४३ कुवलयापीडवधः

[त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

कुवलयापीडका उद्धार और अखाड़ेमें प्रवेश

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप।
मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः॥

मूलम्

अथ कृष्णश्च रामश्च कृतशौचौ परन्तप।
मल्लदुन्दुभिनिर्घोषं श्रुत्वा द्रष्टुमुपेयतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—काम-क्रोधादि शत्रुओंको पराजित करनेवाले परीक्षित्! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो दंगलके अनुरूप नगाड़ेकी ध्वनि सुनकर रंगभूमि देखनेके लिये चल पड़े॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अम्बष्ठप्रचोदितं हस्तिपप्रचोदितम् ॥ १-६ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

रङ्गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम्।
अपश्यत् कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम्॥

मूलम्

रङ्गद्वारं समासाद्य तस्मिन् नागमवस्थितम्।
अपश्यत् कुवलयापीडं कृष्णोऽम्बष्ठप्रचोदितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने रंग-भूमिके दरवाजेपर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामका हाथी खड़ा है॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बद्‍ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान्।
उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया॥

मूलम्

बद्‍ध्वा परिकरं शौरिः समुह्य कुटिलालकान्।
उवाच हस्तिपं वाचा मेघनादगभीरया॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघके समान गम्भीर वाणीसे महावतको ललकारकर कहा॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम माँ चिरम्।
नो चेत् सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम्॥

मूलम्

अम्बष्ठाम्बष्ठ मार्गं नौ देह्यपक्रम माँ चिरम्।
नो चेत् सकुञ्जरं त्वाद्य नयामि यमसादनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महावत, ओ महावत! हम दोनोंको रास्ता दे दे। हमारे मार्गसे हट जा। अरे, सुनता नहीं? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथीके साथ अभी तुझे यमराजके घर पहुँचाता हूँ’॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम्।
चोदयामास कृष्णाय कालान्तकयमोपमम्॥

मूलम्

एवं निर्भर्त्सितोऽम्बष्ठः कुपितः कोपितं गजम्।
चोदयामास कृष्णाय कालान्तकयमोपमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने महावतको जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोधसे तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराजके समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीडको अंकुशकी मारसे क्रुद्ध करके श्रीकृष्णकी ओर बढ़ाया॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत्।
कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्घ्रिष्वलीयत॥

मूलम्

करीन्द्रस्तमभिद्रुत्य करेण तरसाग्रहीत्।
कराद् विगलितः सोऽमुं निहत्याङ्घ्रिष्वलीयत॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुवलयापीडने भगवान‍्की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजीसे सूँड़में लपेट लिया; परन्तु भगवान् सूँड़से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरोंके बीचमें जा छिपे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

संक्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम्।
परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः॥

मूलम्

संक्रुद्धस्तमचक्षाणो घ्राणदृष्टिः स केशवम्।
परामृशत् पुष्करेण स प्रसह्य विनिर्गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीडको बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान‍्को अपनी सूँड़से टटोल लिया और पकड़ा भी; परन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपनेको उससे छुड़ा लिया॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्राणदृष्टिः हस्ताग्रे दृष्टिर्यस्य स तथोक्तः ॥ ७-१६ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम्।
विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया॥

मूलम्

पुच्छे प्रगृह्यातिबलं धनुषः पञ्चविंशतिम्।
विचकर्ष यथा नागं सुपर्ण इव लीलया॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान् उस बलवान् हाथीकी पूँछ पकड़कर खेल-खेलमें ही उसे सौ हाथतक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँपको घसीट लाते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः।
बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः॥

मूलम्

स पर्यावर्तमानेन सव्यदक्षिणतोऽच्युतः।
बभ्राम भ्राम्यमाणेन गोवत्सेनेव बालकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार घूमते हुए बछड़ेके साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ोंसे खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकड़कर उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायेंसे घूमकर उनको पकड़ना चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायेंकी ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिमुखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम्।
प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे॥

मूलम्

ततोऽभिमुखमभ्येत्य पाणिनाऽऽहत्य वारणम्।
प्राद्रवन् पातयामास स्पृश्यमानः पदे पदे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद हाथीके सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिरानेके लिये इस प्रकार उसके सामनेसे भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

स धावन्क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः।
तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत्क्षितिम्॥

मूलम्

स धावन्क्रीडया भूमौ पतित्वा सहसोत्थितः।
तं मत्वा पतितं क्रुद्धो दन्ताभ्यां सोऽहनत्क्षितिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेलमें ही पृथ्वीपर गिरनेका अभिनय किया और झट वहाँसे उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोधसे जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोरसे अपने दोनों दाँत धरतीपर मारे॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वविक्रमे प्रतिहते कुञ्जरेन्द्रोऽत्यमर्षितः।
चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा॥

मूलम्

स्वविक्रमे प्रतिहते कुञ्जरेन्द्रोऽत्यमर्षितः।
चोद्यमानो महामात्रैः कृष्णमभ्यद्रवद् रुषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कुवलयापीडका यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतोंकी प्रेरणासे वह क्रुद्ध होकर भगवान् श्रीकृष्णपर टूट पड़ा॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः।
निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले॥

मूलम्

तमापतन्तमासाद्य भगवान् मधुसूदनः।
निगृह्य पाणिना हस्तं पातयामास भूतले॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् मधुसूदनने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथसे उसकी सूँड़ पकड़कर उसे धरतीपर पटक दिया॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया।
दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः॥

मूलम्

पतितस्य पदाऽऽक्रम्य मृगेन्द्र इव लीलया।
दन्तमुत्पाट्य तेनेभं हस्तिपांश्चाहनद्धरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके गिर जानेपर भगवान‍्ने सिंहके समान खेल-ही-खेलमें उसे पैरोंसे दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हींसे हाथी और महावतोंका काम तमाम कर दिया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृतकं द्विपमुत्सृज्य दन्तपाणिः समाविशत्।
अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्मदबिन्दुभिरङ्कितः।
विरूढस्वेदकणिकावदनाम्बुरुहो बभौ॥

मूलम्

मृतकं द्विपमुत्सृज्य दन्तपाणिः समाविशत्।
अंसन्यस्तविषाणोऽसृङ्मदबिन्दुभिरङ्कितः।
विरूढस्वेदकणिकावदनाम्बुरुहो बभौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मरे हुए हाथीको छोड़कर भगवान् श्रीकृष्णने हाथमें उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमिमें प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधेपर हाथीका दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मदकी बूँदोंसे सुशोभित था और मुखकमलपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतौ गोपैः कतिपयैर्बलदेवजनार्दनौ।
रङ्गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ॥

मूलम्

वृतौ गोपैः कतिपयैर्बलदेवजनार्दनौ।
रङ्गं विविशतू राजन् गजदन्तवरायुधौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनोंके ही हाथोंमें कुवलयापीडके बड़े-बड़े दाँत शस्त्रके रूपमें सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमिमें प्रवेश किया॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः
स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां
शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।
मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां
तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो
रङ्गं गतः साग्रजः॥

मूलम्

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः
स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां
शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।
मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां
तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो
रङ्गं गतः साग्रजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ रंगभूमिमें पधारे, उस समय वे पहलवानोंको वज्रकठोर शरीर, साधारण मनुष्योंको नर-रत्न, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपोंको स्वजन, दुष्ट राजाओंको दण्ड देनेवाले शासक, माता-पिताके समान बड़े-बूढ़ोंको शिशु, कंसको मृत्यु, अज्ञानियोंको विराट्, योगियोंको परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियोंको अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद‍्भुत, शृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्तिरसका अनुभव किया)॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विराट् देहमात्रबुद्धिविषयः ॥ १७-२४ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ।
कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप॥

मूलम्

हतं कुवलयापीडं दृष्ट्वा तावपि दुर्जयौ।
कंसो मनस्व्यपि तदा भृशमुद्विविजे नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा कि इन दोनोंने कुवलयापीडको मार डाला, तब उसकी समझमें यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ रेजतू रङ्गगतौ महाभुजौ
विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ।
यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ
मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम्॥

मूलम्

तौ रेजतू रङ्गगतौ महाभुजौ
विचित्रवेषाभरणस्रगम्बरौ।
यथा नटावुत्तमवेषधारिणौ
मनः क्षिपन्तौ प्रभया निरीक्षताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण और बलरामकी बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं। पुष्पोंके हार, वस्त्र और आभूषण आदिसे उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करनेके लिये आये हों। जिनके नेत्र एक बार उनपर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्तिसे उसका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमिमें शोभायमान हुए॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना
मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप।
प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः
पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्॥

मूलम्

निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना
मञ्चस्थिता नागरराष्ट्रका नृप।
प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः
पपुर्न तृप्ता नयनैस्तदाननम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मंचोंपर जितने लोग बैठे थे—वे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे। उत्कण्ठासे भर गये। वे नेत्रोंके द्वारा उनकी मुखमाधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया।
जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः॥

मूलम्

पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया।
जिघ्रन्त इव नासाभ्यां श्लिष्यन्त इव बाहुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे हों, जिह्वासे चाट रहे हों, नासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकड़कर हृदयसे सटा रहे हों॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम्।
तद्रूपगुणमाधुर्यप्रागल्भ्यस्मारिता इव॥

मूलम्

ऊचुः परस्परं ते वै यथादृष्टं यथाश्रुतम्।
तद्रूपगुणमाधुर्यप्रागल्भ्यस्मारिता इव॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयताने मानो दर्शकोंको उनकी लीलाओंका स्मरण करा दिया और वे लोग आपसमें उनके सम्बन्धकी देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ भगवतः साक्षाद्धरेर्नारायणस्य हि।
अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि॥

मूलम्

एतौ भगवतः साक्षाद्धरेर्नारायणस्य हि।
अवतीर्णाविहांशेन वसुदेवस्य वेश्मनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये दोनों साक्षात् भगवान् नारायणके अंश हैं। इस पृथ्वीपर वसुदेवजीके घरमें अवतीर्ण हुए हैं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम्।
कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि॥

मूलम्

एष वै किल देवक्यां जातो नीतश्च गोकुलम्।
कालमेतं वसन् गूढो ववृधे नन्दवेश्मनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

[अँगुलीसे दिखलाकर] ये साँवले-सलोने कुमार देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजीने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनोंतक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजीके घरमें ही पलकर इतने बड़े हुए॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः।
अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः॥

मूलम्

पूतनानेन नीतान्तं चक्रवातश्च दानवः।
अर्जुनौ गुह्यकः केशी धेनुकोऽन्ये च तद्विधाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धेनुक आदिका तथा और भी दुष्ट दैत्योंका वध तथा यमलार्जुनका उद्धार किया है॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चक्रवातः तृणावर्त्तः ॥ २५-२८ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः।
कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः॥

मूलम्

गावः सपाला एतेन दावाग्नेः परिमोचिताः।
कालियो दमितः सर्प इन्द्रश्च विमदः कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने ही गौ और ग्वालोंको दावानलकी ज्वालासे बचाया था। कालियनागका दमन और इन्द्रका मानमर्दन भी इन्होंने ही किया था॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना।
वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम्॥

मूलम्

सप्ताहमेकहस्तेन धृतोऽद्रिप्रवरोऽमुना।
वर्षवाताशनिभ्यश्च परित्रातं च गोकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्होंने सात दिनोंतक एक ही हाथपर गिरिराज गोवर्धनको उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपातसे गोकुलको बचा लिया॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्योऽस्य नित्यमुदितहसितप्रेक्षणं मुखम्।
पश्यन्त्यो विविधांस्तापांस्तरन्ति स्माश्रमं मुदा॥

मूलम्

गोप्योऽस्य नित्यमुदितहसितप्रेक्षणं मुखम्।
पश्यन्त्यो विविधांस्तापांस्तरन्ति स्माश्रमं मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुसकान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहनेवाले मुखारविन्दके दर्शनसे आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकारके तापोंसे मुक्त हो जाती थीं॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः।
श्रियं यशो महत्त्वं च लप्स्यते परिरक्षितः॥

मूलम्

वदन्त्यनेन वंशोऽयं यदोः सुबहुविश्रुतः।
श्रियं यशो महत्त्वं च लप्स्यते परिरक्षितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं कि ये यदुवंशकी रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान् समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनेन परिरक्षितो वंश इत्यन्वयः ॥ २९-३७ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः।
प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः॥

मूलम्

अयं चास्याग्रजः श्रीमान् रामः कमललोचनः।
प्रलम्बो निहतो येन वत्सको ये बकादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दरके बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसीके मुँहसे ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदिको मारा है’॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च।
कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत्॥

मूलम्

जनेष्वेवं ब्रुवाणेषु तूर्येषु निनदत्सु च।
कृष्णरामौ समाभाष्य चाणूरो वाक्यमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय दर्शकोंमें यह चर्चा हो रही थी और अखाड़ेमें तुरही आदि बाजे बज रहे थे, उस समय चाणूरने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामको सम्बोधन करके यह बात कही—॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ।
नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा॥

मूलम्

हे नन्दसूनो हे राम भवन्तौ वीरसंमतौ।
नियुद्धकुशलौ श्रुत्वा राज्ञाऽऽहूतौ दिदृक्षुणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामजी! तुम दोनों वीरोंके आदरणीय हो। हमारे महाराजने यह सुनकर कि तुमलोग कुश्ती लड़नेमें बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखनेके लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वन्त्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः।
मनसा कर्मणा वाचा विपरीतमतोऽन्यथा॥

मूलम्

प्रियं राज्ञः प्रकुर्वन्त्यः श्रेयो विन्दन्ति वै प्रजाः।
मनसा कर्मणा वाचा विपरीतमतोऽन्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो भाई! जो प्रजा मन, वचन और कर्मसे राजाका प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजाकी इच्छाके विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम्।
वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः॥

मूलम्

नित्यं प्रमुदिता गोपा वत्सपाला यथा स्फुटम्।
वनेषु मल्लयुद्धेन क्रीडन्तश्चारयन्ति गाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चरानेवाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्दसे जंगलोंमें कुश्ती लड़-लड़कर खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे।
भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः॥

मूलम्

तस्माद् राज्ञः प्रियं यूयं वयं च करवाम हे।
भूतानि नः प्रसीदन्ति सर्वभूतमयो नृपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराजको प्रसन्न करनेके लिये कुश्ती लड़ें। ऐसा करनेसे हमपर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजाका प्रतीक है’॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः।
नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च॥

मूलम्

तन्निशम्याब्रवीत् कृष्णो देशकालोचितं वचः।
नियुद्धमात्मनोऽभीष्टं मन्यमानोऽभिनन्द्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूरकी बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-कालके अनुसार यह बात कही—॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः।
करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः॥

मूलम्

प्रजा भोजपतेरस्य वयं चापि वनेचराः।
करवाम प्रियं नित्यं तन्नः परमनुग्रहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चाणूर! हम भी इन भोजराज कंसकी वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसीमें हमारा कल्याण है॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम्।
भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः॥

मूलम्

बाला वयं तुल्यबलैः क्रीडिष्यामो यथोचितम्।
भवेन्नियुद्धं माधर्मः स्पृशेन्मल्ल सभासदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु चाणूर! हमलोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बलवाले बालकोंके साथ ही कुश्ती लड़नेका खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालोंके साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखनेवाले सभासदोंको अन्यायके समर्थक होनेका पाप न लगे’॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बालशब्दो ऽत्यन्तशैशवपरः ॥ ३८-४० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।। ४३ ।।

श्लोक-३९

मूलम् (वचनम्)

चाणूर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः।
लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत्॥

मूलम्

न बालो न किशोरस्त्वं बलश्च बलिनां वरः।
लीलयेभो हतो येन सहस्रद्विपसत्त्वभृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

चाणूरने कहा—अजी! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानोंमें श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हजार हाथियोंका बल रखनेवाले कुवलयापीडको खेल-ही-खेलमें मार डाला॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद‍्भवद‍्भ्यां बलिभिर्योद्धव्यं नानयोऽत्र वै।
मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः॥

मूलम्

तस्माद‍्भवद‍्भ्यां बलिभिर्योद्धव्यं नानयोऽत्र वै।
मयि विक्रम वार्ष्णेय बलेन सह मुष्टिकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम दोनोंको हम-जैसे बलवानोंके साथ ही लड़ना चाहिये। इसमें अन्यायकी कोई बात नहीं है। इसलिये श्रीकृष्ण! तुम मुझपर अपना जोर आजमाओ और बलरामके साथ मुष्टिक लड़ेगा॥ ४०॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कुवलयापीडवधो नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४३॥