२० प्रावृट्शरद्वर्णनम्

[विंशोऽध्यायः]

भागसूचना

वर्षा और शरद्ऋतुका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोस्तदद‍्भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः।
गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च॥

मूलम्

तयोस्तदद‍्भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः।
गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ग्वालबालोंने घर पहुँचकर अपनी माँ, बहिन आदि स्त्रियोंसे श्रीकृष्ण और बलरामने जो कुछ अद‍्भुत कर्म किये थे—दावानलसे उनको बचाना, प्रलम्बको मारना इत्यादि—सबका वर्णन किया॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः।
मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ॥

मूलम्

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः।
मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्यामकी अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि ‘श्रीकृष्ण और बलरामके वेषमें कोई बहुत बड़े देवता ही व्रजमें पधारे हैं’॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद‍्भवा।
विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला॥

मूलम्

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद‍्भवा।
विद्योतमानपरिधिर्विस्फूर्जितनभस्तला॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वर्षा ऋतुका शुभागमन हुआ। इस ऋतुमें सभी प्रकारके प्राणियोंकी बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमापर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कड़क आदिसे आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विद्योतमान परिधिः विद्युद्भिर्द्योतमानपरिधिः विस्फूर्जिता नभस्तला च ॥ ३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत्स्तनयित्नुभिः।
अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ॥

मूलम्

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत्स्तनयित्नुभिः।
अस्पष्टज्योतिराच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशमें नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाशकी ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होनेपर भी गुणोंसे ढक जानेपर जीवकी होती है॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अस्पष्टत्वहेतुमाह - आच्छन्नं प्रकृत्या तिरोहितं ज्योति ज्ञान रूपं ब्रह्मैव ॥ ४-६ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु।
स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते॥

मूलम्

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु।
स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यने राजाकी तरह पृथ्वीरूप प्रजासे आठ महीनेतक जलका कर ग्रहण किया था, अब समय आनेपर वे अपनी किरण-करोंसे फिर उसे बाँटने लगे॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तडित्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिताः।
प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव॥

मूलम्

तडित्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिताः।
प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राणतक निछावर कर देते हैं— वैसे ही बिजलीकी चमकसे शोभायमान घनघोर बादल तेज हवाकी प्रेरणासे प्राणियोंके कल्याणके लिये अपने जीवनस्वरूप जलको बरसाने लगे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही।
यथैव काम्यतपसस्तनुः सम्प्राप्य तत्फलम्॥

मूलम्

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही।
यथैव काम्यतपसस्तनुः सम्प्राप्य तत्फलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जेठ-आषाढ़की गर्मीसे पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षाके जलसे सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी—जैसे सकाम भावसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तपःकृशा सूर्यरश्मितापकृशा देवेन वर्षसिक्ता वर्षीयसी माननीया ॥ ७-९ ।।

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भान्ति न ग्रहाः।
यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे॥

मूलम्

निशामुखेषु खद्योतास्तमसा भान्ति न ग्रहाः।
यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षाके सायंकालमें बादलोंसे घना अँधेरा छा जानेपर ग्रह और तारोंका प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं—जैसे कलियुगमें पापकी प्रबलता हो जानेसे पाखण्ड मतोंका प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डूका व्यसृजन् गिरः।
तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये॥

मूलम्

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डूका व्यसृजन् गिरः।
तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मेंढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलोंकी गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे—जैसे नित्य-नियमसे निवृत्त होनेपर गुरुके आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसन्नुत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः।
पुंसो यथास्वतन्त्रस्य देहद्रविणसम्पदः॥

मूलम्

आसन्नुत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः।
पुंसो यथास्वतन्त्रस्य देहद्रविणसम्पदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-आषाढ़में बिलकुल सूखनेको आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरेसे बाहर बहने लगीं—जैसे अजितेन्द्रिय पुरुषके शरीर और धन सम्पत्तियोंका कुमार्गमें उपयोग होने लगता है॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनुशुष्यती शोषरहिता अनुशुष्यतीति पाठे आसन्नशोषा इत्यर्थः ॥ १०-११ ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिता हरिभिः शष्पैरिन्द्रगोपैश्च लोहिता।
उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत्॥

मूलम्

हरिता हरिभिः शष्पैरिन्द्रगोपैश्च लोहिता।
उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपर कहीं-कहीं हरी-हरी घासकी हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियोंकी लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तों) के कारण वह सफेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजाकी रंग-बिरंगी सेना हो॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षेत्राणि सस्यसम्पद‍्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः।
धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम्॥

मूलम्

क्षेत्राणि सस्यसम्पद‍्भिः कर्षकाणां मुदं ददुः।
धनिनामुपतापं च दैवाधीनमजानताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब खेत अनाजोंसे भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्दके फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्धके अधीन है—यह बात न जाननेवाले धनियोंके चित्तमें बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजेमें कैसे रख सकेंगे॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मानिनां परसमृद्धिद्वेषिणाम् अभिमानवताम् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया।
अबिभ्रद् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया॥

मूलम्

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया।
अबिभ्रद् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया॥

अनुवाद (हिन्दी)

नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर प्राणियोंकी सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान‍्की सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रुचिरं रूपमिति " वसति हृदि सनातने च तस्मिन् भवति पुमान् जगतोऽस्य सौम्यरूपः" इत्यर्थ उक्तः ।। १३-१७ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरिद‍्भिः सङ्गतः सिन्धुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान्।
अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा॥

मूलम्

सरिद‍्भिः सङ्गतः सिन्धुश्चुक्षुभे श्वसनोर्मिमान्।
अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा-ऋतुमें हवाके झोकोंसे समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगोंसे युक्त हो रहा था, अब नदियोंके संयोगसे वह और भी क्षुब्ध हो उठा—ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगीका चित्त विषयोंका सम्पर्क होनेपर कामनाओंके उभारसे भर जाता है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरयो वर्षधाराभिर्हन्यमाना न विव्यथुः।
अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाधोक्षजचेतसः॥

मूलम्

गिरयो वर्षधाराभिर्हन्यमाना न विव्यथुः।
अभिभूयमाना व्यसनैर्यथाधोक्षजचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूसलधार वर्षाकी चोट खाते रहनेपर भी पर्वतोंको कोई व्यथा नहीं होती थी—जैसे दुःखोंकी भरमार होनेपर भी उन पुरुषोंको किसी प्रकारकी व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान‍्को ही समर्पित कर रखा है॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः।
नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव॥

मूलम्

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धास्तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः।
नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया—जैसे जब द्विजाति वेदोंका अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रमसे वे उन्हें भूल जाते हैं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः।
स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव॥

मूलम्

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः।
स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं—ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषोंके पास भी स्थिरभावसे नहीं रहतीं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात्।
व्यक्ते गुणव्यतिकरेऽगुणवान् पुरुषो यथा॥

मूलम्

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात्।
व्यक्ते गुणव्यतिकरेऽगुणवान् पुरुषो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाश मेघोंके गर्जन-तर्जनसे भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरीके) इन्द्रधनुषकी वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणोंके क्षोभसे होनेवाले विश्वके बखेड़ेमें निर्गुण ब्रह्मकी॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणिनि शब्दगुणके निर्गुण गुणत्रयरहितः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः।
अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा॥

मूलम्

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः।
अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि चन्द्रमाकी उज्ज्वल चाँदनीसे बादलोंका पता चलता था, फिर भी उन बादलोंने ही चन्द्रमाको ढककर शोभाहीन भी बना दिया था—ठीक वैसे ही, जैसे पुरुषके आभाससे आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

राजितैः प्रकाशितैः अहंमत्या स्वभासा भासितया स्वज्ञानमूलेन देहात्माभिमानेन ॥ १९-२० ।।

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दञ्छिखण्डिनः।
गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे॥

मूलम्

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दञ्छिखण्डिनः।
गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

बादलोंके शुभागमनसे मोरोंका रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्यके द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे—ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थीके जंजालमें फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापोंसे जलते और घबराते रहते हैं, भगवान‍्के भक्तोंके शुभागमनसे आनन्द-मग्न हो जाते हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीत्वापः पादपाः पद‍्भिरासन्नानात्ममूर्तयः।
प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया॥

मूलम्

पीत्वापः पादपाः पद‍्भिरासन्नानात्ममूर्तयः।
प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वृक्ष जेठ-आषाढ़में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ोंसे जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियोंसे खूब सज-धज गये—जैसे सकामभावसे तपस्या करनेवाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परन्तु कामना पूरी होनेपर मोटे-तगड़े हो जाते हैं॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रामानुसेवया परस्त्रीसेवया ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरस्वशान्तरोधस्सु न्यूषुरङ्गापि सारसाः।
गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः॥

मूलम्

सरस्वशान्तरोधस्सु न्यूषुरङ्गापि सारसाः।
गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! तालाबोंके तट, काँटे-कीचड़ और जलके बहावके कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थे—जैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधोंकी झंझटसे कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरोंमें ही पड़े रहते हैं॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अशान्तरोधस्सु सलिलाकुलतीरेषु अशान्ततोयेष्विति वा पाठः ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे।
पाखण्डिनामसद्वादैर्वेदमार्गाः कलौ यथा॥

मूलम्

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे।
पाखण्डिनामसद्वादैर्वेदमार्गाः कलौ यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा ऋतुमें इन्द्रकी प्रेरणासे मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियोंके बाँध और खेतोंकी मेड़ें टूट-फूट जाती हैं—जैसे कलियुगमें पाखण्डियोंके तरह-तरहके मिथ्या मतवादोंसे वैदिक मार्गकी मर्यादा ढीली पड़ जाती है॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वेदमार्गा वर्णाश्रमधर्माः ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यमुञ्चन् वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः।
यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः॥

मूलम्

व्यमुञ्चन् वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः।
यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुकी प्रेरणासे घने बादल प्राणियोंके लिये अमृतमय जलकी वर्षा करने लगते हैं—जैसे ब्राह्मणोंकी प्रेरणासे धनी लोग समय-समयपर दानके द्वारा प्रजाकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रेरिताः विशो वैश्याः तेषां पतयः दासदासीजनाध्यक्षाः ॥ २४-२५ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जूरजम्बुमत्।
गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद्धरिः॥

मूलम्

एवं वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जूरजम्बुमत्।
गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद्धरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा ऋतुमें वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनोंसे भर रहा था। उसी वनमें विहार करनेके लिये श्याम और बलरामने ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा।
ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः॥

मूलम्

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा।
ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ अपने थनोंके भारी भारके कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान् श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं। उस समय उनके थनोंसे दूधकी धारा गिरती जाती थी॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ऊधः क्षीराधारस्थानम् ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः।
जलधारा गिरेर्नादानासन्ना ददृशे गुहाः॥

मूलम्

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः।
जलधारा गिरेर्नादानासन्ना ददृशे गुहाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्न हैं। वृक्षोंकी पंक्तियाँ मधुधारा उँड़ेल रही हैं। पर्वतोंसे झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होनेपर छिपनेके लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जलधारागिरे निर्झरयुक्तगिरेः नादसमदाना: निर्झरनादेन समनादाः ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिद् वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति।
निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः॥

मूलम्

क्वचिद् वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति।
निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वर्षा होने लगती तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्षकी गोदमें या खोड़रमें जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफामें ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालबालोंके साथ खेलते रहते॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

क्रोडे मध्यभागे ॥ २८- ३७ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके।
सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्कर्षणान्वितः॥

मूलम्

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके।
सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्कर्षणान्वितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी जलके पास ही किसी चट्टानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालोंके साथ मिलकर घरसे लाया हुआ दही-भात, दाल-शाक आदिके साथ खाते॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान्।
तृप्तान् वृषान् वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः॥

मूलम्

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान्।
तृप्तान् वृषान् वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रावृट्श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम्।
भगवान् पूजयाञ्चक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम्॥

मूलम्

प्रावृट्श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम्।
भगवान् पूजयाञ्चक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षा ऋतुमें बैल, बछड़े और थनोंके भारी भारसे थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देरमें भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी घासपर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतुकी सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियोंको सुख पहुँचा रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब भगवान‍्की लीलाके ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते॥ ३०-३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे।
शरत् समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला॥

मूलम्

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे।
शरत् समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्दसे व्रजमें निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशमें बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गतिसे चलने लगी॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः।
भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया॥

मूलम्

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः।
भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् ऋतुमें कमलोंकी उत्पत्तिसे जलाशयोंके जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली—ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषोंका चित्त फिरसे योगका सेवन करनेसे निर्मल हो जाता है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्योम्नोऽब्दं भूतशाबल्यं भुवः पङ्कमपां मलम्।
शरज्जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम्॥

मूलम्

व्योम्नोऽब्दं भूतशाबल्यं भुवः पङ्कमपां मलम्।
शरज्जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वर्षा-कालके बढ़े हुए जीव, पृथ्वीकी कीचड़ और जलके मटमैलेपनको नष्ट कर दिया—जैसे भगवान‍्की भक्ति ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियोंके सब प्रकारके कष्टों और अशुभोंका झटपट नाश कर देती है॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः।
यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः॥

मूलम्

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः।
यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बादल अपने सर्वस्व जलका दान करके उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होने लगे—ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्तिसम्बन्धी चिन्ता और कामनाओंका परित्याग कर देनेपर संसारके बन्धनसे छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम्।
यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा॥

मूलम्

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम्।
यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब पर्वतोंसे कहीं-कहीं झरने झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जलको नहीं भी बहाते थे—जैसे ज्ञानी पुरुष समयपर अपने अमृतमय ज्ञानका दान किसी अधिकारीको कर देते हैं और किसी-किसीको नहीं भी करते॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः।
यथाऽऽयुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः॥

मूलम्

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः।
यथाऽऽयुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे-छोटे गड्ढोंमें भरे हुए जलके जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढेका जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है—जैसे कुटुम्बके भरण-पोषणमें भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गाधजलेचराः अल्पजलचारिणः ॥ ३७-३८ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाधवारिचरास्तापमविन्दञ्छरदर्कजम्।
यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः॥

मूलम्

गाधवारिचरास्तापमविन्दञ्छरदर्कजम्।
यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़े जलमें रहनेवाले प्राणियोंको शरत्कालीन सूर्यकी प्रखर किरणोंसे बड़ी पीड़ा होने लगी—जैसे अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते हैं॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैः शनैर्जहुः पङ्कं स्थलान्यामं च वीरुधः।
यथाहंममतां धीराः शरीरादिष्वनात्मसु॥

मूलम्

शनैः शनैर्जहुः पङ्कं स्थलान्यामं च वीरुधः।
यथाहंममतां धीराः शरीरादिष्वनात्मसु॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोड़ने लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे—ठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमेंसे ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ यह अहंता और ममता छोड़ देते हैं॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आमं जलजाड्यम् ॥ ३९ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

निश्चलाम्बुरभूत्तूष्णीं समुद्रः शरदागमे।
आत्मन्युपरते सम्यङ्मुनिर्व्युपरतागमः॥

मूलम्

निश्चलाम्बुरभूत्तूष्णीं समुद्रः शरदागमे।
आत्मन्युपरते सम्यङ्मुनिर्व्युपरतागमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् ऋतुमें समुद्रका जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया—जैसे मनके निःसंकल्प हो जानेपर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्डका झमेला छोड़कर शान्त हो जाता है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मनस्युपरते श्रीभगवद्व्याख्यानरते सति विशेषेण उपरतागमः शास्त्रव्याख्यानरहितो यथा भवतीति ॥ ४०-४२ ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः।
यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः॥

मूलम्

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः।
यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसान खेतोंकी मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे—जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर जानेसे रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञानकी रक्षा करते हैं॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानामुडुपोऽहरत्।
देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम्॥

मूलम्

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानामुडुपोऽहरत्।
देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् ऋतुमें दिनके समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगोंको बहुत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रिके समय लोगोंका सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते—जैसे देहाभिमानसे होनेवाले दुःखको ज्ञान और भगवद्विरहसे होनेवाले गोपियोंके दुःखको श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम्।
सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम्॥

मूलम्

खमशोभत निर्मेघं शरद्विमलतारकम्।
सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वेदोंके अर्थको स्पष्टरूपसे जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतुमें रातके समय मेघोंसे रहित निर्मल आकाश तारोंकी ज्योतिसे जगमगाने लगा॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्राणैरिन्द्रियैः शब्दब्रह्म वेदः ॥ ४३-४५ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी।
यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि॥

मूलम्

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी।
यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे पृथ्वीतलमें यदुवंशियोंके बीच यदुपति भगवान् श्रीकृष्णकी शोभा होती है, वैसे ही आकाशमें तारोंके बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसूनवनमारुतम्।
जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः॥

मूलम्

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसूनवनमारुतम्।
जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

फूलोंसे लदे हुए वृक्ष और लताओंमें होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन्।
अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव॥

मूलम्

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन्।
अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरद् ऋतुमें गौएँ, हरिनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती—सन्तानोत्पत्तिकी कामनासे युक्त हो गयीं तथा साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे—ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुषके द्वारा की हुई क्रियाओंका अनुसरण उनके फल करते हैं॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पुष्पिण्यः शोभायुक्ताः ऋतुयुक्ताश्च ॥ ४६-४७ ॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद् विना।
राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप॥

मूलम्

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद् विना।
राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोरोंके सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदयके कारण कुमुदिनी (कुँई या कोईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकारके कमल खिल गये॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरग्रामेष्वाग्रयणैरैन्द्रियैश्च महोत्सवैः।
बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः॥

मूलम्

पुरग्रामेष्वाग्रयणैरैन्द्रियैश्च महोत्सवैः।
बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवोंमें नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतोमें अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीकी उपस्थितिसे अत्यन्त सुशोभित होने लगी॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हरेः कलाभ्यां नितरां सुखिताः ॥ ४८ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वणिङ्मुनिनृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे।
वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते॥

मूलम्

वणिङ्मुनिनृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे।
वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आनेपर अपने देव आदि शरीरोंको प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक—जो वर्षाके कारण एक स्थानपर रुके हुए थे—वहाँसे चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काजमें लग गये॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यथा सिद्धाः खपिण्डान् काल आगते यथा तपः सिद्धाः अस्माल्लोकान्निर्गत्य फलकाले स्वपिण्डान् भोग्यजातं प्रतिपद्यन्ते तद्वत् ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये विंशतितमोऽध्यायः ॥ २० ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रावृट्शरद्वर्णनं नाम विंशतितमोऽध्यायः॥ २०॥