[द्विचत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
कुब्जापर कृपा, धनुषभंग और कंसकी घबड़ाहट
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ व्रजन् राजपथेन माधवः
स्त्रियं गृहीताङ्गविलेपभाजनाम्।
विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां
पप्रच्छ यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः॥
मूलम्
अथ व्रजन् राजपथेन माधवः
स्त्रियं गृहीताङ्गविलेपभाजनाम्।
विलोक्य कुब्जां युवतीं वराननां
पप्रच्छ यान्तीं प्रहसन् रसप्रदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डलीके साथ राजमार्गसे आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्रीको देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीरसे कुबड़ी थी। इसीसे उसका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमरसका दान करनेवाले हैं, उन्होंने कुब्जापर कृपा करनेके लिये हँसते हुए उससे पूछा—॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं
कस्याङ्गने वा कथयस्व साधु नः।
देह्यावयोरङ्गविलेपमुत्तमं
श्रेयस्ततस्ते नचिराद् भविष्यति॥
मूलम्
का त्वं वरोर्वेतदु हानुलेपनं
कस्याङ्गने वा कथयस्व साधु नः।
देह्यावयोरङ्गविलेपमुत्तमं
श्रेयस्ततस्ते नचिराद् भविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणि! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दानसे शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा’॥ २॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
सैरन्ध्र्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मता
त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि।
मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं
विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति॥
मूलम्
दास्यस्म्यहं सुन्दर कंससम्मता
त्रिवक्रनामा ह्यनुलेपकर्मणि।
मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं
विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
उबटन आदि लगानेवाली सैरन्ध्री कुब्जाने कहा—‘परम सुन्दर! मैं कंसकी प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगानेका काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंसको बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनोंसे बढ़कर उसका और कोई उत्तम पात्र नहीं है’॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपपेशलमाधुर्यहसितालापवीक्षितैः।
धर्षितात्मा ददौ सान्द्रमुभयोरनुलेपनम्॥
मूलम्
रूपपेशलमाधुर्यहसितालापवीक्षितैः।
धर्षितात्मा ददौ सान्द्रमुभयोरनुलेपनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवनसे कुब्जाका मन हाथसे निकल गया। उसने भगवान् पर अपना हृदय न्योछावर कर दिया। उसने दोनों भाइयोंको वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तावङ्गरागेण स्ववर्णेतरशोभिना।
सम्प्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरञ्जितौ॥
मूलम्
ततस्तावङ्गरागेण स्ववर्णेतरशोभिना।
सम्प्राप्तपरभागेन शुशुभातेऽनुरञ्जितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साँवले शरीरपर पीले रंगका और बलरामजीने अपने गोरे शरीरपर लाल रंगका अंगराग लगाया तथा नाभिसे ऊपरके भागमें अनुरंजिंत होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्ववर्णेतरशोभिना स्वदेहवर्णविरुद्धवर्णशोभिना ॥ ५-६ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसन्नो भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम्।
ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम्॥
मूलम्
प्रसन्नो भगवान् कुब्जां त्रिवक्रां रुचिराननाम्।
ऋज्वीं कर्तुं मनश्चक्रे दर्शयन् दर्शने फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण उस कुब्जापर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शनका प्रत्यक्षफल दिखलानेके लिये तीन जगहसे टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जाको सीधी करनेका विचार किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्भ्यामाक्रम्य प्रपदे द्व्यङ्गुल्युत्तानपाणिना।
प्रगृह्य चुबुकेऽध्यात्ममुदनीनमदच्युतः॥
मूलम्
पद्भ्यामाक्रम्य प्रपदे द्व्यङ्गुल्युत्तानपाणिना।
प्रगृह्य चुबुकेऽध्यात्ममुदनीनमदच्युतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने अपने चरणोंसे कुब्जाके पैरके दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अँगुलियाँ उसकी ठोड़ीमें लगायीं तथा उसके शरीरको तनिक उचका दिया॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अध्यात्मं शरीरम् उदनीनमत् उन्नमयामास ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तदर्जुसमानाङ्गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा।
मुकुन्दस्पर्शनात् सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा॥
मूलम्
सा तदर्जुसमानाङ्गी बृहच्छ्रोणिपयोधरा।
मुकुन्दस्पर्शनात् सद्यो बभूव प्रमदोत्तमा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्तिके दाता भगवान्के स्पर्शसे वह तत्काल विशाल नितम्ब तथा पीन पयोधरोंसे युक्त एक उत्तम युवती बन गयी॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऋजु-समानाङ्गी समानशब्दो रूपपरः ॥ ८-१८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रूपगुणौदार्यसम्पन्ना प्राह केशवम्।
उत्तरीयान्तमाकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया॥
मूलम्
ततो रूपगुणौदार्यसम्पन्ना प्राह केशवम्।
उत्तरीयान्तमाकृष्य स्मयन्ती जातहृच्छया॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारतासे सम्पन्न हो गयी। उसके मनमें भगवान्के मिलनकी कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टेका छोर पकड़कर मुसकराते हुए कहा—॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे।
त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ॥
मूलम्
एहि वीर गृहं यामो न त्वां त्यक्तुमिहोत्सहे।
त्वयोन्मथितचित्तायाः प्रसीद पुरुषर्षभ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें। अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्तको मथ डाला है। पुरुषोत्तम! मुझ दासीपर प्रसन्न होइये’॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः।
मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसंस्तामुवाच ह॥
मूलम्
एवं स्त्रिया याच्यमानः कृष्णो रामस्य पश्यतः।
मुखं वीक्ष्यानुगानां च प्रहसंस्तामुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब बलरामजीके सामने ही कुब्जाने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंके मुँहकी ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा—॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष्यामि ते गृहं सुभ्रूः पुंसामाधिविकर्शनम्।
साधितार्थोऽगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम्॥
मूलम्
एष्यामि ते गृहं सुभ्रूः पुंसामाधिविकर्शनम्।
साधितार्थोऽगृहाणां नः पान्थानां त्वं परायणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगोंके लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटानेका साधन है। मैं अपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघरके बटोहियोंको तुम्हारा ही तो आसरा है’॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः।
नानोपायनताम्बूलस्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः॥
मूलम्
विसृज्य माध्व्या वाण्या तां व्रजन् मार्गे वणिक्पथैः।
नानोपायनताम्बूलस्रग्गन्धैः साग्रजोऽर्चितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान् श्रीकृष्णने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियोंके बाजारमें पहुँचे, तब उन व्यापारियोंने उनका तथा बलरामजीका पान, फूलोंके हार, चन्दन और तरह-तरहकी भेंट—उपहारोंसे पूजन किया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्दर्शनस्मरक्षोभादात्मानं नाविदन् स्त्रियः।
विस्रस्तवासः कबरवलयालेख्यमूर्तयः॥
मूलम्
तद्दर्शनस्मरक्षोभादात्मानं नाविदन् स्त्रियः।
विस्रस्तवासः कबरवलयालेख्यमूर्तयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके दर्शनमात्रसे स्त्रियोंके हृदयमें प्रेमका आवेग, मिलनकी आकांक्षा जग उठती थी। यहाँतक कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रहती। उनके वस्त्र, जूड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियोंके समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः।
तस्मिन् प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रमिवाद्भुतम्॥
मूलम्
ततः पौरान् पृच्छमानो धनुषः स्थानमच्युतः।
तस्मिन् प्रविष्टो ददृशे धनुरैन्द्रमिवाद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियोंसे धनुष-यज्ञका स्थान पूछते हुए रंगशालामें पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुषके समान एक अद्भुत धनुष देखा॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तमर्चितं परमर्द्धिमत्।
वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे॥
मूलम्
पुरुषैर्बहुभिर्गुप्तमर्चितं परमर्द्धिमत्।
वार्यमाणो नृभिः कृष्णः प्रसह्य धनुराददे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस धनुषमें बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारोंसे उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने रक्षकोंके रोकनेपर भी उस धनुषको बलात् उठा लिया॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
करेण वामेन सलीलमुद्धृतं
सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्।
नृणां विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो
यथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रमः॥
मूलम्
करेण वामेन सलीलमुद्धृतं
सज्यं च कृत्वा निमिषेण पश्यताम्।
नृणां विकृष्य प्रबभञ्ज मध्यतो
यथेक्षुदण्डं मदकर्युरुक्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुषको बायें हाथसे उठाया, उसपर डोरी चढ़ायी और एक क्षणमें खींचकर बीचो-बीचसे उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान् मतवाला हाथी खेल-ही-खेलमें ईखको तोड़ डालता है॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः।
पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत्॥
मूलम्
धनुषो भज्यमानस्य शब्दः खं रोदसी दिशः।
पूरयामास यं श्रुत्वा कंसस्त्रासमुपागमत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब धनुष टूटा तब उसके शब्दसे आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्रक्षिणः सानुचराः कुपिता आततायिनः।
ग्रहीतुकामा आवव्रुर्गृह्यतां बध्यतामिति॥
मूलम्
तद्रक्षिणः सानुचराः कुपिता आततायिनः।
ग्रहीतुकामा आवव्रुर्गृह्यतां बध्यतामिति॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब धनुषके रक्षक आततायी असुर अपने सहायकोंके साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान् श्रीकृष्णको घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेनेकी इच्छासे चिल्लाने लगे—‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने न पावे’॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आततायिनः जिघांसया शस्त्रपाणयः ॥ १९-२२ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ।
क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः॥
मूलम्
अथ तान् दुरभिप्रायान् विलोक्य बलकेशवौ।
क्रुद्धौ धन्वन आदाय शकले तांश्च जघ्नतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुषके टुकड़ोंको उठाकर उन्हींसे उनका काम तमाम कर दिया॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः।
निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः॥
मूलम्
बलं च कंसप्रहितं हत्वा शालामुखात्ततः।
निष्क्रम्य चेरतुर्हृष्टौ निरीक्ष्य पुरसम्पदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हीं धनुषखण्डोंसे उन्होंने उन असुरोंकी सहायताके लिये कंसकी भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशालाके प्रधान द्वारसे होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्दसे मथुरापुरीकी शोभा देखते हुए विचरने लगे॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोस्तदद्भुतं वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः।
तेजः प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ॥
मूलम्
तयोस्तदद्भुतं वीर्यं निशाम्य पुरवासिनः।
तेजः प्रागल्भ्यं रूपं च मेनिरे विबुधोत्तमौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंके इस अद्भुत पराक्रमकी बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूपको देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्विचरतोः स्वैरमादित्योऽस्तमुपेयिवान्।
कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः॥
मूलम्
तयोर्विचरतोः स्वैरमादित्योऽस्तमुपेयिवान्।
कृष्णरामौ वृतौ गोपैः पुराच्छकटमीयतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी पूरी स्वतन्त्रतासे मथुरापुरीमें विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालोंसे घिरे हुए नगरसे बाहर अपने डेरेपर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शकटं नन्दादीनां विश्रमस्थानम् ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या
आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन्।
सम्पश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं
हित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः॥
मूलम्
गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा या
आशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन्।
सम्पश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मीं
हित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्रीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंके बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहनेवाले भगवान्का वरण किया। उन्हींको सदाके लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान् श्रीकृष्णके अंग-अंगका सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य है! व्रजमें भगवान्की यात्राके समय गोपियोंने विरहातुर होकर मथुरावासियोंके सम्बन्धमें जो-जो बातें कही थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं। सचमुच वे परमानन्दमें मग्न हो गये॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पुरुषभूषण भूषणभूतः कृष्णस्तस्य गात्रलक्ष्मीं सम्पष्येताम् आशिषः ऋताः सत्या अभूवन् इत्यर्थः ॥ २४-२९ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवनिक्ताङ्घ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम्।
ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम्॥
मूलम्
अवनिक्ताङ्घ्रियुगलौ भुक्त्वा क्षीरोपसेचनम्।
ऊषतुस्तां सुखं रात्रिं ज्ञात्वा कंसचिकीर्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर हाथ-पैर धोकर श्रीकृष्ण और बलरामजीने दूधमें बने हुए खीर आदि पदार्थोंका भोजन किया और कंस आगे क्या करना चाहता है, इस बातका पता लगाकर उस रातको वहीं आरामसे सो गये॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंसस्तु धनुषो भङ्गं रक्षिणां स्वबलस्य च।
वधं निशम्य गोविन्दरामविक्रीडितं परम्॥
मूलम्
कंसस्तु धनुषो भङ्गं रक्षिणां स्वबलस्य च।
वधं निशम्य गोविन्दरामविक्रीडितं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कंसने सुना कि श्रीकृष्ण और बलरामने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायताके लिये भेजी हुई सेनाका भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था—इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः।
बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च॥
मूलम्
दीर्घप्रजागरो भीतो दुर्निमित्तानि दुर्मतिः।
बहून्यचष्टोभयथा मृत्योर्दौत्यकराणि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वह बहुत ही डर गया, उस दुर्बुद्धिको बहुत देरतक नींद न आयी। उसे जाग्रत्-अवस्थामें तथा स्वप्नमें भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए जो उसकी मृत्युके सूचक थे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि।
असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा॥
मूलम्
अदर्शनं स्वशिरसः प्रतिरूपे च सत्यपि।
असत्यपि द्वितीये च द्वैरूप्यं ज्योतिषां तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जाग्रत्-अवस्थामें उसने देखा कि जल या दर्पणमें शरीरकी परछाईं तो पड़ती है, परन्तु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदिकी आड़ न होनेपर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदिकी ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः।
स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम्॥
मूलम्
छिद्रप्रतीतिश्छायायां प्राणघोषानुपश्रुतिः।
स्वर्णप्रतीतिर्वृक्षेषु स्वपदानामदर्शनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
छायामें छेद दिखायी पड़ता है और कानोंमें अँगुली डालकर सुननेपर भी प्राणोंका घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़में अपने पैरोंके चिह्न नहीं दीख पड़ते॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्गः खरयानं विषादनम्।
यायान्नलदमाल्येकस्तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः॥
मूलम्
स्वप्ने प्रेतपरिष्वङ्गः खरयानं विषादनम्।
यायान्नलदमाल्येकस्तैलाभ्यक्तो दिगम्बरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंसने स्वप्नावस्थामें देखा कि वह प्रेतोंके गले लग रहा है, गधेपर चढ़कर चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेलसे तर है, गलेमें जपाकुसुम (अड़हुल)-की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नलदमाली मस्तककृतपद्मकुसुम इत्याहुः ॥ ३०-३८ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४२ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च।
पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया॥
मूलम्
अन्यानि चेत्थं भूतानि स्वप्नजागरितानि च।
पश्यन् मरणसन्त्रस्तो निद्रां लेभे न चिन्तया॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वप्न और जाग्रत्-अवस्थामें उसने इसी प्रकारके और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे बड़ी चिन्ता हो गयी, वह मृत्युसे डर गया और उसे नींद न आयी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्भ्यः समुत्थिते।
कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम्॥
मूलम्
व्युष्टायां निशि कौरव्य सूर्ये चाद्भ्यः समुत्थिते।
कारयामास वै कंसो मल्लक्रीडामहोत्सवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्रसे ऊपर उठे, तब राजा कंसने मल्ल-क्रीड़ा (दंगल)-का महोत्सव प्रारम्भ कराया॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनर्चुः पुरुषा रङ्गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे।
मञ्चाश्चालङ्कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः॥
मूलम्
आनर्चुः पुरुषा रङ्गं तूर्यभेर्यश्च जघ्निरे।
मञ्चाश्चालङ्कृताः स्रग्भिः पताकाचैलतोरणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकर्मचारियोंने रंगभूमिको भलीभाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगोंके बैठनेके मंच फूलोंके गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारोंसे सजा दिये गये॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः।
यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः॥
मूलम्
तेषु पौरा जानपदा ब्रह्मक्षत्रपुरोगमाः।
यथोपजोषं विविशू राजानश्च कृतासनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासी—सब यथास्थान बैठ गये। राजालोग भी अपने-अपने निश्चित स्थानपर जा डटे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत्।
मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता॥
मूलम्
कंसः परिवृतोऽमात्यै राजमञ्च उपाविशत्।
मण्डलेश्वरमध्यस्थो हृदयेन विदूयता॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा कंस अपने मन्त्रियोंके साथ मण्डलेश्वरों (छोटे-छोटे राजाओं) के बीचमें सबसे श्रेष्ठ राजसिंहासनपर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनोंके कारण उसका चित्त घबड़ाया हुआ था॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाद्यमानेषु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च।
मल्लाः स्वलङ्कृता दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन्॥
मूलम्
वाद्यमानेषु तूर्येषु मल्लतालोत्तरेषु च।
मल्लाः स्वलङ्कृता दृप्ताः सोपाध्यायाः समाविशन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पहलवानोंके ताल ठोंकनेके साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादोंके साथ अखाड़ेमें आ उतरे॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशल एव च।
त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः॥
मूलम्
चाणूरो मुष्टिकः कूटः शलस्तोशल एव च।
त आसेदुरुपस्थानं वल्गुवाद्यप्रहर्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजोंकी सुमधुर ध्वनिसे उत्साहित होकर अखाड़ेमें आ-आकर बैठ गये॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः।
निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन्॥
मूलम्
नन्दगोपादयो गोपा भोजराजसमाहुताः।
निवेदितोपायनास्ते एकस्मिन् मञ्च आविशन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय भोजराज कंसने नन्द आदि गोपोंको बुलवाया। उन लोगोंने आकर उसे तरह-तरहकी भेंटें दीं और फिर जाकर वे एक मंचपर बैठ गये॥ ३८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे मल्लरङ्गोपवर्णनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४२॥