[षट्त्रिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
अरिष्टासुरका उद्धार और कंसका श्रीअक्रूरजीको व्रजमें भेजना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तर्ह्यागतो गोष्ठमरिष्टो वृषभासुरः।
महीं महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम्॥
मूलम्
अथ तर्ह्यागतो गोष्ठमरिष्टो वृषभासुरः।
महीं महाककुत्कायः कम्पयन् खुरविक्षताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण व्रजमें प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सवकी धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नामका एक दैत्य बैलका रूप धारण करके आया। उसका ककुद् (कंधेका पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरोंको इतने जोरसे पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
रम्भमाणः खरतरं पदा च विलिखन् महीम्।
उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन्॥
मूलम्
रम्भमाणः खरतरं पदा च विलिखन् महीम्।
उद्यम्य पुच्छं वप्राणि विषाणाग्रेण चोद्धरन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह बड़े जोरसे गर्ज रहा था और पैरोंसे धूल उछालता जाता था। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगोंसे चहारदीवारी, खेतोंकी मेंड़ आदि तोड़ता जाता था॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
किञ्चित् किञ्चिच्छकृन्मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः।
यस्य निर्ह्रादितेनाङ्ग निष्ठुरेण गवां नृणाम्॥
मूलम्
किञ्चित् किञ्चिच्छकृन्मुञ्चन् मूत्रयन् स्तब्धलोचनः।
यस्य निर्ह्रादितेनाङ्ग निष्ठुरेण गवां नृणाम्॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतन्त्यकालतो गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै।
निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशङ्कया॥
मूलम्
पतन्त्यकालतो गर्भाः स्रवन्ति स्म भयेन वै।
निर्विशन्ति घना यस्य ककुद्यचलशङ्कया॥
अनुवाद (हिन्दी)
बीच-बीचमें बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था। परीक्षित्! उसके जोरसे हँकड़नेसे—निष्ठुर गर्जनासे भयवश स्त्रियों और गौओंके तीन-चार महीनेके गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच-छः महीनेके गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके ककुद्को पर्वत समझकर बादल उसपर आकर ठहर जाते थे॥ ३-४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तीक्ष्णशृङ्गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः।
पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम्॥
मूलम्
तं तीक्ष्णशृङ्गमुद्वीक्ष्य गोप्यो गोपाश्च तत्रसुः।
पशवो दुद्रुवुर्भीता राजन् संत्यज्य गोकुलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस तीखे सींगवाले बैलको देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहनेका स्थान छोड़कर भाग ही गये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः।
भगवानपि तद् वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम्॥
मूलम्
कृष्ण कृष्णेति ते सर्वे गोविन्दं शरणं ययुः।
भगवानपि तद् वीक्ष्य गोकुलं भयविद्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सभी व्रजवासी ‘श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! हमें इस भयसे बचाओ’ इस प्रकार पुकारते हुए भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये। भगवान्ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा भैष्टेति गिराऽऽश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत्।
गोपालैः पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम॥
मूलम्
मा भैष्टेति गिराऽऽश्वास्य वृषासुरमुपाह्वयत्।
गोपालैः पशुभिर्मन्द त्रासितैः किमसत्तम॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने ‘डरनेकी कोई बात नहीं है’—यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषासुरको ललकारा, ‘अरे मूर्ख! महादुष्ट! तू इन गौओं और ग्वालोंको क्यों डरा रहा है? इससे क्या होगा॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलदर्पहाहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम्।
इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन्॥
मूलम्
बलदर्पहाहं दुष्टानां त्वद्विधानां दुरात्मनाम्।
इत्यास्फोट्याच्युतोऽरिष्टं तलशब्देन कोपयन्॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः।
सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन्।
उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत्॥
मूलम्
सख्युरंसे भुजाभोगं प्रसार्यावस्थितो हरिः।
सोऽप्येवं कोपितोऽरिष्टः खुरेणावनिमुल्लिखन्।
उद्यत्पुच्छभ्रमन्मेघः क्रुद्धः कृष्णमुपाद्रवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टोंके बलका घमंड चूर-चूर कर देनेवाला यह मैं हूँ।’ इस प्रकार ललकारकर भगवान्ने ताल ठोंकी और उसे क्रोधित करनेके लिये वे अपने एक सखाके गलेमें बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान् श्रीकृष्णकी इस चुनौतीसे वह क्रोधके मारे तिलमिला उठा और अपने खुरोंसे बड़े जोरसे धरती खोदता हुआ श्रीकृष्णकी ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछके धक्केसे आकाशके बादल तितर-बितर होने लगे॥ ८-९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृग्लोचनोऽच्युतम्।
कटाक्षिप्याद्रवत्तूर्णमिन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा॥
मूलम्
अग्रन्यस्तविषाणाग्रः स्तब्धासृग्लोचनोऽच्युतम्।
कटाक्षिप्याद्रवत्तूर्णमिन्द्रमुक्तोऽशनिर्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखोंसे टकटकी लगाकर श्रीकृष्णकी ओर टेढ़ी नजरसे देखता हुआ वह उनपर इतने वेगसे टूटा, मानो इन्द्रके हाथसे छोड़ा हुआ वज्र हो॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वा शृङ्गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः।
प्रत्यपोवाह भगवान् गजः प्रतिगजं यथा॥
मूलम्
गृहीत्वा शृङ्गयोस्तं वा अष्टादश पदानि सः।
प्रत्यपोवाह भगवान् गजः प्रतिगजं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपनेसे भिड़नेवाले दूसरे हाथीको पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरः।
आपतत् स्विन्नसर्वाङ्गो निःश्वसन् क्रोधमूर्छितः॥
मूलम्
सोऽपविद्धो भगवता पुनरुत्थाय सत्वरः।
आपतत् स्विन्नसर्वाङ्गो निःश्वसन् क्रोधमूर्छितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के इस प्रकार ठेल देनेपर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोधसे अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उनपर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो रहा था॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं स निगृह्य शृङ्गयोः
पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले।
निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमम्बरं
कृत्त्वा विषाणेन जघान सोऽपतत्॥
मूलम्
तमापतन्तं स निगृह्य शृङ्गयोः
पदा समाक्रम्य निपात्य भूतले।
निष्पीडयामास यथाऽऽर्द्रमम्बरं
कृत्त्वा विषाणेन जघान सोऽपतत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने जब देखा कि वह अब मुझपर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उसके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर जमीनपर गिरा दिया और फिर पैरोंसे दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसीका सींग उखाड़कर उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रह गया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
असृग् वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्
क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः।
जगाम कृच्छ्रं निर्ऋतेरथ क्षयं
पुष्पैः किरन्तो हरिमीडिरे सुराः॥
मूलम्
असृग् वमन् मूत्रशकृत् समुत्सृजन्
क्षिपंश्च पादाननवस्थितेक्षणः।
जगाम कृच्छ्रं निर्ऋतेरथ क्षयं
पुष्पैः किरन्तो हरिमीडिरे सुराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार वह दैत्य मुँहसे खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्टके साथ प्राण छोड़े। अब देवतालोग भगवान् पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ककुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः स्वजातिभिः।
विवेश गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः॥
मूलम्
एवं ककुद्मिनं हत्वा स्तूयमानः स्वजातिभिः।
विवेश गोष्ठं सबलो गोपीनां नयनोत्सवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार बैलके रूपमें आनेवाले अरिष्टासुरको मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजीके साथ गोष्ठमें प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियोंके नयन-मन आनन्दसे भर गये॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णेनाद्भुतकर्मणा।
कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः॥
मूलम्
अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णेनाद्भुतकर्मणा।
कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा—॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च।
रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता॥
मूलम्
यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च।
रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
न्यस्तौ स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः।
निशम्य तद् भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः॥
मूलम्
न्यस्तौ स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः।
निशम्य तद् भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।’ यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी॥ १७-१८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया।
निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः॥
मूलम्
निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया।
निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैर्बबन्ध सह भार्यया।
प्रतियाते तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम्॥
मूलम्
ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैर्बबन्ध सह भार्यया।
प्रतियाते तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम्॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ।
ततो मुष्टिकचाणूरशलतोशलकादिकान्॥
मूलम्
प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ।
ततो मुष्टिकचाणूरशलतोशलकादिकान्॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमात्यान् हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट्।
भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ॥
मूलम्
अमात्यान् हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट्।
भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लड़के ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकड़कर फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।’ वह चला गया। इसके बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतोंको बुलाकर कहा—‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो॥ १९—२२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दव्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः।
रामकृष्णौ ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः॥
मूलम्
नन्दव्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः।
रामकृष्णौ ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवद्भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया।
मञ्चाः क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्गपरिश्रिताः।
पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम्॥
मूलम्
भवद्भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया।
मञ्चाः क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्गपरिश्रिताः।
पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति-भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
महामात्र त्वया भद्र रङ्गद्वार्युपनीयताम्।
द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ॥
मूलम्
महामात्र त्वया भद्र रङ्गद्वार्युपनीयताम्।
द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरभ्यतां धनुर्यागश्चतुर्दश्यां यथाविधि।
विशसन्तु पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे॥
मूलम्
आरभ्यतां धनुर्यागश्चतुर्दश्यां यथाविधि।
विशसन्तु पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ आहूय यदुपुङ्गवम्।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह॥
मूलम्
इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ आहूय यदुपुङ्गवम्।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला—॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः।
नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु॥
मूलम्
भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः।
नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढ़कर मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम्।
यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः॥
मूलम्
अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम्।
यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ नन्दव्रजं तत्र सुतावानकदुन्दुभेः।
आसाते ताविहानेन रथेनानय माँ चिरम्॥
मूलम्
गच्छ नन्दव्रजं तत्र सुतावानकदुन्दुभेः।
आसाते ताविहानेन रथेनानय माँ चिरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप नन्दरायके व्रजमें जाइये। वहाँ वसुदेवजीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसृष्टः किल मे मृत्युर्देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः।
तावानय समं गोपैर्नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः॥
मूलम्
निसृष्टः किल मे मृत्युर्देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः।
तावानय समं गोपैर्नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुनते हैं, विष्णुके भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनोंको मेरी मृत्युका कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपोंको भी बड़ी-बड़ी भेंटोंके साथ ले आइये॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना।
यदि मुक्तौ ततो मल्लैर्घातये वैद्युतोपमैः॥
मूलम्
घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना।
यदि मुक्तौ ततो मल्लैर्घातये वैद्युतोपमैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यदि वे कदाचित् उस हाथीसे बच गये, तो मैं अपने वज्रके समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान्।
तद्बन्धून् निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान्॥
मूलम्
तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान्।
तद्बन्धून् निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशार्हवंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम्।
तद्भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम॥
मूलम्
उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम्।
तद्भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्यका लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको, उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैं—उन सबको तलवारके घाट उतार दूँगा॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका।
जरासन्धो मम गुरुर्द्विविदो दयितः सखा॥
मूलम्
ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका।
जरासन्धो मम गुरुर्द्विविदो दयितः सखा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः।
तैरहं सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान्॥
मूलम्
शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः।
तैरहं सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर—ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीका अकण्टक राज्य भोगूँगा॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतज्ज्ञात्वाऽऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ।
धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम्॥
मूलम्
एतज्ज्ञात्वाऽऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ।
धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालनेमें क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराकी शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायँ’॥ ३७॥
श्लोक-३८
मूलम् (वचनम्)
अक्रूर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् मनीषितं सम्यक् तव स्वावद्यमार्जनम्।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम्॥
मूलम्
राजन् मनीषितं सम्यक् तव स्वावद्यमार्जनम्।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूरजीने कहा—महाराज! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोरथान् करोत्युच्चैर्जनो दैवहतानपि।
युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते॥
मूलम्
मनोरथान् करोत्युच्चैर्जनो दैवहतानपि।
युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है तो वह हर्षसे फूल उठता है और प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ॥ ३९॥
श्लोक-४०
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विसृज्य सः।
प्रविवेश गृहं कंसस्तथाक्रूरः स्वमालयम्॥
मूलम्
एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विसृज्य सः।
प्रविवेश गृहं कंसस्तथाक्रूरः स्वमालयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये॥ ४०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धेऽक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥ ३६॥