[चतुर्विंशोऽध्यायः]
भागसूचना
इन्द्रयज्ञ-निवारण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः।
अपश्यन्निवसन् गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान्॥
मूलम्
भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः।
अपश्यन्निवसन् गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ वृन्दावनमें रहकर अनेकों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँके सब गोप इन्द्र-यज्ञ करनेकी तैयारी कर रहे हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः।
प्रश्रयावनतोऽपृच्छद् वृद्धान् नन्दपुरोगमान्॥
मूलम्
तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः।
प्रश्रयावनतोऽपृच्छद् वृद्धान् नन्दपुरोगमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंसे पूछा—॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः।
किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥
मूलम्
कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः।
किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! आपलोगोंके सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्यसे, कौन लोग, किन साधनोंके द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं? पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः।
न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह॥
मूलम्
एतद् ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः।
न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्तविद्विषाम्।
उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते॥
मूलम्
अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्तविद्विषाम्।
उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुननेके लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टिमें अपने और परायेका भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन—उनके पास छिपानेकी तो कोई बात होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्यकी बात शत्रुकी भाँति उदासीनसे भी नहीं कहनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती॥ ४-५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अस्तस्वपरदृष्टीनां स्वपराभिमतदेहेषु आत्मदृष्टिरहितानाम् अमित्रोास्तविद्विषां मित्रोदासीनशत्रु रहितानाम् उदासीनोऽविद्वयः हिताहितश्रवणानर्हत्वात् शत्रुतुल्य इत्यर्थः ॥ ५-६ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति।
विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्॥
मूलम्
ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति।
विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करता है। उनमेंसे समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषोंके कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझके नहीं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः।
अथवा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्॥
मूलम्
तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः।
अथवा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इस समय आपलोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदोंके साथ विचारित—शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है—मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्टरूपसे बतलाइये’॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्रियायोगः शास्त्रीयः ॥ ७ ॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
नन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः॥
मूलम्
पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबाने कहा—बेटा! भगवान् इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघोंके स्वामी हैं। ये मेघ उन्हींके अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पर्जन्यो वर्षाधिदेवतेति इन्द्र एव विशेष्यः ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम्।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥
मूलम्
तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम्।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान् इन्द्रकी यज्ञोंके द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियोंसे यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जलसे ही उत्पन्न होती हैं॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तद्रेतसा तज्जलेन ।। ९-१३ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः॥
मूलम्
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका यज्ञ करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्नसे हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्योंके खेती आदि प्रयत्नोंके फल देनेवाले इन्द्र ही हैं॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवं विसृजेद् धर्मं पारम्पर्यागतं नरः।
कामाल्लोभाद् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम्॥
मूलम्
य एवं विसृजेद् धर्मं पारम्पर्यागतं नरः।
कामाल्लोभाद् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह धर्म हमारी कुलपरम्परासे चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्मको छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम्।
इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः॥
मूलम्
वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम्।
इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ब्रह्मा, शंकर आदिके भी शासन करनेवाले केशव भगवान्ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंकी बात सुनकर इन्द्रको क्रोध दिलानेके लिये अपने पिता नन्दबाबासे कहा॥ १२॥
श्लोक-१३
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥
मूलम्
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते।
सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान्ने कहा—पिताजी! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगलके निमित्तोंकी प्राप्ति होती है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम्।
कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः॥
मूलम्
अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम्।
कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करनेवालोंपर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कर्त्तारं भजते सोऽपि देवः स चैतदेवोपपादयति - तस्य कर्मणीत्यनुषङ्गः ॥ १४-१५ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्।
अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥
मूलम्
किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम्।
अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है? पिताजी! जब वे पूर्वसंस्कारके अनुसार प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके कर्म-फलको बदल ही नहीं सकते—तब उनसे प्रयोजन?॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते।
स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥
मूलम्
स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते।
स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण करता है। यहाँतक कि देवता, असुर, मनुष्य आदिको लिये हुए यह सारा जगत् स्वभावमें ही स्थित है॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वभावतन्त्रः स्वभावविहितकर्मतन्त्रः कर्मस्वभावस्थम् इति वक्ष्यमाणत्वात् ॥ १६-२१ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा।
शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः॥
मूलम्
देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत्सृजति कर्मणा।
शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव अपने कर्मोंके अनुसार उत्तम और अधम शरीरोंको ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मोंके अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँतक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सम्पूजयेत् कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत्।
अञ्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्॥
मूलम्
तस्मात् सम्पूजयेत् कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत्।
अञ्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये पिताजी! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व-संस्कारोंके अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति।
न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारं नार्यसती यथा॥
मूलम्
आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति।
न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारं नार्यसती यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अपने विवाहित पतिको छोड़कर जार पतिका सेवन करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवताको छोड़कर किसी दूसरेकी उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः।
वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया॥
मूलम्
वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः।
वैश्यस्तु वार्तया जीवेच्छूद्रस्तु द्विजसेवया॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण वेदोंके अध्ययन-अध्यापनसे, क्षत्रिय पृथ्वीपालनसे, वैश्य वार्तावृत्तिसे और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवासे अपनी जीविकाका निर्वाह करें॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तुर्यमुच्यते।
वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्॥
मूलम्
कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तुर्यमुच्यते।
वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैश्योंकी वार्तावृत्ति चार प्रकारकी है—कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारोंमेंसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः।
रजसोत्पद्यते विश्वमन्योन्यं विविधं जगत्॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः।
रजसोत्पद्यते विश्वमन्योन्यं विविधं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और अन्तके कारण क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकारका सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुषके संयोगसे रजोगुणके द्वारा उत्पन्न होता है॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अध्यात्मदृष्टया च मतमुपपादयति - सत्वमिति ॥ २२-३८ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः।
प्रजास्तैरेव सिद्ध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति॥
मूलम्
रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः।
प्रजास्तैरेव सिद्ध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी रजोगुणकी प्रेरणासे मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसीसे अन्न और अन्नसे ही सब जीवोंकी जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्रका क्या लेना-देना है? वह भला, क्या कर सकता है?॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नः पुरो जनपदा न ग्रामा न गृहा वयम्।
नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः॥
मूलम्
न नः पुरो जनपदा न ग्रामा न गृहा वयम्।
नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! न तो हमारे पास किसी देशका राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदाके वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् गवां ब्राह्मणानामद्रेश्चारभ्यतां मखः।
य इन्द्रयागसम्भारास्तैरयं साध्यतां मखः॥
मूलम्
तस्माद् गवां ब्राह्मणानामद्रेश्चारभ्यतां मखः।
य इन्द्रयागसम्भारास्तैरयं साध्यतां मखः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराजका यजन करनेकी तैयारी करें। इन्द्र-यज्ञके लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हींसे इस यज्ञका अनुष्ठान होने दें॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः।
संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम्॥
मूलम्
पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः।
संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेकों प्रकारके पकवान—खीर, हलवा, पूआ, पूरी आदिसे लेकर मूँगकी दालतक बनाये जायँ। व्रजका सारा दूध एकत्र कर लिया जाय॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः।
अन्नं बहुविधं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः॥
मूलम्
हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः।
अन्नं बहुविधं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदवादी ब्राह्मणोंके द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकारके अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डालपतितेभ्यो यथार्हतः।
यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः॥
मूलम्
अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डालपतितेभ्यो यथार्हतः।
यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तकको यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायोंको चारा दिया जाय और फिर गिरिराजको भोग लगाया जाय॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वलङ्कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः।
प्रदक्षिणं च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान्॥
मूलम्
स्वलङ्कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः।
प्रदक्षिणं च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनोंसे सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा गिरिराज गोवर्धनकी प्रदक्षिणा की जाय॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते।
अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः॥
मूलम्
एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते।
अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताजी! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आप-लोगोंको रुचे तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराजको तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है॥ ३०॥
श्लोक-३१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता।
प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः॥
मूलम्
कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता।
प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! कालात्मा भगवान्की इच्छा थी कि इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपोंने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नतासे स्वीकार कर ली॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः।
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान्॥
मूलम्
तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः।
वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान्॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपहृत्य बलीन् सर्वानादृता यवसं गवाम्।
गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम्॥
मूलम्
उपहृत्य बलीन् सर्वानादृता यवसं गवाम्।
गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने जिस प्रकारका यज्ञ करनेको कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर उसी सामग्रीसे गिरिराज और ब्राह्मणोंको सादर भेंटें दीं तथा गौओंको हरी-हरी घास खिलायीं। इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपोंने गौओंको आगे करके गिरिराजकी प्रदक्षिणा की॥ ३२-३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्कृताः।
गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः॥
मूलम्
अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्कृताः।
गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणोंका आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति शृंगार करके और बैलोंसे जुती गाड़ियोंपर सवार होकर भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंका गान करती हुई गिरिराजकी परिक्रमा करने लगीं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः।
शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः॥
मूलम्
कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः।
शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण गोपोंको विश्वास दिलानेके लिये गिरिराजके ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा ‘मैं गिरिराज हूँ’ इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने।
अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात्॥
मूलम्
तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने।
अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने अपने उस स्वरूपको दूसरे व्रजवासियोंके साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे—‘देखो, कैसा आश्चर्य है! गिरिराजने साक्षात् प्रकट होकर हमपर कृपा की है॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः।
हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम्॥
मूलम्
एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः।
हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओंका कल्याण करनेके लिये इन गिरिराजको हम नमस्कार करें’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रणोदिताः।
यथा विधाय ते गोपाः सहकृष्णा व्रजं ययुः॥
मूलम्
इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रणोदिताः।
यथा विधाय ते गोपाः सहकृष्णा व्रजं ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणोंका विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्णके साथ सब व्रजमें लौट आये॥ ३८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४॥