३१ गोपीगीतम्

भागसूचना

गोपिकागीत

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

गोप्य ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वद् अत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्
त्वयि धृतासवस् त्वां विचिन्वते ॥ १ ॥

मूलम्

जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपियाँ विरहावेशमें गाने लगीं—‘प्यारे! तुम्हारे जन्मके कारण वैकुण्ठ आदि लोकोंसे भी व्रजकी महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलताकी देवी लक्ष्मीजी अपना निवासस्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणोंमें ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वनमें भटककर तुम्हें ढूँढ़ रही हैं॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जयति प्रकृष्टो भवति इन्दिरा गतिः समृद्धिः अत्र ब्रजे ॥ १ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरद्-उद्(=जल)-आशये साधु-जात-सत्-
सरसि-जोदर-श्रीमुषा दृशा
सुरत-नाथ ते ऽशुल्क-दासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः? ॥ २ ॥

मूलम्

शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका
वरद निघ्नतो नेह किं वधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे प्रेमपूर्ण हृदयके स्वामी! हम तुम्हारी बिना मोलकी दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशयमें सुन्दर-से-सुन्दर सरसिजकी कर्णिकाके सौन्दर्यको चुरानेवाले नेत्रोंसे हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करनेवाले प्राणेश्वर! क्या नेत्रोंसे मारना वध नहीं है? अस्त्रोंसे हत्या करना ही वध है?॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शरदुदाशये शारदे जलाशये अशुल्कदासिकाः त्वद्गुणक्राती दासिकाः ते वधः वधदोषः किं नास्ति शस्त्रादिर्भिर्विनावधेऽपि दोषोऽस्तीत्यर्थः ॥ २ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष-जलाप्ययाद् व्याल-राक्षसाद्
वर्ष-मारुताद् वैद्युतानलात् ।
वृष-मयात्मजाद्(→वृषभासुरात्) विश्वतो भयाद्
ऋषभ ते वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३ ॥

मूलम्

विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षसाद्
वर्षमारुताद् वैद्युतानलात्।
वृषमयात्मजाद् विश्वतोभया-
दृषभ ते वयं रक्षिता मुहुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषशिरोमणे! यमुनाजीके विषैले जलसे होनेवाली मृत्यु, अजगरके रूपमें खानेवाले अघासुर, इन्द्रकी वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदिसे एवं भिन्न-भिन्न अवसरोंपर सब प्रकारके भयोंसे तुमने बार-बार हमलोगोंकी रक्षा की है॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विषजलाप्ययात् विषजलेन विनाशात् ॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

न खलु गोपीका-नन्दनो भवान्!
अखिल-देहिनां अन्तरात्म-दृक् ।
विखनसार्थितो विश्व-गुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले ॥ ४ ॥

मूलम्

न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये
सख उदेयिवान् सात्वतां कुले॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियोंके हृदयमें रहनेवाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे! ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे विश्वकी रक्षा करनेके लिये तुम यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हो॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न खल्विति । न केवलं गोपीतनयत्वं किन्तु अखिलदेहवतामन्तरात्मातो दृक् दृष्टिश्च सत्ता हेतुः ज्ञानप्रदश्चेत्यर्थः । अन्तः प्रविष्टः शुभाशुभसाक्षीत्यर्थः । विखनसा विरञ्चेन ॥ ४–५ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरचिताभयं वृष्णि-धूर्य ते
चरणम् ईयुषां संसृतेर्(=संसारस्य) भयात् ।
कर-सरो-रुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्री-कर-ग्रहम् ॥ ५ ॥

मूलम्

विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात्।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने प्रेमियोंकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालोंमें अग्रगण्य यदुवंशशिरोमणे! जो लोग जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्‍करसे डरकर तुम्हारे चरणोंकी शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्र-छायामें लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम! सबकी लालसा-अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजीका हाथ पकड़ा है, हमारे सिरपर रख दो॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रज-जनार्ति-हन् वीर योषितां
निज-जन-(मानि)स्मय-ध्वंसन-स्मित ।
भज सखे भवत् किङ्‌करीः स्म नो
जल-रुहाननं चारु दर्शय ॥ ६ ॥

मूलम्

व्रजजनार्तिहन् वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित।
भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्रजवासियोंके दुःख दूर करनेवाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मन्द-मन्द मुसकानकी एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनोंके सारे मान-मदको चूर-चूर कर देनेके लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणोंपर निछावर हैं। हम अबलाओंको अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निजजनस्मयध्वंसन स्मित! माननीजनमानभञ्जनस्मित ! ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणत-देहिनां पाप-कर्षणं
तृण-चरानुगं श्री-निकेतनम् ।
फणि-फणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः
कृन्धि(=वेष्टय) हृच्-छयम् (कामम्) ॥ ७ ॥

मूलम्

प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियोंके सारे पापोंको नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान हैं और स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणोंसे हमारे बछड़ोंके पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें साँपके फणोंतकपर रखनेमें भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरहव्यथाकी आगसे जल रहा है तुम्हारी मिलनकी आकांक्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षःस्थलपर रखकर हमारे हृदयकी ज्वालाको शान्त कर दो॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तृणचराः गावः तदनु ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मधुरया गिरा वल्गु-वाक्यया
बुध-मनो-ज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधि-करीर् इमा वीर मुह्यतीर्
अधर-सीधुना-ऽऽप्याययस्व नः ॥ ८ ॥

मूलम्

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान् उसमें रम जाते हैं। उसपर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणीका रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर! अब तुम अपना दिव्य अमृतसे भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मधुरया कोकिलादिशब्दवच्छ्राव्यया वल्गुवाक्ययावचनभङ्गीविशेषवत्या विधिकरीः नियोगकरीः ॥ ८ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव कथामृतं तप्त-जीवनं
कविभिर् ईडितं कल्मषापहम् ।
श्रवण-मङ्‌गलं श्रीमद्-आततं
भुवि गृणन्ति(=गायन्ति) ये भूरिदा जनाः ॥ ९ ॥

मूलम्

तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! तुम्हारी लीलाकथा भी अमृतस्वरूप है। विरहसे सताये हुए लोगोंके लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं—भक्त कवियोंने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवणमात्रसे परम मंगल—परम कल्याणका दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी है। जो तुम्हारी उस लीला-कथाका गान करते हैं, वास्तवमें भूलोकमें वे ही सबसे बड़े दाता हैं॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तव कथामृतं सदसि ये गृणन्ति ते भूरिदाः महाधनप्रदाः ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहसितं प्रिय प्रेम-वीक्षणं
विहरणं च ते ध्यान-मङ्‌गलम् ।
रहसि संविदो या हृदि-स्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १० ॥

मूलम्

प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं
विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम्।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः
कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेमभरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरहकी क्रीडाओंका ध्यान करके हम आनन्दमें मग्न हो जाया करती थीं। उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्तमें हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ कीं, प्रेमकी बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मनको क्षुब्ध किये देती हैं॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रियेति सम्बुद्धिः ॥ १०–११ ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलसि यद् व्रजाच् चारयन् पशून्
नलिन-सुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिल(=corn-ear)-तृणाङ्‌कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां(=पङ्किलतां) मनः कान्त गच्छति ॥ ११ ॥

मूलम्

चलसि यद् व्रजाच्चारयन् पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओंको चरानेके लिये व्रजसे निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जानेसे कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दुःख होता है॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिन-परिक्षये नील-कुन्तलैः
वन-रुहाननं बिभ्रद्-(अलक-)आवृतम् ।
घन-रजस्वलं दर्शयन् मुहुर्
मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२ ॥

मूलम्

दिनपरिक्षये नीलकुन्तलै-
र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम्।
घनरजस्वलं दर्शयन् मुहु-
र्मनसि नः स्मरं वीर यच्छसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिन ढलनेपर जब तुम वनसे घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमलपर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओंके खुरसे उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है। हमारे वीर प्रियतम! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदयमें मिलनकी आकांक्षा—प्रेम उत्पन्न करते हो॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वनरुहाननं जलजसममुखं घनरजस्वलं घनरजोघूसरितम् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणत-कामदं पद्म-जार्चितं
धरणि-मण्डनं ध्येयम् आपदि ।
चरण-पङ्‌कजं शन्-तमं च ते
रमण नः स्तनेष्व् अर्पयाधि-हन् ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रणतकामदं पद्मजार्चितं
धरणिमण्डनं ध्येयमापदि।
चरणपङ्कजं शन्तमं च ते
रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रियतम! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुःखोंको मिटानेवाले हो। तुम्हारे चरण-कमल शरणागत भक्तोंकी समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। स्वयं लक्ष्मीजी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वीके तो वे भूषण ही हैं। आपत्तिके समय एकमात्र उन्हींका चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं। कुंजविहारी! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरणकमल हमारे वक्षः-स्थलपर रखकर हृदयकी व्यथा शान्त कर दो॥ १३॥

वीरराघवः

शन्तमं सुखतमम् ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरत-वर्धनं शोक-नाशनं
स्वरित-वेणुना सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतर-राग-विस्मारणं नृणां
वितर वीर नस् ते ऽधरामृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

सुरतवर्धनं शोकनाशनं
स्वरितवेणुना सुष्ठु चुम्बितम्।
इतररागविस्मारणं नृणां
वितर वीर नस्तेऽधरामृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरशिरोमणे! तुम्हारा अधरामृत मिलनके सुखको—आकांक्षाको बढ़ानेवाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्तापको नष्ट कर देता है। यह गानेवाली बाँसुरी भलीभाँति उसे चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगोंको फिर दूसरों और दूसरोंकी आसक्तियोंका स्मरण भी नहीं होता। हमारे वीर! अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वरितवेणुना षड्जादिस्वरसंयुक्तवेणुना ।। १४ ।

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अटति यद् भवान् अह्नि काननं,
त्रुटिर् युगायते त्वाम् अपश्यताम् ।
कुटिल-कुन्तलं श्री-मुखं च ते -
(तेन) जड (इति) उदीक्षतां पक्ष्म-कृद् दृशाम् (ब्रह्मा) ॥ १५ ॥

मूलम्

अटति यद् भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम्।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते
जड उदीक्षतां पक्ष्मकृद् दृशाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे! दिनके समय जब तुम वनमें विहार करनेके लिये चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युगके समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्याके समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकोंसे युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखती हैं, उस समय पलकोंका गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रोंकी पलकोंको बनानेवाला विधाता मूर्ख है॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रुटीति अविभक्तिनिर्देशः आपः चक्षूरूपविघाताञ्जडः ।। १५ ।।

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पति-सुतान्वय-भ्रातृ-बान्धवान्
अतिविलङ्‌घ्य ते ऽन्त्य् अच्युतागताः ।
गति-विदस् तवोद्गीत-मोहिताः
कितव योषितः कस् त्यजेन् निशि ॥ १६ ॥

मूलम्

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोद‍्गीतमोहिताः
कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे श्यामसुन्दर! हम अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु और कुल-परिवारका त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओंका उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गानकी गति समझकर, उसीसे मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी! इस प्रकार रात्रिके समय आयी हुई युवतियोंको तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्ति अन्तिकं ते हीति पाठे त्वामित्यर्थः । कितव ! धूर्त्त ॥ १६ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहसि संविदं, हृच्-छयोदयं(=कामोदयं)
प्रहसिताननं, प्रेम-वीक्षणम् ।
बृहद्-उरः श्रियो वीक्ष्य (श्रियो) धाम ते
मुहुर् अतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७ ॥

मूलम्

रहसि संविदं हृच्छयोदयं
प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे! एकान्तमें तुम मिलनकी आकांक्षा, प्रेम-भावको जगानेवाली बातें करते थे। ठिठोली करके हमें छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवनसे हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्षःस्थल, जिसपर लक्ष्मीजी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अबतक निरन्तर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हृच्छयोदयं कामजनकम् ।। १७ ।।

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रज-वनौकसां व्यक्तिर् अङ्‌ग ते
वृजिन(=कुटिल[ताप])हन्त्र्य् अलं विश्व-मङ्‌गलम्
त्यज मनाक् च नस् त्वत्-स्पृहात्मनां
स्व-जन-हृद्-रुजां यन्-निषूदनम् (औषधम् व्यक्तिरूपम्) ॥ १८ ॥

मूलम्

व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम्।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियोंके सम्पूर्ण दुःख-तापको नष्ट करनेवाली और विश्वका पूर्ण मंगल करनेके लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसासे भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी ओषधि दो, जो तुम्हारे निजजनोंके हृदयरोगको सर्वथा निर्मूल कर दे॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रजवनौकसां गोपानां मुनीनां च व्यक्तिरवतारः त्यज देहि ममाक् ईषत् रुजां हृदयंक्लेशानाम् ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् ते सुजात-चरणाम्बु-रुहं (मृदु) स्तनेषु
(चरण-नाश)भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु
तेनाटवीम् अटसि तद् व्यथते न किं स्वित्
(इति) कूर्पादिभिर्(=भ्रू-मध्यादिभिर्) भ्रमति (चिन्ताकुला) धीर् भवद्-आयुषां नः ॥ १९ ॥ (५)

मूलम्

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे चरण कमलसे भी सुकुमार हैं। उन्हें हम अपने कठोर स्तनोंपर भी डरते-डरते बहुत धीरेसे रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय। उन्हीं चरणोंसे तुम रात्रिके समय घोर जंगलमें छिपे-छिपे भटक रहे हो! क्या कंकड़, पत्थर आदिकी चोट लगनेसे उनमें पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी सम्भावनामात्रसे ही चक्‍कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! प्राणनाथ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तत् पदं कूर्पादिभिः तीक्ष्णशिलादिभिः किं व्यथते व्यथत एवेति धीभ्रमति भवदायुषां त्वदधीनजीवितानाम् ॥ १९ ॥

इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनरिकृतशुकपक्षीये एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः॥ ३१॥