[सप्तविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीकृष्णका अभिषेक
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोवर्धने धृते शैल आसाराद् रक्षिते व्रजे।
गोलोकादाव्रजत् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥
मूलम्
गोवर्धने धृते शैल आसाराद् रक्षिते व्रजे।
गोलोकादाव्रजत् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने गिरिराज गोवर्द्धनको धारण करके मूसलधार वर्षासे व्रजको बचा लिया, तब उनके पास गोलोकसे कामधेनु (बधाई देनेके लिये) और स्वर्गसे देवराज इन्द्र (अपने अपराधको क्षमा करानेके लिये) आये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविक्त उपसङ्गम्य व्रीडितः कृतहेलनः।
पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा॥
मूलम्
विविक्त उपसङ्गम्य व्रीडितः कृतहेलनः।
पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्का तिरस्कार करनेके कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थानमें भगवान्के पास जाकर अपने सूर्यके समान तेजस्वी मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श किया॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विविक्ते विजनदेशे ॥ २-३ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः।
नष्टत्रिलोकेशमद इन्द्र आह कृताञ्जलिः॥
मूलम्
दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः।
नष्टत्रिलोकेशमद इन्द्र आह कृताञ्जलिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव देख-सुनकर इन्द्रका यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की॥ ३॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
इन्द्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तं
तपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम्।
मायामयोऽयं गुणसम्प्रवाहो
न विद्यते तेऽग्रहणानुबन्धः॥
मूलम्
विशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तं
तपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम्।
मायामयोऽयं गुणसम्प्रवाहो
न विद्यते तेऽग्रहणानुबन्धः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने कहा—भगवन्! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। यह गुणोंके प्रवाहरूपसे प्रतीत होनेवाला प्रपंच केवल मायामय है; क्योंकि आपका स्वरूप न जाननेके कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विशुद्धसत्त्वं रजस्तमोरहितं सत्त्वं धाम स्थानं ते मायामयोयं त्वच्छरीरप्रकृतिपरिणामभूतः एवं विभूतिमुक्त गृहणानुबन्धि शरीरग्रहणसाधनं कर्म ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतो नु तद्धेतव ईश तत्कृता
लोभादयो येऽबुधलिङ्गभावाः।
तथापि दण्डं भगवान् बिभर्ति
धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय॥
मूलम्
कुतो नु तद्धेतव ईश तत्कृता
लोभादयो येऽबुधलिङ्गभावाः।
तथापि दण्डं भगवान् बिभर्ति
धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादिसे है ही नहीं, फिर उन देह आदिकी प्राप्तिके कारण तथा उन्हींसे होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं? प्रभो! इन दोषोंका होना तो अज्ञानका लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होनेवाले जगत्से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्मकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तद्धेतवः शरीरग्रहणहेतुकाः अबुधलिङ्गभावाः अज्ञानचिह्नभूतपदार्थाः ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो
दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः।
हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे
मानं विधुन्वञ्जगदीशमानिनाम्॥
मूलम्
पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो
दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः।
हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे
मानं विधुन्वञ्जगदीशमानिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जगत्के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत्का नियन्त्रण करनेके लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तोंकी लालसा पूर्ण करनेके लिये स्वच्छन्दतासे लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपनेको ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान मर्दन करते हुए अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करते हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
काल इति सप्तमी ॥ ६ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये मद्विधाज्ञा जगदीशमानिन-
स्त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम्।
हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजन्त्यपस्मया
ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम्॥
मूलम्
ये मद्विधाज्ञा जगदीशमानिन-
स्त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम्।
हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजन्त्यपस्मया
ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपनेको जगत्का ईश्वर माननेवाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भयके अवसरोंपर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषोंके द्वारा सेवित भक्तिमार्गका आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टोंके लिये दण्डविधान है॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मद्विधा अज्ञाः खलानामनुशासनम् ईहा तव चेष्टा ॥ ७-१६ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य
कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम्।
क्षन्तुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो
मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती॥
मूलम्
स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य
कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम्।
क्षन्तुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो
मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! मैंने ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभावके सम्बन्धमें बिलकुल अनजान था। परमेश्वर! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधीका यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञानका शिकार न होना पड़े॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तवावतारोऽयमधोक्षजेह
स्वयम्भराणामुरुभारजन्मनाम्।
चमूपतीनामभवाय देव
भवाय युष्मच्चरणानुवर्तिनाम्॥
मूलम्
तवावतारोऽयमधोक्षजेह
स्वयम्भराणामुरुभारजन्मनाम्।
चमूपतीनामभवाय देव
भवाय युष्मच्चरणानुवर्तिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन्! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालनेमें ही लग रहे हैं और पृथ्वीके लिये बड़े भारी भारके कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणोंके सेवक हैं—आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो—उनकी रक्षा हो॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने।
वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः॥
मूलम्
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने।
वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियोंके एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्तको आकर्षित करनेवाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वच्छन्दोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये।
सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः॥
मूलम्
स्वच्छन्दोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये।
सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने जीवोंके समान कर्मवश होकर नहीं, स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी तथा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर भी विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है। आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयेदं भगवन् गोष्ठनाशायासारवायुभिः।
चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना॥
मूलम्
मयेदं भगवन् गोष्ठनाशायासारवायुभिः।
चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! मेरे अभिमानका अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वशके बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलधार वर्षा और आँधीके द्वारा सारे व्रजमण्डलको नष्ट कर देना चाहा॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः।
ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः॥
मूलम्
त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः।
ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु प्रभो! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होनेसे मेरे घमंडकी जड़ उखड़ गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सङ्कीर्तितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्।
मेघगम्भीरया वाचा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥
मूलम्
एवं सङ्कीर्तितः कृष्णो मघोना भगवानमुम्।
मेघगम्भीरया वाचा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे इन्द्रको सम्बोधन करके कहा—॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया तेऽकारि मघवन् मखभङ्गोऽनुगृह्णता।
मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम्॥
मूलम्
मया तेऽकारि मघवन् मखभङ्गोऽनुगृह्णता।
मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे। इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामैश्वर्यश्रीमदान्धो दण्डपाणिं न पश्यति।
तं भ्रंशयामि सम्पद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥
मूलम्
मामैश्वर्यश्रीमदान्धो दण्डपाणिं न पश्यति।
तं भ्रंशयामि सम्पद्भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम्।
स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः॥
मूलम्
गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम्।
स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावतीमें जाओ और मेरी आज्ञाका पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोगका अनुभव करते रहना और अपने अधिकारके अनुसार उचित रीतिसे मर्यादाका पालन करना॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विश्रम्भवर्जितैः विश्वासवर्जितैः ॥ १७-२१ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाह सुरभिः कृष्णमभिवन्द्य मनस्विनी।
स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य गोपरूपिणमीश्वरम्॥
मूलम्
अथाह सुरभिः कृष्णमभिवन्द्य मनस्विनी।
स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य गोपरूपिणमीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनुने अपनी सन्तानोंके साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्णकी वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा—॥ १८॥
श्लोक-१९
मूलम् (वचनम्)
सुरभिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत॥
मूलम्
कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामधेनुने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी—योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते।
भवाय भव गोविप्रदेवानां ये च साधवः॥
मूलम्
त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते।
भवाय भव गोविप्रदेवानां ये च साधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप जगत्के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनोंकी रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा नोदिता वयम्।
अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये॥
मूलम्
इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा नोदिता वयम्।
अवतीर्णोऽसि विश्वात्मन् भूमेर्भारापनुत्तये॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम गौएँ ब्रह्माजीकी प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन्! आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है॥ २१॥
श्लोक-२२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसाऽऽत्मनः।
जलैराकाशगङ्गाया ऐरावतकरोद्धृतैः॥
मूलम्
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसाऽऽत्मनः।
जलैराकाशगङ्गाया ऐरावतकरोद्धृतैः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऐरावतकरोद्धृतैः ऐरावतकरगतघटसमाहृतैः प्रमाणान्तराविरोधात् ॥ २२-२५ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं नोदितो देवमातृभिः।
अभ्यषिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात्॥
मूलम्
इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं नोदितो देवमातृभिः।
अभ्यषिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगंगाके जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नामसे सम्बोधित किया॥ २२-२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः।
जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः
सुराङ्गनाः संननृतुर्मुदान्विताः॥
मूलम्
तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः।
जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः
सुराङ्गनाः संननृतुर्मुदान्विताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चारण पहलेसे ही आ गये थे। वे समस्त संसारके पाप-तापको मिटा देनेवाले भगवान्के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दसे भरकर नृत्य करने लगीं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तुष्टुवुर्देवनिकायकेतवो
व्यवाकिरंश्चाद्भुतपुष्पवृष्टिभिः।
लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो
गावस्तदा गामनयन् पयोद्रुताम्॥
मूलम्
तं तुष्टुवुर्देवनिकायकेतवो
व्यवाकिरंश्चाद्भुतपुष्पवृष्टिभिः।
लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो
गावस्तदा गामनयन् पयोद्रुताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुख्य-मुख्य देवता भगवान्की स्तुति करके उनपर नन्दनवनके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। तीनों लोकोंमें परमानन्दकी बाढ़ आ गयी और गौओंके स्तनोंसे आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानारसौघाः सरितो वृक्षा आसन् मधुस्रवाः।
अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन्॥
मूलम्
नानारसौघाः सरितो वृक्षा आसन् मधुस्रवाः।
अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नदियोंमें विविध रसोंकी बाढ़ आ गयी। वृक्षोंसे मधुधारा बहने लगी। बिना जोते-बोये पृथ्वीमें अनेकों प्रकारकी ओषधियाँ, अन्न पैदा हो गये। पर्वतोंमें छिपे हुए मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उन्मणीन् उद्भूतान् मणीन् ॥ २६-२८ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसुरिकृतशुकपक्षीये सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णेऽभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनन्दन।
निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः॥
मूलम्
कृष्णेऽभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनन्दन।
निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक होनेपर जो जीव स्वभावसे ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गये, उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः।
अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्॥
मूलम्
इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः।
अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने इस प्रकार गौ और गोकुलके स्वामी श्रीगोविन्दका अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होनेपर देवता, गन्धर्व आदिके साथ स्वर्गकी यात्रा की॥ २८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे इन्द्रस्तुतिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥ २७॥