२३ यज्ञपत्न्युद्धरणम्

[त्रयोविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

यज्ञपत्नियोंपर कृपा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

गोपा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम महावीर्य कृष्ण दुष्टनिबर्हण।
एषा वै बाधते क्षुन्नस्तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः॥

मूलम्

राम राम महावीर्य कृष्ण दुष्टनिबर्हण।
एषा वै बाधते क्षुन्नस्तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालोंने कहा—नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टोंका संहार किया है। उन्हीं दुष्टोंके समान यह भूख भी हमें सता रही है। अतः तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति विज्ञापितो गोपैर्भगवान् देवकीसुतः।
भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन्निदमब्रवीत्॥

मूलम्

इति विज्ञापितो गोपैर्भगवान् देवकीसुतः।
भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन्निदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! जब ग्वालबालोंने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिये यह बात कही—॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।
सत्रमाङ्गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया॥

मूलम्

प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।
सत्रमाङ्गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे प्यारे मित्रो! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे आंगिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद्विसर्जिताः।
कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम्॥

मूलम्

तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद्विसर्जिताः।
कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालो! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान् श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात—भोजनकी सामग्री माँग लाओ’॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यादिष्टा भगवता गत्वायाचन्त ते तथा।
कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि॥

मूलम्

इत्यादिष्टा भगवता गत्वायाचन्त ते तथा।
कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान‍्ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवान‍्की आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्वीपर गिरकर दण्डवत् प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा—॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे भूमिदेवाः शृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः।
प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान्॥

मूलम्

हे भूमिदेवाः शृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः।
प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीके मूर्तिमान् देवता ब्राह्मणो! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाश्चारयन्तावविदूर ओदनं
रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ।
तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि
श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः॥

मूलम्

गाश्चारयन्तावविदूर ओदनं
रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ।
तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि
श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोड़े ही दूरपर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोड़ा-सा भात दे दें। ब्राह्मणो! आप धर्मका मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियोंके लिये कुछ भात दे दीजिये॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

लषतः अन्नमिच्छतः ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः।
अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति॥

मूलम्

दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः।
अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दीक्षाया इति दीक्षापूर्विकायाः अग्निषोमीयपशुसंस्थायाः ऊर्ध्वं सौत्रामण्या अन्यत्र अनन्तरेषु दीक्षितस्य यजमानस्यान्नं न दुष्यतीत्यर्थः ॥ ८-९ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ते भगवद्याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुः।
क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः॥

मूलम्

इति ते भगवद्याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुः।
क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस प्रकार भगवान‍्के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मोंमें उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परन्तु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशः कालः पृथग् द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नयः।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥

मूलम्

देशः कालः पृथग् द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नयः।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म—इन सब रूपोंमें एकमात्र भगवान् ही प्रकट हो रहे हैं॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दीक्षित शब्दो यजमानपरः सौत्रामण्या दीक्षणीयेष्टिपूर्वकसङ्कल्पाभावात् पृथक् द्रव्यं पुरोडाशादिद्रव्यम् ॥ १०- १८ ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं ब्रह्म परमं साक्षात् भगवन्तमधोक्षजम्।
मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे॥

मूलम्

तं ब्रह्म परमं साक्षात् भगवन्तमधोक्षजम्।
मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान‍्को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परंतप।
गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः॥

मूलम्

न ते यदोमिति प्रोचुर्न नेति च परंतप।
गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब उन ब्राह्मणोंने ‘हाँ’ या ‘ना’—कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः।
व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयल्ँलौकिकीं गतिम्॥

मूलम्

तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः।
व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयल्ँलौकिकीं गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी बात सुनकर सारे जगत‍्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि ‘संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।’ फिर उनसे कहा—॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां ज्ञापयत पत्नीभ्यः ससंकर्षणमागतम्।
दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया॥

मूलम्

मां ज्ञापयत पत्नीभ्यः ससंकर्षणमागतम्।
दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे प्यारे ग्वालबालो! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियोंके पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है’॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वाथ पत्नीशालायां दृष्ट्वाऽऽसीनाः स्वलङ्कृताः।
नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन्॥

मूलम्

गत्वाथ पत्नीशालायां दृष्ट्वाऽऽसीनाः स्वलङ्कृताः।
नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशालामें गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणोंकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनोंसे सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियोंको प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यह बात कही—॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि नः।
इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम्॥

मूलम्

नमो वो विप्रपत्नीभ्यो निबोधत वचांसि नः।
इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः।
बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम्॥

मूलम्

गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः।
बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें’॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वाच्युतमुपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः।
तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः॥

मूलम्

श्रुत्वाच्युतमुपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः।
तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान‍्की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विधं बहुगुणमन्नमादाय भाजनैः।
अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः॥

मूलम्

चतुर्विधं बहुगुणमन्नमादाय भाजनैः।
अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चतुर्विधम् भक्ष्यभोज्यलेह्यपेयात्मकम् ॥ १९ - २१ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषिध्यमानाः पतिभिर्भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः।
भगवत्युत्तमश्लोके दीर्घश्रुतधृताशयाः॥

मूलम्

निषिध्यमानाः पतिभिर्भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः।
भगवत्युत्तमश्लोके दीर्घश्रुतधृताशयाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य—चारों प्रकारकी भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ीं—ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था॥ १९-२०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमुनोपवनेऽशोकनवपल्लवमण्डिते।
विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः॥

मूलम्

यमुनोपवनेऽशोकनवपल्लवमण्डिते।
विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वाल-बालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह-
धातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं
कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥

मूलम्

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह-
धातुप्रवालनटवेषमनुव्रतांसे।
विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं
कर्णोत्पलालककपोलमुखाब्जहासम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अंग-अंगमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वाल-बालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनुव्रतस्य कस्यचिदंसे कर्णोत्पलालकैर्जुष्टं कपोलं यस्य तत् कर्णोपलालककपोलं मुखाब्जं तस्मिन् हासो यस्य तमित्यर्थः ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायः श्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरै-
र्यस्मिन् निमग्नमनसस्तमथाक्षिरन्ध्रैः।
अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं
प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र॥

मूलम्

प्रायः श्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरै-
र्यस्मिन् निमग्नमनसस्तमथाक्षिरन्ध्रैः।
अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं
प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त की—ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भावसे जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कर्णपूरैः शब्दः अतिमतयः ज्ञानाधिकाः ॥ २३-२६ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया।
विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः॥

मूलम्

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया।
विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! भगवान् सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम्।
यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः॥

मूलम्

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम्।
यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियो! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शनाः।
अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा॥

मूलम्

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शनाः।
अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतमके समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहती—जिसमें किसी प्रकारका व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणबुद्धिमनःस्वात्मदारापत्यधनादयः।
यत्सम्पर्कात् प्रिया आसंस्ततः को न्वपरः प्रियः॥

मूलम्

प्राणबुद्धिमनःस्वात्मदारापत्यधनादयः।
यत्सम्पर्कात् प्रिया आसंस्ततः को न्वपरः प्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधिसे प्रिय लगती हैं—उस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्राणेति आत्मशब्द: शरीरपरः ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः।
स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः॥

मूलम्

तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः।
स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञशालामें लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे’॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्रं यागं पारयिष्यन्ति ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

पत्न्य ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम्।
प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं
केशैर्निवोढुमतिलङ्घ्य समस्तबन्धून्॥

मूलम्

मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं
सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम्।
प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं
केशैर्निवोढुमतिलङ्घ्य समस्तबन्धून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणपत्नियोंने कहा—अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरतासे पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान‍्को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसारमें नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके आपके चरणोंमें इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसीकी माला अपने केशोंमें धारण करें॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तव निगमम् “प्रियोहि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः” “न मे भक्तः प्रणश्यति” इत्यादि वचनम् ॥ २९ ॥ प्रपदयोः पादाग्रयोः ॥ ३०-३१ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा
न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये।
तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो
नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि॥

मूलम्

गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा
न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये।
तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो
नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणोंमें आ पड़ी हैं। हमें और किसीका सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरोंकी शरणमें न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः।
लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते॥

मूलम्

पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः।
लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवियो! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु—कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणामिह।
तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥

मूलम्

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणामिह।
तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान्मामवाप्स्यथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवियो! इस संसारमें मेरा अंग-संग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नृणामङ्गसङ्गः शरीरयोगः न प्रीतये न वैषयिकसुखाय अपि तु मय्यनुरागाय जन्मनः फलं मद्भक्तिरित्यर्थः । नृणां चेतनानां मदङ्गसङ्गस्तदात्विकारागाय नतु कालान्तरप्रीतये विश्लेषस्तु कालान्तरेऽपि प्रीतिवर्धक इत्यभिप्रायः ॥ ३२-३३ ॥

श्लोक-३३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्ता द्विजपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः।
ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन्॥

मूलम्

इत्युक्ता द्विजपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः।
ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान‍्ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम्।
हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम्॥

मूलम्

तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम्।
हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान‍्के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान‍्का आलिंगन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छोड़ दिया—(शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीरसे उसने भगवान‍्की सन्निधि प्राप्त कर ली)॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विधृताः अप्रेषिताः ॥ ३४-३६ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवानपि गोविन्दस्तेनैवान्नेन गोपकान्।
चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः॥

मूलम्

भगवानपि गोविन्दस्तेनैवान्नेन गोपकान्।
चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वाल-बालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं लीलानरवपुर्नृलोकमनुशीलयन्।
रेमे गोगोपगोपीनां रमयन् रूपवाक्‍कृतैः॥

मूलम्

एवं लीलानरवपुर्नृलोकमनुशीलयन्।
रेमे गोगोपगोपीनां रमयन् रूपवाक्‍कृतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः।
यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञामहन्म नृविडम्बयोः॥

मूलम्

अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः।
यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञामहन्म नृविडम्बयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञाका उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अहन्म वितथीकृतवन्तः ॥ ३७-३८ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम्।
आत्मानं च तया हीनमनुतप्ता व्यगर्हयन्॥

मूलम्

दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम्।
आत्मानं च तया हीनमनुतप्ता व्यगर्हयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान‍्का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम्।
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे॥

मूलम्

धिग् जन्म नस्त्रिवृद् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम्।
धिक् कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे—हाय! हम भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस कामका? धिक्‍कार है! धिक्‍कार है!! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञताको धिक्‍कार है! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्डमें निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्‍कार है॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कुलं कुलपुरुषान् ॥ ३९-४० ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी।
यद् वयं गुरवो नॄणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः॥

मूलम्

नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी।
यद् वयं गुरवो नॄणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही, भगवान‍्की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद‍्गुरौ।
दुरन्तभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधान्॥

मूलम्

अहो पश्यत नारीणामपि कृष्णे जगद‍्गुरौ।
दुरन्तभावं योऽविध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने आश्चर्यकी बात है! देखो तो सही—यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद‍्गुरु भगवान् श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दुरन्तभावं विश्लेशा सह भावबन्धनम् ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि।
न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥

मूलम्

नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि।
न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके न तो द्विजातिके योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुलमें ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्माके सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शौचम् अघमर्षणादिभिः शुद्धिः ॥ ४२-४५ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापि ह्युत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।
भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि॥

मूलम्

अथापि ह्युत्तमश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।
भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान‍्के चरणोंमें हमारा प्रेम नहीं है॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया।
अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः॥

मूलम्

ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया।
अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थीके काम-धंधोंमें मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराईको बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान‍्की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालोंको भेजकर उनके वचनोंसे हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्याशिषां पतेः।
ईशितव्यैः किमस्माभिरीशस्यैतद् विडम्बनम्॥

मूलम्

अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्याशिषां पतेः।
ईशितव्यैः किमस्माभिरीशस्यैतद् विडम्बनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी?॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशयासकृत्।
आत्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी॥

मूलम्

हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशयासकृत्।
आत्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है?॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मदोषोऽपवर्गेण चञ्चलरूपत्वदोषप्रहाणेन स्थिरतरेत्यर्थः ॥ ४६-५० ॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशः कालः पृथग्द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नयः।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥

मूलम्

देशः कालः पृथग्द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नयः।
देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन-उन कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्म—सब भगवान‍्के ही स्वरूप हैं॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः।
जातो यदुष्वित्यशृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे॥

मूलम्

स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः।
जातो यदुष्वित्यशृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ हैं कि उन्हें पहचान न सके॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः।
भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ॥

मूलम्

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः।
भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान् श्रीकृष्णके अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु॥

मूलम्

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़ेमें भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम्।
अविज्ञातानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम्॥

मूलम्

स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम्।
अविज्ञातानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आदि पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं॥ ५१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अविज्ञातानुभावानाम् अविज्ञातभगवदनुभावानाम् ॥ ५१-५२ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसुरिकृतशुकपक्षीये त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः।
दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद् भीता न चाचलन्॥

मूलम्

इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः।
दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद् भीता न चाचलन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराधकी स्मृतिसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके॥ ५२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे यज्ञपत्न्युद्धरणं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥ २३॥