[पञ्चविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
गोवर्धनधारण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप।
गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप सः॥
मूलम्
इन्द्रस्तदाऽऽत्मनः पूजां विज्ञाय विहतां नृप।
गोपेभ्यः कृष्णनाथेभ्यो नन्दादिभ्यश्चुकोप सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब इन्द्रको पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपोंपर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करनेसे होता क्या, उन गोपोंके रक्षक तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण थे॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम्।
इन्द्रः प्राचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत॥
मूलम्
गणं सांवर्तकं नाम मेघानां चान्तकारिणाम्।
इन्द्रः प्राचोदयत् क्रुद्धो वाक्यं चाहेशमान्युत॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रको अपने पदका बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकीका ईश्वर हूँ। उन्होंने क्रोधसे तिलमिलाकर प्रलय करनेवाले मेघोंके सांवर्तक नामक गणको व्रजपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दी और कहा—॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्॥
मूलम्
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओह, इन जंगली ग्वालोंको इतना घमण्ड! सचमुच यह धनका ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्णके बलपर उन्होंने मुझ देवराजका अपमान कर डाला॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः।
विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम्॥
मूलम्
यथादृढैः कर्ममयैः क्रतुभिर्नामनौनिभैः।
विद्यामान्वीक्षिकीं हित्वा तितीर्षन्ति भवार्णवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पृथ्वीपर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागरसे पार जानेके सच्चे साधन ब्रह्मविद्याको तो छोड़ देते हैं और नाममात्रकी टूटी हुई नावसे—कर्ममय यज्ञोंसे इस घोर संसार-सागरको पार करना चाहते हैं॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्॥
मूलम्
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होनेपर भी अपनेको बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्युका ग्रास है। फिर भी उसीका सहारा लेकर इन अहीरोंने मेरी अवहेलना की है॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मायितात्मनाम्।
धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत संक्षयम्॥
मूलम्
एषां श्रियावलिप्तानां कृष्णेनाध्मायितात्मनाम्।
धुनुत श्रीमदस्तम्भं पशून् नयत संक्षयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तो ये यों ही धनके नशेमें चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्णने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुमलोग जाकर इनके इस धनके घमण्ड और हेकड़ीको धूलमें मिला दो तथा उनके पशुओंका संहार कर डालो॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं चैरावतं नागमारुह्यानुव्रजे व्रजम्।
मरुद्गणैर्महावीर्यैर्नन्दगोष्ठजिघांसया॥
मूलम्
अहं चैरावतं नागमारुह्यानुव्रजे व्रजम्।
मरुद्गणैर्महावीर्यैर्नन्दगोष्ठजिघांसया॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथीपर चढ़कर नन्दके व्रजका नाश करनेके लिये महापराक्रमी मरुद्गणोंके साथ आता हूँ’॥ ७॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः।
नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा॥
मूलम्
इत्थं मघवताऽऽज्ञप्ता मेघा निर्मुक्तबन्धनाः।
नन्दगोकुलमासारैः पीडयामासुरोजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इन्द्रने इस प्रकार प्रलयके मेघोंको आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेगसे नन्दबाबाके व्रजपर चढ़ आये और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रजको पीड़ित करने लगे॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्योतमाना विद्युद्भिः स्तनन्तः स्तनयित्नुभिः।
तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः॥
मूलम्
विद्योतमाना विद्युद्भिः स्तनन्तः स्तनयित्नुभिः।
तीव्रैर्मरुद्गणैर्नुन्ना ववृषुर्जलशर्कराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों ओर बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपसमें टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधीकी प्रेरणासे वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्वभीक्ष्णशः।
जलौघैः प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्नतम्॥
मूलम्
स्थूणास्थूला वर्षधारा मुञ्चत्स्वभ्रेष्वभीक्ष्णशः।
जलौघैः प्लाव्यमाना भूर्नादृश्यत नतोन्नतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकर खंभेके समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमिका कोना-कोना पानीसे भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा—इसका पता चलना कठिन हो गया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः।
गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः॥
मूलम्
अत्यासारातिवातेन पशवो जातवेपनाः।
गोपा गोप्यश्च शीतार्ता गोविन्दं शरणं ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मूसलधार वर्षा तथा झंझावातके झपाटेसे जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठंडके मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आये॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्यासारपीडिताः।
वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः॥
मूलम्
शिरः सुतांश्च कायेन प्रच्छाद्यासारपीडिताः।
वेपमाना भगवतः पादमूलमुपाययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूसलधार वर्षासे सताये जानेके कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चोंको निहुककर अपने शरीरके नीचे छिपा लिया था और वे काँपते-काँपते भगवान्की चरणशरणमें पहुँचे॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वेपमानाः कम्पमानाः ॥ १२-१४ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो।
त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल॥
मूलम्
कृष्ण कृष्ण महाभाग त्वन्नाथं गोकुलं प्रभो।
त्रातुमर्हसि देवान्नः कुपिताद् भक्तवत्सल॥
अनुवाद (हिन्दी)
और बोले—‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान् हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्यसे हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुलके एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्रके क्रोधसे अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो’॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिलावर्षनिपातेन हन्यमानमचेतनम्।
निरीक्ष्य भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः॥
मूलम्
शिलावर्षनिपातेन हन्यमानमचेतनम्।
निरीक्ष्य भगवान् मेने कुपितेन्द्रकृतं हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्ने देखा कि वर्षा और ओलोंकी मारसे पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्रकी है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपर्त्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्।
स्वयागे विहतेऽस्माभिरिन्द्रो नाशाय वर्षति॥
मूलम्
अपर्त्त्वत्युल्बणं वर्षमतिवातं शिलामयम्।
स्वयागे विहतेऽस्माभिरिन्द्रो नाशाय वर्षति॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मन-ही-मन कहने लगे—‘हमने इन्द्रका यज्ञ भंग कर दिया है, इसीसे वे व्रजका नाश करनेके लिये बिना ऋतुके ही यह प्रचण्ड वायु और ओलोंके साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अपर्त्तु ऋत्वतिक्रमेण ॥ १५-१६ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र प्रतिविधिं सम्यगात्मयोगेन साधये।
लोकेशमानिनां मौढ्याद्धरिष्ये श्रीमदं तमः॥
मूलम्
तत्र प्रतिविधिं सम्यगात्मयोगेन साधये।
लोकेशमानिनां मौढ्याद्धरिष्ये श्रीमदं तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, मैं अपनी योगमायासे इसका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपनेको लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धनका घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः।
मत्तोऽसतां मानभङ्गः प्रशमायोपकल्पते॥
मूलम्
न हि सद्भावयुक्तानां सुराणामीशविस्मयः।
मत्तोऽसतां मानभङ्गः प्रशमायोपकल्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतालोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पदका अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इन सत्त्वगुणसे च्युत दुष्ट देवताओंका मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्तमें उन्हें शान्ति ही मिलेगी॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मद्भावयुक्तानां मयि भावबन्धयुक्तानाम् ॥ १७-२५ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम्।
गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥
मूलम्
तस्मान्मच्छरणं गोष्ठं मन्नाथं मत्परिग्रहम्।
गोपाये स्वात्मयोगेन सोऽयं मे व्रत आहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमायासे इसकी रक्षा करूँगा। संतोंकी रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालनका अवसर आ पहुँचा है’*॥ १८॥
पादटिप्पनी
- भगवान् कहते हैं—
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
‘जो केवल एक बार मेरी शरणमें आ जाता है और ‘मैं तुम्हारा हूँ’ इस प्रकार याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ—यह मेरा व्रत है।’
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्।
दधार लीलया कृष्णश्छत्राकमिव बालकः॥
मूलम्
इत्युक्त्वैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम्।
दधार लीलया कृष्णश्छत्राकमिव बालकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्णने खेल-खेलमें एक ही हाथसे गिरिराज गोवर्द्धनको उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्तेके पुष्पको उखाड़कर हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वतको धारण कर लिया॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः।
यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः॥
मूलम्
अथाह भगवान् गोपान् हेऽम्ब तात व्रजौकसः।
यथोपजोषं विशत गिरिगर्तं सगोधनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान्ने गोपोंसे कहा—‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियो! तुमलोग अपनी गौओं और सब सामग्रियोंके साथ इस पर्वतके गड्ढेमें आकर आरामसे बैठ जाओ॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने।
वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः॥
मूलम्
न त्रास इह वः कार्यो मद्धस्ताद्रिनिपातने।
वातवर्षभयेनालं तत्त्राणं विहितं हि वः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, तुमलोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथसे यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुमलोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानीके डरसे तुम्हें बचानेके लिये ही मैंने यह युक्ति रची है’॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसाः।
यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः॥
मूलम्
तथा निर्विविशुर्गर्तं कृष्णाश्वासितमानसाः।
यथावकाशं सधनाः सव्रजाः सोपजीविनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया—ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्योंको अपने-अपने साथ लेकर सुभीतेके अनुसार गोवर्द्धनके गड्ढेमें आ घुसे॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः।
वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात्॥
मूलम्
क्षुत्तृड्व्यथां सुखापेक्षां हित्वा तैर्व्रजवासिभिः।
वीक्ष्यमाणो दधावद्रिं सप्ताहं नाचलत् पदात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने सब व्रजवासियोंके देखते-देखते भूख-प्यासकी पीड़ा, आराम-विश्रामकी आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिनतक लगातार उस पर्वतको उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँसे इधर-उधर नहीं हुए॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णयोगानुभावं तं निशाम्येन्द्रोऽतिविस्मितः।
निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्कल्पःस्वान् मेघान् संन्यवारयत्॥
मूलम्
कृष्णयोगानुभावं तं निशाम्येन्द्रोऽतिविस्मितः।
निःस्तम्भो भ्रष्टसङ्कल्पःस्वान् मेघान् संन्यवारयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णकी योगमायाका यह प्रभाव देखकर इन्द्रके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होनेके कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इसके बाद उन्होंने मेघोंको अपने-आप वर्षा करनेसे रोक दिया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम्।
निशाम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत्॥
मूलम्
खं व्यभ्रमुदितादित्यं वातवर्षं च दारुणम्।
निशाम्योपरतं गोपान् गोवर्धनधरोऽब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब गोवर्द्धनधारी भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाशसे बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपोंसे कहा—॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः।
उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥
मूलम्
निर्यात त्यजत त्रासं गोपाः सस्त्रीधनार्भकाः।
उपारतं वातवर्षं व्युदप्रायाश्च निम्नगाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे प्यारे गोपो! अब तुमलोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चोंके साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियोंका पानी भी उतर गया’॥ २६॥
वीरराघवः
व्युदप्रायाः निरुदकप्रायाः ॥ २६-३३ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धीये श्रोसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम्।
शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः॥
मूलम्
ततस्ते निर्ययुर्गोपाः स्वं स्वमादाय गोधनम्।
शकटोढोपकरणं स्त्रीबालस्थविराः शनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ोंको साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ोंपर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत् प्रभुः।
पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया॥
मूलम्
भगवानपि तं शैलं स्वस्थाने पूर्ववत् प्रभुः।
पश्यतां सर्वभूतानां स्थापयामास लीलया॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने भी सब प्राणियोंके देखते-देखते खेल-खेलमें ही गिरिराजको पूर्ववत् उसके स्थानपर रख दिया॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रेमवेगान्निभृता व्रजौकसो
यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः।
गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन् मुदा
दध्यक्षताद्भिर्युयुजुः सदाशिषः॥
मूलम्
तं प्रेमवेगान्निभृता व्रजौकसो
यथा समीयुः परिरम्भणादिभिः।
गोप्यश्च सस्नेहमपूजयन् मुदा
दध्यक्षताद्भिर्युयुजुः सदाशिषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्रजवासियोंका हृदय प्रेमके आवेगसे भर रहा था। पर्वतको रखते ही वे भगवान् श्रीकृष्णके पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदयसे लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियोंने बड़े आनन्द और स्नेहसे दही, चावल, जल आदिसे उनका मंगल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदयसे शुभ आशीर्वाद दिये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः।
कृष्णमालिङ्ग्य युयुजुराशिषः स्नेहकातराः॥
मूलम्
यशोदा रोहिणी नन्दो रामश्च बलिनां वरः।
कृष्णमालिङ्ग्य युयुजुराशिषः स्नेहकातराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानोंमें श्रेष्ठ बलरामजीने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्णको हृदयसे लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवि देवगणाः साध्याः सिद्धगन्धर्वचारणाः।
तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव॥
मूलम्
दिवि देवगणाः साध्याः सिद्धगन्धर्वचारणाः।
तुष्टुवुर्मुमुचुस्तुष्टाः पुष्पवर्षाणि पार्थिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय आकाशमें स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान्की स्तुति करते हुए उनपर फूलोंकी वर्षा करने लगे॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रणोदिताः।
जगुर्गन्धर्वपतयस्तुम्बुरुप्रमुखा नृप॥
मूलम्
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्दिवि देवप्रणोदिताः।
जगुर्गन्धर्वपतयस्तुम्बुरुप्रमुखा नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! स्वर्गमें देवतालोग शंख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान्की मधुर लीलाका गान करने लगे॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो
राजन् स गोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः।
तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका
गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः॥
मूलम्
ततोऽनुरक्तैः पशुपैः परिश्रितो
राजन् स गोष्ठं सबलोऽव्रजद्धरिः।
तथाविधान्यस्य कृतानि गोपिका
गायन्त्य ईयुर्मुदिता हृदिस्पृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने व्रजकी यात्रा की। उनके बगलमें बलरामजी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे। उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदयको आकर्षित करनेवाले, उसमें प्रेम जगानेवाले भगवान्की गोवर्द्धन-धारण आदि लीलाओंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे व्रजमें लौट आयीं॥ ३३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे पञ्चविंशोऽध्यायः॥ २५॥