३७ व्योमासुरवधः

[सप्तत्रिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

केशी और व्योमासुरका उद्धार तथा नारदजीके द्वारा भगवान‍्की स्तुति

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं
महाहयो निर्जरयन् मनोजवः।
सटावधूताभ्रविमानसङ्कुलं
कुर्वन् नभो हेषितभीषिताखिलः॥

मूलम्

केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं
महाहयो निर्जरयन् मनोजवः।
सटावधूताभ्रविमानसङ्कुलं
कुर्वन् नभो हेषितभीषिताखिलः॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशालनेत्रो विकटास्यकोटरो
बृहद‍्गलो नीलमहाम्बुदोपमः।
दुराशयः कंसहितं चिकीर्षु-
र्व्रजं स नन्दस्य जगाम कम्पयन्॥

मूलम्

विशालनेत्रो विकटास्यकोटरो
बृहद‍्गलो नीलमहाम्बुदोपमः।
दुराशयः कंसहितं चिकीर्षु-
र्व्रजं स नन्दस्य जगाम कम्पयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया। वह अपनी टापोंसे धरती खोदता आ रहा था! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहटसे सब-के-सब भयसे काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्षका खोड़र ही हो। उसे देखनेसे ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादलकी घटा है। उसकी नीयतमें पाप भरा था। वह श्रीकृष्णको मारकर अपने स्वामी कंसका हित करना चाहता था। उसके चलनेसे भूकम्प होने लगता था॥ १-२॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्रासयन्तं भगवान् स्वगोकुलं
तद्धेषितैर्वालविघूर्णिताम्बुदम्।
आत्मानमाजौ मृगयन्तमग्रणी-
रुपाह्वयत् स व्यनदन्मृगेन्द्रवत्॥

मूलम्

तं त्रासयन्तं भगवान् स्वगोकुलं
तद्धेषितैर्वालविघूर्णिताम्बुदम्।
आत्मानमाजौ मृगयन्तमग्रणी-
रुपाह्वयत् स व्यनदन्मृगेन्द्रवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहटसे उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़नेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी रहा है—तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान गरजकर उसे ललकारा॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं निशाम्याभिमुखो मुखेन खं
पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः।
जघान पद‍्भ्यामरविन्दलोचनं
दुरासदश्चण्डजवो दुरत्ययः॥

मूलम्

स तं निशाम्याभिमुखो मुखेन खं
पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः।
जघान पद‍्भ्यामरविन्दलोचनं
दुरासदश्चण्डजवो दुरत्ययः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परीक्षित्! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान‍्के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वञ्चयित्वा तमधोक्षजो रुषा
प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः।
सावज्ञमुत्सृज्य धनुःशतान्तरे
यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः॥

मूलम्

तद् वञ्चयित्वा तमधोक्षजो रुषा
प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः।
सावज्ञमुत्सृज्य धनुःशतान्तरे
यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु भगवान‍्ने उससे अपनेको बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा
व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम्।
सोऽप्यस्य वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्
प्रवेशयामास यथोरगं बिले॥

मूलम्

स लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा
व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम्।
सोऽप्यस्य वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्
प्रवेशयामास यथोरगं बिले॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी ही देरके बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोधसे तिलमिलाकर और मुँह फाड़कर बड़े वेगसे भगवान‍्की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहमें इस प्रकार डाल दिया, जैसे सर्प बिना किसी आशंकाके अपने बिलमें घुस जाता है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दन्ता निपेतुर्भगवद‍्भुजस्पृश-
स्ते केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा।
बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो
यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः॥

मूलम्

दन्ता निपेतुर्भगवद‍्भुजस्पृश-
स्ते केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा।
बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो
यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशीके दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देनेपर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्णका भुजदण्ड उसके मुँहमें बढ़ने लगा॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेधमानेन स कृष्णबाहुना
निरुद्धवायुश्चरणांश्च विक्षिपन्।
प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः
पपात लेण्डं विसृजन् क्षितौ व्यसुः॥

मूलम्

समेधमानेन स कृष्णबाहुना
निरुद्धवायुश्चरणांश्च विक्षिपन्।
प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः
पपात लेण्डं विसृजन् क्षितौ व्यसुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अचिन्त्यशक्ति भगवान् श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्
व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः।
अविस्मितोऽयत्नहतारिरुत्स्मयैः
प्रसूनवर्षैर्दिविषद‍्भिरीडितः॥

मूलम्

तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्
व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः।
अविस्मितोऽयत्नहतारिरुत्स्मयैः
प्रसूनवर्षैर्दिविषद‍्भिरीडितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होनेके कारण गिरते ही पकी ककड़ीकी तरह फट गया। महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णने उसके शरीरसे अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्नके ही शत्रुका नाश हो गया। देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान‍्के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिरुपसङ्गम्य भागवतप्रवरो नृप।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत॥

मूलम्

देवर्षिरुपसङ्गम्य भागवतप्रवरो नृप।
कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! देवर्षि नारदजी भगवान‍्के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं। कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद‍्भुत कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके पास आये और एकान्तमें उनसे कहने लगे—॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् योगेश जगदीश्वर।
वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो॥

मूलम्

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् योगेश जगदीश्वर।
वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत‍्का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते हैं। आप भक्तोंके एकमात्र वांछनीय, यदुवंशशिरोमणि और हमारे स्वामी हैं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्।
गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः॥

मूलम्

त्वमात्मा सर्वभूतानामेको ज्योतिरिवैधसाम्।
गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियोंमें व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आत्माके रूपमें होनेपर भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पंचकोशरूप गुफाओंके भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान्।
तैरिदं सत्यसंकल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः॥

मूलम्

आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान्।
तैरिदं सत्यसंकल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत‍्की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसङ्कल्प हैं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्।
अवतीर्णो विनाशाय सेतूनां रक्षणाय च॥

मूलम्

स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम्।
अवतीर्णो विनाशाय सेतूनां रक्षणाय च॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारणकर रखा है, विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः।
यस्य हेषितसंत्रस्तास्त्यजन्त्यनिमिषा दिवम्॥

मूलम्

दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः।
यस्य हेषितसंत्रस्तास्त्यजन्त्यनिमिषा दिवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बडे़ आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस केशी दैत्यको मार डाला। इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम्।
कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो॥

मूलम्

चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम्।
कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यानु शङ्खयवनमुराणां नरकस्य च।
पारिजातापहरणमिन्द्रस्य च पराजयम्॥

मूलम्

तस्यानु शङ्खयवनमुराणां नरकस्य च।
पारिजातापहरणमिन्द्रस्य च पराजयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध देखूँगा। आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्वाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम्।
नृगस्य मोक्षणं पापाद् द्वारकायां जगत्पते॥

मूलम्

उद्वाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम्।
नृगस्य मोक्षणं पापाद् द्वारकायां जगत्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्यमन्तकस्य च मणेरादानं सह भार्यया।
मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः॥

मूलम्

स्यमन्तकस्य च मणेरादानं सह भार्यया।
मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान् से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौण्ड्रकस्य वधं पश्चात् काशिपुर्याश्च दीपनम्।
दन्तवक्त्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ॥

मूलम्

पौण्ड्रकस्य वधं पश्चात् काशिपुर्याश्च दीपनम्।
दन्तवक्त्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पश्चात् आप पौण्ड्रक—मिथ्या वासुदेवका वध करेंगे। काशीपुरीको जला देंगे। युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन् भवान्।
कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि॥

मूलम्

यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन् भवान्।
कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै।
अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः॥

मूलम्

अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै।
अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया
समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम्।
स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया-
गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि॥

मूलम्

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया
समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम्।
स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया-
गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त है—कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्दस्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान‍्की मैं शरण ग्रहण करता हूँ॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया
विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्।
क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं
नतोऽस्मि धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम्॥

मूलम्

त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया
विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम्।
क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं
नतोऽस्मि धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष विशेषों—भाव-अभावरूप सारे भेद-विभेदोंकी कल्पना केवल आपकी मायासे ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करनेके लिये मनुष्यका-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियोंके शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ’॥ २४॥

श्लोक-२५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः।
प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः॥

मूलम्

एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः।
प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान‍्के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार भगवान‍्की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान‍्के दर्शनोंके आह्लादसे नारदजीका रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवानपि गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे।
पशूनपालयत् पालैः प्रीतैर्व्रजसुखावहः॥

मूलम्

भगवानपि गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे।
पशूनपालयत् पालैः प्रीतैर्व्रजसुखावहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर भगवान् श्रीकृष्ण केशीको लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंके साथ पूर्ववत् पशुपालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा ते पशून् पालाश्चारयन्तोऽद्रिसानुषु।
चक्रुर्निलायनक्रीडाश्चोरपालापदेशतः॥

मूलम्

एकदा ते पशून् पालाश्चारयन्तोऽद्रिसानुषु।
चक्रुर्निलायनक्रीडाश्चोरपालापदेशतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़की चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेका—लुका-लुकीका खेल खेल रहे थे॥ २७॥ एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़की चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेका—लुका-लुकीका खेल खेल रहे थे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रासन् कतिचिच्चोराः पालाश्च कतिचिन्नृप।
मेषायिताश्च तत्रैके विजह्रुरकुतोभयाः॥

मूलम्

तत्रासन् कतिचिच्चोराः पालाश्च कतिचिन्नृप।
मेषायिताश्च तत्रैके विजह्रुरकुतोभयाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयपुत्रो महामायो व्योमो गोपालवेषधृक्।
मेषायितानपोवाह प्रायश्चोरायितो बहून्॥

मूलम्

मयपुत्रो महामायो व्योमो गोपालवेषधृक्।
मेषायितानपोवाह प्रायश्चोरायितो बहून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय ग्वालका वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको चुराकर छिपा आता॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिदर्यां विनिक्षिप्य नीतं नीतं महासुरः।
शिलया पिदधे द्वारं चतुःपञ्चावशेषिताः॥

मूलम्

गिरिदर्यां विनिक्षिप्य नीतं नीतं महासुरः।
शिलया पिदधे द्वारं चतुःपञ्चावशेषिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़की गुफामें डाल देता और उसका दरवाजा एक बड़ी चट्टानसे ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालोंमें केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तत् कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम्।
गोपान् नयन्तं जग्राह वृकं हरिरिवौजसा॥

मूलम्

तस्य तत् कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम्।
गोपान् नयन्तं जग्राह वृकं हरिरिवौजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़ियेको दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसदृशं बली।
इच्छन् विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद् ग्रहणातुरः॥

मूलम्

स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसदृशं बली।
इच्छन् विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद् ग्रहणातुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान‍्ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले।
पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत्॥

मूलम्

तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले।
पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे जकड़कर उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवतालोग विमानोंपर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः।
स्तूयमानः सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम्॥

मूलम्

गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः।
स्तूयमानः सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भगवान् श्रीकृष्णने गुफाके द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये॥ ३४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे व्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥ ३७॥