[एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीकृष्ण-बलरामका मथुरागमन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखोपविष्टः पर्यङ्के रामकृष्णोरुमानितः।
लेभे मनोरथान् सर्वान् पथि यान् स चकार ह॥
मूलम्
सुखोपविष्टः पर्यङ्के रामकृष्णोरुमानितः।
लेभे मनोरथान् सर्वान् पथि यान् स चकार ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने अक्रूरजीका भलीभाँति सम्मान किया। वे आरामसे पलँगपर बैठ गये। उन्होंने मार्गमें जो-जो अभिलाषाएँ की थीं, वे सब पूरी हो गयीं॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उरुमानितः कृतबहुमानः ॥ १-३ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने।
तथापि तत्परा राजन्न हि वाञ्छन्ति किञ्चन॥
मूलम्
किमलभ्यं भगवति प्रसन्ने श्रीनिकेतने।
तथापि तत्परा राजन्न हि वाञ्छन्ति किञ्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! लक्ष्मीके आश्रयस्थान भगवान् श्रीकृष्णके प्रसन्न होनेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती? फिर भी भगवान्के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तुकी कामना नहीं करते॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः।
सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम्॥
मूलम्
सायंतनाशनं कृत्वा भगवान् देवकीसुतः।
सुहृत्सु वृत्तं कंसस्य पप्रच्छान्यच्चिकीर्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने सायंकालका भोजन करनेके बाद अक्रूरजीके पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ कंसके व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रमके सम्बन्धमें पूछा॥ ३॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः।
अपि स्वज्ञातिबन्धूनामनमीवमनामयम्॥
मूलम्
तात सौम्यागतः कच्चित् स्वागतं भद्रमस्तु वः।
अपि स्वज्ञातिबन्धूनामनमीवमनामयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—चाचाजी! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रामें कोई कष्ट तो नहीं हुआ? स्वागत है। मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ। मथुराके हमारे आत्मीय सुहृद्, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब सकुशल और स्वस्थ हैं न?॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनमीवम् अशुभरहितम् ॥ ४-५ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये।
कंसे मातुलनाम्न्यङ्ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च॥
मूलम्
किं नु नः कुशलं पृच्छे एधमाने कुलामये।
कंसे मातुलनाम्न्यङ्ग स्वानां नस्तत्प्रजासु च॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारा नाममात्रका मामा कंस तो हमारे कुलके लिये एक भयंकर व्याधि है। जबतक उसकी बढ़ती हो रही है, तबतक हम अपने वंशवालों और उनके बाल-बच्चोंका कुशल-मंगल क्या पूछें॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः।
यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः॥
मूलम्
अहो अस्मदभूद् भूरि पित्रोर्वृजिनमार्ययोः।
यद्धेतोः पुत्रमरणं यद्धेतोर्बन्धनं तयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाचाजी! हमारे लिये यह बड़े खेदकी बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिताको अनेकों प्रकारकी यातनाएँ झेलनी पड़ीं—तरह-तरहके कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर जेलमें डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अस्मत् अस्मत्तः वृजिनं पापम् ॥ ६-७ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्क्षितम्।
सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम्॥
मूलम्
दिष्ट्याद्य दर्शनं स्वानां मह्यं वः सौम्य काङ्क्षितम्।
सञ्जातं वर्ण्यतां तात तवागमनकारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं बहुत दिनोंसे चाहता था कि आपलोगोंमेंसे किसी-न-किसीका दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी। सौम्य-स्वभाव चाचाजी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्तसे हुआ?॥ ७॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः।
वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम्॥
मूलम्
पृष्टो भगवता सर्वं वर्णयामास माधवः।
वैरानुबन्धं यदुषु वसुदेववधोद्यमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! जब भगवान् श्रीकृष्णने अक्रूरजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब उन्होंने बतलाया कि ‘कंसने तो सभी यदुवंशियोंसे घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेवजीको मार डालनेका भी उद्यम कर चुका है’॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
माधवः मधुकुलप्रभवः ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्संदेशो यदर्थं वा दूतः संप्रेषितः स्वयम्।
यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः॥
मूलम्
यत्संदेशो यदर्थं वा दूतः संप्रेषितः स्वयम्।
यदुक्तं नारदेनास्य स्वजन्मानकदुन्दुभेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने कंसका सन्देश और जिस उद्देश्यसे उसने स्वयं अक्रूरजीको दूत बनाकर भेजा था और नारदजीने जिस प्रकार वसुदेवजीके घर श्रीकृष्णके जन्म लेनेका वृत्तान्त उसको बता दिया था, सो सब कह सुनाया॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यत्सन्देशेति । बहुव्रीहिः तं सन्देशं तत्प्रयोजनश्च वर्णयामासेत्यन्वयः ॥ ९-११ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा।
प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञाऽऽदिष्टं विजज्ञतुः॥
मूलम्
श्रुत्वाक्रूरवचः कृष्णो बलश्च परवीरहा।
प्रहस्य नन्दं पितरं राज्ञाऽऽदिष्टं विजज्ञतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीकी यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्दजीको कंसकी आज्ञा सुना दी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः।
उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च॥
मूलम्
गोपान् समादिशत् सोऽपि गृह्यतां सर्वगोरसः।
उपायनानि गृह्णीध्वं युज्यन्तां शकटानि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब नन्दबाबाने सब गोपोंको आज्ञा दी कि ‘सारा गोरस एकत्र करो। भेंटकी सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान्।
द्रक्ष्यामः सुमहत् पर्व यान्ति जानपदाः किल।
एवमाघोषयत् क्षत्त्रा नन्दगोपः स्वगोकुले॥
मूलम्
यास्यामः श्वो मधुपुरीं दास्यामो नृपते रसान्।
द्रक्ष्यामः सुमहत् पर्व यान्ति जानपदाः किल।
एवमाघोषयत् क्षत्त्रा नन्दगोपः स्वगोकुले॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल प्रातःकाल ही हम सब मथुराकी यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंसको गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखनेके लिये देशकी सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है। हमलोग भी उसे देखेंगे।’ नन्दबाबाने गाँवके कोतवालके द्वारा यह घोषणा सारे व्रजमें करवा दी॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पर्व उत्सवम् ॥ १२-१४ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्यस्तास्तदुपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्।
रामकृष्णौ पुरीं नेतुमक्रूरं व्रजमागतम्॥
मूलम्
गोप्यस्तास्तदुपश्रुत्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्।
रामकृष्णौ पुरीं नेतुमक्रूरं व्रजमागतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब गोपियोंने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलरामजीको मथुरा ले जानेके लिये अक्रूरजी व्रजमें आये हैं तब उनके हृदयमें बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
काश्चित्तत्कृतहृत्तापश्वासम्लानमुखश्रियः।
स्रंसद्दुकूलवलयकेशग्रन्थ्यश्च काश्चन॥
मूलम्
काश्चित्तत्कृतहृत्तापश्वासम्लानमुखश्रियः।
स्रंसद्दुकूलवलयकेशग्रन्थ्यश्च काश्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके मथुरा जानेकी बात सुनते ही बहुतोंके हृदयमें ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुखकमल कुम्हला गया। और बहुतोंकी ऐसी दशा हुई—वे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ोंतकका पता न रहा॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्याश्च तदनुध्याननिवृत्ताशेषवृत्तयः।
नाभ्यजानन्निमं लोकमात्मलोकं गता इव॥
मूलम्
अन्याश्च तदनुध्याननिवृत्ताशेषवृत्तयः।
नाभ्यजानन्निमं लोकमात्मलोकं गता इव॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के स्वरूपका ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियोंकी चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थ—आत्मामें स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसारका कुछ ध्यान ही न रहा॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृत्तयः इन्द्रियवृत्तयः आत्मैव लोकः आत्मलोकनं तत् साक्षात्कारिण्यः योगारूढा इवेत्यर्थः ॥ १५-१८ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन्त्यश्चापराः शौरेरनुरागस्मितेरिताः।
हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः॥
मूलम्
स्मरन्त्यश्चापराः शौरेरनुरागस्मितेरिताः।
हृदिस्पृशश्चित्रपदा गिरः संमुमुहुः स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-सी गोपियोंके सामने भगवान् श्रीकृष्णका प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुसकान और हृदयको स्पर्श करनेवाली विचित्र पदोंसे युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम्।
शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च॥
मूलम्
गतिं सुललितां चेष्टां स्निग्धहासावलोकनम्।
शोकापहानि नर्माणि प्रोद्दामचरितानि च॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः।
समेताः सङ्घशः प्रोचुरश्रुमुख्योऽच्युताशयाः॥
मूलम्
चिन्तयन्त्यो मुकुन्दस्य भीता विरहकातराः।
समेताः सङ्घशः प्रोचुरश्रुमुख्योऽच्युताशयाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियाँ मन-ही-मन भगवान्की लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुसकान, चितवन, सारे शोकोंको मिटा देनेवाली ठिठोलियाँ तथा उदारता-भरी लीलाओंका चिन्तन करने लगीं और उनके विरहके भयसे कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवन—सब कुछ भगवान्के प्रति समर्पित था। उनकी आँखोंसे आँसू बह रहे थे। वे झुंड-की-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं॥ १७-१८॥
श्लोक-१९
मूलम् (वचनम्)
गोप्य ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया
संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः।
तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्क्ष्यपार्थकं
विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा॥
मूलम्
अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया
संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिनः।
तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्क्ष्यपार्थकं
विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियोंने कहा—धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदयमें दयाका लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेमसे जगत्के प्राणियोंको एक-दूसरेके साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपसमें एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चोंके खेलकी तरह व्यर्थ ही है॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रणयेन विश्वासेन वियुनंक्षि । वियोजयसि । अपार्थकं प्रयोजनशून्यं पारोक्ष्यं मुखस्येति शेषः । दुःखानर्हत्वज्ञानशून्यवत् ॥ १९-२२ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं
मुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम्।
शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं
करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम्॥
मूलम्
यस्त्वं प्रदर्श्यासितकुन्तलावृतं
मुकुन्दवक्त्रं सुकपोलमुन्नसम्।
शोकापनोदस्मितलेशसुन्दरं
करोषि पारोक्ष्यमसाधु ते कृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कितने दुःखकी बात है! विधाता! तुमने पहले हमें प्रेमका वितरण करनेवाले श्यामसुन्दरका मुखकमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलोंपर झलक रहे हैं। मरकतमणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोतेकी चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरोंपर मन्द-मन्द मुसकानकी सुन्दर रेखा, जो सारे शोकोंको तत्क्षण भगा देती है। विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुखकमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखोंसे ओझल कर रहे हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म न-
श्चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत्।
येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं
त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः॥
मूलम्
क्रूरस्त्वमक्रूरसमाख्यया स्म न-
श्चक्षुर्हि दत्तं हरसे बताज्ञवत्।
येनैकदेशेऽखिलसर्गसौष्ठवं
त्वदीयमद्राक्ष्म वयं मधुद्विषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम जानती हैं, इसमें अक्रूरका दोष नहीं है; यह तो साफ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तवमें तुम्हीं अक्रूरके नामसे यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्खकी भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दरके एक-एक अंगमें तुम्हारी सृष्टिका सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नन्दसूनुः क्षणभङ्गसौहृदः
समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत।
विहाय गेहान् स्वजनान् सुतान् पतीं-
स्तद्दास्यमद्धोपगता नवप्रियः॥
मूलम्
न नन्दसूनुः क्षणभङ्गसौहृदः
समीक्षते नः स्वकृतातुरा बत।
विहाय गेहान् स्वजनान् सुतान् पतीं-
स्तद्दास्यमद्धोपगता नवप्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दरको भी नये-नये लोगोंसे नेह लगानेकी चाट पड़ गयी है। देखो तो सही—इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षणमें ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदिको छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हींके लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखते तक नहीं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः
सत्या बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम्।
याः संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः
पास्यन्त्यपाङ्गोत्कलितस्मितासवम्॥
मूलम्
सुखं प्रभाता रजनीयमाशिषः
सत्या बभूवुः पुरयोषितां ध्रुवम्।
याः संप्रविष्टस्य मुखं व्रजस्पतेः
पास्यन्त्यपाङ्गोत्कलितस्मितासवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आजकी रातका प्रातःकाल मथुराकी स्त्रियोंके लिये निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनोंकी अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त मुखारविन्दका मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरीमें प्रवेश करेंगे, तब वे उसका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्रजस्पतेः व्रजपतेः ॥ २३-२४ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितै-
र्गृहीतचित्तः परवान् मनस्व्यपि।
कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला
ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन्॥
मूलम्
तासां मुकुन्दो मधुमञ्जुभाषितै-
र्गृहीतचित्तः परवान् मनस्व्यपि।
कथं पुनर्नः प्रतियास्यतेऽबला
ग्राम्याः सलज्जस्मितविभ्रमैर्भ्रमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि हमारे श्यामसुन्दर धैर्यवान् होनेके साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनोंकी आज्ञामें रहते हैं, तथापि मथुराकी युवतियाँ अपने मधुके समान मधुर वचनोंसे इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुसकान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगीसे वहीं रम जायँगे। फिर हम गँवार ग्वालिनोंके पास ये लौटकर क्यों आने लगे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते
दाशार्हभोजान्धकवृष्णिसात्वताम्।
महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं
द्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम्॥
मूलम्
अद्य ध्रुवं तत्र दृशो भविष्यते
दाशार्हभोजान्धकवृष्णिसात्वताम्।
महोत्सवः श्रीरमणं गुणास्पदं
द्रक्ष्यन्ति ये चाध्वनि देवकीसुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दरका दर्शन करके मथुराके दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके नेत्र अवश्य ही परमानन्दका साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान् उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँसे मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दरका मार्गमें दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायँगे॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अध्वनि ये द्रक्ष्यन्ति तेषां च महोत्वः ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भू-
दक्रूर इत्येतदतीव दारुणः।
योऽसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं
प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः॥
मूलम्
मैतद्विधस्याकरुणस्य नाम भू-
दक्रूर इत्येतदतीव दारुणः।
योऽसावनाश्वास्य सुदुःखितं जनं
प्रियात्प्रियं नेष्यति पारमध्वनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दरको हमारी आँखोंसे ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुषका ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अक्रूर इति नाम माभूदित्यन्वयः अध्वनः पारं दूरदेशम् ॥ २६-२९ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं
तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः।
गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं
दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते॥
मूलम्
अनार्द्रधीरेष समास्थितो रथं
तमन्वमी च त्वरयन्ति दुर्मदाः।
गोपा अनोभिः स्थविरैरुपेक्षितं
दैवं च नोऽद्य प्रतिकूलमीहते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ोंद्वारा उनके साथ जानेके लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगोंकी जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मनमें आवे, करो!’ अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवारयामः समुपेत्य माधवं
किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः।
मुकुन्दसङ्गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्
दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम्॥
मूलम्
निवारयामः समुपेत्य माधवं
किं नोऽकरिष्यन् कुलवृद्धबान्धवाः।
मुकुन्दसङ्गान्निमिषार्धदुस्त्यजाद्
दैवेन विध्वंसितदीनचेतसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दरको रोकेंगी; कुलके बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे? अरी सखी! हम आधे क्षणके लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दनका संग छोड़नेमें असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्यने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्तको विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र-
लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठ्याम्।
नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं
गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम्॥
मूलम्
यस्यानुरागललितस्मितवल्गुमन्त्र-
लीलावलोकपरिरम्भणरासगोष्ठ्याम्।
नीताः स्म नः क्षणमिव क्षणदा विना तं
गोप्यः कथं न्वतितरेम तमो दुरन्तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखियो! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुसकान, रहस्यकी मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगनसे हमने रासलीलाकी वे रात्रियाँ—जो बहुत विशाल थीं—एक क्षणके समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हींकी दी हुई अपार विरहव्यथाका पार कैसे पावेंगी॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽह्नः क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो
गोपैर्विशन् खुररजश्छुरितालकस्रक्।
वेणुं क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन
चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम॥
मूलम्
योऽह्नः क्षये व्रजमनन्तसखः परीतो
गोपैर्विशन् खुररजश्छुरितालकस्रक्।
वेणुं क्वणन् स्मितकटाक्षनिरीक्षणेन
चित्तं क्षिणोत्यमुमृते नु कथं भवेम॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी नहीं, प्रतिदिनकी बात है, सायंकालमें प्रतिदिन वे ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ वनसे गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गलेके पुष्पहार गौओंके खुरकी रजसे ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे देख-देखकर हमारे हृदयको बेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी?॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनन्तसखः वलभद्रसखः कणन् कणयन् ॥ ३०-३४ ॥
श्लोक-३१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः।
विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥
मूलम्
एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रियः कृष्णविषक्तमानसाः।
विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुस्वरं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! गोपियाँ वाणीसे तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्णका स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरहकी सम्भावनासे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’—इस प्रकार ऊँची आवाजसे पुकार-पुकारकर सुललित स्वरसे रोने लगीं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीणामेवं रुदन्तीनामुदिते सवितर्यथ।
अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम्॥
मूलम्
स्त्रीणामेवं रुदन्तीनामुदिते सवितर्यथ।
अक्रूरश्चोदयामास कृतमैत्रादिको रथम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियाँ इस प्रकार रो रही थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूरजी सन्ध्यावन्दन आदि नित्य कर्मोंसे निवृत्त होकर रथपर सवार हुए और उसे हाँक ले चले॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्याः शकटैस्ततः।
आदायोपायनं भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान्॥
मूलम्
गोपास्तमन्वसज्जन्त नन्दाद्याः शकटैस्ततः।
आदायोपायनं भूरि कुम्भान् गोरससम्भृतान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबा आदि गोपोंने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदिसे भरे मटके और भेंटकी बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ोंपर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोप्यश्च दयितं कृष्णमनुव्रज्यानुरञ्जिताः।
प्रत्यादेशं भगवतः काङ्क्षन्त्यश्चावतस्थिरे॥
मूलम्
गोप्यश्च दयितं कृष्णमनुव्रज्यानुरञ्जिताः।
प्रत्यादेशं भगवतः काङ्क्षन्त्यश्चावतस्थिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय अनुरागके रंगमें रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्णके पास गयीं और उनकी चितवन, मुसकान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दरसे कुछ सन्देश पानेकी आकांक्षासे वहीं खड़ी हो गयीं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाने यदूत्तमः।
सान्त्वयामास सप्रेमैरायास्य इति दौत्यकैः॥
मूलम्
तास्तथा तप्यतीर्वीक्ष्य स्वप्रस्थाने यदूत्तमः।
सान्त्वयामास सप्रेमैरायास्य इति दौत्यकैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे मथुरा जानेसे गोपियोंके हृदयमें बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूतके द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आयास्ये हृदि सन्निधाय यास्यामीत्यभिप्रायः ॥ ३५-३८ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावदालक्ष्यते केतुर्यावद् रेणू रथस्य च।
अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिताः॥
मूलम्
यावदालक्ष्यते केतुर्यावद् रेणू रथस्य च।
अनुप्रस्थापितात्मानो लेख्यानीवोपलक्षिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियोंको जबतक रथकी ध्वजा और पहियोंसे उड़ती हुई धूल दीखती रही तबतक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्णके साथ ही भेज दिया था॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता निराशा निववृतुर्गोविन्दविनिवर्तने।
विशोका अहनी निन्युर्गायन्त्यः प्रियचेष्टितम्॥
मूलम्
ता निराशा निववृतुर्गोविन्दविनिवर्तने।
विशोका अहनी निन्युर्गायन्त्यः प्रियचेष्टितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभी उनके मनमें आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित्! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दरकी लीलाओंका गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्तापको हलका करतीं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप।
रथेन वायुवेगेन कालिन्दीमघनाशिनीम्॥
मूलम्
भगवानपि सम्प्राप्तो रामाक्रूरयुतो नृप।
रथेन वायुवेगेन कालिन्दीमघनाशिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजीके साथ वायुके समान वेगवाले रथपर सवार होकर पापनाशिनी यमुनाजीके किनारे जा पहुँचे॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम्।
वृक्षषण्डमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत्॥
मूलम्
तत्रोपस्पृश्य पानीयं पीत्वा मृष्टं मणिप्रभम्।
वृक्षषण्डमुपव्रज्य सरामो रथमाविशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन लोगोंने हाथ-मुँह धोकर यमुनाजीका मरकत-मणिके समान नीला और अमृतके समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजीके साथ भगवान् वृक्षोंके झुरमुटमें खड़े रथपर सवार हो गये॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृष्टमणिप्रभं शुद्धमरकतप्रभम् ॥ ३९-४० ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य निवेश्य च रथोपरि।
कालिन्द्या ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत्॥
मूलम्
अक्रूरस्तावुपामन्त्र्य निवेश्य च रथोपरि।
कालिन्द्या ह्रदमागत्य स्नानं विधिवदाचरत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने दोनों भाइयोंको रथपर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजीके कुण्ड (अनन्त—तीर्थ या ब्रह्मह्रद) पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमज्ज्य तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्मसनातनम्।
तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ॥
मूलम्
निमज्ज्य तस्मिन् सलिले जपन् ब्रह्मसनातनम्।
तावेव ददृशेऽक्रूरो रामकृष्णौ समन्वितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कुण्डमें स्नान करनेके बाद वे जलमें डुबकी लगाकर गायत्रीका जप करने लगे। उसी समय जलके भीतर अक्रूरजीने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्रह्म प्रणवम् ॥ ४१-५२ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ रथस्थौ कथमिह सुतावानकदुन्दुभेः।
तर्हि स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः॥
मूलम्
तौ रथस्थौ कथमिह सुतावानकदुन्दुभेः।
तर्हि स्वित् स्यन्दने न स्त इत्युन्मज्ज्य व्यचष्ट सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब उनके मनमें यह शंका हुई कि ‘वसुदेवजीके पुत्रोंको तो मैं रथपर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जलमें कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथपर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापि च यथापूर्वमासीनौ पुनरेव सः।
न्यमज्जद् दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः॥
मूलम्
तत्रापि च यथापूर्वमासीनौ पुनरेव सः।
न्यमज्जद् दर्शनं यन्मे मृषा किं सलिले तयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उस रथपर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जलमें देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम्।
सिद्धचारणगन्धर्वैरसुरैर्नतकन्धरैः॥
मूलम्
भूयस्तत्रापि सोऽद्राक्षीत् स्तूयमानमहीश्वरम्।
सिद्धचारणगन्धर्वैरसुरैर्नतकन्धरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात् अनन्तदेव श्रीशेषजी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम्।
नीलाम्बरं बिसश्वेतं शृङ्गैः श्वेतमिव स्थितम्॥
मूलम्
सहस्रशिरसं देवं सहस्रफणमौलिनम्।
नीलाम्बरं बिसश्वेतं शृङ्गैः श्वेतमिव स्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शेषजीके हजार सिर हैं और प्रत्येक फणपर मुकुट सुशोभित है। कमलनालके समान उज्ज्वल शरीरपर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरोंसे युक्त श्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्योत्सङ्गे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्।
पुरुषं चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम्॥
मूलम्
तस्योत्सङ्गे घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्।
पुरुषं चतुर्भुजं शान्तं पद्मपत्रारुणेक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने देखा कि शेषजीकी गोदमें श्याम मेघके समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुज मूर्ति है और कमलके रक्तदलके समान रतनारे नेत्र हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम्।
सुभ्रून्नसं चारुकर्णं सुकपोलारुणाधरम्॥
मूलम्
चारुप्रसन्नवदनं चारुहासनिरीक्षणम्।
सुभ्रून्नसं चारुकर्णं सुकपोलारुणाधरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका वदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नताका सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्तको चुराये लेती है। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरोंकी छटा निराली ही है॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलम्बपीवरभुजं तुङ्गांसोरःस्थलश्रियम्।
कम्बुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम्॥
मूलम्
प्रलम्बपीवरभुजं तुङ्गांसोरःस्थलश्रियम्।
कम्बुकण्ठं निम्ननाभिं वलिमत्पल्लवोदरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाँहें घुटनोंतक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल लक्ष्मीजीका आश्रय-स्थान है। शंखके समान उतार-चढ़ाववाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपलके पत्तेके समान शोभायमान है॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहत्कटितटश्रोणिकरभोरुद्वयान्वितम्।
चारुजानुयुगं चारुजङ्घायुगलसंयुतम्॥
मूलम्
बृहत्कटितटश्रोणिकरभोरुद्वयान्वितम्।
चारुजानुयुगं चारुजङ्घायुगलसंयुतम्॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुङ्गगुल्फारुणनखव्रातदीधितिभिर्वृतम्।
नवाङ्गुल्यङ्गुष्ठदलैर्विलसत्पादपङ्कजम्॥
मूलम्
तुङ्गगुल्फारुणनखव्रातदीधितिभिर्वृतम्।
नवाङ्गुल्यङ्गुष्ठदलैर्विलसत्पादपङ्कजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्थूल कटिप्रदेश और नितम्ब, हाथीकी सूँडके समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं। एड़ीके ऊपरकी गाँठें उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखोंसे दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फैल रही हैं। चरणकमलकी अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पँखुड़ियोंके समान सुशोभित हैं॥ ४९-५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमहार्हमणिव्रातकिरीटकटकाङ्गदैः।
कटिसूत्रब्रह्मसूत्रहारनूपुरकुण्डलैः॥
मूलम्
सुमहार्हमणिव्रातकिरीटकटकाङ्गदैः।
कटिसूत्रब्रह्मसूत्रहारनूपुरकुण्डलैः॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राजमानं पद्मकरं शङ्खचक्रगदाधरम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥
मूलम्
भ्राजमानं पद्मकरं शङ्खचक्रगदाधरम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अत्यन्त बहुमूल्य मणियोंसे जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलोंसे तथा यज्ञोपवीतसे वह दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथमें पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है॥ ५१-५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनन्दनन्दप्रमुखैः पार्षदैः सनकादिभिः।
सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैर्नवभिश्च द्विजोत्तमैः॥
मूलम्
सुनन्दनन्दप्रमुखैः पार्षदैः सनकादिभिः।
सुरेशैर्ब्रह्मरुद्राद्यैर्नवभिश्च द्विजोत्तमैः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नवभिः नव ब्रह्माण इति प्रसिद्धेः कश्यपादिभिः ॥ ५३-५५ ॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रह्रादनारदवसुप्रमुखैर्भागवतोत्तमैः।
स्तूयमानं पृथग्भावैर्वचोभिरमलात्मभिः॥
मूलम्
प्रह्रादनारदवसुप्रमुखैर्भागवतोत्तमैः।
स्तूयमानं पृथग्भावैर्वचोभिरमलात्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान्के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने परम प्रियतम ‘भगवान्’ समझकर भिन्न-भिन्न भावोंके अनुसार निर्दोष वेदवाणीसे भगवान्की स्तुति कर रहे हैं॥ ५३-५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रिया पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया।
विद्ययाविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम्॥
मूलम्
श्रिया पुष्ट्या गिरा कान्त्या कीर्त्या तुष्ट्येलयोर्जया।
विद्ययाविद्यया शक्त्या मायया च निषेवितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति आदि तुष्टि (अर्थात् ऐश्वर्य, बाल, ज्ञान, श्री, यश और वैराग्य—ये षडैश्वर्यरूप शक्तियाँ), इला (सन्धिनीरूप पृथ्वी-शक्ति), ऊर्जा (लीलाशक्ति), विद्या-अविद्या (जीवोंके मोक्ष और बन्धनमें कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित् (अन्तरंगा शक्ति) और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रही हैं॥ ५५॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः।
हृष्यत्तनूरुहो भावपरिक्लिन्नात्मलोचनः॥
मूलम्
विलोक्य सुभृशं प्रीतो भक्त्या परमया युतः।
हृष्यत्तनूरुहो भावपरिक्लिन्नात्मलोचनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की यह झाँकी निरखकर अक्रूरजीका हृदय परमानन्दसे लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेशसे पुलकित हो गया। प्रेमभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्र आँसूसे भर गये॥ ५६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भावप्रक्लिन्नात्मलोचनः स्नेहात्साश्रुलोचनः ॥ ५६-५७ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ३९ ॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरा गद्गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः।
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः॥
मूलम्
गिरा गद्गदयास्तौषीत् सत्त्वमालम्ब्य सात्वतः।
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिपुटः शनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब अक्रूरजीने अपना साहस बटोरकर भगवान्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानीसे धीरे-धीरे गद्गद स्वरसे भगवान्की स्तुति करने लगे॥ ५७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरप्रतियाने एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ३९॥