[चत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
अक्रूरजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
अक्रूर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं
नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम्।
यन्नाभिजातादरविन्दकोशाद्
ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः॥
मूलम्
नतोऽस्म्यहं त्वाखिलहेतुहेतुं
नारायणं पूरुषमाद्यमव्ययम्।
यन्नाभिजातादरविन्दकोशाद्
ब्रह्माऽऽविरासीद् यत एष लोकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजी बोले—प्रभो! आप प्रकृति आदि समस्त कारणोंके परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमलसे उन ब्रह्माजीका आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत्की सृष्टि की है। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूस्तोयमग्निः पवनः खमादि-
र्महानजादिर्मन इन्द्रियाणि।
सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे
ये हेतवस्ते जगतोऽङ्गभूताः॥
मूलम्
भूस्तोयमग्निः पवनः खमादि-
र्महानजादिर्मन इन्द्रियाणि।
सर्वेन्द्रियार्था विबुधाश्च सर्वे
ये हेतवस्ते जगतोऽङ्गभूताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषय और उनके अधिष्ठातृदेवता—यही सब चराचर जगत् तथा उसके व्यवहारके कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हैं॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आदिशब्देन पृथिव्यादीनां कारणभूतोऽहंकार उच्यते अजामूलप्रकृतिः सा कार्याणामादिभूता ये जगतो हेतवः ते तव अंशभूताः ॥ १-२ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते
ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः।
अजोऽनुबद्धः स गुणैरजाया
गुणात् परं वेद न ते स्वरूपम्॥
मूलम्
नैते स्वरूपं विदुरात्मनस्ते
ह्यजादयोऽनात्मतया गृहीताः।
अजोऽनुबद्धः स गुणैरजाया
गुणात् परं वेद न ते स्वरूपम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृति और प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले समस्त पदार्थ ‘इदंवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होनेके कारण जड हैं और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परन्तु वे प्रकृतिके गुण रजस्से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृतिका और उसके गुणोंसे परेका स्वरूप नहीं जानते॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मनः अन्तर्यामिभूतः सः अन्यात्मतया स्वनिष्ठात्मभ्रान्त्या अजः ब्रह्मा अजाया गुणैः प्रकृतिगुणैः सत्त्वा दिभिः ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरम्।
साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः॥
मूलम्
त्वां योगिनो यजन्त्यद्धा महापुरुषमीश्वरम्।
साध्यात्मं साधिभूतं च साधिदैवं च साधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधु योगी स्वयं अपने अन्तःकरणमें स्थित ‘अन्तर्यामी’ के रूपमें, समस्त भूत-भौतिक पदार्थोंमें व्याप्त ‘परमात्माके’ रूपमें और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डलमें स्थित ‘इष्ट-देवता’ के रूपमें तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वरके रूपमें साक्षात् आपकी ही उपासना करते हैं॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
साध्यात्मादिदेहावस्थितेन पञ्चभूतावस्थितेन आदित्यमण्डलावस्थितेन च रूपेण सहितम् ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः।
यजन्ते विततैर्यज्ञैर्नानारूपामराख्यया॥
मूलम्
त्रय्या च विद्यया केचित् त्वां वै वैतानिका द्विजाः।
यजन्ते विततैर्यज्ञैर्नानारूपामराख्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्गका उपदेश करनेवाली त्रयीविद्याके द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम तथा वज्रहस्त, सप्तार्चि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैतानिकाः यज्ञपराः ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एके त्वाखिलकर्माणि संन्यस्योपशमं गताः।
ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम्॥
मूलम्
एके त्वाखिलकर्माणि संन्यस्योपशमं गताः।
ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मोंका संन्यास कर देते हैं और शान्तभावमें स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञके द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अखिलकर्माणि काम्यानि यद्वा यज्ञादिकर्माणि संन्यस्य त्वयि समय संन्यासशब्दः समर्पणवाची नतु परित्यागवाची -
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
इति प्रयोगात् नहि सर्वाणि कर्माणि हित्वा युध्यस्वेत्युच्यते ॥ ६ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते।
यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम्॥
मूलम्
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते।
यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वै बहुमूर्त्येकमूर्तिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरात्र आदि विधियोंसे तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूपकी पूजा करते हैं॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्ये भगवच्छास्त्रनिष्ठाः बहुमूल्यकमूर्त्तिकं व्यूहचतुष्टयवन्तं परवासुदेवं चेत्यर्थः ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम्।
बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते॥
मूलम्
त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम्।
बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! दूसरे लोग शिवजीके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे, जिसके आचार्य भेदसे अनेक अवान्तर भेद भी हैं, शिवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शिवरूपिणं शिवाख्यदेवतान्तर्यामिणं नतु शैवागमाभिप्रायकथनं तच्छास्त्रसिद्धिप्रज्ञानानि वा ॥ ८-११ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम्।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो॥
मूलम्
सर्व एव यजन्ति त्वां सर्वदेवमयेश्वरम्।
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यद्यप्यन्यधियः प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वामिन्! जो लोग दूसरे देवताओंकी भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तवमें आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओंके रूपमें हैं और सर्वेश्वर भी हैं॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो।
विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः॥
मूलम्
यथाद्रिप्रभवा नद्यः पर्जन्यापूरिताः प्रभो।
विशन्ति सर्वतः सिन्धुं तद्वत्त्वां गतयोऽन्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जैसे पर्वतोंसे सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षाके जलसे भरकर घूमती-घामती समुद्रमें प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकारके उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः।
तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इति भवतः प्रकृतेर्गुणाः।
तेषु हि प्राकृताः प्रोता आब्रह्मस्थावरादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपकी प्रकृतिके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रोंसे ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृतिके उन गुणोंसे ही ओतप्रोत हैं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये
सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे।
गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः
प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु॥
मूलम्
तुभ्यं नमस्तेऽस्त्वविषक्तदृष्टये
सर्वात्मने सर्वधियां च साक्षिणे।
गुणप्रवाहोऽयमविद्यया कृतः
प्रवर्तते देवनृतिर्यगात्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु आप सर्वस्वरूप होनेपर भी उनके साथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निर्लिप्त है, क्योंकि आप समस्त वृत्तियोंके साक्षी हैं। यह गुणोंके प्रवाहसे होनेवाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियोंमें व्याप्त है; परन्तु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यदविद्यया यदीयया प्रकृत्या " मम माया दुरत्ययेति वचनात् ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निर्मुखं तेऽवनिरङ्घ्रिरीक्षणं
सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः।
द्यौः कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोऽर्णवाः
कुक्षिर्मरुत् प्राणबलं प्रकल्पितम्॥
मूलम्
अग्निर्मुखं तेऽवनिरङ्घ्रिरीक्षणं
सूर्यो नभो नाभिरथो दिशः श्रुतिः।
द्यौः कं सुरेन्द्रास्तव बाहवोऽर्णवाः
कुक्षिर्मरुत् प्राणबलं प्रकल्पितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि आपका मुख है। पृथ्वी चरण है। सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। आकाश नाभि है। दिशाएँ कान हैं। स्वर्ग सिर है। देवेन्द्रगण भुजाएँ हैं। समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्तिके रूपमें उपासनाके लिये कल्पित हुई है॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अक्षिणी सूर्य इति चन्द्रस्याप्युपलक्षणं चक्षुषी चन्द्रसूर्याविति श्रुतेः कं शिरः ॥ १२-१४ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा
मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः।
निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापति-
र्मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते॥
मूलम्
रोमाणि वृक्षौषधयः शिरोरुहा
मेघाः परस्यास्थिनखानि तेऽद्रयः।
निमेषणं रात्र्यहनी प्रजापति-
र्मेढ्रस्तु वृष्टिस्तव वीर्यमिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्ष और ओषधियाँ रोम हैं। मेघ सिरके केश हैं। पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं। दिन और रात पलकोंका खोलना और मींचना है। प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वय्यव्ययात्मन् पुरुषे प्रकल्पिता
लोकाः सपाला बहुजीवसङ्कुलाः।
यथा जले सञ्जिहते जलौकसो-
ऽप्युदुम्बरे वा मशका मनोमये॥
मूलम्
त्वय्यव्ययात्मन् पुरुषे प्रकल्पिता
लोकाः सपाला बहुजीवसङ्कुलाः।
यथा जले सञ्जिहते जलौकसो-
ऽप्युदुम्बरे वा मशका मनोमये॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविनाशी भगवन्! जैसे जलमें बहुत-से जलचर जीव और गूलरके फलोंमें नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासनाके लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूपमें अनेक प्रकारके जीव-जन्तुओंसे भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनोमये विशुद्वमनोग्राह्ये त्वयि कल्पिता इत्यन्वयः संजिते सञ्चरन्ति ॥ १५-२३ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि यानीह रूपाणि क्रीडनार्थं बिभर्षि हि।
तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायन्ति ते यशः॥
मूलम्
यानि यानीह रूपाणि क्रीडनार्थं बिभर्षि हि।
तैरामृष्टशुचो लोका मुदा गायन्ति ते यशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप क्रीडा करनेके लिये पृथ्वीपर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगोंके शोक-मोहको धो-बहा देते हैं; और फिर सब लोग बड़े आनन्दसे आपके निर्मल यशका गान करते हैं॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च।
हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे॥
मूलम्
नमः कारणमत्स्याय प्रलयाब्धिचराय च।
हयशीर्ष्णे नमस्तुभ्यं मधुकैटभमृत्यवे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपने वेदों, ऋषियों, ओषधियों और सत्यव्रत आदिकी रक्षा-दीक्षाके लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलयके समुद्रमें स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नामके असुरोंका संहार करनेके लिये हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको भी नमस्कार करता हूँ॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे।
क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये॥
मूलम्
अकूपाराय बृहते नमो मन्दरधारिणे।
क्षित्युद्धारविहाराय नमः सूकरमूर्तये॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचलको धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वीके उद्धारकी लीला करनेके लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरा बार-बार नमस्कार॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तेऽद्भुतसिंहाय साधुलोकभयापह।
वामनाय नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च॥
मूलम्
नमस्तेऽद्भुतसिंहाय साधुलोकभयापह।
वामनाय नमस्तुभ्यं क्रान्तत्रिभुवनाय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लाद-जैसे साधुजनोंका भय मिटानेवाले प्रभो! आपके उस अलौकिक नृसिंहरूपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे।
नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च॥
मूलम्
नमो भृगूणां पतये दृप्तक्षत्रवनच्छिदे।
नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका उल्लंघन करनेवाले घमंडी क्षत्रियोंके वनका छेदन कर देनेके लिये आपने भृगुपति परशुरामरूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूपको नमस्कार करता हूँ। रावणका नाश करनेके लिये आपने रघुवंशमें भगवान् रामके रूपसे अवतार ग्रहण किया था। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः॥
मूलम्
नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैष्णवजनों तथा यदुवंशियोंका पालन-पोषण करनेके लिये आपने ही अपनेको वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इस चतुर्व्यूहके रूपमें प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने।
म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे॥
मूलम्
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने।
म्लेच्छप्रायक्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्किरूपिणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैत्य और दानवोंको मोहित करनेके लिये आप शुद्ध अहिंसा-मार्गके प्रवर्तक बुद्धका रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वीके क्षत्रिय जब म्लेच्छप्राय हो जायँगे तब उनका नाश करनेके लिये आप ही कल्किके रूपमें अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवञ्जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया।
अहंममेत्यसद्ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु॥
मूलम्
भगवञ्जीवलोकोऽयं मोहितस्तव मायया।
अहंममेत्यसद्ग्राहो भ्राम्यते कर्मवर्त्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! ये सब-के-सब जीव आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं और इस मोहके कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ इस झूठे दुराग्रहमें फँसकर कर्मके मार्गोंमें भटक रहे हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं चात्मात्मजागारदारार्थस्वजनादिषु।
भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो॥
मूलम्
अहं चात्मात्मजागारदारार्थस्वजनादिषु।
भ्रमामि स्वप्नकल्पेषु मूढः सत्यधिया विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे स्वामी! इसी प्रकार मैं भी स्वप्नमें दीखनेवाले पदार्थोंके समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदिको सत्य समझकर उन्हींके मोहमें फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहं चात्मेति । आत्मशब्दः शरीरवाची । स्वप्नकल्पेषु अनित्येषु नित्यबुद्धया आत्मातिरिक्तदेहादावात्मबुद्धया च विपर्यस्तमितिः ॥ २४-२७ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम्।
द्वन्द्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वाऽऽत्मनः प्रियम्॥
मूलम्
अनित्यानात्मदुःखेषु विपर्ययमतिर्ह्यहम्।
द्वन्द्वारामस्तमोविष्टो न जाने त्वाऽऽत्मनः प्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो! मैंने अनित्य वस्तुओंको नित्य, अनात्माको आत्मा और दुःखको सुख समझ लिया। भला, इस उलटी बुद्धिकी भी कोई सीमा है! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्भवैः।
अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्मुखः॥
मूलम्
यथाबुधो जलं हित्वा प्रतिच्छन्नं तदुद्भवैः।
अभ्येति मृगतृष्णां वै तद्वत्त्वाहं पराङ्मुखः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई अनजान मनुष्य जलके लिये तालाबपर जाय और उसे उसीसे पैदा हुए सिवार आदि घासोंसे ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्यकी किरणोंमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही मायासे छिपे रहनेके कारण आपको छोड़कर विषयोंमें सुखकी आशासे भटक रहा हूँ॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः।
रोद्धुं प्रमाथिभिश्चाक्षैर्ह्रियमाणमितस्ततः॥
मूलम्
नोत्सहेऽहं कृपणधीः कामकर्महतं मनः।
रोद्धुं प्रमाथिभिश्चाक्षैर्ह्रियमाणमितस्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं अविनाशी अक्षर वस्तुके ज्ञानसे रहित हूँ। इसीसे मेरे मनमें अनेक वस्तुओंकी कामना और उनके लिये कर्म करनेके संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मनको मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मनको मैं रोक नहीं पाता॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं तवाङ्घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं
तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये।
पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्ग-
स्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्॥
मूलम्
सोऽहं तवाङ्घ्र्युपगतोऽस्म्यसतां दुरापं
तच्चाप्यहं भवदनुग्रह ईश मन्ये।
पुंसो भवेद् यर्हि संसरणापवर्ग-
स्त्वय्यब्जनाभ सदुपासनया मतिः स्यात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलोंकी छत्रछायामें आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं। मेरे स्वामी! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ! जब जीवके संसारसे मुक्त होनेका समय आता है, तब सत्पुरुषोंकी उपासनासे चित्तवृत्ति आपमें लगती है॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
संसरणं संसारः संसारवासना हेतुभूता त्वयि त्वद्विषया मतिः न, यद्वा यदा मतिः स्यात् तदा संसारापवर्ग इत्यर्थ ॥२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे।
पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये॥
मूलम्
नमो विज्ञानमात्राय सर्वप्रत्ययहेतवे।
पुरुषेशप्रधानाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञानघन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीवके रूपमें एवं जीवोंके सुख-दुःख आदिके निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृतिके रूपमें भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी हैं। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्ञानमात्राय मात्रचा स्वरूपे क्वचिदपि जडत्वं नास्तीत्युच्यते सर्वप्रत्ययहेतवे सर्वेषां ज्ञानप्रदाय । पुरुषेशप्रधानायेति पाठे प्रधानभूतेन पुरुषेण रूपेण स्वेन रूपेणावस्थितायेत्यर्थः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च।
हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो॥
मूलम्
नमस्ते वासुदेवाय सर्वभूतक्षयाय च।
हृषीकेश नमस्तुभ्यं प्रपन्नं पाहि मां प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवोंके आश्रय (संकर्षण) हैं; तथा आप ही बुद्धि और मनके अधिष्ठातृदेवता हृषीकेश (प्रद्युम्न और अनिरुद्ध) हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वभूतक्षयाय सर्वभूतनिवासाय ॥ ३० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरस्तुतिर्नाम चत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४०॥