३८ पूर्वार्धेऽक्रूरागमनम्

[अष्टात्रिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

अक्रूरजीकी व्रजयात्रा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः।
उषित्वा रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

मूलम्

अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः।
उषित्वा रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरीमें बिताकर प्रातःकाल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छन् पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे।
भक्तिं परामुपगत एवमेतदचिन्तयत्॥

मूलम्

गच्छन् पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे।
भक्तिं परामुपगत एवमेतदचिन्तयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी परम प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे—॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं मयाऽऽचरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः।
किं वाथाप्यर्हते दत्तं यद् द्रक्ष्याम्यद्य केशवम्॥

मूलम्

किं मयाऽऽचरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः।
किं वाथाप्यर्हते दत्तं यद् द्रक्ष्याम्यद्य केशवम्॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्हते योग्याय पात्राय ॥ १-३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममैतद् दुर्लभं मन्य उत्तमश्लोकदर्शनम्।
विषयात्मनो यथा ब्रह्मकीर्तनं शूद्रजन्मनः॥

मूलम्

ममैतद् दुर्लभं मन्य उत्तमश्लोकदर्शनम्।
विषयात्मनो यथा ब्रह्मकीर्तनं शूद्रजन्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते—उन भगवान‍्के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्रकुलके बालकके लिये वेदोंका कीर्तन॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रह्मकीर्त्तनं वेदोच्चारणम् ॥ ४-५ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम्।
ह्रियमाणः कालनद्या क्वचित्तरति कश्चन॥

मूलम्

मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम्।
ह्रियमाणः कालनद्या क्वचित्तरति कश्चन॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममाद्यामङ्गलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः।
यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयाङ्घ्रिपङ्कजम्॥

मूलम्

ममाद्यामङ्गलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः।
यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयाङ्घ्रिपङ्कजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान‍्के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भवः जन्म ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसो बताद्याकृत मेऽत्यनुग्रहं
द्रक्ष्येऽङ्घ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः।
कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः
पूर्वेऽतरन् यन्नखमण्डलत्विषा॥

मूलम्

कंसो बताद्याकृत मेऽत्यनुग्रहं
द्रक्ष्येऽङ्घ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः।
कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः
पूर्वेऽतरन् यन्नखमण्डलत्विषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं भगवान‍्के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा। जिनके नखमण्डलकी कान्तिका ध्यान करके पहले युगोंके ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार-राशिको पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान् तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अत्यनुग्रहम् अकृत अकरोत् तमः पापं “पाप्मा वै तमः" इति श्रुतेः ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः
श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः।
गोचारणायानुचरैश्चरद्वने
यद् गोपिकानां कुचकुङ्कुमाङ्कितम्॥

मूलम्

यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः
श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः।
गोचारणायानुचरैश्चरद्वने
यद् गोपिकानां कुचकुङ्कुमाङ्कितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्न रहते हैं—भगवान‍्के वे ही चरणकमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्षः-स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं,॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गोचारणाय गवां सचारणाय यवसभक्षणातिष्पादनाय वा ॥ ८-१० ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं
स्मितावलोकारुणकञ्जलोचनम्।
मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं
प्रदक्षिणं मे प्रचरन्ति वै मृगाः॥

मूलम्

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं
स्मितावलोकारुणकञ्जलोचनम्।
मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं
प्रदक्षिणं मे प्रचरन्ति वै मृगाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से कोमल रतनारे लोचन और कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओरसे निकल रहे हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो
भारावताराय भुवो निजेच्छया।
लावण्यधाम्नो भवितोपलम्भनं
मह्यं न न स्यात् फलमञ्जसा दृशः॥

मूलम्

अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो
भारावताराय भुवो निजेच्छया।
लावण्यधाम्नो भवितोपलम्भनं
मह्यं न न स्यात् फलमञ्जसा दृशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं। सौन्दर्यकी मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा! अवश्य होगा! आज मुझे सहजमें ही आँखोंका फल मिल जायगा॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

य ईक्षिताहंरहितोऽप्यसत्सतोः
स्वतेजसापास्ततमोभिदाभ्रमः।
स्वमाययाऽऽत्मन् रचितैस्तदीक्षया
प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते॥

मूलम्

य ईक्षिताहंरहितोऽप्यसत्सतोः
स्वतेजसापास्ततमोभिदाभ्रमः।
स्वमाययाऽऽत्मन् रचितैस्तदीक्षया
प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत‍्के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलासमात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावनकी कुंजोंमें तथा गोपियोंके घरोंमें तरह-तरहकी लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ईक्षितेति । अहं शब्देनात्मन्यहंकारो लक्ष्यते । जीवाः स्थूलोऽहं पश्यामीति मन्यन्ते । एवं तद्दे हे बुद्धिरहितोऽपि अत एव स्वगतजातिगुणादिभिदा भ्रमरहितोऽपि यः सदसतोः चिदचितोः कार्यकारणायोर्वा ईक्षिता ज्ञाता द्रष्टा सदनेषु भोगायतनेषु देहेषु तदीयस्वसंकल्पेन रचितैः प्राणाक्षधीभिः लिङ्गव्ययत्यय आर्षः अधीयते गम्यते बुध्यते प्राणादीनां कारणतया ज्ञायत इत्यर्थः । प्राणादिभिर्जन्तुषु भाति वित्रधा इति पाठे प्राणादीन् परमात्मशरीरत्वात् तैर्विशिष्ट चित्रधा बहुधा भातीति ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याखिलामीवहभिः सुमङ्गलै-
र्वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः।
प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगद्
यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः॥

मूलम्

यस्याखिलामीवहभिः सुमङ्गलै-
र्वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः।
प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगद्
यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणीसे उनके गुण, लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समान—व्यर्थ है॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शास्त्रवशादप्याह । अमीवहभिः पापापहैः वाचः प्राणन्ति शुम्भन्तीति । अन्तर्भावितण्यर्थनिर्देशः । जगज्जीवयन्ति शोभयन्ति पुनन्ति चेत्यर्थः या वाचस्तद्विरता भगवज्जन्मादिप्रतिपादनरहिताः ताः शवशोभनाः शवकल्पानां जीवन्मृतानाज्ञानां शोभनाः । यद्वा गुणादिशून्याः वाचो निष्प्राणदेह तुल्याः ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चावतीर्णः किल सात्वतान्वये
स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत्।
यशो वितन्वन् व्रज आस्त ईश्वरो
गायन्ति देवा यदशेषमङ्गलम्॥

मूलम्

स चावतीर्णः किल सात्वतान्वये
स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत्।
यशो वितन्वन् व्रज आस्त ईश्वरो
गायन्ति देवा यदशेषमङ्गलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये? अपनी ही बनायी मर्यादाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओंका कल्याण करनेके लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज व्रजमें निवास कर रहे हैं और वहींसे अपने यशका विस्तार कर रहे हैं उनका यश कितना पवित्र है! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मंगलमय यशका गान करते रहते हैं॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वसेतुः स्वकृतमर्यादा ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं
त्रैलोक्यकान्तं दृशिमन्महोत्सवम्।
रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं
द्रक्ष्ये ममासन्नुषसः सुदर्शनाः॥

मूलम्

तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं
त्रैलोक्यकान्तं दृशिमन्महोत्सवम्।
रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं
द्रक्ष्ये ममासन्नुषसः सुदर्शनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला है। जो नेत्रवाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा है। इसीसे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्यकी अधीश्वरी हैं, उन्हें पानेके लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दृशिमतां चक्षुष्मतामुत्सवमानन्दकरम् । असवः इन्द्रियाणि सुदर्शनाः सुप्रसङ्गाः ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथावरूढः सपदीशयो रथात्
प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये।
धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं
नमस्य आभ्यां च सखीन् वनौकसः॥

मूलम्

अथावरूढः सपदीशयो रथात्
प्रधानपुंसोश्चरणं स्वलब्धये।
धिया धृतं योगिभिरप्यहं ध्रुवं
नमस्य आभ्यां च सखीन् वनौकसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्णके चरणोंमें नमस्कार करनेके लिये तुरंत रथसे कूद पड़ूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कारके लिये मन-ही-मन अपने हृदयमें उनके चरणोंकी धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लोट जाऊँगा उनपर। उन दोनोंके साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबालके चरणोंकी भी वन्दना करूँगा॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रधानपुंसोः श्रेष्ठयोः पुंसोः योगिभिरपि धिया बुद्धया वृतान् चरणान् अथावरूढः । जगदाधारत्वेन निरूपणेऽनन्तः स्वलब्धये स्वसत्ता सिद्धयर्थम् अधात् दधार पादपीठव्यवधानमात्रं भूमण्डलं व्यवधानमिति भावः । आभ्यां रामकृष्णाभ्यां सहितान् सखीन् वनौकसो नमस्यें ॥ १५-१६ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यङ्घ्रिमूले पतितस्य मे विभुः
शिरस्यधास्यन्निजहस्तपङ्कजम्।
दत्ताभयं कालभुजङ्गरंहसा
प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां नृणाम्॥

मूलम्

अप्यङ्घ्रिमूले पतितस्य मे विभुः
शिरस्यधास्यन्निजहस्तपङ्कजम्।
दत्ताभयं कालभुजङ्गरंहसा
प्रोद्वेजितानां शरणैषिणां नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलोंमें गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगोंको सदाके लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कालरूपी साँपके भयसे अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरणमें आ जाते हैं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्हणं यत्र निधाय कौशिक-
स्तथा बलिश्चाप जगत्त्रयेन्द्रताम्।
यद् वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं
स्पर्शेन सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत्॥

मूलम्

समर्हणं यत्र निधाय कौशिक-
स्तथा बलिश्चाप जगत्त्रयेन्द्रताम्।
यद् वा विहारे व्रजयोषितां श्रमं
स्पर्शेन सौगन्धिकगन्ध्यपानुदत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र तथा दैत्यराज बलिने भगवान‍्के उन्हीं करकमलोंमें पूजाकी भेंट समर्पित करके तीनों लोकोंका प्रभुत्व—इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान‍्के उन्हीं करकमलोंने, जिनमेंसे दिव्य कमलकी-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्शसे रासलीलाके समय व्रजयुवतियोंकी सारी थकान मिटा दी थी॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्हणम् अर्घ्यजलं तद्धस्ते कर्मभिश्च कौशिक इन्द्रः ॥ १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः
कंसस्य दूतः प्रहितोऽपि विश्वदृक्।
योऽन्तर्बहिश्चेतस एतदीहितं
क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा॥

मूलम्

न मय्युपैष्यत्यरिबुद्धिमच्युतः
कंसस्य दूतः प्रहितोऽपि विश्वदृक्।
योऽन्तर्बहिश्चेतस एतदीहितं
क्षेत्रज्ञ ईक्षत्यमलेन चक्षुषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं कंसका दूत हूँ। उसीके भेजनेसे उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्वके साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्तके बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञरूपसे स्थित होकर अन्तःकरणकी एक-एक चेष्टाको अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टिके द्वारा देखते रहते हैं॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यद्यप्यहं कंसस्य भृत्यभूतस्तेन प्रहितस्तथापि विश्वदृक् स मयि न शत्रुबुद्धिमुपेयात् क्षेत्रज्ञः युगपत् सर्वाणि क्षेत्राणि जानातीश्वरः एतदीहितं चेतसो व्यापारं चेतसोऽन्तर्बहिस्तिष्ठन् य ईक्षते इत्यर्थः । “यो मनसिष्ठन्निति श्रुतेः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यङ्घ्रिमूलेऽवहितं कृताञ्जलिं
मामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दृशा।
सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो
वोढा मुदं वीतविशङ्क ऊर्जिताम्॥

मूलम्

अप्यङ्घ्रिमूलेऽवहितं कृताञ्जलिं
मामीक्षिता सस्मितमार्द्रया दृशा।
सपद्यपध्वस्तसमस्तकिल्बिषो
वोढा मुदं वीतविशङ्क ऊर्जिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मेरी शंका व्यर्थ है। अवश्य ही मैं उनके चरणोंमें हाथ जोड़कर विनीतभावसे खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टिसे मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्मके समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदाके लिये परमानन्दमें मग्न हो जाऊँगा॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वीतशङ्कः गतशङ्कः ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं
दोर्भ्यां बृहद‍्भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम्।
आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे
बन्धश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः॥

मूलम्

सुहृत्तमं ज्ञातिमनन्यदैवतं
दोर्भ्यां बृहद‍्भ्यां परिरप्स्यतेऽथ माम्।
आत्मा हि तीर्थीक्रियते तदैव मे
बन्धश्च कर्मात्मक उच्छ्वसित्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उनके कुटुम्बका हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें वे अपनी लंबी-लंबी बाँहोंसे पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदयसे लगा लेंगे। अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरोंको पवित्र करनेवाली भी बन जायगी और उसी समय—उनका आलिंगन प्राप्त होते ही—मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकालसे भटक रहा हूँ, टूट जायँगे॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तीर्थीक्रियते पवित्रीक्रियते उच्छ्वसिति शिथिली भवति ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्धाङ्गसङ्गं प्रणतं कृताञ्जलिं
मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः।
तदा वयं जन्मभृतो महीयसा
नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत्॥

मूलम्

लब्धाङ्गसङ्गं प्रणतं कृताञ्जलिं
मां वक्ष्यतेऽक्रूर ततेत्युरुश्रवाः।
तदा वयं जन्मभृतो महीयसा
नैवादृतो यो धिगमुष्य जन्म तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे! क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यशका विस्तार करनेके लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान् श्रीकृष्णने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया—उसके उस जन्मको, जीवनको धिक्‍कार है॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तत तातेत्यर्थः । “तत कस्मै मां दास्यती”ति श्रुतिनिर्देशः यदा वक्ष्यते तदा परं जन्मभृतः सफलजन्मानः । महीयसा कृष्णेन यो नादृतः अमुष्य जन्म धिक् ॥ २१-२२ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्य कश्चिद् दयितः सुहृत्तमो
न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा।
तथापि भक्तान् भजते यथा तथा
सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः॥

मूलम्

न तस्य कश्चिद् दयितः सुहृत्तमो
न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा।
तथापि भक्तान् भजते यथा तथा
सुरद्रुमो यद्वदुपाश्रितोऽर्थदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षाका पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करनेवालोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूपमें भजते हैं—वे अपने प्रेमी भक्तोंसे ही पूर्ण प्रेम करते हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

किञ्चाग्रजो मावनतं यदूत्तमः
स्मयन् परिष्वज्य गृहीतमञ्जलौ।
गृहं प्रवेश्याप्तसमस्तसत्कृतं
संप्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबन्धुषु॥

मूलम्

किञ्चाग्रजो मावनतं यदूत्तमः
स्मयन् परिष्वज्य गृहीतमञ्जलौ।
गृहं प्रवेश्याप्तसमस्तसत्कृतं
संप्रक्ष्यते कंसकृतं स्वबन्धुषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उनके सामने विनीत भावसे सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने हृदयसे लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घरके भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकारसे मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालोंके साथ कैसा व्यवहार करता है?’॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

संप्रक्ष्यते संप्रश्नं करिष्यतीति ॥ २३-२६ ॥

श्लोक-२४

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

इति सञ्चिन्तयन् कृष्णं श्वफल्कतनयोऽध्वनि।

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्चास्तगिरं नृप॥

मूलम्

रथेन गोकुलं प्राप्तः सूर्यश्चास्तगिरं नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्गमें इसी चिन्तनमें डूबे-डूबे रथसे नन्दगाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचलपर चले गये॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पदानि तस्याखिललोकपाल-
किरीटजुष्टामलपादरेणोः।
ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि
विलक्षितान्यब्जयवाङ्कुशाद्यैः॥

मूलम्

पदानि तस्याखिललोकपाल-
किरीटजुष्टामलपादरेणोः।
ददर्श गोष्ठे क्षितिकौतुकानि
विलक्षितान्यब्जयवाङ्कुशाद्यैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके चरणकमलकी रजका सभी लोकपाल अपने किरीटोंके द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजीने गोष्ठमें उनके चरणचिह्नोंके दर्शन किये। कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिह्नोंके द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वीकी शोभा बढ़ रही थी॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः
प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः।
रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत
प्रभोरमून्यङ्घ्रिरजांस्यहो इति॥

मूलम्

तद्दर्शनाह्लादविवृद्धसम्भ्रमः
प्रेम्णोर्ध्वरोमाश्रुकलाकुलेक्षणः।
रथादवस्कन्द्य स तेष्वचेष्टत
प्रभोरमून्यङ्घ्रिरजांस्यहो इति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन चरणचिह्नोंके दर्शन करते ही अक्रूरजीके हृदयमें इतना आह्लाद हुआ कि वे अपनेको सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेमके आवेगसे उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रोंमें आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे रथसे कूद-कर उस धूलिमें लोटने लगे और कहने लगे—‘अहो! यह हमारे प्रभुके चरणोंकी रज है’॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम्।
संदेशाद् यो हरेर्लिङ्गदर्शनश्रवणादिभिः॥

मूलम्

देहंभृतामियानर्थो हित्वा दम्भं भियं शुचम्।
संदेशाद् यो हरेर्लिङ्गदर्शनश्रवणादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कंसके सन्देशसे लेकर यहाँतक अक्रूरजीके चित्तकी जैसी अवस्था रही है, यही जीवोंके देह धारण करनेका परम लाभ है। इसलिये जीवमात्रका यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान‍्की मूर्ति (प्रतिमा, भक्त आदि) चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणोंके दर्शन-श्रवण आदिके द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देहभृतां देहिनां संदेशात् शास्त्रानुसारात् दर्शनश्रवणादिभिः शुद्धो भवतीति यत् इयान् देहभृतामर्थः फलमियदित्यर्थः ॥ २७-३१ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ।
पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरुहेक्षणौ॥

मूलम्

ददर्श कृष्णं रामं च व्रजे गोदोहनं गतौ।
पीतनीलाम्बरधरौ शरदम्बुरुहेक्षणौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजमें पहुँचकर अक्रूरजीने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयोंको गाय दुहनेके स्थानमें विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद‍्भुजौ।
सुमुखौ सुन्दरवरौ बालद्विरदविक्रमौ॥

मूलम्

किशोरौ श्यामलश्वेतौ श्रीनिकेतौ बृहद‍्भुजौ।
सुमुखौ सुन्दरवरौ बालद्विरदविक्रमौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अभी किशोर-अवस्थामें प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्यकी खान थे। घुटनोंका स्पर्श करनेवाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावकके समान ललित चाल थी॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्वजवज्राङ्कुशाम्भोजैश्चिह्नितैरङ्घ्रिभिर्व्रजम्।
शोभयन्तौ महात्मानावनुक्रोशस्मितेक्षणौ॥

मूलम्

ध्वजवज्राङ्कुशाम्भोजैश्चिह्नितैरङ्घ्रिभिर्व्रजम्।
शोभयन्तौ महात्मानावनुक्रोशस्मितेक्षणौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके चरणोंमें ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमलके चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुसकान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारताकी तो मानो मूर्ति ही थे॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौ वनमालिनौ।
पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्गौ स्नातौ विरजवाससौ॥

मूलम्

उदाररुचिरक्रीडौ स्रग्विणौ वनमालिनौ।
पुण्यगन्धानुलिप्ताङ्गौ स्नातौ विरजवाससौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कलासे भरी थी। गलेमें वनमाला और मणियोंके हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीरमें पवित्र अंगराग तथा चन्दनका लेप किया था॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती।
अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ॥

मूलम्

प्रधानपुरुषावाद्यौ जगद्धेतू जगत्पती।
अवतीर्णौ जगत्यर्थे स्वांशेन बलकेशवौ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशो वितिमिरा राजन् कुर्वाणौ प्रभया स्वया।
यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ॥

मूलम्

दिशो वितिमिरा राजन् कुर्वाणौ प्रभया स्वया।
यथा मारकतः शैलो रौप्यश्च कनकाचितौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अक्रूरने देखा कि जगत‍्के आदिकारण, जगत‍्के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसारकी रक्षाके लिये अपने सम्पूर्ण अंशोंसे बलरामजी और श्रीकृष्णके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी अंगकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोनेसे मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदीके पर्वत जगमगा रहे हों॥ ३२-३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः।
पपात चरणोपान्ते दण्डवद् रामकृष्णयोः॥

मूलम्

रथात्तूर्णमवप्लुत्य सोऽक्रूरः स्नेहविह्वलः।
पपात चरणोपान्ते दण्डवद् रामकृष्णयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखते ही अक्रूरजी प्रेमावेगसे अधीर होकर रथसे कूद पड़े और भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामके चरणोंके पास साष्टांग लोट गये॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवद्दर्शनाह्लादबाष्पपर्याकुलेक्षणः।
पुलकाचिताङ्ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन् नृप॥

मूलम्

भगवद्दर्शनाह्लादबाष्पपर्याकुलेक्षणः।
पुलकाचिताङ्ग औत्कण्ठ्यात् स्वाख्याने नाशकन् नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्के दर्शनसे उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसूसे सर्वथा भर गये। सारे शरीरमें पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आनेके कारण वे अपना नाम भी न बतला सके॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस्तमभिप्रेत्य रथाङ्गाङ्कितपाणिना।
परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः॥

मूलम्

भगवांस्तमभिप्रेत्य रथाङ्गाङ्कितपाणिना।
परिरेभेऽभ्युपाकृष्य प्रीतः प्रणतवत्सलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरणागतवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उनके मनका भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे चक्रांकित हाथोंके द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदयसे लगा लिया॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

संकर्षणश्च प्रणतमुपगुह्य महामनाः।
गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत् सानुजो गृहम्॥

मूलम्

संकर्षणश्च प्रणतमुपगुह्य महामनाः।
गृहीत्वा पाणिना पाणी अनयत् सानुजो गृहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्रीबलरामजीके सामने विनीत भावसे खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्णने पकड़ा तथा दूसरा बलरामजीने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम्।
प्रक्षाल्य विधिवत् पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत्॥

मूलम्

पृष्ट्वाथ स्वागतं तस्मै निवेद्य च वरासनम्।
प्रक्षाल्य विधिवत् पादौ मधुपर्कार्हणमाहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

घर ले जाकर भगवान‍्ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसनपर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क (शहद मिला हुआ दही) आदि पूजाकी सामग्री भेंट की॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेद्य गां चातिथये संवाह्य श्रान्तमादृतः।
अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद् विभुः॥

मूलम्

निवेद्य गां चातिथये संवाह्य श्रान्तमादृतः।
अन्नं बहुगुणं मेध्यं श्रद्धयोपाहरद् विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान‍्ने अतिथि अक्रूरजीको एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धासे उन्हें पवित्र और अनेक गुणोंसे युक्त अन्नका भोजन कराया॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

संवाह्य अङ्गसंवाहनं कारयित्वा ॥ ३९ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित्।
मुखवासैर्गन्धमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात् पुनः॥

मूलम्

तस्मै भुक्तवते प्रीत्या रामः परमधर्मवित्।
मुखवासैर्गन्धमाल्यैः परां प्रीतिं व्यधात् पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे भोजन कर चुके, तब धर्मके परम मर्मज्ञ भगवान् बलरामजीने बड़े प्रेमसे मुखवास (पान-इलायची आदि) और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मुखवासैः कर्पूरादिभिः ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पप्रच्छ सत्कृतं नन्दः कथं स्थ निरनुग्रहे।
कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः॥

मूलम्

पप्रच्छ सत्कृतं नन्दः कथं स्थ निरनुग्रहे।
कंसे जीवति दाशार्ह सौनपाला इवावयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सत्कार हो चुकनेपर नन्दरायजीने उनके पास आकर पूछा—‘अक्रूरजी! आपलोग निर्दयी कंसके जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं? अरे! उसके रहते आपलोगोंकी वही दशा है जो कसाईद्वारा पाली हुई भेड़ोंकी होती है॥ ४१॥

वीरराघवः

कथं स्थ तत्प्रजानां वः तद्विषयवासिनां वः ॥ ४१-४३ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे पूर्वार्ध श्रीसुदर्शनसुरिकृतशुकपक्षीये अष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३८ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽवधीत् स्वस्वसुस्तोकान् क्रोशन्त्या असुतृप् खलः।
किं नु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे॥

मूलम्

योऽवधीत् स्वस्वसुस्तोकान् क्रोशन्त्या असुतृप् खलः।
किं नु स्वित्तत्प्रजानां वः कुशलं विमृशामहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस इन्द्रियाराम पापीने अपनी बिलखती हुई बहनके नन्हे-नन्हे बच्चोंको मार डाला। आपलोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं?॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजितः।
अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम्॥

मूलम्

इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजितः।
अक्रूरः परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अक्रूरजीने नन्दबाबासे पहले ही कुशल-मंगल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबाने मधुर वाणीसे अक्रूरजीसे कुशल-मंगल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूरजीके शरीरमें रास्ता चलनेकी जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी॥ ४३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरागमनं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः॥ ३८॥