[द्वादशोऽध्यायः]
भागसूचना
अघासुरका उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद् वनाशाय मनो दधद् व्रजात्
प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान्।
प्रबोधयञ्छृङ्गरवेण चारुणा
विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः॥
मूलम्
क्वचिद् वनाशाय मनो दधद् व्रजात्
प्रातः समुत्थाय वयस्यवत्सपान्।
प्रबोधयञ्छृङ्गरवेण चारुणा
विनिर्गतो वत्सपुरःसरो हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वनमें ही कलेवा करनेके विचारसे बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजेकी मधुर मनोहर ध्वनिसे अपने साथी ग्वालबालोंको मनकी बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ोंको आगे करके वे व्रज-मण्डलसे निकल पड़े॥ १॥
वीरराघवः
श्री रामानुजपादाब्जकृपासमनुरञ्जितैः । पूर्वैः प्रक्षितमध्याय त्रयमन्वर्थमुच्यते ॥
वनाशाय वने प्रातर्भोजनाय ॥ १ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः
स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः।
स्वान् स्वान् सहस्रोपरिसंख्ययान्वितान्
वत्सान् पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा॥
मूलम्
तेनैव साकं पृथुकाः सहस्रशः
स्निग्धाः सुशिग्वेत्रविषाणवेणवः।
स्वान् स्वान् सहस्रोपरिसंख्ययान्वितान्
वत्सान् पुरस्कृत्य विनिर्ययुर्मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णके साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छींके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहस्रों बछड़ोंको आगे करके बड़ी प्रसन्नतासे अपने-अपने घरोंसे चल पड़े॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शिक् भोज्यवस्त्वाधारभूतं शिक्यं वेत्रं गोवेषयितृविषाणवेणुवाद्ये ॥ २ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णवत्सैरसंख्यातैर्यूथीकृत्य स्ववत्सकान्।
चारयन्तोऽर्भलीलाभिर्विजह्रुस्तत्र तत्र ह॥
मूलम्
कृष्णवत्सैरसंख्यातैर्यूथीकृत्य स्ववत्सकान्।
चारयन्तोऽर्भलीलाभिर्विजह्रुस्तत्र तत्र ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने श्रीकृष्णके अगणित बछड़ोंमें अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थानपर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तत्र तत्र वृन्दावनप्रदेशेषु ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलप्रवालस्तबकसुमनःपिच्छधातुभिः।
काचगुञ्जामणिस्वर्णभूषिता अप्यभूषयन्॥
मूलम्
फलप्रवालस्तबकसुमनःपिच्छधातुभिः।
काचगुञ्जामणिस्वर्णभूषिता अप्यभूषयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्णके गहने पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावनके लाल-पीले-हरे फलोंसे, नयी-नयी कोंपलोंसे, गुच्छोंसे, रंग-बिरंगे फूलों और मोर पंखोंसे तथा गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको सजा लिया॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
काचानां हाराः गुञ्जानां च मणिस्वर्णादीनामाभरणैर्भूषिता अपि पिच्छं मायूरं फलादिभिरभूषयन् ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुष्णन्तोऽन्योन्यशिक्यादीन् ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः।
तत्रत्याश्च पुनर्दूराद्धसन्तश्च पुनर्ददुः॥
मूलम्
मुष्णन्तोऽन्योन्यशिक्यादीन् ज्ञातानाराच्च चिक्षिपुः।
तत्रत्याश्च पुनर्दूराद्धसन्तश्च पुनर्ददुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई किसीका छींका चुरा लेता, तो कोई किसीकी बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओंके स्वामीको पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरेके पास दूर फेंक देता, दूसरा तीसरेके और तीसरा और भी दूर चौथेके पास। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आराद दूरे चिक्षिपुः ॥ ५-७ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम्।
अहं पूर्वमहं पूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरे॥
मूलम्
यदि दूरं गतः कृष्णो वनशोभेक्षणाय तम्।
अहं पूर्वमहं पूर्वमिति संस्पृश्य रेमिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वनकी शोभा देखनेके लिये कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’—इस प्रकार आपसमें होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिद् वेणून् वादयन्तो ध्मान्तः शृङ्गाणि केचन।
केचिद् भृङ्गैः प्रगायन्तः कूजन्तः कोकिलैः परे॥
मूलम्
केचिद् वेणून् वादयन्तो ध्मान्तः शृङ्गाणि केचन।
केचिद् भृङ्गैः प्रगायन्तः कूजन्तः कोकिलैः परे॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौंरोंके साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलोंके स्वरमें स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विच्छायाभिः प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकैः।
बकैरुपविशन्तश्च नृत्यन्तश्च कलापिभिः॥
मूलम्
विच्छायाभिः प्रधावन्तो गच्छन्तः साधुहंसकैः।
बकैरुपविशन्तश्च नृत्यन्तश्च कलापिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाशमें उड़ते हुए पक्षियोंकी छायाके साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसोंकी चालकी नकल करते हुए उनके साथ सुन्दर गतिसे चल रहे हैं। कोई बगुलेके पास उसीके समान आँखें मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरोंको नाचते देख उन्हींकी तरह नाच रहे हैं॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वीनां पक्षिणां छायाभिः यत्र पक्षिण उड्डीय गच्छन्ति तत्तच्छायाभिः स्वयमपि धावन्त इत्यर्थः ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकर्षन्तः कीशबालानारोहन्तश्च तैर्द्रुमान्।
विकुर्वन्तश्च तैः साकं प्लवन्तश्च पलाशिषु॥
मूलम्
विकर्षन्तः कीशबालानारोहन्तश्च तैर्द्रुमान्।
विकुर्वन्तश्च तैः साकं प्लवन्तश्च पलाशिषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-कोई बंदरोंकी पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़से उस पेड़पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डालसे दूसरी डालपर छलाँग मार रहे हैं॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कीशा वानराः तेषां बालान् तोकान् तद्विकर्षणेन तैर्युद्धादिकौतुकं सम्पादयन्तः बालान् पुच्छान्वा विकुर्वन्तः नेत्रभृकुट्याद्यारोपणेन युद्ध्यन्तः ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
साकं भेकैर्विलङ्घन्तः सरित्प्रस्रवसम्प्लुताः।
विहसन्तः प्रतिच्छायाः शपन्तश्च प्रतिस्वनान्॥
मूलम्
साकं भेकैर्विलङ्घन्तः सरित्प्रस्रवसम्प्लुताः।
विहसन्तः प्रतिच्छायाः शपन्तश्च प्रतिस्वनान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत-से ग्वालबाल तो नदीके कछारमें छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेढकोंके साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानीमें अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे अपने शब्दकी प्रतिध्वनिको ही बुरा-भला कह रहे हैं॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भेकैर्मण्डूकः प्रतिच्छायाः प्रतिबिम्बान् प्रतिस्वनान् शून्यमहादिनिष्ठध्वनीन् ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या
दास्यं गतानां परदैवतेन।
मायाश्रितानां नरदारकेण
साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुञ्जाः॥
मूलम्
इत्थं सतां ब्रह्मसुखानुभूत्या
दास्यं गतानां परदैवतेन।
मायाश्रितानां नरदारकेण
साकं विजह्रुः कृतपुण्यपुञ्जाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण ज्ञानी संतोंके लिये स्वयं ब्रह्मानन्दके मूर्तिमान् अनुभव हैं। दास्यभावसे युक्त भक्तोंके लिये वे उनके आराध्यदेव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं। और माया-मोहित विषयान्धोंके लिये वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं। उन्हीं भगवान्के साथ वे महान् पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरहके खेल खेल रहे हैं॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दास्यङ्गताना सतां प्रपन्नानां ब्रह्मसुखानुभूत्या करणभूतया परदैवतेन भासमानेन अन्येषां मायाश्रितानां दुर्गादेव्याद्याश्रितानां नरबालकत्वेन प्रतीयमानेन सह विजः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो
धृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः
किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्॥
मूलम्
यत्पादपांसुर्बहुजन्मकृच्छ्रतो
धृतात्मभिर्योगिभिरप्यलभ्यः।
स एव यद्दृग्विषयः स्वयं स्थितः
किं वर्ण्यते दिष्टमतो व्रजौकसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत जन्मोंतक श्रम और कष्ट उठाकर जिन्होंने अपनी इन्द्रियों और अन्तःकरणको वशमें कर लिया है, उन योगियोंके लिये भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी रज अप्राप्य है। वही भगवान् स्वयं जिन व्रजवासी ग्वालबालोंकी आँखोंके सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्यकी महिमा इससे अधिक क्या कही जाय॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रीकृष्णे योगिध्यानविषये श्रीनारायणस्वरूपेण दृग्विषयत्वेन प्रत्यक्त्वं वदतां निरासोऽनेन विधीयते यत्पादपांसुरिति वशीकृतमनस्कैः यत्पादपांसुरपि अप्राप्यः योगिभिः नित्यात्मज्ञानपूर्वकमसङ्गकर्मफलभूतस्थितप्रज्ञतालक्षणयोगनिष्ठैः स एव भक्तियोगविरूपः शुभाश्रयविग्रहो नारायणः न त्वन्यः न त्विन्द्रजालवन्मायाधृतरूपः स्वयं श्रीमन्नारायणः परब्रह्म परमात्मादिशब्दवाच्यः अहो महदिदमाश्चर्यं व्रजौकसाम् इति स्वीयदेशवासित्वमात्रं दर्शन हेतुरित्युच्यते दिष्टं दैवं श्रीभगवदानुकूल्यम् ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाघनामाभ्यपतन्महासुर-
स्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते॥
मूलम्
अथाघनामाभ्यपतन्महासुर-
स्तेषां सुखक्रीडनवीक्षणाक्षमः।
नित्यं यदन्तर्निजजीवितेप्सुभिः
पीतामृतैरप्यमरैः प्रतीक्ष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसी समय अघासुर नामका महान् दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालोंकी सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके हृदयमें जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवनकी रक्षा करनेके लिये चिन्तित रहा करते थे और इस बातकी बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकारसे इसकी मृत्युका अवसर आ जाय॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तेषां गोपानां भगवता सह सुखेन क्रीडनस्य वीक्षणेऽक्षमः क्षमारहितः यदन्तं यस्याधासुरस्यान्तः मरणं अन्तःकरणेन ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखानघासुरः
कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयो-
र्द्वयोर्ममैनं सबलं हनिष्ये॥
मूलम्
दृष्ट्वार्भकान् कृष्णमुखानघासुरः
कंसानुशिष्टः स बकीबकानुजः।
अयं तु मे सोदरनाशकृत्तयो-
र्द्वयोर्ममैनं सबलं हनिष्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
अघासुर पूतना और बकासुरका छोटा भाई तथा कंसका भेजा हुआ था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालोंको देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिनको मारनेवाला है। इसलिये आज मैं इन ग्वालबालोंके साथ इसे मार डालूँगा॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मम तयोर्द्वयोर्बकीबकयोः अर्थे इति शेषः । सबलं वत्सबालसहितबलदेवस्य तद्दिने वनमध्ये अगमनात् ॥ १४-१६ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापः
कृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते॥
मूलम्
एते यदा मत्सुहृदोस्तिलापः
कृतास्तदा नष्टसमा व्रजौकसः।
प्राणे गते वर्ष्मसु का नु चिन्ता
प्रजासवः प्राणभृतो हि ये ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ये सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनोंके मृततर्पणकी तिलांजलि बन जायँगे, तब व्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियोंके प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्युसे व्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति व्यवस्याजगरं बृहद् वपुः
स योजनायाममहाद्रिपीवरम्।
धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुहाननं तदा
पथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः॥
मूलम्
इति व्यवस्याजगरं बृहद् वपुः
स योजनायाममहाद्रिपीवरम्।
धृत्वाद्भुतं व्यात्तगुहाननं तदा
पथि व्यशेत ग्रसनाशया खलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगरका रूप धारण कर मार्गमें लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वतके समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकोंको निगल जानेकी थी, इसलिये उसने गुफाके समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो गिरिशृङ्गदंष्ट्रः।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः॥
मूलम्
धराधरोष्ठो जलदोत्तरोष्ठो
दर्याननान्तो गिरिशृङ्गदंष्ट्रः।
ध्वान्तान्तरास्यो वितताध्वजिह्वः
परुषानिलश्वासदवेक्षणोष्णः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका नीचेका होठ पृथ्वीसे और ऊपरका होठ बादलोंसे लग रहा था। उसके जबड़े कन्दराओंके समान थे और दाढ़ें पर्वतके शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँहके भीतर घोर अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। साँस आँधीके समान थी और आँखें दावानलके समान दहक रही थीं॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रुषा क्रोधेन अनिल इव श्वासः दवौ इव ईक्षणौ चोष्णे यस्य सः ॥ १७ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम्।
व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया॥
मूलम्
दृष्ट्वा तं तादृशं सर्वे मत्वा वृन्दावनश्रियम्।
व्यात्ताजगरतुण्डेन ह्युत्प्रेक्षन्ते स्म लीलया॥
अनुवाद (हिन्दी)
अघासुरका ऐसा रूप देखकर बालकोंने समझा कि यह भी वृन्दावनकी कोई शोभा है। वे कौतुकवश खेल-ही-खेलमें उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगरका खुला हुआ मुँह है॥ १८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृन्दावनशोभां तद्विशिष्टं कुजं मत्वा इत्यपह्नुतिः व्यात्ता जगरतुण्डेन दृष्टान्तेन उत्प्रेक्षन्ते उत्प्रेक्षीकुर्वन्ति लीलया कौतुकेनेत्यर्थः ॥ १८ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम्।
अस्मत्संग्रसनव्यात्तव्यालतुण्डायते न वा॥
मूलम्
अहो मित्राणि गदत सत्त्वकूटं पुरः स्थितम्।
अस्मत्संग्रसनव्यात्तव्यालतुण्डायते न वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई कहता—‘मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलनेके लिये खुले हुए किसी अजगरके मुँह-जैसा नहीं है?’॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सत्त्वकूटम् अस्मत्सङ्ग्रसनाय व्यात्तं प्रसारितं यद्वद्यालतुण्डं तद्वदाचरति नचेति गदत कथयत उपमासंशयश्च ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद् घनम्।
अधराहनुवद् रोधस्तत्प्रतिच्छाययारुणम्॥
मूलम्
सत्यमर्ककरारक्तमुत्तराहनुवद् घनम्।
अधराहनुवद् रोधस्तत्प्रतिच्छाययारुणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरेने कहा—‘सचमुच सूर्यकी किरणें पड़नेसे ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो ठीक-ठीक इसका ऊपरी होठ ही हो। और उन्हीं बादलोंकी परछाईंसे यह जो नीचेकी भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचेका होठ जान पड़ता है’॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अर्ककरैः आरक्तं घनं मेघं उत्तरा-हनुवत् उत्तरोष्ठवत् तत्प्रतिच्छायया उत्तरोष्ठायमानघनप्रतिबिम्बेनारुणं रोधः अधराहनुवत् अधरोष्ठवत् वर्त्तते तद्द्वयं सत्यं वा नवेति गदत इत्यन्वयः । हनुशब्दस्य स्त्रीत्वमार्षम् उपमा हेतुसंसृष्टिः ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे।
तुङ्गशृङ्गालयोऽप्येतास्तद्दंष्ट्राभिश्च पश्यत॥
मूलम्
प्रतिस्पर्धेते सृक्किभ्यां सव्यासव्ये नगोदरे।
तुङ्गशृङ्गालयोऽप्येतास्तद्दंष्ट्राभिश्च पश्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीसरे ग्वालबालने कहा—‘हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओरकी गिरि-कन्दराएँ अजगरके जबड़ोंकी होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर-पंक्तियाँ तो साफ-साफ इसकी दाढ़ें मालूम पड़ती हैं’॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वामदक्षिणे पर्वतमध्ये सृक्किभ्याम् ओष्ठप्रान्ताभ्यां प्रतिस्पर्द्धते इति पश्यत तुङ्गा उच्चा शृङ्गपङ्क्तयः तद्दंष्ट्राभिः सर्पदंष्ट्राभिः प्रतिस्पर्द्धन्त इति पश्यत ॥ २१ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्तृतायाममार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति।
एषामन्तर्गतं ध्वान्तमेतदप्यन्तराननम्॥
मूलम्
आस्तृतायाममार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति।
एषामन्तर्गतं ध्वान्तमेतदप्यन्तराननम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चौथेने कहा—‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगरकी जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरिशृंगोंके बीचका अन्धकार तो उसके मुँहके भीतरी भागको भी मात करता है’॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मार्गोऽयं रसनां प्रतिगर्जति रसनां व्यपदिशति अन्तर्गतध्वान्तम् एषामिति मुखरसनादीनाम् एतत्पुरोवर्त्ति अपह्नुत्युपमे ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद् भाति पश्यत।
तद्दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽप्यन्तरामिषगन्धवत्॥
मूलम्
दावोष्णखरवातोऽयं श्वासवद् भाति पश्यत।
तद्दग्धसत्त्वदुर्गन्धोऽप्यन्तरामिषगन्धवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी दूसरे ग्वालबालने कहा—‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगलमें आग लगी है। इसीसे यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगरकी साँसके साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है। और उसी आगसे जले हुए प्राणियोंकी दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है, मानो अजगरके पेटमें मरे हुए जीवोंके मांसकी ही दुर्गन्ध हो’॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दावोष्णेति अत्रोपमैवाह्नुत्युत्तरा स्पष्टम् अहो मित्राणि इत्यादि पञ्चसु अपह्नुतिप्राणिते उत्प्रेक्षोपमे ज्ञेये सत्यं किम् एवमादिभिः ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मान् किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद् बकवद् विनङ्क्ष्यति।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः॥
मूलम्
अस्मान् किमत्र ग्रसिता निविष्टा-
नयं तथा चेद् बकवद् विनङ्क्ष्यति।
क्षणादनेनेति बकार्युशन्मुखं
वीक्ष्योद्धसन्तः करताडनैर्ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्हींमेंसे एकने कहा—‘यदि हमलोग इसके मुँहमें घुस जायँ, तो क्या यह हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करनेकी ढिठाई की तो एक क्षणमें यह भी बकासुरके समान नष्ट हो जायगा। हमारा यह कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुरको मारनेवाले श्रीकृष्णका सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुरके मुँहमें घुस गये॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
बकारेः श्रीकृष्णस्य उशत् कमनीयम् ॥ २४-२५ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं मिथोऽतथ्यमतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते।
रक्षो विदित्वाखिलभूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे॥
मूलम्
इत्थं मिथोऽतथ्यमतज्ज्ञभाषितं
श्रुत्वा विचिन्त्येत्यमृषा मृषायते।
रक्षो विदित्वाखिलभूतहृत्स्थितः
स्वानां निरोद्धुं भगवान् मनो दधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अनजान बच्चोंकी आपसमें की हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियोंके हृदयमें ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अपने सखा ग्वालबालोंको उसके मुँहमें जानेसे बचा लें॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत् प्रविष्टास्त्वसुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा॥
मूलम्
तावत् प्रविष्टास्त्वसुरोदरान्तरं
परं न गीर्णाः शिशवः सवत्साः।
प्रतीक्षमाणेन बकारिवेशनं
हतस्वकान्तस्मरणेन रक्षसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ोंके साथ उस असुरके पेटमें चले गये। परन्तु अघासुरने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण यह था कि अघासुर अपने भाई बकासुर और बहिन पूतनाके वधकी याद करके इस बातकी बाट देख रहा था कि उनको मारनेवाले श्रीकृष्ण मुँहमें आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रीकृष्णप्रवेशं प्रतीक्षमाणेन तत्र हेतुः हतानां स्वकानां पूतनादीनाम् अन्तः अन्तःकरणे स्मरणं यस्येति ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान्।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः॥
मूलम्
तान् वीक्ष्य कृष्णः सकलाभयप्रदो
ह्यनन्यनाथान् स्वकरादवच्युतान्।
दीनांश्च मृत्योर्जठराग्निघासान्
घृणार्दितो दिष्टकृतेन विस्मितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण सबको अभय देनेवाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल— जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ—मेरे हाथसे निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आगमें गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्युरूप अघासुरकी जठराग्निके ग्रास बन गये, तब दैवकी इस विचित्र लीलापर भगवान्को बड़ा विस्मय हुआ और उनका हृदय दयासे द्रवित हो गया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम्।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य त-
ज्ज्ञात्वाविशत्तुण्डमशेषदृग्घरिः॥
मूलम्
कृत्यं किमत्रास्य खलस्य जीवनं
न वा अमीषां च सतां विहिंसनम्।
द्वयं कथं स्यादिति संविचिन्त्य त-
ज्ज्ञात्वाविशत्तुण्डमशेषदृग्घरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्टकी मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकोंकी हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं?’ परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान—सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उनके लिये यह उपाय जानना कोई कठिन न था। वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँहमें घुस गये॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दिष्टं दैवं वत्सबालाद्यानां परस्परं मार्यमारकत्वप्रयोजकेन स्वसङ्कल्परूपेण देवेन तत्कर्मणा यत्कृतं तेन विस्मितम् अनेन पूर्वकर्मानुगुणजातभगवत्सङ्कल्पानां साम्प्रतिकतत्तत्कर्मानुगुणसङ्कल्पानाञ्च श्रीभगवदेकत्वमुक्तम् ॥ २७-२८ ॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशुः।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघबान्धवाः॥
मूलम्
तदा घनच्छदा देवा भयाद्धाहेति चुक्रुशुः।
जहृषुर्ये च कंसाद्याः कौणपास्त्वघबान्धवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय बादलोंमें छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुरके हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कंस आदिर्येषां ते अतद्गुणसंविज्ञानः । नतु कंस इति कौणपा दैत्याः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम्।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा भगवान् कृष्णस्त्वव्ययः सार्भवत्सकम्।
चूर्णीचिकीर्षोरात्मानं तरसा ववृधे गले॥
अनुवाद (हिन्दी)
अघासुर बछड़ों और ग्वालबालोंके सहित भगवान् श्रीकृष्णको अपनी डाढ़ोंसे चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्णने देवताओंकी ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गलेमें अपने शरीरको बड़ी फुर्तीसे बढ़ा लिया॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
गले ववृधे इत्यनेन पापमारणार्थं श्रीकृष्णवृद्ध्या स्वमूर्तिभूतश्रीप्रणवादिनाम-मन्त्रोच्चारणेनाघमरणं व्यज्यते ॥ ३०-३१ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्गीर्णदृष्टेर्भ्रमतस्त्वितस्ततः।
पूर्णोऽन्तरङ्गे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः॥
मूलम्
ततोऽतिकायस्य निरुद्धमार्गिणो
ह्युद्गीर्णदृष्टेर्भ्रमतस्त्वितस्ततः।
पूर्णोऽन्तरङ्गे पवनो निरुद्धो
मूर्धन् विनिष्पाट्य विनिर्गतो बहिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान्ने अपने शरीरको इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला ही रुँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। साँस रुककर सारे शरीरमें भर गयी और अन्तमें उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान्।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुन-
र्वक्त्रान्मुकुन्दो भगवान् विनिर्ययौ॥
मूलम्
तेनैव सर्वेषु बहिर्गतेषु
प्राणेषु वत्सान् सुहृदः परेतान्।
दृष्ट्या स्वयोत्थाप्य तदन्वितः पुन-
र्वक्त्रान्मुकुन्दो भगवान् विनिर्ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी मार्गसे प्राणोंके साथ उसकी सारी इन्द्रियाँ भी शरीरसे बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान् मुकुन्दने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालोंको जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुरके मुँहसे बाहर निकल आये॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वकृपाकटाक्षेण स्वभक्तानां जीवयितृत्वं श्रीभगवतो गुणमाह - तेनैवेति । अत्राघस्यापि मुक्तिदानेन मुकुन्दः अतो विचित्रैश्वर्यवानिति भगवत्पदव्यङ्ग्यम् ॥ ३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं मह-
ज्ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद् दिशो दश।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम्॥
मूलम्
पीनाहिभोगोत्थितमद्भुतं मह-
ज्ज्योतिः स्वधाम्ना ज्वलयद् दिशो दश।
प्रतीक्ष्य खेऽवस्थितमीशनिर्गमं
विवेश तस्मिन् मिषतां दिवौकसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अजगरके स्थूल शरीरसे एक अत्यन्त अद्भुत और महान् ज्योति निकली, उस समय उस ज्योतिके प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देरतक तो आकाशमें स्थित होकर भगवान्के निकलनेकी प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओंके देखते-देखते उन्हींमें समा गयी॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अत्र देवसाक्षिकोऽघस्य तस्मिन् प्रवेश उक्तः अनेन न तत्सेविनाम् अघप्रतिशङ्केति व्यज्यते तथापि न निश्शङ्क: भगवद्भक्तैर्भाव्यम् ॥ ३३ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुरा अप्सरसश्च नर्तनैः।
गीतैः सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः॥
मूलम्
ततोऽतिहृष्टाः स्वकृतोऽकृतार्हणं
पुष्पैः सुरा अप्सरसश्च नर्तनैः।
गीतैः सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकैः
स्तवैश्च विप्रा जयनिःस्वनैर्गणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवताओंने फूल बरसाकर, अप्सराओंने नाचकर, गन्धर्वोंने गाकर, विद्याधरोंने बाजे बजाकर, ब्राह्मणोंने स्तुति-पाठकर और पार्षदोंने जय-जयकारके नारे लगाकर बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णका अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णने अघासुरको मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वहितमिति शेषः । स्वहितकृत इत्यर्थः । अकृत अकुर्वत इत्यन्वयः ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका-
जयादिनैकोत्सवमङ्गलस्वनान्।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिराद्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम्॥
मूलम्
तदद्भुतस्तोत्रसुवाद्यगीतिका-
जयादिनैकोत्सवमङ्गलस्वनान्।
श्रुत्वा स्वधाम्नोऽन्त्यज आगतोऽचिराद्
दृष्ट्वा महीशस्य जगाम विस्मयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवोंकी मंगलध्वनि ब्रह्मलोकके पास पहुँच गयी। जब ब्रह्माजीने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहनपर चढ़कर वहाँ आये और भगवान् श्रीकृष्णकी यह महिमा देखकर आश्चर्य चकित हो गये॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वधाम्नः अन्ति निकटे ईशस्य महि माहात्म्यम् अजो ब्रह्मा ॥ ३५ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन्नाजगरं चर्म शुष्कं वृन्दावनेऽद्भुतम्।
व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगह्वरम्॥
मूलम्
राजन्नाजगरं चर्म शुष्कं वृन्दावनेऽद्भुतम्।
व्रजौकसां बहुतिथं बभूवाक्रीडगह्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब वृन्दावनमें अजगरका वह चाम सूख गया, तब वह व्रजवासियोंके लिये बहुत दिनोंतक खेलनेकी एक अद्भुत गुफा-सी बना रहा॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शुष्कं सम्वत्सरानन्तरम् आक्रीडगह्वरं बभूव अक्षिनिमीलनान्तर्धानाख्यक्रीडागह्वरं दर्शयंश्चर्माजगरम् इति सम्वत्सरानन्तरं स्ववचनात् ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम्।
मृत्योः पौगण्डके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे॥
मूलम्
एतत् कौमारजं कर्म हरेरात्माहिमोक्षणम्।
मृत्योः पौगण्डके बाला दृष्ट्वोचुर्विस्मिता व्रजे॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जो भगवान्ने अपने ग्वालबालोंको मृत्युके मुखसे बचाया था और अघासुरको मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान्ने अपनी कुमार अवस्थामें अर्थात् पाँचवें वर्षमें ही की थी। ग्वालबालोंने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु पौगण्ड अवस्था अर्थात् छठे वर्षमें अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर व्रजमें उसका वर्णन किया॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृत्योः प्राणा वियोगात् संसाराच्च आत्मनां अहेरघस्य मोक्षणम् अस्य हरेः कर्म कौमारजम् एतद्दृष्ट्वा ते च गोपाः विस्मिताः सन्तो ऽस्य पौगण्डके सम्वत्सरानन्तरम् ऊचुः इत्यन्वयः ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतद् विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम्॥
मूलम्
नैतद् विचित्रं मनुजार्भमायिनः
परावराणां परमस्य वेधसः।
अघोऽपि यत्स्पर्शनधौतपातकः
प्रापात्मसाम्यं त्वसतां सुदुर्लभम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अघासुर मूर्तिमान् अघ (पाप) ही था। भगवान्के स्पर्शमात्रसे उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारूप्य-मुक्तिकी प्राप्ति हुई, जो पापियोंको कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि मनुष्य-बालककी-सी लीला रचनेवाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारणरूप समस्त जगत्के एकमात्र विधाता हैं॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परावराणां बद्धमुक्तजीवानां परमस्य वेवसः असहायस्य स्रष्टुः “बन्धको भवपाशेन भवपाशाच्च मोचकः" इत्यादिवाक्यात् मनुजार्भमायिनः मनुष्यबालकत्वेच्छावतः यत्स्पर्शनेन धूतपातकः आत्मसात्म्यं सायुज्यम् आत्मना परमात्मना समानात्मतत्त्वम् एतद्विगतचित्रं न किन्त्वाश्चर्यमेवेति ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृद् यदङ्गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम्।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि-
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः॥
मूलम्
सकृद् यदङ्गप्रतिमान्तराहिता
मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम्।
स एव नित्यात्मसुखानुभूत्यभि-
व्युदस्तमायोऽन्तर्गतो हि किं पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णके किसी एक अंगकी भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यानके द्वारा एक बार भी हृदयमें बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती है, जो भगवान्के बड़े-बड़े भक्तोंको मिलती है। भगवान् आत्मानन्दके नित्य साक्षात्कारस्वरूप हैं। माया उनके पासतक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुरके शरीरमें प्रवेश कर गये। क्या अब भी उसकी सद्गतिके विषयमें कोई सन्देह है?॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तदेवाह - अङ्ग ! प्रतिमार्चामूर्तिः “मनामयी तां ध्यायेत्” इत्यादि प्रामाण्यात् भागवतीं गतिं ददातीत्यर्थः । स एव यस्य मूर्तिः स कृष्ण एव साक्षाद्यद्यन्तः प्रविशेत्तर्हि किं पुनर्वक्तव्यम् इति तात्पर्यम् सरोमाञ्चमुक्तम् ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्।
पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः॥
मूलम्
इत्थं द्विजा यादवदेवदत्तः
श्रुत्वा स्वरातुश्चरितं विचित्रम्।
पप्रच्छ भूयोऽपि तदेव पुण्यं
वैयासकिं यन्निगृहीतचेताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! यदुवंश-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने ही राजा परीक्षित् को जीवन दान दिया था। उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवन सर्वस्वका यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्रीशुकदेवजी महाराजसे उन्हींकी पवित्र लीलाके सम्बन्धमें प्रश्न किया। इसका कारण यह था कि भगवान्की अमृतमयी लीलाने परीक्षित् के चित्तको अपने वशमें कर रखा था॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यादवदेवदत्तः श्रीकृष्णेन दत्तजीवितः विष्णुरातः इति सम्बन्धः येनैव गृहीतं निष्ठं कृतं " यमेवैष वृणुते’ इत्यादेः ॥ ४० ॥
श्लोक-४१
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन् कालान्तरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत्।
यत् कौमारे हरिकृतं जगुः पौगण्डकेऽर्भकाः॥
मूलम्
ब्रह्मन् कालान्तरकृतं तत्कालीनं कथं भवेत्।
यत् कौमारे हरिकृतं जगुः पौगण्डकेऽर्भकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! आपने कहा था कि ग्वालबालोंने भगवान्की की हुई पाँचवें वर्षकी लीला व्रजमें छठे वर्षमें जाकर कही। अब इस विषयमें आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समयकी लीला दूसरे समयमें वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है?॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कौमारे हरिकृतं कालान्तरकृतं कथं तत्कालीनं भवेत्तच्च अर्भकाः पौगण्डके तत्कालीनमिव कथं जगुरित्यन्वयः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं गुरो।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा॥
मूलम्
तद् ब्रूहि मे महायोगिन् परं कौतूहलं गुरो।
नूनमेतद्धरेरेव माया भवति नान्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
महायोगी गुरुदेव! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्यको जाननेके लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप कृपा करके बतलाइये। अवश्य ही इसमें भगवान् श्रीकृष्णकी विचित्र घटनाओंको घटित करनेवाली मायाका कुछ-न-कुछ काम होगा। क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रीहरेः माया सङ्कल्परूपं ज्ञानं क्रीडेच्छेति यावत् अन्यथा नेति मम भासते इति प्रश्नः ॥ ४२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रबन्धवः।
यत् पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम्॥
मूलम्
वयं धन्यतमा लोके गुरोऽपि क्षत्रबन्धवः।
यत् पिबामो मुहुस्त्वत्तः पुण्यं कृष्णकथामृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुदेव! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मणसेवासे विमुख होनेके कारण मैं अपराधी नाममात्रका क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्दसे निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्णलीलामृतका बार-बार पान कर रहे हैं॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पिबामः सादरं शृणुमः ॥ ४३ ॥
श्लोक-४४
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणि-
स्तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः।
कृच्छ्रात् पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम॥
मूलम्
इत्थं स्म पृष्टः स तु बादरायणि-
स्तत्स्मारितानन्तहृताखिलेन्द्रियः।
कृच्छ्रात् पुनर्लब्धबहिर्दृशिः शनैः
प्रत्याह तं भागवतोत्तमोत्तम॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—भगवान्के परम प्रेमी भक्तोंमें श्रेष्ठ शौनकजी! जब राजा परीक्षित् ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्रीशुकदेवजीको भगवान्की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण विवश होकर भगवान्की नित्यलीलामें खिंच गये। कुछ समयके बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्टसे उन्हें बाह्यज्ञान हुआ। तब वे परीक्षित् से भगवान्की लीलाका वर्णन करने लगे॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तत्स्मारितः परीक्षित्प्रश्नेन स्मारितो योऽनन्तगुणविशिष्टोऽनन्तः कृष्णः तेन हृतमखिलेन्द्रियं मनो यस्य सः ततः मनसो लये सति पुनः कृच्छ्राल्लब्धबहिर्ज्ञानः सन् शनैः तं प्रणम्याह- भागवताः कीर्त्तनादिनिष्ठाः तेषूत्तमाः श्रवणनिष्ठत्वात् श्रवणेऽज्ञतया प्रश्नादि- करणेऽहन्तानिवृत्तिः श्रीभगवच्छ्रवणस्यैव ममता विषयतया आत्मीये ममतानिवृत्तिः एवं विरोधिनिवृत्तौ सति अनन्तराङ्गानाम् अपि श्रवणे एवान्तर्भावः सुधीभिरनुभाव्यः स्मृतिसन्ततेरेव भाष्यकारैर्भक्तिरूपत्वप्रख्यापनात् इतिभावः ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्वादशोऽध्यायः ।। ११ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वादशोऽध्यायः॥ १२॥