[द्वात्रिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्का प्रकट होकर गोपियोंको सान्त्वना देना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।
रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः॥
मूलम्
इति गोप्यः प्रगायन्त्यः प्रलपन्त्यश्च चित्रधा।
रुरुदुः सुस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्की प्यारी गोपियाँ विरहके आवेशमें इस प्रकार भाँति-भाँतिसे गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारेके दर्शनकी लालसासे वे अपनेको रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुरस्वरसे फूट-फूटकर रोने लगीं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥
मूलम्
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ठीक उसी समय उनके बीचोबीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानसे खिला हुआ था। गलेमें वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मनको मथ डालनेवाले कामदेवके मनको भी मथनेवाला था॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः।
उत्तस्थुर्युगपत् सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥
मूलम्
तं विलोक्यागतं प्रेष्ठं प्रीत्युत्फुल्लदृशोऽबलाः।
उत्तस्थुर्युगपत् सर्वास्तन्वः प्राणमिवागतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोटि-कोटि कामोंसे भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दरको आया देख गोपियोंके नेत्र प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुईं, मानो प्राणहीन शरीरमें दिव्य प्राणोंका संचार हो गया हो, शरीरके एक-एक अंगमें नवीन चेतना—नूतन स्फूर्ति आ गयी हो॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
काचित् कराम्बुजं शौरेर्जगृहेऽञ्जलिना मुदा।
काचिद् दधार तद्बाहुमंसे चन्दनरूषितम्॥
मूलम्
काचित् कराम्बुजं शौरेर्जगृहेऽञ्जलिना मुदा।
काचिद् दधार तद्बाहुमंसे चन्दनरूषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक गोपीने बड़े प्रेम और आनन्दसे श्रीकृष्णके करकमलको अपने दोनों हाथोंमें ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी। दूसरी गोपीने उनके चन्दनचर्चित भुजदण्डको अपने कंधेपर रख लिया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
काचिदञ्जलिनागृह्णात्तन्वी ताम्बूलचर्वितम्।
एका तदङ्घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात्॥
मूलम्
काचिदञ्जलिनागृह्णात्तन्वी ताम्बूलचर्वितम्।
एका तदङ्घ्रिकमलं सन्तप्ता स्तनयोरधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीसरी सुन्दरीने भगवान्का चबाया हुआ पान अपने हाथोंमें ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदयमें भगवान्के विरहसे बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलोंको अपने वक्षःस्थलपर रख लिया॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला।
घ्नतीवैक्षत् कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा॥
मूलम्
एका भ्रुकुटिमाबध्य प्रेमसंरम्भविह्वला।
घ्नतीवैक्षत् कटाक्षेपैः संदष्टदशनच्छदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचवीं गोपी प्रणयकोपसे विह्वल होकर, भौंहें चढ़ाकर, दाँतोंसे होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणोंसे बींधती हुई उनकी ओर ताकने लगी॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जुषाणा जुषमाणा सेवमाना ॥ ६-८ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्।
आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा॥
मूलम्
अपरानिमिषद्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखाम्बुजम्।
आपीतमपि नातृप्यत् सन्तस्तच्चरणं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनोंसे उनके मुखकमलका मकरन्द-रस पान करने लगी। परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान्के चरणोंके दर्शनसे कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरीका निरन्तर पान करते रहनेपर भी तृप्त नहीं होती थी॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च।
पुलकाङ्ग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता॥
मूलम्
तं काचिन्नेत्ररन्ध्रेण हृदिकृत्य निमील्य च।
पुलकाङ्ग्युपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता॥
अनुवाद (हिन्दी)
सातवीं गोपी नेत्रोंके मार्गसे भगवान्को अपने हृदयमें ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान्का आलिंगन करनेसे उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और वह सिद्ध योगियोंके समान परमानन्दमें मग्न हो गयी॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृताः।
जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः॥
मूलम्
सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृताः।
जहुर्विरहजं तापं प्राज्ञं प्राप्य यथा जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुषको प्राप्त करके संसारकी पीड़ासे मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियोंको भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ। उनके विरहके कारण गोपियोंको जो दुःख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्तिके समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्राज्ञं परमात्मानं जना योगिजनाः प्राप्यसाक्षात्कृत्य ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः।
व्यरोचताधिकं तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा॥
मूलम्
ताभिर्विधूतशोकाभिर्भगवानच्युतो वृतः।
व्यरोचताधिकं तात पुरुषः शक्तिभिर्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यों तो भगवान् श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथासे मुक्त हुई गोपियोंके बीचमें उनकी शोभा और भी बढ़ गयी। ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियोंसे सेवित होनेपर और भी शोभायमान होता है॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पुरुषः शक्तिभिः चतुर्विंशतितत्त्वात्मिकाभिः यद्वा पुरुषः परमपुरुषः शक्तिभिः विमलादिभिः ॥ १० - १२ ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः।
विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्॥
मूलम्
ताः समादाय कालिन्द्या निर्विश्य पुलिनं विभुः।
विकसत्कुन्दमन्दारसुरभ्यनिलषट्पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने उन व्रजसुन्दरियोंको साथ लेकर यमुनाजीके पुलिनमें प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दारके पुष्पोंकी सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महकसे मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर मँडरा रहे थे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरच्चन्द्रांशुसन्दोहध्वस्तदोषातमः शिवम्।
कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्॥
मूलम्
शरच्चन्द्रांशुसन्दोहध्वस्तदोषातमः शिवम्।
कृष्णाया हस्ततरलाचितकोमलवालुकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाकी चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रिके अन्धकारका तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगलका ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुनाजीने स्वयं अपनी लहरोंके हाथों भगवान्की लीलाके लिये सुकोमल बालुकाका रंगमंच बना रखा था॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो
मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः।
स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्कुमाङ्कितै-
रचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे॥
मूलम्
तद्दर्शनाह्लादविधूतहृद्रुजो
मनोरथान्तं श्रुतयो यथा ययुः।
स्वैरुत्तरीयैः कुचकुङ्कुमाङ्कितै-
रचीक्लृपन्नासनमात्मबन्धवे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे गोपियोंके हृदयमें इतने आनन्द और इतने रसका उल्लास हुआ कि उनके हृदयकी सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्डकी श्रुतियाँ उसका वर्णन करते-करते अन्तमें ज्ञानकाण्डका प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथोंसे ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं—वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थलपर लगी हुई रोली-केसरसे चिह्नित ओढ़नीको अपने परम प्यारे सुहृद् श्रीकृष्णके विराजनेके लिये बिछा दिया॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनोरथानां तत्प्रतिपादकानाम् ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो
योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः।
चकास गोपीपरिषद्गतोऽर्चित-
स्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्॥
मूलम्
तत्रोपविष्टो भगवान् स ईश्वरो
योगेश्वरान्तर्हृदि कल्पितासनः।
चकास गोपीपरिषद्गतोऽर्चित-
स्त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े योगेश्वर अपने योगसाधनसे पवित्र किये हुए हृदयमें जिनके लिये आसनकी कल्पना करते रहते हैं, किंतु फिर भी अपने हृदय-सिंहासनपर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान् भगवान् यमुनाजीकी रेतीमें गोपियोंकी ओढ़नीपर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियोंके बीचमें उनसे पूजित होकर भगवान् बड़े ही शोभायमान हो रहे थे। परीक्षित्! तीनों लोकोंमें—तीनों कालोंमें जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान्के बिन्दुमात्र सौन्दर्यका आभासभर है। वे उसके एकमात्र आश्रय हैं॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्रैलोक्यलक्ष्म्यैकपदं त्रलोक्ये सौन्दर्यस्य एकाश्रयम् ॥ १४-१५ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाजयित्वा तमनङ्गदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।
संस्पर्शनेनाङ्ककृताङ्घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे॥
मूलम्
सभाजयित्वा तमनङ्गदीपनं
सहासलीलेक्षणविभ्रमभ्रुवा।
संस्पर्शनेनाङ्ककृताङ्घ्रिहस्तयोः
संस्तुत्य ईषत्कुपिता बभाषिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्यके द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षाको और भी उभाड़ रहे थे। गोपियोंने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहोंसे उनका सम्मान किया। किसीने उनके चरणकमलोंको अपनी गोदमें रख लिया, तो किसीने उनके करकमलोंको। वे उनके संस्पर्शका आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं—कितना सुकुमार है, कितना मधुर है! इसके बाद श्रीकृष्णके छिप जानेसे मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँहसे ही उनका दोष स्वीकार करानेके लिये वे कहने लगीं॥ १५॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
गोप्य ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्।
नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः॥
मूलम्
भजतोऽनुभजन्त्येक एक एतद्विपर्ययम्।
नोभयांश्च भजन्त्येक एतन्नो ब्रूहि साधु भोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियोंने कहा—नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करनेवालोंसे भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई-कोई दोनोंसे ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनोंमें तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है?॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एतद्विपर्ययं कुर्वन्ति अभजतोऽपि भजन्तीत्यर्थः । उभयान् भजतश्चाभजतश्च । एतन्नो ब्रूहि एतेषां तारतम्यं ब्रूहीत्यभिप्रायः ॥ ९६ ॥
श्लोक-१७
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा॥
मूलम्
मिथो भजन्ति ये सख्यः स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते।
न तत्र सौहृदं धर्मः स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—मेरी प्रिय सखियो! जो प्रेम करनेपर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थको लेकर है। लेन-देनमात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थके लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मिथो भजन्ति उपकारप्रत्युपकारौ कुर्वन्ति । करुणाः करुणायुक्ताः केचिद्रागद्वेषाभावादुपकर्तृष्वपि समदृष्टयः अकृतज्ञाः आत्मैकानुभव सुखत्वेन तदितर कृतज्ञानरहिताः गुरुद्रहः । “अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः । एव वृत्तिं समास्थाय विप्रो जीवेदनावदी"ति न्यायेन प्राणिषु अत्यन्तपीडाविभुखाः ॥ १७-१९ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा।
धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः॥
मूलम्
भजन्त्यभजतो ये वै करुणाः पितरो यथा।
धर्मो निरपवादोऽत्र सौहृदं च सुमध्यमाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दरियो! जो लोग प्रेम न करनेवालेसे भी प्रेम करते हैं—जैसे स्वभावसे ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता—उनका हृदय सौहार्दसे, हितैषितासे भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहारमें निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजतोऽपि न वै केचिद्भजन्त्यभजतः कुतः।
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः॥
मूलम्
भजतोऽपि न वै केचिद्भजन्त्यभजतः कुतः।
आत्मारामा ह्याप्तकामा अकृतज्ञा गुरुद्रुहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करनेवालोंका तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकारके होते हैं। एक तो वे, जो अपने स्वरूपमें ही मस्त रहते हैं— जिनकी दृष्टिमें कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसीसे कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करनेवाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगोंसे भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्
भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये।
यथाधनो लब्धधने विनष्टे
तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद॥
मूलम्
नाहं तु सख्यो भजतोऽपि जन्तून्
भजाम्यमीषामनुवृत्तिवृत्तये।
यथाधनो लब्धधने विनष्टे
तच्चिन्तयान्यन्निभृतो न वेद॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियो! मैं तो प्रेम करनेवालोंसे भी प्रेमका वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसीलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृत्ति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुषको कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धनकी चिन्तासे भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न भजामि न शीघ्रदर्शनफलकरो भवामि अनुवृत्तयेऽनुवर्तनस्य मदनुध्यानरूपस्याविच्छेदाय तचिन्तया धनचिन्तया अदृश्यमानस्यात्यन्ताभिनिवेशित्वे दृष्टान्तः यथेति ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-
स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः।
मया परोक्षं भजता तिरोहितं
मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः॥
मूलम्
एवं मदर्थोज्झितलोकवेद-
स्वानां हि वो मय्यनुवृत्तयेऽबलाः।
मया परोक्षं भजता तिरोहितं
मासूयितुं मार्हथ तत् प्रियं प्रियाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपियो! इसमें सन्देह नहीं कि तुमलोगोंने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे-सम्बन्धियोंको भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थितिमें तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहागकी चिन्ता न करने लगे, मुझमें ही लगी रहे—इसीलिये परोक्षरूपसे तुमलोगोंसे प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुमलोग मेरे प्रेममें दोष मत निकालो। तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मयेति । परोक्षं भजता परोक्षमुपकारं कुर्वता ॥ २१ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना॥
मूलम्
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी प्यारी गोपियो! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थीकी उन बेड़ियोंको तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीरसे—अमर जीवनसे अनन्त कालतक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्यागका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्मके लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभावसे, प्रेमसे मुझे उऋण कर सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ॥ २२॥
वीरराघवः
निरवद्यसंयुजां निरवद्ये मयि संयुक्ताचित्तानां - वः साधुकृत्यमुपकारं कर्तुं न पारये या यूयं गोप्यः दुर्जय गेहशृङ्खला : अच्छेद्यगृह स्नेहपाशान् संवृश्च्य छित्त्वा मा अभजन् तासां कर्तुं न पारये इत्यन्वयार्थः सा शृङ्खला अधुनापि प्रतियातु भूयोऽपि निवर्त्ततामित्यर्थः ॥ २२ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनरेकृतशुकपक्षीये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीसान्त्वनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः॥ ३२॥