[अष्टादशोऽध्यायः]
भागसूचना
प्रलम्बासुर-उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः।
अनुगीयमानो न्यविशद् व्रजं गोकुलमण्डितम्॥
मूलम्
अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः।
अनुगीयमानो न्यविशद् व्रजं गोकुलमण्डितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियोंसे घिरे हुए एवं उनके मुखसे अपनी कीर्तिका गान सुनते हुए श्रीकृष्णने गोकुलमण्डित गोष्ठमें प्रवेश किया॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया।
ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम्॥
मूलम्
व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया।
ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अपनी योगमायासे ग्वालका-सा वेष बनाकर राम और श्याम व्रजमें क्रीडा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियोंको बहुत प्रिय नहीं है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः।
यत्रास्ते भगवान् साक्षाद् रामेण सह केशवः॥
मूलम्
स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः।
यत्रास्ते भगवान् साक्षाद् रामेण सह केशवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु वृन्दावनके स्वाभाविक गुणोंसे वहाँ वसन्तकी ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावनमें परम मधुर भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलरामजी निवास जो करते थे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम्।
शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममण्डलमण्डितम्॥
मूलम्
यत्र निर्झरनिर्ह्रादनिवृत्तस्वनझिल्लिकम्।
शश्वत्तच्छीकरर्जीषद्रुममण्डलमण्डितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
झींगुरोंकी तीखी झंकार झरनोंके मधुर झर-झरमें छिप गयी थी। उन झरनोंसे सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जलकी फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँके वृक्षोंकी हरियाली देखते ही बनती थी॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शीकरैः जुष्टं द्रुमपिप्पलमण्डितं शीकरजुष्टद्रुमावृतपिप्पलद्रुममण्डितं पिप्पलमश्वत्थः ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरित्सरः प्रस्रवणोर्मिवायुना
कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा।
न विद्यते यत्र वनौकसां दवो
निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले॥
मूलम्
सरित्सरः प्रस्रवणोर्मिवायुना
कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा।
न विद्यते यत्र वनौकसां दवो
निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिधर देखिये, हरी-हरी दूबसे पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनोंकी लहरोंका स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंतके खिले हुए, देरके खिले हुए—कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकारके कमलोंका पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायुके कारण वनवासियोंको गर्मीका किसी प्रकारका क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्निका ताप लगता था और न तो सूर्यका घाम ही॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दवः वनान्ताग्निः ॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभि-
र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः।
न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा
भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते॥
मूलम्
अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभि-
र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः।
न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा
भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते॥
अनुवाद (हिन्दी)
नदियोंमें अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटोंको चूम जाया करती थीं। वे उनके पुलिनोंसे टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पासकी भूमि गीली बनी रहती और सूर्यकी अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँकी पृथ्वी और हरी-भरी घासको नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
द्रवत्पुरीष्याः आर्द्रशैवलायाः नद्या इत्यध्याहारः ॥ ६-७ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्।
गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम्॥
मूलम्
वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्।
गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस वनमें वृक्षोंकी पाँत-की-पाँत फूलोंसे लद रही थी। जहाँ देखिये, वहींसे सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरहके हरिन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडिष्यमाणस्तत् कृष्णो भगवान् बलसंयुतः।
वेणुं विरणयन् गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत्॥
मूलम्
क्रीडिष्यमाणस्तत् कृष्णो भगवान् बलसंयुतः।
वेणुं विरणयन् गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलरामजीने उसमें विहार करनेकी इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीचमें अपने बड़े भाईके साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विरणयन् विशेषेण रणयन् ॥ ८-१९॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवालबर्हस्तबकस्रग्धातुकृतभूषणाः।
रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः॥
मूलम्
प्रवालबर्हस्तबकस्रग्धातुकृतभूषणाः।
रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राम, श्याम और ग्वालबालोंने नव पल्लवों, मोर-पंखके गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंके हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको भाँति-भाँतिसे सजा लिया। फिर कोई आनन्दमें मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसीने राग अलापना शुरू कर दिया॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन्।
वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे॥
मूलम्
कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन्।
वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेलीसे ही ताल देते, तो कुछ ‘वाह-वाह’ करने लगते॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपजातिप्रतिच्छन्नौ देवा गोपालरूपिणः।
ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप॥
मूलम्
गोपजातिप्रतिच्छन्नौ देवा गोपालरूपिणः।
ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय नट जैसे अपने नायककी प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवतालोग ग्वालबालोंका रूप धारण करके वहाँ आते और गोपजातिमें जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगते॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रामणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः।
चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित्॥
मूलम्
भ्रामणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः।
चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
घुँघराली अलकोंवाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरेका हाथ पकड़कर कुम्हारके चाककी तरह चक्कर काटते—घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरेसे अधिक फाँद जानेकी इच्छासे कूदते—कूँड़ी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते—एक दल दूसरे दलके विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरहके खेल खेलते॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम्।
शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ॥
मूलम्
क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम्।
शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं-कहीं जब दूसरे ग्वालबाल नाचने लगते तो श्रीकृष्ण और बलरामजी गाते या बाँसुरी, सींग आदि बजाते। और महाराज! कभी-कभी वे ‘वाह-वाह’ कहकर उनकी प्रशंसा भी करने लगते॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद् बिल्वैः क्वचित् कुम्भैः क्व चामलकमुष्टिभिः।
अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया॥
मूलम्
क्वचिद् बिल्वैः क्वचित् कुम्भैः क्व चामलकमुष्टिभिः।
अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी एक-दूसरेपर बेल, जायफल या आँवलेके फल हाथमें लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरेकी आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछेसे ढूँढ़ता—इस प्रकार आँखमिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरेको छूनेके लिये बहुत दूर-दूरतक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियोंकी चेष्टाओंका अनुकरण करते॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः।
कदाचित् स्पन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया॥
मूलम्
क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः।
कदाचित् स्पन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं मेढकोंकी तरह फुदक-फुदककर चलते तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरेकी हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियोंसे वृक्षोंपर झूला डालकर झूलते तो कभी दो बालकोंको खड़ा कराकर उनकी बाँहोंके बल-पर ही लटकने लगते। कभी किसी राजाकी नकल करने लगते॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने।
नद्यद्रिद्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरस्सु च॥
मूलम्
एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने।
नद्यद्रिद्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरस्सु च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावनकी नदी, पर्वत, घाटी, कुंज, वन और सरोवरोंमें वे सभी खेल खेलते जो साधारण बच्चे संसारमें खेला करते हैं॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशूंश्चारयतो गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः।
गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया॥
मूलम्
पशूंश्चारयतो गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः।
गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ उस वनमें गौएँ चरा रहे थे तब ग्वालके वेषमें प्रलम्ब नामका एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलरामको हर ले जाऊँ॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान् सर्वदर्शनः।
अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन्॥
मूलम्
तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान् सर्वदर्शनः।
अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रताका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्तिसे इसका वध करना चाहिये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपाहूय गोपालान् कृष्णः प्राह विहारवित्।
हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम्॥
मूलम्
तत्रोपाहूय गोपालान् कृष्णः प्राह विहारवित्।
हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ग्वालबालोंमें सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलोंके आचार्य श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालोंको बुलाकर कहा—मेरे प्यारे मित्रो! आज हमलोग अपनेको उचित रीतिसे दो दलोंमें बाँट लें और फिर आनन्दसे खेलें॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ।
कृष्णसंघट्टिनः केचिदासन् रामस्य चापरे॥
मूलम्
तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ।
कृष्णसंघट्टिनः केचिदासन् रामस्य चापरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस खेलमें ग्वालबालोंने बलराम और श्रीकृष्णको नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्णके साथी बन गये और कुछ बलरामके॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सङ्घट्टिनः संसर्गिणः ।। २०-२४ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः।
यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः॥
मूलम्
आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः।
यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन लोगोंने तरह-तरहसे ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दलके लोग दूसरे दलके लोगोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थानपर ले जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम्।
भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः॥
मूलम्
वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम्।
भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार एक-दूसरेकी पीठपर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वटके पास पहुँच गये॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः।
क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप॥
मूलम्
रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः।
क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! एक बार बलरामजीके दलवाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालोंने खेलमें बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाकर ढोने लगे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः।
वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम्॥
मूलम्
उवाह कृष्णो भगवान् श्रीदामानं पराजितः।
वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हारे हुए श्रीकृष्णने श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भद्रसेनने वृषभको और प्रलम्बने बलरामजीको॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः।
वहन् द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम्॥
मूलम्
अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः।
वहन् द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानवपुंगव प्रलम्बने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा। अतः वह उन्हींके पक्षमें हो गया और बलरामजीको लेकर फुर्तीसे भाग चला, और पीठपरसे उतारनेके लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अविषह्यं कृष्णम् अविष्टभ्यं मन्यमानो बलभद्रं वहन् द्रुततरं प्रागादित्यन्वयः ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुद्वहन् धरणिधरेन्द्रगौरवं
महासुरो विगतरयो निजं वपुः।
स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ
तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः॥
मूलम्
तमुद्वहन् धरणिधरेन्द्रगौरवं
महासुरो विगतरयो निजं वपुः।
स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ
तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजी बड़े भारी पर्वतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूरतक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलरामजीको धारण करनेके कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजलीसे युक्त काला बादल चन्द्रमाको धारण किये हुए हो॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विहतरयः नष्टवेगः दूरं गतेन साशङ्कत्वात् अवरोहणतः परत्वं तडिद्युमान् विद्युद्दीप्तिमान् उड्डपतिवाडम्बुद इव भावित्यन्वयः ॥ २६-२८ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चरत्
प्रदीप्तदृग् भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्।
ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-
त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत्॥
मूलम्
निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चरत्
प्रदीप्तदृग् भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्।
ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-
त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी आँखें आगकी तरह धधक रही थीं और दाढ़ें भौंहोंतक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आगकी लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवोंमें कड़े, सिरपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल थे। उनकी कान्तिसे वह बड़ा अद्भुत लग रहा था! उस भयानक दैत्यको बड़े वेगसे आकाशमें जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो
विहायसार्थमिव हरन्तमात्मनः।
रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना
सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा॥
मूलम्
अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो
विहायसार्थमिव हरन्तमात्मनः।
रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना
सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूपकी याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजीने देखा कि जैसे चोर किसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्गसे लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्रने पर्वतोंपर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा कसकर जमाया॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अपस्मृतः अपगतस्मृतिः व्यसुः निष्प्राणः ॥ २९-३२ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको
मुखाद् वमन् रुधिरमपस्मृतोऽसुरः।
महारवं व्यसुरपतत् समीरयन्
गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः॥
मूलम्
स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको
मुखाद् वमन् रुधिरमपस्मृतोऽसुरः।
महारवं व्यसुरपतत् समीरयन्
गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्रके द्वारा वज्रसे मारे हुए पर्वतके समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना।
गोपाः सुविस्मिता आसन् साधु साध्विति वादिनः॥
मूलम्
दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना।
गोपाः सुविस्मिता आसन् साधु साध्विति वादिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालोंने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुरको मार डाला, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’ करने लगे॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्।
प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः॥
मूलम्
आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्।
प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ग्वालबालोंका चित्त प्रेमसे विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभ कामनाओंकी वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आये हों, इस भावसे आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः।
अभ्यवर्षन् बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति॥
मूलम्
पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः।
अभ्यवर्षन् बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्युसे देवताओंको बड़ा सुख मिला। वे बलरामजीपर फूल बरसाने लगे और ‘बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया’ इस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे॥ ३२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥