान लाड़-प्यारसे पालते हैं, वे ही वास्तवमें उनके माँ-बाप हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।
ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्॥
मूलम्
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।
ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! अब आपलोग व्रजमें जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेहके कारण आपलोगोंको बहुत दुःख होगा। यहाँके सुहृद्-सम्बन्धियोंको सुखी करके हम आपलोगोंसे मिलनेके लिये आयेंगे’॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सान्त्वय्य भगवान् नन्दं सव्रजमच्युतः।
वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम्॥
मूलम्
एवं सान्त्वय्य भगवान् नन्दं सव्रजमच्युतः।
वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंको इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदरके साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओंके बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः।
पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ॥
मूलम्
इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः।
पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की बात सुनकर नन्द-बाबाने प्रेमसे अधीर होकर दोनों भाइयोंको गले लगा लिया और फिर नेत्रोंमें आँसू भरकर गोपोंके साथ व्रजके लिये प्रस्थान किया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ शूरसुतो राजन् पुत्रयोः समकारयत्।
पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद् द्विजसंस्कृतिम्॥
मूलम्
अथ शूरसुतो राजन् पुत्रयोः समकारयत्।
पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद् द्विजसंस्कृतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन! इसके बाद वसुदेवजीने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणोंसे दोनों पुत्रोंका विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्योऽदाद् दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः।
स्वलङ्कृतेभ्यः संपूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः॥
मूलम्
तेभ्योऽदाद् दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः।
स्वलङ्कृतेभ्यः संपूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने विविध प्रकारके वस्त्र और आभूषणोंसे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ोंवाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गलेमें सोनेकी माला पहने हुए थीं तथा और भी बहुतसे आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रोंकी मालाओंसे विभूषित थीं॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः।
ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः॥
मूलम्
याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः।
ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामति वसुदेवजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके जन्म-नक्षत्रमें जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंसने अन्यायसे छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणोंको वे फिरसे दीं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ।
गर्गाद् यदुकुलाचार्याद् गायत्रं व्रतमास्थितौ॥
मूलम्
ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ।
गर्गाद् यदुकुलाचार्याद् गायत्रं व्रतमास्थितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार यदुवंशके आचार्य गर्गजीसे संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्वको प्राप्त हुए। उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करनेके लिये उसे नियमतः स्वीकार किया॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ।
नान्यसिद्धामलज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः॥
मूलम्
प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ।
नान्यसिद्धामलज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण और बलराम जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हींसे निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्यकी-सी लीला करके उसे छिपा रखा था॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईहितैः चेष्टाभिः ॥ ३०-३३ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः।
काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तीपुरवासिनम्॥
मूलम्
अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः।
काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तीपुरवासिनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वे दोनों गुरुकुलमें निवास करनेकी इच्छासे काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनिके पास गये,जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्।
ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ॥
मूलम्
यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्।
ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजीके पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओंको सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरुकी उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगोंके सामने रखते हुए बड़ी भक्तिसे इष्टदेवके समान उनकी सेवा करने लगे॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः।
प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः॥
मूलम्
तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः।
प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभावसे युक्त सेवासे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों भाइयोंको छहों अंग और उपनिषदोंके सहित सम्पूर्ण वेदोंकी शिक्षा दी॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा।
तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं चड्विधाम्॥
मूलम्
सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान् न्यायपथांस्तथा।
तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं चड्विधाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा मन्त्र और देवताओंके ज्ञानके साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदोंका तात्पर्य बतलानेवाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदिकी भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और आश्रय—इन छः भेदोंसे युक्त राजनीतिका भी अध्ययन कराया॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न्यायपथान् मीमांसान्यायान् आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यां षड्विधां सन्धिविग्रहयानासनद्वेधीभावसमाश्रयरूपाम् ॥ ३४ - ४६ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ।
सकृन्निगदमात्रेण तौ संजगृहतुर्नृप॥
मूलम्
सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ।
सकृन्निगदमात्रेण तौ संजगृहतुर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओंके प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्यका-सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजीके केवल एक बार कहनेमात्रसे सारी विद्याएँ सीख लीं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।
गुरुदक्षिणयाऽऽचार्यं छन्दयामासतुर्नृप॥
मूलम्
अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः।
गुरुदक्षिणयाऽऽचार्यं छन्दयामासतुर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल चौंसठ दिन-रातमें ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयोंने चौंसठों कलाओंका* ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होनेपर उन्होंने सान्दीपनि मुनिसे प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें’॥ ३६॥
पादटिप्पनी
- चौंसठ कलाएँ ये हैं—
१ गानविद्या, २ वाद्य—भाँति-भाँतिके बाजे बजाना, ३ नृत्य, ४ नाट्य, ५ चित्रकारी, ६ बेल-बूटे बनाना, ७ चावल और पुष्पादिसे पूजाके उपहारकी रचना करना, ८ फूलोंकी सेज बनाना, ९ दाँत, वस्त्र और अंगोंको रँगना, १० मणियोंकी फर्श बनाना, ११ शय्या-रचना, १२ जलको बाँध देना, १३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, १४ हार-माला आदि बनाना, १५ कान और चोटीके फूलोंके गहने बनाना, १६ कपड़े और गहने बनाना, १७ फूलोंके आभूषणोंसे शृंगार करना, १८ कानोंके पत्तोंकी रचना करना, १९ सुगन्धित वस्तुएँ—इत्र, तैल आदि बनाना, २० इन्द्रजाल—जादूगरी, २१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना, २२ हाथकी फुर्तीके काम, २३ तरह-तरहकी खानेकी वस्तुएँ बनाना, २४ तरह-तरहके पीनेके पदार्थ बनाना, २५ सूईका काम, २६ कठपुतली बनाना, नचाना, २७ पहेली, २८ प्रतिमा आदि बनाना, २९ कूटनीति, ३० ग्रन्थोंके पढ़ानेकी चातुरी, ३१ नाटक, आख्यायिका आदिकी रचना करना, ३२ समस्यापूर्ति करना, ३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना, ३४ गलीचे, दरी आदि बनाना, ३५ बढ़ईकी कारीगरी, ३६ गृह आदि बनानेकी कारीगरी, ३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नोंकी परीक्षा, ३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना, ३९ मणियोंके रंगको पहचानना, ४० खानोंकी पहचान, ४१ वृक्षोंकी चिकित्सा, ४२ भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदिको लड़ानेकी रीति, ४३ तोता-मैना आदिकी बोलियाँ बोलना, ४४ उच्चाटनकी विधि, ४५ केशोंकी सफाईका कौशल, ४६ मुट्ठीकी चीज या मनकी बात बता देना, ४७ म्लेच्छ-काव्योंका समझ लेना, ४८ विभिन्न देशोंकी भाषाका ज्ञान, ४९ शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नोंके उत्तरमें शुभाशुभ बतलाना, ५०नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना, ५१ रत्नोंको नाना प्रकारके आकारोंमें काटना, ५२ सांकेतिक भाषा बनाना, ५३ मनमें कटकरचना करना, ५४ नयी-नयी बातें निकालना, ५५ छलसे काम निकालना, ५६ समस्त कोशोंका ज्ञान, ५७ समस्त छन्दोंका ज्ञान, ५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलनेकी विद्या, ५९ द्यूत क्रीड़ा, ६० दूरके मनुष्य या वस्तुओंका आकर्षण कर लेना, ६१ बालकोंके खेल, ६२ मन्त्रविद्या, ६३ विजय प्राप्त करानेवाली विद्या, ६४ वेताल आदिको वशमें रखनेकी विद्या।
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं
संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्।
सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं
बालं प्रभासे वरयाम्बभूव ह॥
मूलम्
द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं
संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्।
सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं
बालं प्रभासे वरयाम्बभूव ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! सान्दीपनि मुनिने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धिका अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नीसे सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्रमें हमारा बालक समुद्रमें डूबकर मर गया था, उसे तुमलोग ला दो’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं
प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ।
वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं
सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः॥
मूलम्
तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं
प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ।
वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं
सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजी और श्रीकृष्णका पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरुजीकी आज्ञा स्वीकार की और रथपर सवार होकर प्रभासक्षेत्रमें गये। वे समुद्रतटपर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्।
योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा॥
मूलम्
तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्।
योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने समुद्रसे कहा—‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगोंसे हमारे जिस गुरुपुत्रको बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो’॥ ३९॥
श्लोक-४०
मूलम् (वचनम्)
समुद्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्।
अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः॥
मूलम्
नैवाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्।
अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यवेषधारी समुद्रने कहा—‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालकको नहीं लिया है। मेरे जलमें पंचजन नामका एक बड़ा भारी दैत्य जातिका असुर शंखके रूपमें रहता है। अवश्य ही उसीने वह बालक चुरा लिया होगा’॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः।
जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम्॥
मूलम्
आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः।
जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रकी बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जलमें जा घुसे और शंखासुरको मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेटमें नहीं मिला॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्।
ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम्॥
मूलम्
तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्।
ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम्॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः।
शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः॥
मूलम्
गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः।
शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्।
उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्।
लीलामनुष्य हे विष्णो युवयोः करवाम किम्॥
मूलम्
तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्।
उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम्।
लीलामनुष्य हे विष्णो युवयोः करवाम किम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसके शरीरका शंख लेकर भगवान् रथपर चले आये। वहाँसे बलरामजीके साथ श्रीकृष्णने यमराजकी प्रिय पुरी संयमनीमें जाकर अपना शंख बजाया। शंखका शब्द सुनकर सारी प्रजाका शासन करनेवाले यमराजने उनका स्वागत किया और भक्तिभावसे भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रतासे झुककर समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘लीलासे ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनोंकी क्या सेवा करूँ?’॥ ४२—४४॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्।
आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः॥
मूलम्
गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्।
आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धनके अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्मपर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ।
दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः॥
मूलम्
तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ।
दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमराजने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंशशिरोमणी भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी उस बालकको लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेवको सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें’॥ ४६॥
श्लोक-४७
मूलम् (वचनम्)
गुरुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्यक् संपादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः।
को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते॥
मूलम्
सम्यक् संपादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः।
को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुजीने कहा—‘बेटा! तुम दोनोंने भलीभाँति गुरुदक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमोंका गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है?॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
को नु इति युष्मद्विधगुरोः युष्मद्विधानां गुरोः ॥ ४७-५० ॥
इति श्रीमद्भागवत महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च॥
मूलम्
गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरो! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकोंको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोकमें सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो’॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा।
आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै॥
मूलम्
गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा।
आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा परीक्षित्! फिर गुरुजीसे आज्ञा लेकर वायुके समान वेग और मेघके समान शब्दवाले रथपर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
समनन्दन् प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ।
अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव॥
मूलम्
समनन्दन् प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ।
अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव॥
अनुवाद (हिन्दी)
मथुराकी प्रजा बहुत दिनोंतक श्रीकृष्ण और बलरामको न देखनेसे अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्दमें मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो॥ ५०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४५॥