१९ दावाग्निपानम्

[एकोनविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

गौओं और गोपोंको दावानलसे बचाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद‍्गावो दूरचारिणीः।
स्वैरं चरन्त्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम्॥

मूलम्

क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद‍्गावो दूरचारिणीः।
स्वैरं चरन्त्यो विविशुस्तृणलोभेन गह्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूदमें लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घासके लोभसे एक गहन वनमें घुस गयीं॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

खुरदच्छिन्नेः खुरैः दद्भिश्च छिन्नैः ॥ १-६ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम्।
इषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः॥

मूलम्

अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम्।
इषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी बकरियाँ, गायें और भैंसें एक वनसे दूसरे वनमें होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मीके तापसे व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्तमें डकराती हुई मुंजाटवी (सरकंडोंके वन) में घुस गयीं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा।
जातानुतापा न विदुर्विचिन्वन्तो गवां गतिम्॥

मूलम्

तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा।
जातानुतापा न विदुर्विचिन्वन्तो गवां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालोंने देखा कि हमारे पशुओंका तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूदपर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौओंका पता न लगा सके॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैर्गोष्पदैरङ्कितैर्गवाम्।
मार्गमन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः॥

मूलम्

तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैर्गोष्पदैरङ्कितैर्गवाम्।
मार्गमन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौएँ ही तो व्रजवासियोंकी जीविकाका साधन थीं। उनके न मिलनेसे वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओंके खुर और दाँतोंसे कटी हुई घास तथा पृथ्वीपर बने हुए खुरोंके चिह्नोंसे उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम्।
सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्तास्ततस्ते संन्यवर्तयन्॥

मूलम्

मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम्।
सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्तास्ततस्ते संन्यवर्तयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवीमें रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटानेकी चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोरसे लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा।
स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः॥

मूलम्

ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा।
स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी यह दशा देखकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मेघके समान गम्भीर वाणीसे नाम ले-लेकर गौओंको पुकारने लगे। गौएँ अपने नामकी ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तरमें हुंकारने और रँभाने लगीं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समन्ताद् वनधूमकेतु-
र्यदृच्छयाभूत् क्षयकृद् वनौकसाम्।
समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकै-
र्विलेलिहानः स्थिरजङ्गमान् महान्॥

मूलम्

ततः समन्ताद् वनधूमकेतु-
र्यदृच्छयाभूत् क्षयकृद् वनौकसाम्।
समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकै-
र्विलेलिहानः स्थिरजङ्गमान् महान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर उस अग्निके बढ़नेमें सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सारथिना वायुना ॥ ७-११ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं परितो दवाग्निं
गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः।
ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना
यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः॥

मूलम्

तमापतन्तं परितो दवाग्निं
गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः।
ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना
यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ग्वालों और गौओंने देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान‍्की शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले—॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामितविक्रम।
दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नांस्त्रातुमर्हथः॥

मूलम्

कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामितविक्रम।
दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नांस्त्रातुमर्हथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं त्वद‍्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम्।
वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्परायणाः॥

मूलम्

नूनं त्वद‍्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम्।
वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथास्त्वत्परायणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है’॥ १०॥

श्लोक-११

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः।
निमीलयत माँ भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥

मूलम्

वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः।
निमीलयत माँ भैष्ट लोचनानीत्यभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—अपने सखा ग्वाल-बालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्बणम्।
पीत्वा मुखेन तान् कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत्॥

मूलम्

तथेति मीलिताक्षेषु भगवानग्निमुल्बणम्।
पीत्वा मुखेन तान् कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने उस भयंकर आगको अपने मुँहसे पी लिया* और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकटसे छुड़ा दिया॥ १२॥

पादटिप्पनी
  • १. भगवान् श्रीकृष्ण भक्तोंके द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रसका पान करते हैं। अग्निके मनमें उसीका स्वाद लेनेकी लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुखमें प्रवेश किया।
    २. विषाग्नि, मुंजाग्नि और दावाग्नि—तीनोंका पान करके भगवान‍्ने अपनी त्रितापनाशकी शक्ति व्यक्त की।
    ३. पहले रात्रिमें अग्निपान किया था, दूसरी बार दिनमें। भगवान् अपने भक्तजनोंका ताप हरनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं।
    ४. पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्णने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकारसे वे भक्तजनोंका हित करते हैं।
श्रीसुदर्शनसूरिः

पीत्वेति उत्पत्तिस्थाने लीनं कृत्वेत्यर्थः । " मुखादग्निश्चेन्द्रश्च" इति हि श्रुतिः ॥ १२-१३ ।।

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः।
निशाम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्च मोचिताः॥

मूलम्

ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः।
निशाम्य विस्मिता आसन्नात्मानं गाश्च मोचिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपनेको भाण्डीरवटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम्।
दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्॥

मूलम्

कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम्।
दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णकी इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावानलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः।
वेणुं विरणयन् गोष्ठमगाद् गोपैरभिष्टुतः॥

मूलम्

गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः।
वेणुं विरणयन् गोष्ठमगाद् गोपैरभिष्टुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान् श्रीकृष्णने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रजकी यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

योगवीर्यं योगमायानुभावितमाश्चर्यशक्तियोगज्ञापितं विरणयन् नितरां रणयन् ।। १५-१६ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने।
क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्॥

मूलम्

गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने।
क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर व्रजमें गोपियोंको श्रीकृष्णके बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युगके समान हो रहा था। जब भगवान् श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्दमें मग्न हो गयीं॥ १६॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दावाग्निपानं नामैकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥