[षडविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
नन्दबाबासे गोपोंकी श्रीकृष्णके प्रभावके विषयमें बातचीत
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते।
अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः॥
मूलम्
एवंविधानि कर्माणि गोपाः कृष्णस्य वीक्ष्य ते।
अतद्वीर्यविदः प्रोचुः समभ्येत्य सुविस्मिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! व्रजके गोप भगवान् श्रीकृष्णके ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्हें भगवान्की अनन्त शक्तिका तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपसमें इस प्रकार कहने लगे—॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालकस्य यदेतानि कर्माण्यत्यद्भुतानि वै।
कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्॥
मूलम्
बालकस्य यदेतानि कर्माण्यत्यद्भुतानि वै।
कथमर्हत्यसौ जन्म ग्राम्येष्वात्मजुगुप्सितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस बालकके ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे-जैसे गँवार ग्रामीणोंमें जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दाकी बात है। यह भला, कैसे उचित हो सकता है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया।
कथं बिभ्रद् गिरिवरं पुष्करं गजराडिव॥
मूलम्
यः सप्तहायनो बालः करेणैकेन लीलया।
कथं बिभ्रद् गिरिवरं पुष्करं गजराडिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गजराज कोई कमल उखाड़कर उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्षके बालकने एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और खेल-खेलमें सात दिनोंतक उठाये रखा॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः।
पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः॥
मूलम्
तोकेनामीलिताक्षेण पूतनाया महौजसः।
पीतः स्तनः सह प्राणैः कालेनेव वयस्तनोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह साधारण मनुष्यके लिये भला कैसे सम्भव है? जब यह नन्हा-सा बच्चा था, उस समय बड़ी भयंकर राक्षसी पूतना आयी और इसने आँख बंद किये-किये ही उसका स्तन तो पिया ही, प्राण भी पी डाले— ठीक वैसे ही, जैसे काल शरीरकी आयुको निगल जाता है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिन्वतोऽधः शयानस्य मास्यस्य चरणावुदक्।
अनोऽपतद् विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम्॥
मूलम्
हिन्वतोऽधः शयानस्य मास्यस्य चरणावुदक्।
अनोऽपतद् विपर्यस्तं रुदतः प्रपदाहतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय यह केवल तीन महीनेका था और छकड़ेके नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकरसे वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा।
दैत्येन यस्तृणावर्तमहन् कण्ठग्रहातुरम्॥
मूलम्
एकहायन आसीनो ह्रियमाणो विहायसा।
दैत्येन यस्तृणावर्तमहन् कण्ठग्रहातुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय तो यह एक ही वर्षका था, जब दैत्य बवंडरके रूपमें इसे बैठे-बैठे आकाशमें उड़ा ले गया था। तुम सब जानते ही हो कि इसने उस तृणावर्त दैत्यको गला घोंटकर मार डाला॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद्धैयङ्गवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उलूखले।
गच्छन्नर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत्॥
मूलम्
क्वचिद्धैयङ्गवस्तैन्ये मात्रा बद्ध उलूखले।
गच्छन्नर्जुनयोर्मध्ये बाहुभ्यां तावपातयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस दिनकी बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करनेपर यशोदारानीने इसे ऊखलसे बाँध दिया था। यह घुटनोंके बल बकैयाँ खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षोंके बीचमेंसे निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वने सञ्चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्वृतः।
हन्तुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत्॥
मूलम्
वने सञ्चारयन् वत्सान् सरामो बालकैर्वृतः।
हन्तुकामं बकं दोर्भ्यां मुखतोऽरिमपाटयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह ग्वालबाल और बलरामजीके साथ बछड़ोंको चरानेके लिये वनमें गया हुआ था उस समय इसको मार डालनेके लिये एक दैत्य बगुलेके रूपमें आया और इसने दोनों हाथोंसे उसके दोनों ठोर पकड़कर उसे तिनकेकी तरह चीर डाला॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया।
हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया॥
मूलम्
वत्सेषु वत्सरूपेण प्रविशन्तं जिघांसया।
हत्वा न्यपातयत्तेन कपित्थानि च लीलया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय इसको मार डालनेकी इच्छासे एक दैत्य बछड़ेके रूपमें बछड़ोंके झुंडमें घुस गया था उस समय इसने उस दैत्यको खेल-ही-खेलमें मार डाला और उसे कैथके पेड़ोंपर पटककर उन पेड़ोंको भी गिरा दिया॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
हत्वा रासभदैतेयं तद्बन्धूंश्च बलान्वितः।
चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्वफलान्वितम्॥
मूलम्
हत्वा रासभदैतेयं तद्बन्धूंश्च बलान्वितः।
चक्रे तालवनं क्षेमं परिपक्वफलान्वितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसने बलरामजीके साथ मिलकर गधेके रूपमें रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बन्धुओंको मार डाला और पके हुए फलोंसे पूर्ण तालवनको सबके लिये उपयोगी और मंगलमय बना दिया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना।
अमोचयद् व्रजपशून् गोपांश्चारण्यवह्नितः॥
मूलम्
प्रलम्बं घातयित्वोग्रं बलेन बलशालिना।
अमोचयद् व्रजपशून् गोपांश्चारण्यवह्नितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीने बलशाली बलरामजीके द्वारा क्रूर प्रलम्बासुरको मरवा डाला तथा दावानलसे गौओं और ग्वालबालोंको उबार लिया॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं ह्रदात्।
प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रेऽसौ निर्विषोदकाम्॥
मूलम्
आशीविषतमाहीन्द्रं दमित्वा विमदं ह्रदात्।
प्रसह्योद्वास्य यमुनां चक्रेऽसौ निर्विषोदकाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमुनाजलमें रहनेवाला कालियनाग कितना विषैला था? परन्तु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दहसे निकाल दिया और यमुनाजीका जल सदाके लिये विषरहित—अमृतमय बना दिया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन् सर्वेषां नो व्रजौकसाम्।
नन्द ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम्॥
मूलम्
दुस्त्यजश्चानुरागोऽस्मिन् सर्वेषां नो व्रजौकसाम्।
नन्द ते तनयेऽस्मासु तस्याप्यौत्पत्तिकः कथम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी! हम यह भी देखते हैं कि तुम्हारे इस साँवले बालकपर हम सभी व्रजवासियोंका अनन्त प्रेम है और इसका भी हमपर स्वाभाविक ही स्नेह है। क्या आप बतला सकते हैं कि इसका क्या कारण है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम्।
ततो नो जायते शङ्का व्रजनाथ तवात्मजे॥
मूलम्
क्व सप्तहायनो बालः क्व महाद्रिविधारणम्।
ततो नो जायते शङ्का व्रजनाथ तवात्मजे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भला, कहाँ तो यह सात वर्षका नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराजको सात दिनोंतक उठाये रखना! व्रजराज! इसीसे तो तुम्हारे पुत्रके सम्बन्धमें हमें बड़ी शंका हो रही है॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
नन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शङ्का च वोऽर्भके।
एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गो मे यदुवाच ह॥
मूलम्
श्रूयतां मे वचो गोपा व्येतु शङ्का च वोऽर्भके।
एनं कुमारमुद्दिश्य गर्गो मे यदुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबाने कहा—गोपो! तुमलोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालकके विषयमें तुम्हारी शंका दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्गने इस बालकको देखकर इसके विषयमें ऐसा ही कहा था॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णास्त्रयः किलास्यासन् गृह्णतोऽनुयुगं तनूः।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥
मूलम्
वर्णास्त्रयः किलास्यासन् गृह्णतोऽनुयुगं तनूः।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है। विभिन्न युगोंमें इसने श्वेत, रक्त और पीत—ये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः सम्प्रचक्षते॥
मूलम्
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः सम्प्रचक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेवके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग ‘इसका नाम श्रीमान् वासुदेव है’—ऐसा कहते हैं॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥
मूलम्
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे पुत्रके गुण और कर्मोंके अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परन्तु संसारके साधारण लोग नहीं जानते॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ॥
मूलम्
एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे॥ १९॥
श्रीसुदर्सनसूरिः
अञ्जः अञ्जसोः ॥ १९-२५ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः॥
मूलम्
पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘व्रजराज! पूर्वकालमें एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः॥
मूलम्
य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबा! जो तुम्हारे इस साँवले शिशुसे प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान् हैं। जैसे विष्णुभगवान्के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतरी या बाहरी—किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नन्द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः॥
मूलम्
तस्मान्नन्द कुमारोऽयं नारायणसमो गुणैः।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन तत्कर्मसु न विस्मयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी! चाहे जिस दृष्टिसे देखें—गुणसे, ऐश्वर्य और सौन्दर्यसे, कीर्ति और प्रभावसे तुम्हारा बालक स्वयं भगवान् नारायणके ही समान है, अतः इस बालकके अलौकिक कार्योंको देखकर आश्चर्य न करना चाहिये’॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते।
मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥
मूलम्
इत्यद्धा मां समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते।
मन्ये नारायणस्यांशं कृष्णमक्लिष्टकारिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोपो! मुझे स्वयं गर्गाचार्यजी यह आदेश देकर अपने घर चले गये। तबसे मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करनेवाले इस बालकको भगवान् नारायणका ही अंश मानता हूँ॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति नन्दवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः।
दृष्टश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः।
मुदिता नन्दमानर्चुः कृष्णं च गतविस्मयाः॥
मूलम्
इति नन्दवचः श्रुत्वा गर्गगीतं व्रजौकसः।
दृष्टश्रुतानुभावास्ते कृष्णस्यामिततेजसः।
मुदिता नन्दमानर्चुः कृष्णं च गतविस्मयाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब व्रजवासियोंने नन्दबाबाके मुखसे गर्गजीकी यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा। क्योंकि अब वे अमिततेजस्वी श्रीकृष्णके प्रभावको पूर्णरूपसे देख और सुन चुके थे। आनन्दमें भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा
वज्राश्मपर्षानिलैः
सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं
दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन्।
उत्पाट्यैककरेण शैलमबलो
लीलोच्छिलीन्ध्रं यथा
बिभ्रद् गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्
प्रीयान्न इन्द्रो गवाम्॥
मूलम्
देवे वर्षति यज्ञविप्लवरुषा
वज्राश्मपर्षानिलैः
सीदत्पालपशुस्त्रि आत्मशरणं
दृष्ट्वानुकम्प्युत्स्मयन्।
उत्पाट्यैककरेण शैलमबलो
लीलोच्छिलीन्ध्रं यथा
बिभ्रद् गोष्ठमपान्महेन्द्रमदभित्
प्रीयान्न इन्द्रो गवाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय अपना यज्ञ भंग हो जानेके कारण इन्द्र क्रोधके मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलोंकी बौछार और प्रचण्ड आँधीसे स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीड़ित हो गये थे। अपनी शरणमें रहनेवाले व्रजवासियोंकी यह दशा देखकर भगवान्का हृदय करुणासे भर आया। परन्तु फिर एक नयी लीला करनेके विचारसे वे तुरंत ही मुसकराने लगे। जैसे कोई नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेलमें ही बरसाती छत्तेका पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़कर धारण कर लिया और सारे व्रजकी रक्षा की। इन्द्रका मद चूर करनेवाले वे ही भगवान् गोविन्द हमपर प्रसन्न हों॥ २५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षड्विंशोऽध्यायः॥ २६॥