१० नारदशापः

[दशमोऽध्यायः]

भागसूचना

यमार्जुनका उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथ्यतां भगवन्नेतत्तयोः शापस्य कारणम्।
यत्तद् विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः॥

मूलम्

कथ्यतां भगवन्नेतत्तयोः शापस्य कारणम्।
यत्तद् विगर्हितं कर्म येन वा देवर्षेस्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीवको शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारदजीको भी क्रोध आ गया?॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तमः कोपहेतुरज्ञानम् ॥ १-४ ॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ।
कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ॥

मूलम्

रुद्रस्यानुचरौ भूत्वा सुदृप्तौ धनदात्मजौ।
कैलासोपवने रम्ये मन्दाकिन्यां मदोत्कटौ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ।
स्त्रीजनैरनुगायद‍्भिश्चेरतुः पुष्पिते वने॥

मूलम्

वारुणीं मदिरां पीत्वा मदाघूर्णितलोचनौ।
स्त्रीजनैरनुगायद‍्भिश्चेरतुः पुष्पिते वने॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेरके लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्रभगवान‍्के अनुचरोंमें। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनीके तटपर कैलासके रमणीय उपवनमें वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशेके कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रही थीं और वे पुष्पोंसे लदे हुए वनमें उनके साथ विहार कर रहे थे॥ २-३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तः प्रविश्य गङ्गायामम्भोजवनराजिनि।
चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभिः॥

मूलम्

अन्तः प्रविश्य गङ्गायामम्भोजवनराजिनि।
चिक्रीडतुर्युवतिभिर्गजाविव करेणुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय गंगाजीमें पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियोंके साथ जलके भीतर घुस गये और जैसे हाथियोंका जोड़ा हथिनियोंके साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियोंके साथ तरह-तरहकी क्रीडा करने लगे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव।
अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत॥

मूलम्

यदृच्छया च देवर्षिर्भगवांस्तत्र कौरव।
अपश्यन्नारदो देवौ क्षीबाणौ समबुध्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! संयोगवश उधरसे परम समर्थ देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकोंको देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

क्षीबाणौ मन्दान्धौ ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्किताः।
वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा व्रीडिता देव्यो विवस्त्राः शापशङ्किताः।
वासांसि पर्यधुः शीघ्रं विवस्त्रौ नैव गुह्यकौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदको देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शापके डरसे उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षोंने कपड़े नहीं पहने॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पर्यधुः परिहितवत्यः ॥ ६-७ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ॥

मूलम्

तौ दृष्ट्वा मदिरामत्तौ श्रीमदान्धौ सुरात्मजौ।
तयोरनुग्रहार्थाय शापं दास्यन्निदं जगौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवर्षि नारदजीने देखा कि ये देवताओंके पुत्र होकर श्रीमदसे अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उनपर अनुग्रह करनेके लिये शाप देते हुए यह कहा*—॥ ७॥

पादटिप्पनी
  • देवर्षि नारदके शाप देनेमें दो हेतु थे—एक तो अनुग्रह—उनके मदका नाश करना और दूसरा अर्थ—श्रीकृष्ण-प्राप्ति।
    ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिकालदर्शी देवर्षि नारदने अपनी ज्ञानदृष्टिसे यह जान लिया कि इनपर भगवान‍्का अनुग्रह होनेवाला है। इसीसे उन्हें भगवान‍्का भावी कृपापात्र समझकर ही उनके साथ छेड़-छाड़ की।

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः।
श्रीमदादाभिजात्यादिर्यत्र स्त्री द्यूतमासवः॥

मूलम्

न ह्यन्यो जुषतो जोष्यान्बुद्धिभ्रंशो रजोगुणः।
श्रीमदादाभिजात्यादिर्यत्र स्त्री द्यूतमासवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा—जो लोग अपने प्रिय विषयोंका सेवन करते हैं, उनकी बुद्धिको सबसे बढ़कर नष्ट करनेवाला है श्रीमद—धन-सम्पत्तिका नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदिका अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमदके साथ-साथ तो स्त्री, जूआ और मदिरा भी रहती है॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जोध्यान् सेव्यान् विषयान् आभिजात्यादेः आदिशब्दो धनपरः बुद्धिभ्रंशः भ्रंशकरः रजोगुण इत्युपचारः रजोगुणवर्धकः यत्र श्रीमदे मुख्ये सति स्त्रीद्यूतमधूनि भवन्ति तस्मादन्यो नेत्यन्वयः ॥ ८-९ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैरजितात्मभिः।
मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम्॥

मूलम्

हन्यन्ते पशवो यत्र निर्दयैरजितात्मभिः।
मन्यमानैरिमं देहमजरामृत्यु नश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐश्वर्यमद और श्रीमदसे अंधे होकर अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान् शरीरको तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीरवाले पशुओंकी हत्या करते हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम्।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥

मूलम्

देवसंज्ञितमप्यन्ते कृमिविड्भस्मसंज्ञितम्।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस शरीरको ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामोंसे पुकारते हैं—उसकी अन्तमें क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राखका ढेर बन जायगा। उसी शरीरके लिये प्राणियोंसे द्रोह करनेमें मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करनेसे तो उसे नरककी ही प्राप्ति होगी॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अदग्धाऽभक्षितस्य, श्वादिभिर्भक्षितस्य दग्धस्य च देहस्य कृमिविड्भस्मावस्थाः भवन्ति भूतध्रुक् भूतद्रोही यतो द्रोहात् ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च।
मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा॥

मूलम्

देहः किमन्नदातुः स्वं निषेक्तुर्मातुरेव च।
मातुः पितुर्वा बलिनः क्रेतुरग्नेः शुनोऽपि वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालनेवालेकी है या गर्भाधान करानेवाले पिताकी? यह शरीर उसे नौ महीने पेटमें रखनेवाली माताका है अथवा माताको भी पैदा करनेवाले नानाका? जो बलवान् पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेनेवालेका? चिताकी जिस धधकती आगमें यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार इसको चीथ-चीथकर खा जानेकी आशा लगाये बैठे हैं, उनका?॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निषेक्तुर्गभाऽऽधातुः क्रेतुः द्रव्यप्रदानेन स्वीकर्तुः बलिनः बलात् गृहीतुः ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम्।
को विद्वानात्मसात् कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः॥

मूलम्

एवं साधारणं देहमव्यक्तप्रभवाप्ययम्।
को विद्वानात्मसात् कृत्वा हन्ति जन्तूनृतेऽसतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृतिसे पैदा होता है और उसीमें समा जाता है। ऐसी स्थितिमें मूर्ख पशुओंके सिवा और ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो इसको अपना आत्मा मानकर दूसरोंको कष्ट पहुँचायेगा, उनके प्राण लेगा॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ऋतेऽसतः असता विना ॥ १२-१३ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम्।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते॥

मूलम्

असतः श्रीमदान्धस्य दारिद्र्यं परमञ्जनम्।
आत्मौपम्येन भूतानि दरिद्रः परमीक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दुष्ट श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखोंमें ज्योति डालनेके लिये दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा कण्टकविद्धाङ्गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम्।
जीवसाम्यं गतो लिङ्गैर्न तथाविद्धकण्टकः॥

मूलम्

यथा कण्टकविद्धाङ्गो जन्तोर्नेच्छति तां व्यथाम्।
जीवसाम्यं गतो लिङ्गैर्न तथाविद्धकण्टकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके शरीरमें एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणीको काँटा गड़नेकी पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होनेवाले विकारोंसे वह समझता है कि दूसरेको भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ाका अनुमान नहीं कर सकता॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

लिङ्गैर्हेतुभिर्जीवसाम्यं गतः इति जीवानां स्वस्य च तुल्यतां मन्वानः अविद्वकण्टक इति पद कण्टकाविद्धः ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह।
कृच्छ्रं यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः॥

मूलम्

दरिद्रो निरहंस्तम्भो मुक्तः सर्वमदैरिह।
कृच्छ्रं यदृच्छयाऽऽप्नोति तद्धि तस्य परं तपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दरिद्रमें घमंड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरहके मदोंसे बचा रहता है। बल्कि दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिये एक बहुत बड़ी तपस्या भी है॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निरहंस्तम्भः अहङ्कारस्तम्भरहितः ।। १५-१६ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्क्षिणः।
इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते॥

मूलम्

नित्यं क्षुत्क्षामदेहस्य दरिद्रस्यान्नकाङ्क्षिणः।
इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति हिंसापि विनिवर्तते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे प्रतिदिन भोजनके लिये अन्न जुटाना पड़ता है, भूखसे जिसका शरीर दुबला-पतला होगया है, उस दरिद्रकी इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगोंके लिये दूसरे प्राणियोंको सताता नहीं—उनकी हिंसा नहीं करता॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरिद्रस्यैव युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः।
सद‍्भिः क्षिणोति तं तर्षं तत आराद् विशुद्ध्यति॥

मूलम्

दरिद्रस्यैव युज्यन्ते साधवः समदर्शिनः।
सद‍्भिः क्षिणोति तं तर्षं तत आराद् विशुद्ध्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्रके लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहलेसे ही छूटे हुए हैं। अब संतोंके संगसे उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है*॥ १७॥

पादटिप्पनी
  • धनी पुरुषमें तीन दोष होते हैं—धन, धनका अभिमान और धनकी तृष्णा। दरिद्र पुरुषमें पहले दो नहीं होते, केवल तीसरा ही दोष रहता है। इसलिये सत्पुरुषोंके संगसे धनकी तृष्णा मिट जानेपर धनियोंकी अपेक्षा उसका शीघ्र कल्याण हो जाता है।
श्रीसुदर्शनसूरिः

युज्यन्ते सम्भाषणादियोग्याः तर्ष तृष्णाम् आरात्समीपे आसन्नमपि तमो विशुद्ध्यति निरस्यतीत्यर्थः ॥ १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम्।
उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैरसद्भिरसदाश्रयैः॥

मूलम्

साधूनां समचित्तानां मुकुन्दचरणैषिणाम्।
उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैरसद्भिरसदाश्रयैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन महात्माओंके चित्तमें सबके लिये समता है, जो केवल भगवान‍्के चरणारविन्दोंका मकरन्द-रस पीनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणोंके खजाने अथवा दुराचारियोंकी जीविका चलानेवाले और धनके मदसे मतवाले दुष्टोंकी क्या आवश्यकता है? वे तो उनकी उपेक्षाके ही पात्र हैं*॥ १८॥

पादटिप्पनी
  • धन स्वयं एक दोष है। सातवें स्कन्धमें कहा है कि जितनेसे पेट भर जाय, उससे अधिकको अपना माननेवाला चोर है और दण्डका पात्र है—‘स स्तेनो दण्डमर्हति।’ भगवान् भी कहते हैं—जिसपर मैं अनुग्रह करता हूँ, उसका धन छीन लेता हूँ। इसीसे सत्पुरुष प्रायः धनियोंकी उपेक्षा करते हैं।
श्रीसुदर्शनसूरिः

उपेक्ष्यैः किं धनस्तम्भैः स्तम्भहेतुभिर्धनैः किम् ? ॥ १८-२० ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनोः॥

मूलम्

तदहं मत्तयोर्माध्व्या वारुण्या श्रीमदान्धयोः।
तमोमदं हरिष्यामि स्त्रैणयोरजितात्मनोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दोनों यक्ष वारुणी मदिराका पान करके मतवाले और श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियोंके अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षोंका अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ।
न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ॥

मूलम्

यदिमौ लोकपालस्य पुत्रौ भूत्वा तमःप्लुतौ।
न विवाससमात्मानं विजानीतः सुदुर्मदौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेरके पुत्र होनेपर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बातका भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धड़ंग हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः।
स्मृतिः स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात्॥

मूलम्

अतोऽर्हतः स्थावरतां स्यातां नैवं यथा पुनः।
स्मृतिः स्यान्मत्प्रसादेन तत्रापि मदनुग्रहात्॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्थावरतामर्हतः “विवासस्त्वं स्थावरस्य हि युज्यते इत्यभिप्रायः ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते।
वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः॥

मूलम्

वासुदेवस्य सान्निध्यं लब्ध्वा दिव्यशरच्छते।
वृत्ते स्वर्लोकतां भूयो लब्धभक्ती भविष्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये ये दोनों अब वृक्षयोनिमें जानेके योग्य हैं। ऐसा होनेसे इन्हें फिर इस प्रकारका अभिमान न होगा। वृक्षयोनिमें जानेपर भी मेरी कृपासे इन्हें भगवान‍्की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रहसे देवताओंके सौ वर्ष बीतनेपर इन्हें भगवान् श्रीकृष्णका सान्निध्य प्राप्त होगा; और फिर भगवान‍्के चरणोंमें परमप्रेम प्राप्त करके ये अपने लोकमें चले आयेंगे॥ २१-२२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वृत्तं अतीते स्वर्लोकतां स्वर्देवलोकयोग्यताम् ॥ २२-२४ ॥

श्लोक-२३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा स देवर्षिर्गतो नारायणाश्रमम्।
नलकूबरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनौ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा स देवर्षिर्गतो नारायणाश्रमम्।
नलकूबरमणिग्रीवावासतुर्यमलार्जुनौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवर्षि नारद इस प्रकार कहकर भगवान् नर-नारायणके आश्रमपर चले गये*। नलकूबर और मणिग्रीव—ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध हुए॥ २३॥

पादटिप्पनी
  • १. शाप वरदानसे तपस्या क्षीण होती है। नलकूबर-मणिग्रीवको शाप देनेके पश्चात् नर-नारायण-आश्रमकी यात्रा करनेका यह अभिप्राय है कि फिरसे तपःसंचय कर लिया जाय।
    २. मैंने यक्षोंपर जो अनुग्रह किया है, वह बिना तपस्याके पूर्ण नहीं हो सकता है, इसलिये।
    ३. अपने आराध्यदेव एवं गुरुदेव नारायणके सम्मुख अपना कृत्य निवेदन करनेके लिये।

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः।
जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ॥

मूलम्

ऋषेर्भागवतमुख्यस्य सत्यं कर्तुं वचो हरिः।
जगाम शनकैस्तत्र यत्रास्तां यमलार्जुनौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीकी बात सत्य करनेके लिये धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिर्मे प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ।
तत्तथा साधयिष्यामि यद् गीतं तन्महात्मना॥

मूलम्

देवर्षिर्मे प्रियतमो यदिमौ धनदात्मजौ।
तत्तथा साधयिष्यामि यद् गीतं तन्महात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेरके लड़के हैं। इसलिये महात्मा नारदने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूपमें पूरा करूँगा’*॥ २५॥

पादटिप्पनी
  • भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कृपादृष्टिसे उन्हें मुक्त कर सकते थे। परन्तु वृक्षोंके पास जानेका कारण यह है कि देवर्षि नारदने कहा था कि तुम्हें वासुदेवका सान्निध्य प्राप्त होगा।
श्रीसुदर्शनसूरिः

इमौ धनदात्मजौ प्रति यत् तन्महर्षिणा गीतं तत्तथेत्यन्वयः ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यन्तरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम्॥

मूलम्

इत्यन्तरेणार्जुनयोः कृष्णस्तु यमयोर्ययौ।
आत्मनिर्वेशमात्रेण तिर्यग्गतमुलूखलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह विचार करके भगवान् श्रीकृष्ण दोनों वृक्षोंके बीचमें घुस गये*। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया॥ २६॥

पादटिप्पनी
  • वृक्षोंके बीचमें जानेका आशय यह है कि भगवान् जिसके अन्तर्देशमें प्रवेश करते हैं, उसके जीवनमें क्लेशका लेश भी नहीं रहता। भीतर प्रवेश किये बिना दोनोंका एक साथ उद्धार भी कैसे होता।
श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्तरे मध्यभागे उलूखलं तिर्यग्गतं यथा भवति तथा ययौ ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्
दामोदरेण तरसोत्कलिताङ्घ्रिबन्धौ।
निष्पेततुः परमविक्रमितातिवेप-
स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ॥

मूलम्

बालेन निष्कर्षयतान्वगुलूखलं तद्
दामोदरेण तरसोत्कलिताङ्घ्रिबन्धौ।
निष्पेततुः परमविक्रमितातिवेप-
स्कन्धप्रवालविटपौ कृतचण्डशब्दौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दामोदरभगवान् श्रीकृष्णकी कमरमें रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखलको ज्यों ही तनिक जोरसे खींचा, त्यों ही पेड़ोंकी सारी जड़ें उखड़ गयी*। समस्त बल-विक्रमके केन्द्र भगवान‍्का तनिक-सा जोर लगते ही पेड़ोंके तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ते काँप उठे और वे दोनों बड़े जोरसे तड़तड़ाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े॥ २७॥

पादटिप्पनी
  • जो भगवान‍्के गुण (भक्त-वत्सल्य आदि सद‍्गुण या रस्सी) से बँधा हुआ है, वह तिर्यक् गति (पशु-पक्षी या टेढ़ी चालवाला) ही क्यों न हो—दूसरोंका उद्धार कर सकता है।
    अपने अनुयायीके द्वारा किया हुआ काम जितना यशस्कर होता है, उतना अपने हाथसे नहीं। मानो यही सोचकर अपने पीछे-पीछे चलनेवाले ऊखलके द्वारा उनका उद्धार करवाया।
श्रीसुदर्शनसूरिः

उलूखलं निष्कर्षयता आकर्षयता दामोदरेण उत्कलिताङ्घ्रिबन्धौ उन्मूलितमूलभागौ पवनविक्रमितातिवेपादिति पवनतुल्यपराक्रमवशात् जातकम्पाः स्कन्धाः प्रवालानि ययोस्तौ तादृशस्कन्धान्मर्दयन्तावित्यर्थः ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली विरजसाविदमूचतुः स्म॥

मूलम्

तत्र श्रिया परमया ककुभः स्फुरन्तौ
सिद्धावुपेत्य कुजयोरिव जातवेदाः।
कृष्णं प्रणम्य शिरसाखिललोकनाथं
बद्धाञ्जली विरजसाविदमूचतुः स्म॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों वृक्षोंमेंसे अग्निके समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्यसे दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके पास आकर उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदयसे वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे—॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्फुरन्तौ स्फोरयन्तौ कुजयोः वृक्षयोः ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः॥

मूलम्

कृष्ण कृष्ण महायोगिंस्त्वमाद्यः पुरुषः परः।
व्यक्ताव्यक्तमिदं विश्वं रूपं ते ब्राह्मणा विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करनेवाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृतिसे अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत् आपका ही रूप है॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रूपं शरीरम् ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः॥

मूलम्

त्वमेकः सर्वभूतानां देहास्वात्मेन्द्रियेश्वरः।
त्वमेव कालो भगवान् विष्णुरव्यय ईश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही समस्त प्राणियोंके शरीर, प्राण, अन्तःकरण और इन्द्रियोंके स्वामी हैं। तथा आप ही सर्वशक्तिमान् काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देहीदेहान्तर्गतोऽस्मद्धृदयकमलस्थः परमात्मा त्वं जीवशरीरकोऽस्मदिन्द्रियेश्वरः इत्यन्वयः ॥ ३०-३१ ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित्॥

मूलम्

त्वं महान् प्रकृतिः सूक्ष्मा रजःसत्त्वतमोमयी।
त्वमेव पुरुषोऽध्यक्षः सर्वक्षेत्रविकारवित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंके कर्म, भाव, धर्म और सत्ताको जाननेवाले सबके साक्षी परमात्मा हैं॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः।
को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः॥

मूलम्

गृह्यमाणैस्त्वमग्राह्यो विकारैः प्राकृतैर्गुणैः।
को न्विहार्हति विज्ञातुं प्राक्सिद्धं गुणसंवृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृत्तियोंसे ग्रहण किये जानेवाले प्रकृतिके गुणों और विकारोंके द्वारा आप पकड़में नहीं आ सकते। स्थूल और सूक्ष्म शरीरके आवरणसे ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सके? क्योंकि आप तो उन शरीरोंके पहले भी एकरस विद्यमान थे॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणैर्गुणमयैः कार्यैः गृह्यमाण एतत्कारणमित्यवगम्यमान इन्द्रियग्राह्यम् प्राक्सिद्धं कारणभूतम् ॥ ३२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे।
आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः॥

मूलम्

तस्मै तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे।
आत्मद्योतगुणैश्छन्नमहिम्ने ब्रह्मणे नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त प्रपंचके विधाता भगवान् वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होनेवाले गुणोंसे ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मद्योतगुणैः स्वस्य प्रकाशमानैर्गुणः सञ्छन्नमहिम्ने जीवानां दुरवबोधमहिम्ने आत्मज्योतिर्गुणच्छन्नमहिम्न इति पाठे आत्मज्योतिस्स्वप्रकाशश्च गुणच्छन्नमहिमा चेत्यर्थः । श्रीभगवज्ज्योतिषः सूक्ष्मत्वात् सौशील्यादिगुणच्छन्नपरत्वाच्च दुरवबोधत्वं चोक्तं भवति ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः।
तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसंगतैः॥

मूलम्

यस्यावतारा ज्ञायन्ते शरीरेष्वशरीरिणः।
तैस्तैरतुल्यातिशयैर्वीर्यैर्देहिष्वसंगतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप प्राकृत शरीरसे रहित हैं। फिर भी जब आप ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियोंके लिये शक्य नहीं है और जिनसे बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरोंमें आपके अवतारोंका पता चल जाता है॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शरीरिषु शरीरिणां मध्ये अशरीरिणः प्राकृतशरीररहितस्य कृतावतारा असङ्गतैः असम्भावितैः ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च।
अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम्॥

मूलम्

स भवान् सर्वलोकस्य भवाय विभवाय च।
अवतीर्णोंऽशभागेन साम्प्रतं पतिराशिषाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप ही समस्त लोकोंके अभ्युदय और निःश्रेयसके लिये इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियोंसे अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले हैं॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विभवः सम्भव: आशिषः अभ्युदयानि ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमः परमकल्याण नमः परममङ्गल।
वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः॥

मूलम्

नमः परमकल्याण नमः परममङ्गल।
वासुदेवाय शान्ताय यदूनां पतये नमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम शान्त, सबके हृदयमें विहार करनेवाले यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्णको नमस्कार है॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शान्ताय ऊर्मिषट्करहिताय ॥ ३६ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिङ्करौ।
दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात्॥

मूलम्

अनुजानीहि नौ भूमंस्तवानुचरकिङ्करौ।
दर्शनं नौ भगवत ऋषेरासीदनुग्रहात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षिभगवान् नारदके परम अनुग्रहसे ही हम अपराधियोंको आपका दर्शन प्राप्त हुआ है॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तत्रानुचरकिङ्करौ अनुचरौ वैश्रवणस्तस्य किङ्करौ ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम्॥

मूलम्

वाणी गुणानुकथने श्रवणौ कथायां
हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्नः।
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणामे
दृष्टिः सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणोंका वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथामें लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवामें और मन आपके चरण-कमलोंकी स्मृतिमें रम जायँ। यह सम्पूर्ण जगत् आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निवासस्तव धाम । यद्वा, निवासभूतं व्याप्यं जगद्यस्य स निवासजगत् ॥ ॥ ३८-४० ॥

श्लोक-३९

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं संकीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः।
दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ॥

मूलम्

इत्थं संकीर्तितस्ताभ्यां भगवान् गोकुलेश्वरः।
दाम्ना चोलूखले बद्धः प्रहसन्नाह गुह्यकौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्णने नलकूबर और मणिग्रीवके इस प्रकार स्तुति करनेपर रस्सीसे ऊखलमें बँधे-बँधे ही हँसते हुए* उनसे कहा—॥ ३९॥

पादटिप्पनी
  • सर्वदा मैं मुक्त रहता हूँ और बद्ध जीव मेरी स्तुति करते हैं। आज मैं बद्ध हूँ और मुक्त जीव मेरी स्तुति कर रहे हैं। यह विपरीत दशा देखकर भगवान‍्को हँसी आ गयी।

श्लोक-४०

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातं मम पुरैवैतदृषिणा करुणात्मना।
यच्छ्रीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः॥

मूलम्

ज्ञातं मम पुरैवैतदृषिणा करुणात्मना।
यच्छ्रीमदान्धयोर्वाग्भिर्विभ्रंशोऽनुग्रहः कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—तुमलोग श्रीमदसे अंधे हो रहे थे। मैं पहलेसे ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारदने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्।
दर्शनान्नो भवेद् बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा॥

मूलम्

साधूनां समचित्तानां सुतरां मत्कृतात्मनाम्।
दर्शनान्नो भवेद् बन्धः पुंसोऽक्ष्णोः सवितुर्यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण-रूपसे मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषोंके दर्शनसे बन्धन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होनेपर मनुष्यके नेत्रोंके सामने अन्धकारका होना॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सन्दर्शनमक्ष्णोः नः कैवल्यनिरसनेनाऽनुग्राहकम् एवं साधूनां दर्शनमज्ञानापहमित्यर्थः ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् गच्छतं मत्परमौ नलकूबर सादनम्।
सञ्जातो मयि भावो वामीप्सितः परमोऽभवः॥

मूलम्

तद् गच्छतं मत्परमौ नलकूबर सादनम्।
सञ्जातो मयि भावो वामीप्सितः परमोऽभवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये नलकूबर और मणिग्रीव! तुमलोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुमलोगोंको संसारचक्रसे छुड़ानेवाले अनन्य भक्तिभावकी, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है॥ ४२॥

श्लोक-४३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम्॥

मूलम्

इत्युक्तौ तौ परिक्रम्य प्रणम्य च पुनः पुनः।
बद्धोलूखलमामन्त्र्य जग्मतुर्दिशमुत्तराम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान‍्ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनोंने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया। इसके बाद ऊखलमें बँधे हुए सर्वेश्वरकी आज्ञा प्राप्त करके उन लोगोंने उत्तर दिशाकी यात्रा की*॥ ४३॥

पादटिप्पनी
  • यक्षोंने विचार किया कि जबतक यह सगुण (रस्सी)में बँधे हुए हैं, तभीतक हमें इनके दर्शन हो रहे हैं। निर्गुणको तो मनमें सोचा भी नहीं जा सकता। इसीसे भगवान‍्के बँधे रहते ही वे चले गये।
    स्वस्त्यस्तु उलूखल सर्वदा श्रीकृष्णगुणशाली एव भूयाः।
    ‘ऊखल! तुम्हारा कल्याण हो, तुम सदा श्रीकृष्णके गुणोंसे बँधे ही रहो।’—ऐसा ऊखलको आशीर्वाद देकर यक्ष वहाँसे चले गये।
श्रीसुदर्शनसूरिः

सादनं सदनम् ॥ ४३ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीये दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे नारदशापो नाम दशमोऽध्यायः॥ १०॥