१७ दावाग्निमोचनम्

[सप्तदशोऽध्यायः]

भागसूचना

कालियके कालियदहमें आनेकी कथा तथा भगवान‍्का व्रजवासियोंको दावानलसे बचाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नागालयं रमणकं कस्मात्तत्याज कालियः।
कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमञ्जसम्॥

मूलम्

नागालयं रमणकं कस्मात्तत्याज कालियः।
कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमञ्जसम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! कालिय नागने नागोंके निवासस्थान रमणक द्वीपको क्यों छोड़ा था? और उस अकेलेने ही गरुडजीका कौन-सा अपराध किया था?॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपाहार्यैः सर्पजनैर्मासि मासीह यो बलिः।
वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ् निरूपितः॥

मूलम्

उपाहार्यैः सर्पजनैर्मासि मासीह यो बलिः।
वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ् निरूपितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवीजीने कहा—परीक्षित्! पूर्वकालमें गरुडजीको उपहार स्वरूप प्राप्त होनेवाले सर्पोंने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मासमें निर्दिष्ट वृक्षके नीचे गरुडको एक सर्पकी भेंट दी जाय॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपहार्यैः निवेद्यभूतैः सर्पजनैर्यो बलिः सर्परूपबलिरित्यर्थः । यो बलिस्तस्य स्थाने निरूपित इत्यर्थः । वानस्पत्य वनस्पतिरपुष्पफलवृक्षः वृक्षविशेषमूले कल्पितः यद्वा वनस्पतिगते चन्द्रे अमावास्यायां प्रवर्त्तमान इत्यर्थः ॥ २ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागाः पर्वणि पर्वणि।
गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने॥

मूलम्

स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागाः पर्वणि पर्वणि।
गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस नियमके अनुसार प्रत्येक अमावस्याको सारे सर्प अपनी रक्षाके लिये महात्मा गरुडजीको अपना-अपना भाग देते रहते थे*॥ ३॥

पादटिप्पनी
  • यह कथा इस प्रकार है—गरुडजीकी माता विनता और सर्पोंकी माता कद‍‍्रूमें परस्पर वैर था। माताका वैर स्मरण कर गरुडजी जो सर्प मिलता उसीको खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्माजीकी शरणमें गये। तब ब्रह्माजीने यह नियम कर दिया कि प्रत्येक अमावास्याको प्रत्येक सर्पपरिवार बारी-बारीसे गरुडजीको एक सर्पकी बलि दिया करे।
श्रीसुदर्शनसूरिः

गोपीथाय रक्षणाय ॥ ३-६ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषवीर्यमदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः।
कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम्॥

मूलम्

विषवीर्यमदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः।
कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सर्पोंमें कद‍‍्रूका पुत्र कालिय नाग अपने विष और बलके घमंडसे मतवाला हो रहा था। उसने गरुडका तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहा—दूसरे साँप जो गरुडको बलि देते, उसे भी खा लेता॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रियः।
विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत्॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रियः।
विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! यह सुनकर भगवान‍्के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुडको बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नागको मार डालनेके विचारसे बड़े वेगसे उसपर आक्रमण किया॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं तरसा विषायुधः
प्रत्यभ्ययादुच्छ्रितनैकमस्तकः।
दद‍्भिः सुपर्णं व्यदशद् ददायुधः
करालजिह्वोच्छ्वसितोग्रलोचनः॥

मूलम्

तमापतन्तं तरसा विषायुधः
प्रत्यभ्ययादुच्छ्रितनैकमस्तकः।
दद‍्भिः सुपर्णं व्यदशद् ददायुधः
करालजिह्वोच्छ्वसितोग्रलोचनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषधर कालिय नागने जब देखा कि गरुड बड़े वेगसे मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसनेके लिये उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये उसने दाँतोंसे गरुडको डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्
प्रचण्डवेगो मधुसूदनासनः।
पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा
जघान कद‍‍्रूसुतमुग्रविक्रमः॥

मूलम्

तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्
प्रचण्डवेगो मधुसूदनासनः।
पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा
जघान कद‍‍्रूसुतमुग्रविक्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तार्क्ष्यनन्दन गरुडजी विष्णुभगवान‍्के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नागकी यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने उसे अपने शरीरसे झटककर फेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंखसे कालिय नागपर बड़े जोरसे प्रहार किया॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तार्क्ष्यपुत्रो गरुडः ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः।
ह्रदं विवेश कालिन्द्यास्तदगम्यं दुरासदम्॥

मूलम्

सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः।
ह्रदं विवेश कालिन्द्यास्तदगम्यं दुरासदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पंखकी चोटसे कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कुण्डमें चला आया। यमुनाजीका यह कुण्ड गरुडके लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदगम्यं गरुडेनागम्यं ब्रह्मणो वाक्यस्य माननीयत्वात् परमपुरुषेणैव गरुत्मतापि प्रतिघातशक्तिमतापि तदनुरोध उपपद्यते ॥ ८-१३ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम्।
निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोऽहरत्॥

मूलम्

तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम्।
निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोऽहरत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी स्थानपर एक दिन क्षुधातुर गरुडने तपस्वी सौभरिके मना करनेपर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्यको बलपूर्वक पकड़कर खा लिया॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मीनान् सुदुःखितान् दृष्ट्वा दीनान् मीनपतौ हते।
कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन्॥

मूलम्

मीनान् सुदुःखितान् दृष्ट्वा दीनान् मीनपतौ हते।
कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने मुखिया मत्स्यराजके मारे जानेके कारण मछलियोंको बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरिको बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्डमें रहनेवाले सब जीवोंकी भलाईके लिये गरुडको यह शाप दे दिया॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान् स खादति।
सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम्॥

मूलम्

अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान् स खादति।
सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि गरुड फिर कभी इस कुण्डमें घुसकर मछलियोंको खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः।
अवात्सीद् गरुडाद् भीतः कृष्णेन च विवासितः॥

मूलम्

तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः।
अवात्सीद् गरुडाद् भीतः कृष्णेन च विवासितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! महर्षि सौभरिके इस शापकी बात कालिय नागके सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुडके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान् श्रीकृष्णने उसे निर्भय करके वहाँसे रमणक द्वीपमें भेज दिया॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णं ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग्गन्धवाससम्।
महामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम्॥

मूलम्

कृष्णं ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग्गन्धवाससम्।
महामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इधर भगवान् श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो उस कुण्डसे बाहर निकले॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः।
प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे॥

मूलम्

उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः।
प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नतासे अपने कन्हैयाको हृदयसे लगाने लगे॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अभिरेभिरे परिरेभिरे ॥ १४-२५ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव।
कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसँल्लब्धमनोरथाः॥

मूलम्

यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव।
कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसँल्लब्धमनोरथाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोप—सभी श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामश्चाच्युतमालिङ्ग्य जहासास्यानुभाववित्।
नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम्॥

मूलम्

रामश्चाच्युतमालिङ्ग्य जहासास्यानुभाववित्।
नगा गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजी तो भगवान‍्का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः।
ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः॥

मूलम्

नन्दं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः।
ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपोंके कुलगुरु ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके साथ नन्दबाबाके पास आकर कहा—‘नन्दजी! तुम्हारे बालकको कालिय नागने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्यकी बात है!॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे।
नन्दः प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदादिशत्॥

मूलम्

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे।
नन्दः प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदादिशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णके मृत्युके मुखसे लौट आनेके उपलक्ष्यमें तुम ब्राह्मणोंको दान करो।’ परीक्षित्! ब्राह्मणोंकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणोंको दान दीं॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती।
परिष्वज्याङ्कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहुः॥

मूलम्

यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती।
परिष्वज्याङ्कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम सौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्शिताः।
ऊषुर्व्रजौकसो गावः कालिन्द्या उपकूलतः॥

मूलम्

तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्शिताः।
ऊषुर्व्रजौकसो गावः कालिन्द्या उपकूलतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रजमें नहीं गये, वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा शुचिवनोद‍्भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम्।
सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे॥

मूलम्

तदा शुचिवनोद‍्भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम्।
सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

गर्मीके दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासियोंको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः।
कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम्॥

मूलम्

तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः।
कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगकी आँच लगनेपर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम।
एष घोरतमो वह्निस्तावकान् ग्रसते हि नः॥

मूलम्

कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम।
एष घोरतमो वह्निस्तावकान् ग्रसते हि नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयंकर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको जलाना ही चाहती है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदुस्तरान्नः स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो।
न शक्नुमस्त्वच्चरणं संत्यक्तुमकुतोभयम्॥

मूलम्

सुदुस्तरान्नः स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो।
न शक्नुमस्त्वच्चरणं संत्यक्तुमकुतोभयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आगसे हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्युसे नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़नेमें हम असमर्थ हैं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः।
तमग्निमपिबत्तीव्रमनन्तोऽनन्तशक्तिधृक्॥

मूलम्

इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः।
तमग्निमपिबत्तीव्रमनन्तोऽनन्तशक्तिधृक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आगको पी गये*॥ २५॥

पादटिप्पनी

अग्नि-पान

  • १. मैं सबका दाह दूर करनेके लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये यह दाह दूर करना भी मेरा कर्तव्य है।
    २. रामावतारमें श्रीजानकीजीको सुरक्षित रखकर अग्निने मेरा उपकार किया था। अब उसको अपने मुखमें स्थापित करके उसका सत्कार करना कर्तव्य है।
    ३. कार्यका कारणमें लय होता है। भगवान‍्के मुखसे अग्नि प्रकट हुआ—मुखाद् अग्निरजायत। इसलिये भगवान‍्ने उसे मुखमें ही स्थापित किया।
    ४. मुखके द्वारा अग्नि शान्त करके यह भाव प्रकट किया कि भव-दावाग्निको शान्त करनेमें भगवान‍्के मुख-स्थानीय ब्राह्मण ही समर्थ हैं।
अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे दावाग्निमोचनं नाम सप्तदशोऽध्यायः॥ १७॥