[चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानोंका तथा कंसका उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं चर्चितसङ्कल्पो भगवान् मधुसूदनः।
आससादाथ चाणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः॥
मूलम्
एवं चर्चितसङ्कल्पो भगवान् मधुसूदनः।
आससादाथ चाणूरं मुष्टिकं रोहिणीसुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने चाणूर आदिके वधका निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बद दिये जानेपर श्रीकृष्ण चाणूरसे और बलरामजी मुष्टिकसे जा भिड़े॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्भ्यामेव च पादयोः।
विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया॥
मूलम्
हस्ताभ्यां हस्तयोर्बद्ध्वा पद्भ्यामेव च पादयोः।
विचकर्षतुरन्योन्यं प्रसह्य विजिगीषया॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे लोग एक-दूसरेको जीत लेनेकी इच्छासे हाथसे हाथ बाँधकर और पैरोंमें पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरत्नी द्वे अरत्निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी।
शिरः शीर्ष्णोरसोरस्तावन्योन्यमभिजघ्नतुः॥
मूलम्
अरत्नी द्वे अरत्निभ्यां जानुभ्यां चैव जानुनी।
शिरः शीर्ष्णोरसोरस्तावन्योन्यमभिजघ्नतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे पंजोंसे पंजे, घुटनोंसे घुटने, माथेसे माथा और छातीसे छाती भिड़ाकर एक-दूसरेपर चोट करने लगे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिभ्रामणविक्षेपपरिरम्भावपातनैः।
उत्सर्पणापसर्पणैश्चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम्॥
मूलम्
परिभ्रामणविक्षेपपरिरम्भावपातनैः।
उत्सर्पणापसर्पणैश्चान्योन्यं प्रत्यरुन्धताम्॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थापनैरुन्नयनैश्चालनैः स्थापनैरपि।
परस्परं जिगीषन्तावपचक्रतुरात्मनः॥
मूलम्
उत्थापनैरुन्नयनैश्चालनैः स्थापनैरपि।
परस्परं जिगीषन्तावपचक्रतुरात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदारको पकड़कर इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, जोरसे जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरेको रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदारको पछाड़ देनेकी चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरोंमें दबाकर उठा लेता। हाथोंसे पकड़कर ऊपर ले जाता। गलेमें लिपट जानेपर ढकेल देता और आवश्यकता होनेपर हाथ-पाँव इकट्ठे करके गाँठ बाँध देता॥ ४-५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् बलाबलवद्युद्धं समेताः सर्वयोषितः।
ऊचुः परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः॥
मूलम्
तद् बलाबलवद्युद्धं समेताः सर्वयोषितः।
ऊचुः परस्परं राजन् सानुकम्पा वरूथशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस दंगलको देखनेके लिये नगरकी बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपसमें बातचीत करने लगीं—॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम्।
ये बलाबलवद्युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः॥
मूलम्
महानयं बताधर्म एषां राजसभासदाम्।
ये बलाबलवद्युद्धं राज्ञोऽन्विच्छन्ति पश्यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँ राजा कंसके सभासद् बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेदकी बात है कि राजाके सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकोंके युद्धका अनुमोदन करते हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व वज्रसारसर्वाङ्गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ।
क्व चातिसुकुमाराङ्गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ॥
मूलम्
क्व वज्रसारसर्वाङ्गौ मल्लौ शैलेन्द्रसन्निभौ।
क्व चातिसुकुमाराङ्गौ किशोरौ नाप्तयौवनौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहिन! देखो, इन पहलवानोंका एक-एक अंग वज्रके समान कठोर है। ये देखनेमें बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इनकी किशोरावस्था है। इनका एक-एक अंग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे?॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत्।
यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेन्न स्थेयं तत्र कर्हिचित्॥
मूलम्
धर्मव्यतिक्रमो ह्यस्य समाजस्य ध्रुवं भवेत्।
यत्राधर्मः समुत्तिष्ठेन्न स्थेयं तत्र कर्हिचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जितने लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य-अवश्य धर्मोल्लंघनका पाप लगेगा। सखी! अब हमें भी यहाँसे चल देना चाहिये। जहाँ अधर्मकी प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहे; यही शास्त्रका नियम है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषाननुस्मरन्।
अब्रुवन् विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते॥
मूलम्
न सभां प्रविशेत् प्राज्ञः सभ्यदोषाननुस्मरन्।
अब्रुवन् विब्रुवन्नज्ञो नरः किल्बिषमश्नुते॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान् पुरुषको सभासदोंके दोषोंको जानते हुए सभामें जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणोंको कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना—ये तीनों ही बातें मनुष्यको दोषभागी बनाती हैं॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
बिब्रुवन् विपरीतं ब्रुवन् ॥ १०-१२ ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम्।
वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः॥
मूलम्
वल्गतः शत्रुमभितः कृष्णस्य वदनाम्बुजम्।
वीक्ष्यतां श्रमवार्युप्तं पद्मकोशमिवाम्बुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रुके चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुखपर पसीनेकी बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमलकोशपर जलकी बूँदें॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम्।
मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम्॥
मूलम्
किं न पश्यत रामस्य मुखमाताम्रलोचनम्।
मुष्टिकं प्रति सामर्षं हाससंरम्भशोभितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखियो! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलरामजीका मुख मुष्टिकके प्रति क्रोधके कारण कुछ-कुछ लाल लोचनोंसे युक्त हो रहा है! फिर भी हास्यका अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्ग-
गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः।
गाः पालयन् सहबलः क्वणयंश्च वेणुं
विक्रीडयाञ्चति गिरित्ररमार्चिताङ्घ्रिः॥
मूलम्
पुण्या बत व्रजभुवो यदयं नृलिङ्ग-
गूढः पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्यः।
गाः पालयन् सहबलः क्वणयंश्च वेणुं
विक्रीडयाञ्चति गिरित्ररमार्चिताङ्घ्रिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्यके वेषमें छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान् शंकर और लक्ष्मीजी जिनके चरणोंकी पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पोंकी माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजीके साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरहके खेल खेलते हुए आनन्दसे विचरते हैं॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नृलिङ्गगूढः नरशरीरगूढः गिरित्रो रुद्रः अञ्चति गच्छति ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं
लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्।
दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप-
मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य॥
मूलम्
गोप्यस्तपः किमचरन् यदमुष्य रूपं
लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम्।
दृग्भिः पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप-
मेकान्तधाम यशसः श्रिय ऐश्वरस्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखी! पता नहीं, गोपियोंने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रोंके दोनोंसे नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरीका पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्यका सार! संसारमें या उससे परे किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है, फिर बढ़कर होनेकी तो बात ही क्या है! सो भी किसीके सँवारने-सजानेसे नहीं, गहने-कपड़ेसे भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूपको देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसीके आश्रित हैं। सखियो! परन्तु इसका दर्शन तो औरोंके लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियोंके ही भाग्यमें बदा है॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनन्यसिद्धं स्वाभाविकम् अनुसवेति अनुसन्ध्यं प्रतिक्षणमित्यर्थः ॥ १४ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेङ्खेङ्खनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः॥
मूलम्
या दोहनेऽवहनने मथनोपलेप-
प्रेङ्खेङ्खनार्भरुदितोक्षणमार्जनादौ।
गायन्ति चैनमनुरक्तधियोऽश्रुकण्ठ्यो
धन्या व्रजस्त्रिय उरुक्रमचित्तयानाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखी! व्रजकी गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्णमें ही चित्त लगा रहनेके कारण प्रेमभरे हृदयसे, आँसुओंके कारण गद्गद कण्ठसे वे इन्हींकी लीलाओंका गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकोंको झूला झुलाते, रोते हुए बालकोंको चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरोंको झाड़ते-बुहारते—कहाँतक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्णके गुणोंके गानमें ही मस्त रहती हैं॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रेङ्खोलने डोलाविहारे ॥ १५ – १७ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रातर्व्रजाद् व्रजत आविशतश्च सायं
गोभिः समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम्।
निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः
पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम्॥
मूलम्
प्रातर्व्रजाद् व्रजत आविशतश्च सायं
गोभिः समं क्वणयतोऽस्य निशम्य वेणुम्।
निर्गम्य तूर्णमबलाः पथि भूरिपुण्याः
पश्यन्ति सस्मितमुखं सदयावलोकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओंको चरानेके लिये व्रजसे वनमें जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रजमें लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वरसे बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घरका सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्तेमें दौड़ आती हैं और श्रीकृष्णका मन्द-मन्द मुसकान एवं दयाभरी चितवनसे युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं’॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः।
शत्रुं हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ॥
मूलम्
एवं प्रभाषमाणासु स्त्रीषु योगेश्वरो हरिः।
शत्रुं हन्तुं मनश्चक्रे भगवान् भरतर्षभ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशशिरोमणे! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने मन-ही-मन शत्रुको मार डालनेका निश्चय किया॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभयाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ।
पितरावन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम्॥
मूलम्
सभयाः स्त्रीगिरः श्रुत्वा पुत्रस्नेहशुचाऽऽतुरौ।
पितरावन्वतप्येतां पुत्रयोरबुधौ बलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंकी ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे*। वे पुत्रस्नेहवश शोकसे विह्वल हो गये। उनके हृदयमें बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रोंके बल-वीर्यको नहीं जानते थे॥ १८॥
पादटिप्पनी
- स्त्रियाँ जहाँ बातें कर रही थीं, वहाँसे निकट ही वसुदेव-देवकी कैद थे, अतः वे उनकी बातें सुन सके।
श्रीसुदर्शनसूरिः
पितरौ देवकीवसुदेवौ ॥ १८ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैस्तैर्नियुद्धविधिभिर्विविधैरच्युतेतरौ।
युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ॥
मूलम्
तैस्तैर्नियुद्धविधिभिर्विविधैरच्युतेतरौ।
युयुधाते यथान्योन्यं तथैव बलमुष्टिकौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण और उनसे भिड़नेवाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकारके दाँव-पेंचका प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अच्युतेतरौ अच्युतचाणूरौ ॥ १९-३३ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवद्गात्रनिष्पातैर्वज्रनिष्पेषनिष्ठुरैः।
चाणूरो भज्यमानाङ्गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह॥
मूलम्
भगवद्गात्रनिष्पातैर्वज्रनिष्पेषनिष्ठुरैः।
चाणूरो भज्यमानाङ्गो मुहुर्ग्लानिमवाप ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के अंग-प्रत्यंग वज्रसे भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़से चाणूरकी रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके शरीरके सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ।
भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत॥
मूलम्
स श्येनवेग उत्पत्य मुष्टीकृत्य करावुभौ।
भगवन्तं वासुदेवं क्रुद्धो वक्षस्यबाधत॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाजकी तरह झपटा और दोनों हाथोंके घूँसे बाँधकर उसने भगवान् श्रीकृष्णकी छातीपर प्रहार किया॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाचलत्तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः।
बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः॥
मूलम्
नाचलत्तत्प्रहारेण मालाहत इव द्विपः।
बाह्वोर्निगृह्य चाणूरं बहुशो भ्रामयन् हरिः॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीणजीवितम्।
विस्रस्ताकल्पकेशस्रगिन्द्रध्वज इवापतत्॥
मूलम्
भूपृष्ठे पोथयामास तरसा क्षीणजीवितम्।
विस्रस्ताकल्पकेशस्रगिन्द्रध्वज इवापतत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु उसके प्रहारसे भगवान् तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलोंके गजरेकी मारसे गजराज। उन्होंने चाणूरकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अन्तरिक्षमें बड़े वेगसे कई बार घुमाकर धरतीपर दे मारा। परीक्षित्! चाणूरके प्राण तो घुमानेके समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज (इन्द्रकी पूजाके लिये खड़े किये गये बड़े झंडे) के समान गिर पड़ा॥ २२-२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै।
बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम्॥
मूलम्
तथैव मुष्टिकः पूर्वं स्वमुष्ट्याभिहतेन वै।
बलभद्रेण बलिना तलेनाभिहतो भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार मुष्टिकने भी पहले बलरामजीको एक घूँसा मारा। इसपर बली बलरामजीने उसे बड़े जोरसे एक तमाचा जड़ दिया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवेपितः स रुधिरमुद्वमन् मुखतोऽर्दितः।
व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्घ्रिपः॥
मूलम्
प्रवेपितः स रुधिरमुद्वमन् मुखतोऽर्दितः।
व्यसुः पपातोर्व्युपस्थे वाताहत इवाङ्घ्रिपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तमाचा लगनेसे वह काँप उठा और आँधीसे उखड़े हुए वृक्षके समान अत्यन्त व्यथित और अन्तमें प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः।
अवधील्लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना॥
मूलम्
ततः कूटमनुप्राप्तं रामः प्रहरतां वरः।
अवधील्लीलया राजन् सावज्ञं वाममुष्टिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! इसके बाद योद्धाओंमें श्रेष्ठ भगवान् बलरामजीने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवानको खेल-खेलमें ही बायें हाथके घूँसेसे उपेक्षापूर्वक मार डाला॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्ह्येव हि शलः कृष्णपदापहतशीर्षकः।
द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः॥
मूलम्
तर्ह्येव हि शलः कृष्णपदापहतशीर्षकः।
द्विधा विदीर्णस्तोशलक उभावपि निपेततुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय भगवान् श्रीकृष्णने पैरकी ठोकरसे शलका सिर धड़से अलग कर दिया और तोशलको तिनकेकी तरह चीरकर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते।
शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः॥
मूलम्
चाणूरे मुष्टिके कूटे शले तोशलके हते।
शेषाः प्रदुद्रुवुर्मल्लाः सर्वे प्राणपरीप्सवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल—ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचानेके लिये स्वयं वहाँसे भाग खड़े हुए॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपान् वयस्यानाकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः।
वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ॥
मूलम्
गोपान् वयस्यानाकृष्य तैः संसृज्य विजह्रतुः।
वाद्यमानेषु तूर्येषु वल्गन्तौ रुतनूपुरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके भाग जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने समवयस्क ग्वालबालोंको खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरी ध्वनिके साथ अपने नूपुरोंकी झनकारको मिलाकर मल्लक्रीडा—कुश्तीके खेल करने लगे॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः।
ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति॥
मूलम्
जनाः प्रजहृषुः सर्वे कर्मणा रामकृष्णयोः।
ऋते कंसं विप्रमुख्याः साधवः साधु साध्विति॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी इस अद्भुत लीलाको देखकर सभी दर्शकोंको बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है’—इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परन्तु कंसको इससे बड़ा दुःख हुआ। वह और भी चिढ़ गया॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट्।
न्यवारयत् स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह॥
मूलम्
हतेषु मल्लवर्येषु विद्रुतेषु च भोजराट्।
न्यवारयत् स्वतूर्याणि वाक्यं चेदमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंसने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकोंको यह आज्ञा दी—॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात्।
धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम्॥
मूलम्
निःसारयत दुर्वृत्तौ वसुदेवात्मजौ पुरात्।
धनं हरत गोपानां नन्दं बध्नीत दुर्मतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे, वसुदेवके इन दुश्चरित्र लड़कोंको नगरसे बाहर निकाल दो। गोपोंका सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्दको कैद कर लो॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः।
उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः॥
मूलम्
वसुदेवस्तु दुर्मेधा हन्यतामाश्वसत्तमः।
उग्रसेनः पिता चापि सानुगः परपक्षगः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होनेपर भी अपने अनुयायियोंके साथ शत्रुओंसे मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोड़ो’॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः।
लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्गमारुहत्॥
मूलम्
एवं विकत्थमाने वै कंसे प्रकुपितोऽव्ययः।
लघिम्नोत्पत्य तरसा मञ्चमुत्तुङ्गमारुहत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्तीसे वेगपूर्वक उछलकर लीलासे ही उसके ऊँचे मंचपर जा चढ़े॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
लघिम्ना लाघवेन ॥ ३४-३५ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात्।
मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी॥
मूलम्
तमाविशन्तमालोक्य मृत्युमात्मन आसनात्।
मनस्वी सहसोत्थाय जगृहे सोऽसिचर्मणी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनस्वी कंसने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान् श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासनसे उठ खड़ा हुआ और हाथमें ढाल तथा तलवार उठा ली॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं खड्गपाणिं विचरन्तमाशु
श्येनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे।
समग्रहीद् दुर्विषहोग्रतेजा
यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य॥
मूलम्
तं खड्गपाणिं विचरन्तमाशु
श्येनं यथा दक्षिणसव्यमम्बरे।
समग्रहीद् दुर्विषहोग्रतेजा
यथोरगं तार्क्ष्यसुतः प्रसह्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथमें तलवार लेकर वह चोट करनेका अवसर ढूँढ़ता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाशमें उड़ते हुए बाजके समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परन्तु भगवान्का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तासुतः कश्यपपुत्रो गरुडः ॥ ३६-४६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीटं
निपात्य रङ्गोपरि तुङ्गमञ्चात् ।
तस्योपरिष्टात् स्वयमब्जनाभः
पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः॥
मूलम्
प्रगृह्य केशेषु चलत्किरीटं
निपात्य रङ्गोपरि तुङ्गमञ्चात् ।
तस्योपरिष्टात् स्वयमब्जनाभः
पपात विश्वाश्रय आत्मतन्त्रः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय कंसका मुकुट गिर गया और भगवान्ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंचसे रंगभूमिमें गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्वके आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सम्परेतं विचकर्ष भूमौ
हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः।
हाहेति शब्दः सुमहांस्तदाभू-
दुदीरितः सर्वजनैनर्रेन्द्र॥
मूलम्
तं सम्परेतं विचकर्ष भूमौ
हरिर्यथेभं जगतो विपश्यतः।
हाहेति शब्दः सुमहांस्तदाभू-
दुदीरितः सर्वजनैनर्रेन्द्र॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके कूदते ही कंसकी मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण कंसकी लाशको धरतीपर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथीको घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँहसे ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं
पिबन् वदन् वा विचरन् स्वपञ्छ्वसन्।
ददर्श चक्रायुधमग्रतो य-
स्तदेव रूपं दुरवापमाप॥
मूलम्
स नित्यदोद्विग्नधिया तमीश्वरं
पिबन् वदन् वा विचरन् स्वपञ्छ्वसन्।
ददर्श चक्रायुधमग्रतो य-
स्तदेव रूपं दुरवापमाप॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहटके साथ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और साँस लेते—सब समय अपने सामने चक्र हाथमें लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तनके फलस्वरूप—वह चाहे द्वेषभावसे ही क्यों न किया गया हो—उसे भगवान्के उसी रूपकी प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियोंके लिये भी कठिन है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कङ्कन्यग्रोधकादयः।
अभ्यधावन्नभिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः॥
मूलम्
तस्यानुजा भ्रातरोऽष्टौ कङ्कन्यग्रोधकादयः।
अभ्यधावन्नभिक्रुद्धा भ्रातुर्निर्वेशकारिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंसके कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाईका बदला लेनेके लिये क्रोधसे आग बबूले होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी ओर दौड़े॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तान् रोहिणीसुतः।
अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः॥
मूलम्
तथातिरभसांस्तांस्तु संयत्तान् रोहिणीसुतः।
अहन् परिघमुद्यम्य पशूनिव मृगाधिपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् बलरामजीने देखा कि वे बड़े वेगसे युद्धके लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओंको मार डालता है॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः।
पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः॥
मूलम्
नेदुर्दुन्दुभयो व्योम्नि ब्रह्मेशाद्या विभूतयः।
पुष्पैः किरन्तस्तं प्रीताः शशंसुर्ननृतुः स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान्के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्दसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः।
तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः॥
मूलम्
तेषां स्त्रियो महाराज सुहृन्मरणदुःखिताः।
तत्राभीयुर्विनिघ्नन्त्यः शीर्षाण्यश्रुविलोचनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! कंस और उसके भाइयोंकी स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनोंकी मृत्युसे अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखोंमें आँसू भरे वहाँ आयीं॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शयानान् वीरशय्यायां पतीनालिङ्ग्य शोचतीः।
विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः॥
मूलम्
शयानान् वीरशय्यायां पतीनालिङ्ग्य शोचतीः।
विलेपुः सुस्वरं नार्यो विसृजन्त्यो मुहुः शुचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीरशय्यापर सोये हुए अपने पतियोंसे लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वरसे विलाप करने लगीं॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल।
त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः॥
मूलम्
हा नाथ प्रिय धर्मज्ञ करुणानाथवत्सल।
त्वया हतेन निहता वयं ते सगृहप्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्युसे हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ।
न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्गला॥
मूलम्
त्वया विरहिता पत्या पुरीयं पुरुषर्षभ।
न शोभते वयमिव निवृत्तोत्सवमङ्गला॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरीके आप ही स्वामी थे। आपके विरहसे इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम्।
तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम्॥
मूलम्
अनागसां त्वं भूतानां कृतवान् द्रोहमुल्बणम्।
तेनेमां भो दशां नीतो भूतध्रुक् को लभेत शम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वामी! आपने निरपराध प्राणियोंके साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसीसे आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत्के जीवोंसे द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है?॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भूतध्रुक् भूतद्रोही शं सुखम् ॥ ४७ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषामिह भूतानामेष हि प्रभवाप्ययः।
गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते॥
मूलम्
सर्वेषामिह भूतानामेष हि प्रभवाप्ययः।
गोप्ता च तदवध्यायी न क्वचित् सुखमेधते॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये भगवान् श्रीकृष्ण जगत्के समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इनका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता॥ ४८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अवध्यायी अवज्ञाकारी ॥ ४८-५१ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्द्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४४ ॥
श्लोक-४९
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजयोषित आश्वास्य भगवाल्ँलोकभावनः।
यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत्॥
मूलम्
राजयोषित आश्वास्य भगवाल्ँलोकभावनः।
यामाहुर्लौकिकीं संस्थां हतानां समकारयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसारके जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियोंको ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीतिके अनुसार मरनेवालोंका जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात्।
कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसाऽऽस्पृश्य पादयोः॥
मूलम्
मातरं पितरं चैव मोचयित्वाथ बन्धनात्।
कृष्णरामौ ववन्दाते शिरसाऽऽस्पृश्य पादयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने जेलमें जाकर अपने माता-पिताको बन्धनसे छुड़ाया और सिरसे स्पर्श करके उनके चरणोंकी वन्दना की॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ।
कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्कितौ॥
मूलम्
देवकी वसुदेवश्च विज्ञाय जगदीश्वरौ।
कृतसंवन्दनौ पुत्रौ सस्वजाते न शङ्कितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु अपने पुत्रोंके प्रणाम करनेपर भी देवकी और वसुदेवने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदयसे नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वरको पुत्र कैसे समझें॥ ५१॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कंसवधो नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४४॥