१३

[त्रयोदशोऽध्यायः]

भागसूचना

ब्रह्माजीका मोह और उसका नाश

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम।
यन्नूतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः॥

मूलम्

साधु पृष्टं महाभाग त्वया भागवतोत्तम।
यन्नूतनयसीशस्य शृण्वन्नपि कथां मुहुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! तुम बड़े भाग्यवान् हो। भगवान‍्के प्रेमी भक्तोंमें तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान‍्की लीला-कथाएँ सुननेको मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्धमें प्रश्न करके उन्हें और भी सरस—और भी नूतन बना देते हो॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हे भागवतोत्तम ! ईशस्य कथानूतनतां मत्वा पृच्छतीत्यर्थः ॥ १ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतामयं सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधुवार्ता॥

मूलम्

सतामयं सारभृतां निसर्गो
यदर्थवाणीश्रुतिचेतसामपि।
प्रतिक्षणं नव्यवदच्युतस्य यत्
स्त्रिया विटानामिव साधुवार्ता॥

अनुवाद (हिन्दी)

रसिक संतोंकी वाणी, कान और हृदय भगवान‍्की लीलाके गान, श्रवण और चिन्तनके लिये ही होते हैं—उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान‍्की लीलाओंको अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें—ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषोंको स्त्रियोंकी चर्चामें नया-नया रस जान पड़ता है॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

इयन्तु पुरातन नित्यसिद्ध्यैव क्षणे यन्नवतां याति तद्वस्तु सुन्दरमिति कविवचनात् सारभृतां सारं श्रीभगवत्पादारविन्दध्यानं ये विभ्रति तेषां सताम् अच्युतस्य साधुवार्ता शोभनवार्त्ता नव्यवत् भासेत अयं निसर्ग: स्वभाव: विटानां विषयिणां स्त्रिया असाधुवार्तेव इति ॥ २ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्यं वदामि ते।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत॥

मूलम्

शृणुष्वावहितो राजन्नपि गुह्यं वदामि ते।
ब्रूयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! तुम एकाग्र चित्तसे श्रवण करो। यद्यपि भगवान‍्की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान्।
सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत्॥

मूलम्

तथाघवदनान्मृत्यो रक्षित्वा वत्सपालकान्।
सरित्पुलिनमानीय भगवानिदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने साथी ग्वालबालोंको मृत्युरूप अघासुरके मुँहसे बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुनाके पुलिनपर ले आये और उनसे कहने लगे—॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुह्यत्वम् अन्यमुनीनाम् अस्यार्थस्याज्ञानात् ब्रूयुस्त्रियादि ।। ३-४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन्मृदुलाच्छवालुकम्।
स्फुटत्सरोगन्धहृतालिपत्रिक-
ध्वनिप्रतिध्वानलसद्‍द्रुमाकुलम्॥

मूलम्

अहोऽतिरम्यं पुलिनं वयस्याः
स्वकेलिसम्पन्मृदुलाच्छवालुकम्।
स्फुटत्सरोगन्धहृतालिपत्रिक-
ध्वनिप्रतिध्वानलसद्‍द्रुमाकुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे प्यारे मित्रो! यमुनाजीका यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँकी बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हमलोगोंके लिये खेलनेकी तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्धसे खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनिसे सुशोभित वृक्ष इस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे हैं॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वसङ्कल्पैः सम्पद्यस्येति पृथक् पदम् एकपद्येति स्वकेलिसम्पत्त्यर्थं मृदुला अच्छा वालुका यस्य तत्स्फुटन्ति यानि सरांसि कमलानि तेषां गन्धेन हृता येऽलयः पत्रिकाः तेषां ध्वनिना लसन्तो ये द्रुमाः तैर्व्याप्तं द्रुमाकुलम् इति पृथक् पदं पुलिनविशेषणं द्वयं ज्ञेयम् ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवारूढं क्षुधार्दिताः।
वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम्॥

मूलम्

अत्र भोक्तव्यमस्माभिर्दिवारूढं क्षुधार्दिताः।
वत्साः समीपेऽपः पीत्वा चरन्तु शनकैस्तृणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब हमलोगोंको यहाँ भोजन कर लेना चाहिये; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हमलोग भूखसे पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें’॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दिवा इत्यव्ययम् दिनमारूढमित्यर्थः ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले।
मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा॥

मूलम्

तथेति पाययित्वार्भा वत्सानारुध्य शाद्वले।
मुक्त्वा शिक्यानि बुभुजुः समं भगवता मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालोंने एक स्वरसे कहा—‘ठीक है, ठीक है!’ उन्होंने बछड़ोंको पानी पिलाकर हरी-हरी घासमें छोड़ दिया और अपने-अपने छींके खोल-खोलकर भगवान‍्के साथ बड़े आनन्दसे भोजन करने लगे॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आरुध्यैकीकृत्य ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमण्डलै-
रभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः।
सहोपविष्टा विपिने विरेजु-
श्छदा यथाम्भोरुहकर्णिकायाः॥

मूलम्

कृष्णस्य विष्वक् पुरुराजिमण्डलै-
रभ्याननाः फुल्लदृशो व्रजार्भकाः।
सहोपविष्टा विपिने विरेजु-
श्छदा यथाम्भोरुहकर्णिकायाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबके बीचमें भगवान् श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालोंने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्णकी ओर थे और सबकी आँखें आनन्दसे खिल रही थीं। वन-भोजनके समय श्रीकृष्णके साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमलकी कर्णिकाके चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पँखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कृष्णस्य विष्वक् सर्वतः पुरुराजीनि मण्डलानि तैः सह उपविष्टाः व्रजार्भकाः विपिने विरेजुः छदाः पात्राणि वेति ॥ ८ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित् पुष्पैर्दलैः केचित् पल्लवैरङ्कुरैः फलैः।
शिग्भिस्त्वग्भिर्दृषद‍्भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः॥

मूलम्

केचित् पुष्पैर्दलैः केचित् पल्लवैरङ्कुरैः फलैः।
शिग्भिस्त्वग्भिर्दृषद‍्भिश्च बुभुजुः कृतभाजनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छींके, छाल एवं पत्थरोंके पात्र बनाकर भोजन करने लगे॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पुष्पैः फलैरङ्कुरैरिति भक्षणपात्रत्वमसम्भावितमपि श्रीभगवल्लीलानुकूल्येन सर्वं सम्भाव्यत एवेति ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक्।
हसन्तो हासयन्तश्चाभ्यवजह्रुः सहेश्वराः॥

मूलम्

सर्वे मिथो दर्शयन्तः स्वस्वभोज्यरुचिं पृथक्।
हसन्तो हासयन्तश्चाभ्यवजह्रुः सहेश्वराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचिका प्रदर्शन करते। कोई किसीको हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अभ्यवजह्रुरभुञ्जन् ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभ्रद् वेणुं जठरपटयोः
शृङ्गवेत्रे च कक्षे
वामे पाणौ मसृणकवलं
तत्फलान्यङ्गुलीषु।
तिष्ठन् मध्ये स्वपरिसुहृदो
हासयन् नर्मभिः स्वैः
स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे
यज्ञभुग् बालकेलिः॥

मूलम्

बिभ्रद् वेणुं जठरपटयोः
शृङ्गवेत्रे च कक्षे
वामे पाणौ मसृणकवलं
तत्फलान्यङ्गुलीषु।
तिष्ठन् मध्ये स्वपरिसुहृदो
हासयन् नर्मभिः स्वैः
स्वर्गे लोके मिषति बुभुजे
यज्ञभुग् बालकेलिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उस समय श्रीकृष्णकी छटा सबसे निराली थी।) उन्होंने मुरलीको तो कमरकी फेंटमें आगेकी ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगलमें दबा लिये थे। बायें हाथमें बड़ा ही मधुर घृतमिश्रित दही-भातका ग्रास था और अँगुलियोंमें अदरक, नीबू आदिके अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओरसे घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे अपने साथी ग्वालबालोंको हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान् ग्वालबालोंके साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्गके देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद‍्भुत लीला देख रहे थे॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मसृणं स्निग्धं स्वस्य परितो वर्त्तमानान् सुहृदः नर्मभिः परिहासवाक्यैः स्वर्गे लोके इति स्वर्गस्य देवेषु लक्षणा देवेषु पश्यत्स्विति ॥ ११-१२ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु।
वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः॥

मूलम्

भारतैवं वत्सपेषु भुञ्जानेष्वच्युतात्मसु।
वत्सास्त्वन्तर्वने दूरं विविशुस्तृणलोभिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान‍्की इस रसमयी लीलामें तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घासके लालचसे घोर जंगलमें बड़ी दूर निकल गये॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् दृष्ट्वा भयसंत्रस्तानूचे कृष्णोऽस्य भीभयम्।
मित्राण्याशान्मा विरमतेहानेष्ये वत्सकानहम्॥

मूलम्

तान् दृष्ट्वा भयसंत्रस्तानूचे कृष्णोऽस्य भीभयम्।
मित्राण्याशान्मा विरमतेहानेष्ये वत्सकानहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ग्वालबालोंका ध्यान उस ओर गया, तब तो वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तोंके भयको भगा देनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘मेरे प्यारे मित्रो! तुमलोग भोजन करना बंद मत करो। मैं अभी बछड़ोंको लिये आता हूँ’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्जगह्वरेष्वात्मवत्सकान्।
विचिन्वन् भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ॥

मूलम्

इत्युक्त्वाद्रिदरीकुञ्जगह्वरेष्वात्मवत्सकान्।
विचिन्वन् भगवान् कृष्णः सपाणिकवलो ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालोंसे इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्ण हाथमें दही-भातका कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानोंमें अपने तथा साथियोंके बछड़ोंको ढूँढ़ने चल दिये॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अस्य विश्वस्य या भीः संसारभयं तस्या अपि भयं कृष्ण इति भीसम्बन्धि भयं वत्सानां सिंहादिसम्बन्धि भयं अस्य अपास्येति वा ॥ १३-१४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो
मायार्भकस्येशितु-
र्द्रष्टुं मञ्जु महित्वमन्यदपि त-
द्वत्सानितो वत्सपान्।
नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात्
खेऽवस्थितो यः पुरा
दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः
प्राप्तः परं विस्मयम्॥

मूलम्

अम्भोजन्मजनिस्तदन्तरगतो
मायार्भकस्येशितु-
र्द्रष्टुं मञ्जु महित्वमन्यदपि त-
द्वत्सानितो वत्सपान्।
नीत्वान्यत्र कुरूद्वहान्तरदधात्
खेऽवस्थितो यः पुरा
दृष्ट्वाघासुरमोक्षणं प्रभवतः
प्राप्तः परं विस्मयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ब्रह्माजी पहलेसे ही आकाशमें उपस्थित थे। प्रभुके प्रभावसे अघासुरका मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि लीलासे मनुष्य-बालक बने हुए भगवान् श्रीकृष्णकी कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ोंको और भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर ग्वाल-बालोंको भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमलकी ही तो सन्तान हैं॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अम्भोजन्मजनिः अम्भः जलं तज्जं पद्मं तज्ज इत्यनेन प्रकृतिसम्बन्धस्य शबल्यमुक्तं कमलजः ब्रह्मा मायार्भकस्य स्वैच्छिकगोपालवेषस्य मञ्जु सुन्दरसहित्वम् अन्यदपि अघमोक्षं दृष्ट्वा परं विस्मयं प्राप्तः तस्मादन्यदप्यैश्वर्यं द्रष्टुं चौर्यमारब्धवान् तद्वत्सान् हरिततृणं चरानन्यतः इतः पुलिनस्थवत्सपान् अन्यत्र नीत्वा अन्तरदधात् अन्तर्धान प्राप्तानकरोत् तत्रैवान्तर्धानकरणेऽस्य कृष्णस्य भ्रमो न स्यादिति भावः इदं तस्य कर्मजाड्यपर्यवसायीति कमलभूपदव्यङ्ग्यम् ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वत्सानदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान्।
उभावपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः॥

मूलम्

ततो वत्सानदृष्ट्वैत्य पुलिनेऽपि च वत्सपान्।
उभावपि वने कृष्णो विचिकाय समन्ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण बछड़े न मिलनेपर यमुनाजीके पुलिनपर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं। तब उन्होंने वनमें घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूँढ़ा॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने वत्सान् पालांश्च विश्ववित्।
सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह॥

मूलम्

क्वाप्यदृष्ट्वान्तर्विपिने वत्सान् पालांश्च विश्ववित्।
सर्वं विधिकृतं कृष्णः सहसावजगाम ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गये कि यह सब ब्रह्माकी करतूत है। वे तो सारे विश्वके एकमात्र ज्ञाता हैं॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अदृष्ट्वा एत्य उभावपि वने समन्ततः विचिकाय अन्तविपिने क्वापि अदृष्ट्वा इत्येभिः पदेः बहुकालसाध्यं क्रियाणामानन्त्यं लीलानुकरणं बोध्यम् अन्यथा विभोरपि सर्वज्ञस्यापि कृष्णस्याकर्षकस्यावित्रितयमपीदं न सम्भवेदेव ॥ १६-१७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च।
उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः॥

मूलम्

ततः कृष्णो मुदं कर्तुं तन्मातॄणां च कस्य च।
उभयायितमात्मानं चक्रे विश्वकृदीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ों और ग्वालबालोंकी माताओंको तथा ब्रह्माजीको भी आनन्दित करनेके लिये अपने-आपको ही बछड़ों और ग्वालबालों—दोनोंके रूपमें बना लिया*। क्योंकि वे ही तो सम्पूर्ण विश्वके कर्ता सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं॥ १८॥

पादटिप्पनी
  • भगवान् सर्वसमर्थ हैं। वे ब्रह्माजीके चुराये हुए ग्वालबाल और बछड़ोंको ला सकते थे। किन्तु इससे ब्रह्माजीका मोह दूर न होता और वे भगवान‍्की उस दिव्य मायाका ऐश्वर्य न देख सकते, जिसने उनके विश्वकर्ता होनेके अभिमानको नष्ट किया। इसीलिये भगवान् उन्हीं ग्वालबाल और बछड़ोंको न लाकर स्वयं ही वैसे ही एवं उतने ही ग्वालबाल और बछड़े बन गये।
श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मानं सङ्कल्पं उभयायितम् उभयोर्वत्सबालयोः तत्तत्सात्विकाङ्गिकयैषयिकादिषु सन्निवेशेषु यायः गमनं सज्जातं यस्य तथा चक्रे यतः ईश्वरः सः विश्वकृत् स्वासाधारणलक्षणावशिष्टः तथा च स्वस्वविभुस्वरूपं ब्रह्मतिरोहितवत्सवाल जीवस्य सात्त्विकाङ्गिक वैषिक सन्निवेशविशिष्टस्वसङ्कल्पविशिष्टं चक्रे इति भावः । कृष्णरूपाण्यसङ्ख्यानीत्युक्तः “सत्यज्ञानानन्तानन्द- मात्रैकरसमूर्त्तयः” इति प्रदर्श्यमानत्वात् स्वसङ्कल्पविलास एवायमिति भावः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपु-
र्यावत् कराङ्‍घ्र्यादिकं
यावद् यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद् विभूषाम्बरम्।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद् विहारादिकं
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः
सर्वस्वरूपो बभौ॥

मूलम्

यावद् वत्सपवत्सकाल्पकवपु-
र्यावत् कराङ्‍घ्र्यादिकं
यावद् यष्टिविषाणवेणुदलशिग्
यावद् विभूषाम्बरम्।
यावच्छीलगुणाभिधाकृतिवयो
यावद् विहारादिकं
सर्वं विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदजः
सर्वस्वरूपो बभौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वे बालक और बछड़े संख्यामें जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिंगी, बाँसुरी, पत्ते और छींके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, वभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार वे खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपोंमें सर्वस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुरूप है’—यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वत्सबालसूक्ष्मवपुः यावत्सङ्ख्याकं वपुषः जात्येकत्वं सङ्ख्येत्युपलक्षणं परिमाणादिवैचित्र्यं यत्कराङ्घ्र्यादिकं यावत् ज्ञानकर्मेन्द्रियोपलक्षणं यष्टिविषाणवेणुदलशिक् यावत् इति तत्तत्पुरादेरुपलक्षणं विभूषाम्बरं यावत् तन्निवेशादीनामुपलक्षणं शीलगुणाभिधाकृति यावदिति एतद्वैचित्र्योपलक्षकं विहारादिकं वयश्च यावत् आदिपदेन स्वरबलादिवैचित्र्यं सर्वं विष्णुमयं जगत् इति गिर अङ्गवत् मूर्त्तिवत् अज अपरिणत एव स्वरूपेण श्रीकृष्णः स्वसङ्कल्पेन सर्वस्वरूपः स्वावतारवद्बभौ ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयमात्माऽऽत्मगोवत्सान् प्रतिवार्यात्मवत्सपैः।
क्रीडन्नात्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद् व्रजम्॥

मूलम्

स्वयमात्माऽऽत्मगोवत्सान् प्रतिवार्यात्मवत्सपैः।
क्रीडन्नात्मविहारैश्च सर्वात्मा प्राविशद् व्रजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वात्मा भगवान् स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरूप बछड़ोंको अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालोंके द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकारके खेल खेलते हुए उन्होंने व्रजमें प्रवेश किया॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वयमात्मा बालकरूप आत्मरूपान् गोवत्सान् आत्मरूपैर्वत्सपैरात्मरूपैर्विहारैश्च क्रीडन् एवं सर्वात्मा स्वसङ्कल्पेन सर्वरूपः व्रजं प्रविवेश ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्तद्वत्सान् पृथङ् नीत्वा तत्तद् गोष्ठे निवेश्य सः।
तत्तदात्माभवद् राजंस्तत्तत्सद्म प्रविष्टवान्॥

मूलम्

तत्तद्वत्सान् पृथङ् नीत्वा तत्तद् गोष्ठे निवेश्य सः।
तत्तदात्माभवद् राजंस्तत्तत्सद्म प्रविष्टवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जिस ग्वालबालके जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबालके रूपसे अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखलमें घुसा दिया और विभिन्न बालकोंके रूपमें उनके भिन्न-भिन्न घरोंमें चले गये॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तत्तदात्मा तेषां तेषां सर्वपदार्थांनां रज्ज्वादिपर्यन्तानामपि आत्मा सङ्कल्पेन सर्वस्य सर्वसामग्री सम्पादक इति यावत् ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता
उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम्।
स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं
मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन्॥

मूलम्

तन्मातरो वेणुरवत्वरोत्थिता
उत्थाप्य दोर्भिः परिरभ्य निर्भरम्।
स्नेहस्नुतस्तन्यपयःसुधासवं
मत्वा परं ब्रह्म सुतानपाययन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालबालोंकी माताएँ बाँसुरीकी तान सुनते ही जल्दीसे दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्णको अपने बच्चे समझकर हाथोंसे उठाकर उन्होंने जोरसे हृदयसे लगा लिया। वे अपने स्तनोंसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण सुधासे भी मधुर और आसवसे भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गोपीनां विमोहनसङ्कल्पकार्यमाह - द्वाभ्यां तन्मातर इति । परं ब्रह्म श्रीमन्नारायणं श्रीकृष्णं जगदुपकृतिपरतया श्रीकृष्णरूपेणाविर्भूतं सुतरूपं मत्वा स्नेहस्नुतं यत्स्तन्यं पयः तदेव सुधातुल्यम् आसव-तुल्यं च ताभिः स्नेहापितत्वात् अपाययन् इति ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपना-
लङ्काररक्षातिलकाशनादिभिः।
संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्
सायं गतो यामयमेन माधवः॥

मूलम्

ततो नृपोन्मर्दनमज्जलेपना-
लङ्काररक्षातिलकाशनादिभिः।
संलालितः स्वाचरितैः प्रहर्षयन्
सायं गतो यामयमेन माधवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इसी प्रकार प्रतिदिन सन्ध्या समय भगवान् श्रीकृष्ण उन ग्वालबालोंके रूपमें वनसे लौट आते और अपनी बालसुलभ लीलाओंसे माताओंको आनन्दित करते। वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दनका लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनोंसे सजातीं। दोनों भौंहोंके बीचमें डीठसे बचानेके लिये काजलका डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरहसे बड़े लाड़-प्यारसे उनका लालन-पालन करतीं॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यामयमेन प्रहरे प्रहरे या याः क्रीडाः तासां नियमेन वर्त्तमानः स्वाचरिते गोपगोपीः प्रीणयन् सायं प्रातरागतो गतश्चेति वर्षं क्रीडां चकारेति अनेन गोपीनां रोहिणीयशोदावत् सर्वविधकैङ्कर्यकरणभावना प्रत्यनुसारिणी श्रीभगवत्क्रीडा सञ्जातेति व्यङ्ग्यं रहस्यम् " इच्छागृहीताभिमतोरुदेह" इति वाक्यात् ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं
हुङ्कारघोषैः परिहूतसङ्गतान्।
स्वकान् स्वकान् वत्सतरानपाययन्
मुहुर्लिहन्त्यः स्रवदौधसं पयः॥

मूलम्

गावस्ततो गोष्ठमुपेत्य सत्वरं
हुङ्कारघोषैः परिहूतसङ्गतान्।
स्वकान् स्वकान् वत्सतरानपाययन्
मुहुर्लिहन्त्यः स्रवदौधसं पयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्वालिनोंके समान गौएँ भी जब जंगलोंमेंसे चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौड़कर उनके पास आ जाते, तब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभसे चाटतीं और अपना दूध पिलातीं । उस समय स्नेहकी अधिकताके कारण उनके थनोंसे स्वयं ही दूधकी धारा बहने लगती॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वैकल्यं चाह- वत्सवत्योऽप्यपाययन् इति । वक्ष्यमाणत्वात् स्वकान् पूर्वं स्वीयानित्यनेन एष्वेव स्नेहो व्यञ्जितः न त्वद्यतनेषु इति तेषां परब्रह्मरूपत्वञ्च व्यज्यते ॥ २४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोगोपीनां मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्द्धिकां विना।
पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना॥

मूलम्

गोगोपीनां मातृतास्मिन् सर्वा स्नेहर्द्धिकां विना।
पुरोवदास्वपि हरेस्तोकता मायया विना॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन गायों और ग्वालिनोंका मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्यज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रोंकी अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था। इसी प्रकार भगवान् भी उनके पहले पुत्रोंके समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान‍्में उन बालकोंके जैसा मोहका भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्रीकृष्णे स्नेहर्द्धिकाम् अल्पामपि स्नेहर्द्धि विनैवासीत् अनेन स्नेह एवासीत् पूर्व नत्वल्पापि स्नेहवृद्धिरिति पूर्वमासु-गोगोपीष्वस्य हरेस्तोकता मायया सङ्कल्पं विनैवासीत् तासु मातृता मननं भगवतः तासां वा स्वपुत्रत्वभावना कृष्णे एतद्द्वयं श्रीभगवत्सङ्कल्पकृतमेव ततः कृष्णो मुदं कर्त्तुं तन्मातॄणां चेति प्रक्रमात् ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम्।
शनैर्निःसीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत्॥

मूलम्

व्रजौकसां स्वतोकेषु स्नेहवल्ल्याब्दमन्वहम्।
शनैर्निःसीम ववृधे यथा कृष्णे त्वपूर्ववत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने बालकोंके प्रति व्रजवासियोंकी स्नेहलता दिन-प्रतिदिन एक वर्षतक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँतक कि पहले श्रीकृष्णमें उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकोंके प्रति भी हो गया॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एतदेवाह - आ अब्दम् अन्वहं दिने स्नेहवल्ली शनैरलक्षिता निःसीम यथा भवति तथा अपूर्ववत् ववृधे वत्प्रत्ययेन वृद्धावेवापूर्वत्वं तत्सङ्कल्पकृतम् ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थमात्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः।
पालयन् वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः॥

मूलम्

इत्थमात्माऽऽत्मनाऽऽत्मानं वत्सपालमिषेण सः।
पालयन् वत्सपो वर्षं चिक्रीडे वनगोष्ठयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े और ग्वालबालोंके बहाने गोपाल बनकर अपने बालकरूपसे वत्सरूपका पालन करते हुए एक वर्षतक वन और गोष्ठमें क्रीडा करते रहे॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा श्रीकृष्णः आत्मना स्वसङ्कल्पेन आत्मानं विभुरूपमात्मानं स्वरूपं वत्सपालमिषेण इत्युपलक्षणं सर्वेषाम् ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत्।
पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः॥

मूलम्

एकदा चारयन् वत्सान् सरामो वनमाविशत्।
पञ्चषासु त्रियामासु हायनापूरणीष्वजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब एक वर्ष पूरा होनेमें पाँच-छः रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ बछड़ोंको चराते हुए वनमें गये॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पञ्चषासु हायनापूरणीषु त्रियामासु अवशिष्टासु स रामोऽजः कृष्णः व्रजमाविशत् ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम्।
गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम्॥

मूलम्

ततो विदूराच्चरतो गावो वत्सानुपव्रजम्।
गोवर्धनाद्रिशिरसि चरन्त्यो ददृशुस्तृणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गौएँ गोवर्धनकी चोटीपर घास चर रही थीं। वहाँसे उन्होंने व्रजके पास ही घास चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ोंको देखा॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपव्रजं व्रजसमीपं चरतः वत्सान् ददृशुरित्यन्वयः ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा
स गोव्रजोऽत्यात्मपदुर्गमार्गः।
द्विपात् ककुद‍्ग्रीव उदास्यपुच्छो-
ऽगाद‍्धुङ्कृतैरास्रुपया जवेन॥

मूलम्

दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोऽस्मृतात्मा
स गोव्रजोऽत्यात्मपदुर्गमार्गः।
द्विपात् ककुद‍्ग्रीव उदास्यपुच्छो-
ऽगाद‍्धुङ्कृतैरास्रुपया जवेन॥

अनुवाद (हिन्दी)

बछड़ोंको देखते ही गौओंका वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आपकी सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालोंके रोकनेकी कुछ भी परवा न कर जिस मार्गसे वे न जा सकते थे, उस मार्गसे हुंकार करती हुई बड़े वेगसे दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनोंसे दूध बहता जाता था और उनकी गरदनें सिकुड़कर डीलसे मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेगसे दौड़ रही थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गोव्रजः समूहः उदास्यपुच्छः ऊर्ध्वमुखः ऊर्ध्वपुच्छः आस्रपयाः आस्रवत्पयो यस्य सः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन्।
गिलन्त्य इव चाङ्गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः॥

मूलम्

समेत्य गावोऽधो वत्सान् वत्सवत्योऽप्यपाययन्।
गिलन्त्य इव चाङ्गानि लिहन्त्यः स्वौधसं पयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन गौओंके और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धनके नीचे अपने पहले बछड़ोंके पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने-आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चोंका एक-एक अंग ऐसे चावसे चाट रही थीं, मानो उन्हें अपने पेटमें रख लेंगी॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गावः वत्सान्समेत्याधः पतदिति शेषः । स्वौधसं पयः अपाययन् ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपास्तद्रोधनायासमौघ्यलज्जोरुमन्युना।
दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान्॥

मूलम्

गोपास्तद्रोधनायासमौघ्यलज्जोरुमन्युना।
दुर्गाध्वकृच्छ्रतोऽभ्येत्य गोवत्सैर्ददृशुः सुतान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपोंने उन्हें रोकनेका बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलतापर कुछ लज्जा और गायोंपर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्गसे उस स्थानपर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ोंके साथ अपने बालकोंको भी देखा॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गोपास्तद्रोधनायासे मौध्यं वैफल्यन्तेन लज्जा उरुर्मन्युश्च ताभ्यामुपलक्षिता गोवत्सैः सहितान्सुतान् ददृशुः ॥ ३२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया
जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान्।
उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि
घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते॥

मूलम्

तदीक्षणोत्प्रेमरसाप्लुताशया
जातानुरागा गतमन्यवोऽर्भकान्।
उदुह्य दोर्भिः परिरभ्य मूर्धनि
घ्राणैरवापुः परमां मुदं ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने बच्चोंको देखते ही उनका हृदय प्रेमरससे सराबोर हो गया। बालकोंके प्रति अनुरागकी बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकोंको गोदमें उठाकर हृदयसे लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परमानन्दस्वरूपरूपस्य दर्शनालिङ्गनादेः परममोदावहत्वमुच्यते, तदीक्षणेति ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृताः।
कृच्छ्राच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदश्रवः॥

मूलम्

ततः प्रवयसो गोपास्तोकाश्लेषसुनिर्वृताः।
कृच्छ्राच्छनैरपगतास्तदनुस्मृत्युदश्रवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बूढ़े गोपोंको अपने बालकोंके आलिंगनसे परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्टसे उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँसे गये। जानेके बाद भी बालकोंके और उनके आलिंगनके स्मरणसे उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बहते रहे॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रवयसो वृद्धास्तोकानां श्रीकृष्णस्वरूपरूपाणामेवाश्लेषेण सुतरां निर्वृताः अनन्तरं कृच्छ्रात् शनैरुपक्रम्य गता इत्यनेन श्रीभगवत्संयोगवियोगकसुखदुःखित्वं तेषां गोपानामुक्तम् ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रजस्य रामः प्रेमर्धेर्वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम्।
मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिन्तयत्॥

मूलम्

व्रजस्य रामः प्रेमर्धेर्वीक्ष्यौत्कण्ठ्यमनुक्षणम्।
मुक्तस्तनेष्वपत्येष्वप्यहेतुविदचिन्तयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीने देखा कि व्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनोंकी उन सन्तानोंपर भी, जिन्होंने अपनी माँका दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कण्ठा बढ़ती ही जा रही है, तब वे विचारमें पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

औत्कण्ठ्यमुत्कर्षम् ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमेतदद‍्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि।
व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्वं प्रेम वर्धते॥

मूलम्

किमेतदद‍्भुतमिव वासुदेवेऽखिलात्मनि।
व्रजस्य सात्मनस्तोकेष्वपूर्वं प्रेम वर्धते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह कैसी विचित्र बात है! सर्वात्मा श्रीकृष्णमें व्रजवासियोंका और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ोंपर भी बढ़ता जा रहा है॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वासुदेवे परवासुदेवे श्रीमन्नारायणे श्रीकृष्णेऽखिलात्मान सर्वचिदचिन्नियन्तरि मत्सहितस्य व्रजस्य गोगोपात्मकस्य तोकेष्विति उपलक्षणं वत्सबालकपरिकरपरिच्छदाः अपूर्वं पूर्वमननुभूतं प्रेम स्नेहो वर्द्धते इति किमेतत् ॥ ३६ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी॥

मूलम्

केयं वा कुत आयाता दैवी वा नार्युतासुरी।
प्रायो मायास्तु मे भर्तुर्नान्या मेऽपि विमोहिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कौन-सी माया है? कहाँसे आयी है? यह किसी देवताकी है, मनुष्यकी है अथवा असुरोंकी? परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है? नहीं-नहीं, यह तो मेरे प्रभुकी ही माया है। और किसीकी मायामें ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले’॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिविधा मायेयमिति वितर्कः तन्निरासायाह- मे भर्तुः मत्स्वामिनः श्रीमन्नारायणस्य स्वस्य शेषत्वात् श्रीरामस्य इदानीं श्रीकृष्णस्यैवेति अन्या मे मोहिनी न स्यात् इति स्वस्य पूर्वतनलक्ष्मणत्वं शेषत्वं वाऽभिप्रैति तस्य च परवासुदेवत्वं चेति भावः ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सञ्चिन्त्यदाशार्होवत्सान् सवयसानपि।
सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः॥

मूलम्

इति सञ्चिन्त्यदाशार्होवत्सान् सवयसानपि।
सर्वानाचष्ट वैकुण्ठं चक्षुषा वयुनेन सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टिसे देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालोंके रूपमें केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वैकुण्ठं श्रीमन्तं पूर्णपुरुषोत्तमं वैकुण्ठं वयुनेन ज्ञानेन “माया वयुनं ज्ञानम्" इति निघण्टुपाठात् सवयसान् सखीन् ॥ ३८ ॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैते सुरेशा ऋषयो न चैते
त्वमेव भासीश भिदाश्रयेऽपि।
सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वदे-
त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत्॥

मूलम्

नैते सुरेशा ऋषयो न चैते
त्वमेव भासीश भिदाश्रयेऽपि।
सर्वं पृथक्त्वं निगमात् कथं वदे-
त्युक्तेन वृत्तं प्रभुणा बलोऽवैत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने श्रीकृष्णसे कहा—‘भगवन्! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपोंका आश्रय लेनेपर भी आप अकेले ही इन रूपोंमें प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़ेमें ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े, बालक, सिंगी, रस्सी आदिके रूपमें अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं?’ तब भगवान‍्ने ब्रह्माकी सारी करतूत सुनायी और बलरामजीने सब बातें जान लीं॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हे ईश ! तव भिदाश्रये चिदचिद्भेदाश्रये स्वरूपेपि निरवयवेऽखण्डे सर्वं बालवत्सपरिच्छदादिरूपात् पृथक्त्वं कथम् इति वदेत्युक्तेन प्रभुणा पूर्वोक्तभावेन श्रीकृष्णेन निगमात् वृत्तमित्युक्तः बलदेवोऽवेत् । अत्रायमभिप्रायः स्वरूपभेद: कथमिति पृष्टः निगमात् वेदप्रमाणकात् मत्सङ्कल्पाज्जात इत्युक्तो बलोऽज्ञासीत् तथा च श्रुतिः “विज्ञानं चाविज्ञानं च सत्यञ्चानृतञ्च सत्यमभवत्" इति तत्र चात्र चेयान् भेदः तत्र चिदचितोः स्वरूपसतोः साङ्कल्पिकः प्रवेशः अत्र तु विभुस्वरूपे स्वस्मिन् स्वसङ्कल्पेनावतारविग्रहवत् सर्वस्वरूपभवनं “अजायमानो बहुधा विजायते" इति श्रुतेः कृष्णरूपाण्यसङ्ख्यानीत्युक्तेश्च ॥ ३९ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावदेत्यात्मभूरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा।
पुरोवदब्दं क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम्॥

मूलम्

तावदेत्यात्मभूरात्ममानेन त्रुट्यनेहसा।
पुरोवदब्दं क्रीडन्तं ददृशे सकलं हरिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! तबतक ब्रह्माजी ब्रह्मलोकसे व्रजमें लौट आये। उनके कालमानसे अबतक केवल एक त्रुटि (जितनी देरमें तीखी सूईसे कमलकी पँखुड़ी छिदे) समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ोंके साथ एक सालसे पहलेकी भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रुट्यनेहसा त्रुटिकालरूपेणात्मप्रमाणेन एत्य त्रसरेणुत्रिकपरिमिता त्रुटिरित्यर्थः ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावन्तो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि।
मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः॥

मूलम्

यावन्तो गोकुले बालाः सवत्साः सर्व एव हि।
मायाशये शयाना मे नाद्यापि पुनरुत्थिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोचने लगे—‘गोकुलमें जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शय्यापर सो रहे हैं—उनको तो मैंने अपनी मायासे अचेत कर दिया था; वे तबसे अबतक सचेत नहीं हुए॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्मायामोहितेतरे।
तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम्॥

मूलम्

इत एतेऽत्र कुत्रत्या मन्मायामोहितेतरे।
तावन्त एव तत्राब्दं क्रीडन्तो विष्णुना समम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मेरी मायासे मोहित ग्वालबाल और बछड़ोंके अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँसे आ गये, जो एक सालसे भगवान‍्के साथ खेल रहे हैं?॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

माया विचित्रकार्यकरमच्छक्तिरूपतया शयनं मायाशय इत्यर्थः । यया तेषां त्रुटिकालज्ञानमेव जात इत्याशयः ॥ ४१-४२ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः।
सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन॥

मूलम्

एवमेतेषु भेदेषु चिरं ध्यात्वा स आत्मभूः।
सत्याः के कतरे नेति ज्ञातुं नेष्टे कथञ्चन॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने दोनों स्थानोंपर दोनोंको देखा और बहुत देरतक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टिसे उनका रहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनोंमें कौन-से पहलेके ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इनमेंसे कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी—यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तेषु वत्सबालभेदेषु सत्याः के कतरे न सत्याः इति ज्ञातुं नेष्टे न समर्थः ॥ ४३ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम्।
स्वयैव माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः॥

मूलम्

एवं सम्मोहयन् विष्णुं विमोहं विश्वमोहनम्।
स्वयैव माययाजोऽपि स्वयमेव विमोहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी मायामें तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान‍्का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्माजी उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको अपनी मायासे मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होनेपर भी अपनी ही मायासे अपने-आप मोहित हो गये॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वमायया स्वमोहः कथमित्यत्र विष्णुं सम्मोहयन्निति हेतुर्ज्ञेयः ॥ ४४ ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि।
महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युञ्जतः॥

मूलम्

तम्यां तमोवन्नैहारं खद्योतार्चिरिवाहनि।
महतीतरमायैश्यं निहन्त्यात्मनि युञ्जतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार रातके घोर अन्धकारमें कुहरेके अन्धकारका और दिनके प्रकाशमें जुगनूके प्रकाशका पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषोंपर अपनी मायाका प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरेः

इवार्थे नैहारं तम इव ऐश्यं सामर्थ्यं इतरमाया अनीशस्यं माया महत्यात्मनि उत्कृष्टपुरुषे ॥ ४५ ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत् सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात्।
व्यदृश्यन्त घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः॥

मूलम्

तावत् सर्वे वत्सपालाः पश्यतोऽजस्य तत्क्षणात्।
व्यदृश्यन्त घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भुजाः शङ्खचक्रगदाराजीवपाणयः।
किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः॥

मूलम्

चतुर्भुजाः शङ्खचक्रगदाराजीवपाणयः।
किरीटिनः कुण्डलिनो हारिणो वनमालिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्णके रूपमें दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधरके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्मसे युक्त—चतुर्भुज। सबके सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कण्ठोंमें मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रही थीं॥ ४६-४७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पश्यत इत्यनादरे षष्ठी ॥ ४६-४७ ॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीवत्साङ्गददोरत्नकम्बुकङ्कणपाणयः।
नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्गुलीयकैः॥

मूलम्

श्रीवत्साङ्गददोरत्नकम्बुकङ्कणपाणयः।
नूपुरैः कटकैर्भाताः कटिसूत्राङ्गुलीयकैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके वक्षःस्थलपर सुवर्णकी सुनहली रेखा—श्रीवत्स, बाहुओंमें बाजूबंद, कलाइयोंमें शंखाकार रत्नोंसे जड़े कंगन, चरणोंमें नूपुर और कड़े, कमरमें करधनी तथा अँगुलियोंमें अँगूठियाँ जगमगा रही थीं॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्रीयुक्तानि वत्सानि वक्षांसि येषां अङ्गदयुक्तो दोषो येषां रत्नशब्देन कौस्तुभयुक्ता कम्बुत्रिरेखा ग्रीवा येषां कङ्कणयुक्ता पाणयश्च येषां ते च ते च कटकैः ॥ ४८ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

आङ्घ्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभिः।
कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः॥

मूलम्

आङ्घ्रिमस्तकमापूर्णास्तुलसीनवदामभिः।
कोमलैः सर्वगात्रेषु भूरिपुण्यवदर्पितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नखसे शिखतक समस्त अंगोंमें कोमल और नूतन तुलसीकी मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तोंने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दामभिः मालाभिः भूरिपुण्यं भगवदानुकूल्यप्रयोजिततत्सन्तोषरूपं तद्युक्तैरित्यर्थः ॥ ४९ ॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापाङ्गवीक्षितैः।
स्वकार्थानामिव रजःसत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः॥

मूलम्

चन्द्रिकाविशदस्मेरैः सारुणापाङ्गवीक्षितैः।
स्वकार्थानामिव रजःसत्त्वाभ्यां स्रष्टृपालकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी मुसकान चाँदनीके समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रोंकी कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इन दोनोंके द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुणको स्वीकार करके भक्तजनोंके हृदयमें शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं॥ ५०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वकानां भक्तानां येऽर्थाः सांसारिकपदार्थभिन्नाः तन्नित्यकैङ्कर्याद्यभिलाषरूपाः ॥ ५० ॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैर्मूर्तिमद‍्भिश्चराचरैः।
नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक् पृथगुपासिताः॥

मूलम्

आत्मादिस्तम्बपर्यन्तैर्मूर्तिमद‍्भिश्चराचरैः।
नृत्यगीताद्यनेकार्हैः पृथक् पृथगुपासिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने यह भी देखा कि उन्हींके-जैसे दूसरे ब्रह्मासे लेकर तृणतक सभी चराचर जीव मूर्तिमान् होकर नाचते-गाते अनेक प्रकारकी पूजा-सामग्रीसे अलग-अलग भगवान‍्के उन सब रूपोंकी उपासना कर रहे हैं॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभिः।
चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिभिः॥

मूलम्

अणिमाद्यैर्महिमभिरजाद्याभिर्विभूतिभिः।
चतुर्विंशतिभिस्तत्त्वैः परीता महदादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओरसे घेरे हुए हैं॥ ५२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा ब्रह्मा मूर्तिमद्भिश्चराचरैरिति चिदचितोरज्जुभुजङ्गवदध्यस्तत्वनिरासः अणिमाद्यष्टैश्वर्यैर्जातैर्महिमभिर्माहात्म्यैः परीताः अजाद्याभिर्नवशक्तिभिः श्रिया पुष्ट्येत्यादिभिः द्वादशभिर्वा चतुर्विंशतितत्त्वैश्च परीताः ॥ ५१-५२ ॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभिः।
स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद‍्भिरुपासिताः॥

मूलम्

कालस्वभावसंस्कारकामकर्मगुणादिभिः।
स्वमहिध्वस्तमहिभिर्मूर्तिमद‍्भिरुपासिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला काल, उसके परिणामका कारण स्वभाव, वासनाओंको जगानेवाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल—सभी मूर्तिमान् होकर भगवान‍्के प्रत्येक रूपकी उपासना कर रहे हैं। भगवान‍्की सत्ता और महत्ताके सामने उन सभीकी सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी॥ ५३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कालादिभिः षड्भिः जीवधर्मज्ञानावरकैः मूर्त्तिमद्भिरित्यनेन नामप्रपञ्च निरासः ॥ ५३ ॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्दृशाम्॥

मूलम्

सत्यज्ञानानन्तानन्दमात्रैकरसमूर्तयः।
अस्पृष्टभूरिमाहात्म्या अपि ह्युपनिषद्दृशाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयंप्रकाश और केवल अनन्त आनन्दस्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतनताका भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँतक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियोंकी दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमाका स्पर्श नहीं कर सकती॥ ५४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्यत्वज्ञानत्वानन्तत्वानन्दत्वानि मात्राः परिकरः सामग्री यासां अत एव एकरसाः विकारादिरहिताः मूर्तयो येषां ते तथाभूताः ॥ ५४ ॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सकृद् ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान्।
यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम्॥

मूलम्

एवं सकृद् ददर्शाजः परब्रह्मात्मनोऽखिलान्।
यस्य भासा सर्वमिदं विभाति सचराचरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ब्रह्माजीने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णके ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाशसे यह सारा चराचर जगत् प्रकाशित हो रहा है॥ ५५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यस्य भासा सङ्कल्परूपेण ज्ञानेन इदं सचराचरं चेतनचेतनात्मकं जगद्विभाति तादृक् परब्रह्मात्मनः परब्रह्मसङ्कल्पसिद्धान्सर्वान् सकृद्ददर्श ॥ ५५ ॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽतिकुतुकोद्‍वृत्तस्तिमितैकादशेन्द्रियः।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका॥

मूलम्

ततोऽतिकुतुकोद्‍वृत्तस्तिमितैकादशेन्द्रियः।
तद्धाम्नाभूदजस्तूष्णीं पूर्देव्यन्तीव पुत्रिका॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्माजी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ (पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन) क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान‍्के तेजसे निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो व्रजके अधिष्ठातृ-देवताके पास एक पुतली खड़ी हो॥ ५६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अतिकौतुकेन प्रथमोद्दृत्तानि प्रसृतानि दर्शनश्रवणादिप्रवृत्तानि पश्चात् स्तिमितानि अविषयत्वेन निश्चलानीन्द्रियाणि यस्य सः पूर्देव्यन्ती पूर्देवीत्वमाचरन्ती पुत्रिका इव चतुर्मुखी ब्रह्ममूर्तिः तूष्णीं स्थिता अभूदिति ॥ ५६ ॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके
परत्राजातोऽतन्निरसनमुखब्रह्मकमितौ।
अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम्॥

मूलम्

इतीरेशेऽतर्क्ये निजमहिमनि स्वप्रमितिके
परत्राजातोऽतन्निरसनमुखब्रह्मकमितौ।
अनीशेऽपि द्रष्टुं किमिदमिति वा मुह्यति सति
चछादाजो ज्ञात्वा सपदि परमोऽजाजवनिकाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्का स्वरूप तर्कसे परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयंप्रकाश, आनन्दस्वरूप और मायासे अतीत है। वेदान्त भी साक्षात् रूपसे उसका वर्णन करनेमें असमर्थ है, इसलिये उससे भिन्नका निषेध करके आनन्द-स्वरूप ब्रह्मका किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्माजी समस्त विद्याओंके अधिपति हैं, तथापि भगवान‍्के दिव्यस्वरूपको वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँतक कि वे भगवान‍्के उन महिमामय रूपोंको देखनेमें भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माके इस मोह और असमर्थताको जानकर बिना किसी प्रयासके तुरंत अपनी मायाका परदा हटा दिया॥ ५७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

इलेति इति इरेति च देवीत्रयम् “इडा भू वाक् सुराप्सु स्यात्” इति कोशात् देवीत्रयनियामके ब्रह्मणि स्वमहिमनि मुह्यति सति परमः अजः श्रीकृष्णः अजाजवनिका तस्मि छाद छादयामास स्वेनैव प्रमितिर्यस्य तादृक् कं सुखं यस्मिन् मायातः परस्मिन् अन्नरसनेन ब्रह्मणो वैलक्षण्यप्रतिपादकेन मुखेन द्वारभूतेन ब्रह्मकैः वेदशिरोभिः मितिर्यस्य तस्मिन्महिम्नि ॥ ५७ ॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽर्वाक् प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः।
कृच्छ्रादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टेदं सहात्मना॥

मूलम्

ततोऽर्वाक् प्रतिलब्धाक्षः कः परेतवदुत्थितः।
कृच्छ्रादुन्मील्य वै दृष्टीराचष्टेदं सहात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे ब्रह्माजीको बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे। सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्टसे अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत् दिखायी पड़ा॥ ५८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्वाग्भूतेन तत आकृष्टे प्रतिलब्धे अक्षिणी येन सः आत्मना स्वेन सह श्रीकृष्णेन वा सह इदं सन्निकृष्टं श्रीवृन्दावनादिकम् ॥ ५८ ॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरः स्थितम्।
वृन्दावनं जनाजीव्यद्रुमाकीर्णं समाप्रियम्॥

मूलम्

सपद्येवाभितः पश्यन् दिशोऽपश्यत् पुरः स्थितम्।
वृन्दावनं जनाजीव्यद्रुमाकीर्णं समाप्रियम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर ब्रह्माजी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिये एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवोंको जीवन देनेवाले फल और फूलोंसे लदे हुए, हरे-हरे पत्तोंसे लहलहाते हुए वृक्षोंकी पाँतें शोभा पा रही हैं॥ ५९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सम्यक् आसमन्तात्प्रियं स ब्रह्मा माप्रियं लक्ष्मीप्रियं श्रीनारायणं कृष्णं चापश्यदिति लक्ष्मीप्रियं वृन्दावनं वा रमाक्रीडमभूदिति वाक्यात् ॥ ५९ ॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः।
मित्राणीवाजितावासद्रुतरुट्तर्षकादिकम्॥

मूलम्

यत्र नैसर्गदुर्वैराः सहासन् नृमृगादयः।
मित्राणीवाजितावासद्रुतरुट्तर्षकादिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि होनेके कारण वृन्दावनधाममें क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभावसे ही परस्पर दुस्त्यज वैर रखनेवाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रोंके समान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं॥ ६०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वाभाविकं दुष्टं वैरं येषां ते मनुष्यसिंहसर्पनकुलादयः मित्राणीव सह आसन् सहैव सञ्चारादिकर्त्तार आसन् न चेदृषीणां तपोबलेनापि सम्भवो दृश्यते इत्यत्राह - अजितस्य कृष्णस्यावासः आभिमुख्येन वासस्तेन श्रीभगवत्कृपाकटाक्षेणैव पलायितक्रोधलोभतृष्णामोहादिके वृन्दावने अनेन “कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्” इति आसुरसम्पद्बीजरहिते इति स्थलपरमैश्वर्यम् उक्तम् ऋषीणां कामक्रोधादिराहित्याभावान्न तादृशवैभवमिति भावः ॥ ६० ॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोद्वहत् पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं परमनन्तमगाधबोधम्।
वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्व-
देकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट॥

मूलम्

तत्रोद्वहत् पशुपवंशशिशुत्वनाट्यं
ब्रह्माद्वयं परमनन्तमगाधबोधम्।
वत्सान् सखीनिव पुरा परितो विचिन्व-
देकं सपाणिकवलं परमेष्ठ्यचष्ट॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने वृन्दावनका दर्शन करनेके बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंशके बालकका-सा नाट्य कर रहा है। एक होनेपर भी उसके सखा हैं, अनन्त होनेपर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होनेपर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ोंको ढूँढ़ रहा है। ब्रह्माजीने देखा कि जैसे भगवान् श्रीकृष्ण पहले अपने हाथमें दही-भातका कौर लिये उन्हें ढूँढ़ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोजमें लगे हैं॥ ६१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पशुपवंशे गोपवंशे शिशुत्वस्य बाल्यस्य नाट्यमुद्वहत् अद्वयमेकं नारायणं श्रीकृष्णाख्यं ब्रह्म अद्वयमिति निःसमाभ्यधिकम् एकं सपाणिकवलं करधृतस्निग्धकवलम् अचष्टापश्यत् ॥ ६१ ॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य।
स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुटकोटिभिरङ्घ्रियुग्मं
नत्वा मुदश्रुसुजलैरकृताभिषेकम्॥

मूलम्

दृष्ट्वा त्वरेण निजधोरणतोऽवतीर्य
पृथ्व्यां वपुः कनकदण्डमिवाभिपात्य।
स्पृष्ट्वा चतुर्मुकुटकोटिभिरङ्घ्रियुग्मं
नत्वा मुदश्रुसुजलैरकृताभिषेकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्को देखते ही ब्रह्माजी अपने वाहन हंसपरसे कूद पड़े और सोनेके समान चमकते हुए अपने शरीरसे पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटोंके अग्रभागसे भगवान‍्के चरण-कमलोंका स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्दके आँसुओंकी धारासे उन्हें नहला दिया॥ ६२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निजवाहनहंसात् अवतीर्य पृथिव्यां वपुरभिपात्य चतुर्मुकुटकोटिभिः अङ्घ्रियुग्मं स्पृष्ट्वा नत्वा च मुदश्रुसुजलैरभिषेकमकृत ब्रह्मेत्यध्याहारः परमेष्ठीति पूर्वपदस्यान्वयो वा ॥ ६२ ॥

श्लोक-६३

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन्।
आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः॥

मूलम्

उत्थायोत्थाय कृष्णस्य चिरस्य पादयोः पतन्।
आस्ते महित्वं प्राग्दृष्टं स्मृत्वा स्मृत्वा पुनः पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भगवान् श्रीकृष्णकी पहले देखी हुई महिमाका बार-बार स्मरण करते, उनके चरणोंपर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देरतक वे भगवान‍्के चरणोंमें ही पड़े रहे॥ ६३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उत्थायोत्थाय श्रीकृष्णपदयोः पतन् चिरस्यास्ते ॥ ६३ ॥

श्लोक-६४

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः।
कृताञ्जलिः प्रश्रयवान् समाहितः
सवेपथुर्गद‍्गदयैलतेलया॥

मूलम्

शनैरथोत्थाय विमृज्य लोचने
मुकुन्दमुद्वीक्ष्य विनम्रकन्धरः।
कृताञ्जलिः प्रश्रयवान् समाहितः
सवेपथुर्गद‍्गदयैलतेलया॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रोंके आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्तिके एकमात्र उद‍्गम भगवान‍्को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रताके साथ गद‍्गद वाणीसे वे भगवान‍्की स्तुति करने लगे॥ ६४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अथ तन्महित्वं शनैः स्मरन्नेवोत्थायाश्रु पिच्छिले लोचने विमृज्य मुकुन्दं स्वस्य दमनोपयोग्युपाय महावदान्यं तं मोक्षदमुद्वीक्ष्य तदानीं तस्य स्वाभाविककृष्णस्य प्राग्दृष्ट महित्वं पुनः पुनः स्मृत्वा कृपाऽनुरञ्जितं लोचनयुगलं पिबन्निवोद्वीक्ष्य स्वस्य तत्कृपाविस्मरणेन कृतघ्नत्वमिवालोच्य विनम्रकन्धरः तादृशापराधनिवृत्त्यर्थं कृताञ्जलिः उत्तरत्रापराधस्यानुवृत्तिनिराकरिष्णुरिव प्रश्रयवान् समाहितः श्रीमन्नारायणस्य तस्य ध्यानानन्दमग्नोऽत एवं सवेपथुः उपर्यपि गद्गदया इलया वाण्या तं साक्षात्कृतस्वरूपरूपगुणविभूतिकं ऐलताऽस्तीत् ॥ ६४ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३॥