[नवमोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीकृष्णका ऊखलसे बाँधा जाना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी।
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि॥
मूलम्
एकदा गृहदासीषु यशोदा नन्दगेहिनी।
कर्मान्तरनियुक्तासु निर्ममन्थ स्वयं दधि॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक समयकी बात है, नन्दरानी यशोदाजीने घरकी दासियोंको तो दूसरे कामोंमें लगा दिया और स्वयं (अपने लालाको मक्खन खिलानेके लिये) दही मथने लगीं*॥ १॥
पादटिप्पनी
- इस प्रसंगमें ‘एक समय’ का तात्पर्य है कार्तिक मास। पुराणोंमें इसे ‘दामोदरमास’ कहते हैं। इन्द्रयागके अवसरपर दासियोंका दूसरे कामोंमें लग जाना स्वाभाविक है। ‘नियुक्तासु’—इस पदसे ध्वनित होता है कि यशोदा माताने जान-बूझकर दासियोंको दूसरे काममें लगा दिया। ‘यशोदा’—नाम उल्लेख करनेका अभिप्राय यह है कि अपने विशुद्ध वात्सल्यप्रेमके व्यवहारसे षडैश्वर्यशाली भगवान्को भी प्रेमाधीनता, भक्तवश्यताके कारण अपने भक्तोंके हाथों बँध जानेका ‘यश’ यही देती हैं। गोपराज नन्दके वात्सल्यप्रेमके आकर्षणसे सच्चिदानन्द-परमानन्दस्वरूप श्रीभगवान् नन्दनन्दनरूपसे जगत्में अवतीर्ण होकर जगत्के लोगोंको आनन्द प्रदान करते हैं। जगत्को इस अप्राकृत परमानन्दका रसास्वादन करानेमें नन्दबाबा ही कारण हैं। उन नन्दकी गृहिणी होनेसे इन्हें ‘नन्दगेहिनी’ कहा गया है। साथ ही ‘नन्दगेहिनी’ और ‘स्वयं’—ये दो पद इस बातके सूचक हैं कि दधिमन्थनकर्म उनके योग्य नहीं है। फिर भी पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे यह सोचकर कि मेरे लालाको मेरे हाथका माखन ही भाता है, वे स्वयं ही दधि मथ रही हैं।
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च।
दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत॥
मूलम्
यानि यानीह गीतानि तद्बालचरितानि च।
दधिनिर्मन्थने काले स्मरन्ती तान्यगायत॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने तुमसे अबतक भगवान्की जिन-जिन बाल-लीलाओंका वर्णन किया है, दधिमन्थनके समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गाती भी जाती थीं*॥ २॥
पादटिप्पनी
- इस श्लोकमें भक्तके स्वरूपका निरूपण है। शरीरसे दधिमन्थनरूप सेवाकर्म हो रहा है, हृदयमें स्मरणकी धारा सतत प्रवाहित हो रही है, वाणीमें बाल-चरित्रका संगीत। भक्तके तन, मन, वचन—सब अपने प्यारेकी सेवामें संलग्न हैं। स्नेह अमूर्त पदार्थ है; वह सेवाके रूपमें ही व्यक्त होता है। स्नेहके ही विलासविशेष हैं—नृत्य और संगीत। यशोदा मैयाके जीवनमें इस समय राग और भोग दोनों ही प्रकट हैं।
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षौमं वासः पृथुकटितटे
बिभ्रती सूत्रनद्धं
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं
जातकम्पं च सुभ्रूः।
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्
कङ्कणौ कुण्डले च
स्विन्नं वक्त्रं कबरविगल-
न्मालती निर्ममन्थ॥
मूलम्
क्षौमं वासः पृथुकटितटे
बिभ्रती सूत्रनद्धं
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं
जातकम्पं च सुभ्रूः।
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्
कङ्कणौ कुण्डले च
स्विन्नं वक्त्रं कबरविगल-
न्मालती निर्ममन्थ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने स्थूल कटिभागमें सूतसे बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनोंमेंसे पुत्र-स्नेहकी अधिकतासे दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहनेसे बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथोंके कंगन और कानोंके कर्णफूल हिल रहे थे। मुँहपर पसीनेकी बूँदें झलक रही थीं। चोटीमें गुँथे हुए मालतीके सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहोंवाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रही थीं*॥ ३॥
पादटिप्पनी
- कमरमें रेशमी लहँगा डोरीसे कसकर बँधा हुआ है अर्थात् जीवनमें आलस्य, प्रमाद, असावधानी नहीं है। सेवाकर्ममें पूरी तत्परता है। रेशमी लहँगा इसीलिये पहने हैं कि किसी प्रकारकी अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैयाको कुछ हो जायगा।
माताके हृदयका रसस्नेह—दूध स्तनके मुँह आ लगा है, चुचुआ रहा है, बाहर झाँक रहा है। श्यामसुन्दर आवें, उनकी दृष्टि पहले मुझपर पड़े और वे पहले माखन न खाकर मुझे ही पीवें—यही उसकी लालसा है।
स्तनके काँपनेका अर्थ यह है कि उसे डर भी है कि कहीं मुझे नहीं पिया तो!
कंकण और कुण्डल नाच-नाचकर मैयाको बधाई दे रहे हैं। यशोदा मैयाके हाथोंके कंकण इसलिये झंकार ध्वनि कर रहे हैं कि वे आज उन हाथोंमें रहकर धन्य हो रहे हैं कि जो हाथ भगवान्की सेवामें लगे हैं। और कुण्डल यशोदा मैयाके मुखसे लीला-गान सुनकर परमानन्दसे हिलते हुए कानोंकी सफलताकी सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं, जो भगवान्की सेवा करें और कान वे धन्य हैं, जिनमें भगवान्के लीला-गुण-गानकी सुधाधारा प्रवेश करती रहे। मुँहपर स्वेद और मालतीके पुष्पोंके नीचे गिरनेका ध्यान माताको नहीं है। वह शृंगार और शरीर भूल चुकी हैं। अथवा मालतीके पुष्प स्वयं ही चोटियोंसे छूटकर चरणोंमें गिर रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी माँके चरणोंमें ही रहना सौभाग्य है, हम सिरपर रहनेके अधिकारी नहीं।
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरिः।
गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत् प्रीतिमावहन्॥
मूलम्
तां स्तन्यकाम आसाद्य मथ्नन्तीं जननीं हरिः।
गृहीत्वा दधिमन्थानं न्यषेधत् प्रीतिमावहन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण स्तन पीनेके लिये दही मथती हुई अपनी माताके पास आये। उन्होंने अपनी माताके हृदयमें प्रेम और आनन्दको और भी बढ़ाते हुए दहीकी मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथनेसे रोक दिया*॥ ४॥
पादटिप्पनी
- हृदयमें लीलाकी सुखस्मृति, हाथोंसे दधिमन्थन और मुखसे लीलागान—इस प्रकार मन, तन, वचन तीनोंका श्रीकृष्णके साथ एकतान संयोग होते ही श्रीकृष्ण जगकर ‘मा-मा’ पुकारने लगे। अबतक भगवान् श्रीकृष्ण सोये हुए-से थे। माकी स्नेह-साधनाने उन्हें जगा दिया। वे निर्गुणसे सगुण हुए, अचलसे चल हुए, निष्कामसे सकाम हुए; स्नेहके भूखे-प्यासे माके पास आये। क्या ही सुन्दर नाम है—‘स्तन्यकाम’! मन्थन करते समय आये, बैठी-ठालीके पास नहीं।
सर्वत्र भगवान् साधनकी प्रेरणा देते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; परन्तु मथानी पकड़कर मैयाको रोक लिया। ‘माँ! अब तेरी साधना पूर्ण हो गयी। पिष्ट-पेषण करनेसे क्या लाभ? अब मैं तेरी साधनाका इससे अधिक भार नहीं सह सकता।’ माँ प्रेमसे दब गयी—निहाल हो गयी—मेरा लाला मुझे इतना चाहता है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
सूत्रनद्धं काञ्चीगुणबद्धं चलद्भुजकङ्कणकुण्डले च स्विन्नं वक्त्रं विभ्रतीत्यन्वयः “जातकं दधि सम्प्रोक्तम्" इति कोशात् दधि निर्ममन्थ कीदृशी पंच बिभ्रती वासः कुचयुगं कङ्कणौ कुंडले वक्त्रञ्चेति ॥ १-४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमङ्कमारूढमपाययत् स्तनं
स्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम्।
अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा यया-
वुत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते॥
मूलम्
तमङ्कमारूढमपाययत् स्तनं
स्नेहस्नुतं सस्मितमीक्षती मुखम्।
अतृप्तमुत्सृज्य जवेन सा यया-
वुत्सिच्यमाने पयसि त्वधिश्रिते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण माता यशोदाकी गोदमें चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेहकी अधिकतासे उनके स्तनोंसे दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतनेमें ही दूसरी ओर अँगीठीपर रखे हुए दूधमें उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दीसे दूध उतारनेके लिये चली गयीं*॥ ५॥
पादटिप्पनी
- मैया मना करती रही—‘नेक-सा माखन तो निकाल लेने दे।’ ‘ऊँ-ऊँ-ऊँ, मैं तो दूध पीऊँगा’—दोनों हाथोंसे मैयाकी कमर पकड़कर एक पाँव घुटनेपर रखा और गोदमें चढ़ गये। स्तनका दूध बरस पड़ा। मैया दूध पिलाने लगी, लाला मुसकराने लगे, आँखें मुसकानपर जम गयीं। ‘ईक्षती’ पदका यह अभिप्राय है कि जब लाला मुँह उठाकर देखेगा और मेरी आँखें उसपर लगी मिलेंगी, तब उसे बड़ा सुख होगा।
सामने पद्मगन्धा गायका दूध गरम हो रहा था। उसने सोचा—‘स्नेहमयी माँ यशोदाका दूध कभी कम न होगा, श्यामसुन्दरकी प्यास कभी बुझेगी नहीं! उनमें परस्पर होड़ लगी है। मैं बेचारा युग-युगका, जन्म-जन्मका श्यामसुन्दरके होठोंका स्पर्श करनेके लिये व्याकुल तप-तपकर मर रहा हूँ। अब इस जीवनसे क्या लाभ जो श्रीकृष्णके काम न आवे। इससे अच्छा है उनकी आँखोंके सामने आगमें कूद पड़ना।’ माँके नेत्र पहुँच गये। दयार्द्र माँको श्रीकृष्णका भी ध्यान न रहा; उन्हें एक ओर डालकर दौड़ पड़ी। भक्त भगवान्को एक ओर रखकर भी दुःखियोंकी रक्षा करते हैं। भगवान् अतृप्त ही रह गये। क्या भक्तोंके हृदय-रससे, स्नेहसे उन्हें कभी तृप्ति हो सकती है? उसी दिनसे उनका एक नाम हुआ—‘अतृप्त’।
श्रीसुदर्शनसूरिः
उत्सिच्यमाने स्थाल्या बहिर्निगच्छति ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सञ्जातकोपः स्फुरितारुणाधरं
संदश्य दद्भिर्दधिमन्थभाजनम्।
भित्त्वा मृषाश्रुर्दृषदश्मना रहो
जघास हैयङ्गवमन्तरं गतः॥
मूलम्
सञ्जातकोपः स्फुरितारुणाधरं
संदश्य दद्भिर्दधिमन्थभाजनम्।
भित्त्वा मृषाश्रुर्दृषदश्मना रहो
जघास हैयङ्गवमन्तरं गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे श्रीकृष्णको कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतोंसे दबाकर श्रीकृष्णने पास ही पड़े हुए लोढ़ेसे दहीका मटका फोड़फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखोंमें भर लिये और दूसरे घरमें जाकर अकेलेमें बासी माखन खाने लगे*॥ ६॥
पादटिप्पनी
- श्रीकृष्णके होठ फड़के। क्रोध होठोंका स्पर्श पाकर कृतार्थ हो गया। लाल-लाल होठ श्वेत-श्वेत दूधकी दँतुलियोंसे दबा दिये गये, मानो सत्त्वगुण रजोगुणपर शासन कर रहा हो, ब्राह्मण क्षत्रियको शिक्षा दे रहा हो। वह क्रोध उतरा दधिमन्थनके मटकेपर। उसमें एक असुर आ बैठा था। दम्भने कहा—काम, क्रोध और अतृप्तिके बाद मेरी बारी है। वह आँसू बनकर आँखोंमें छलक आया। श्रीकृष्ण अपने भक्तजनोंके प्रति अपनी ममताकी धारा उड़ेलनेके लिये क्या-क्या भाव नहीं अपनाते? ये काम, क्रोध, लोभ और दम्भ भी आज ब्रह्म-संस्पर्श प्राप्त करके धन्य हो गये! श्रीकृष्ण घरमें घुसकर बासी मक्खन गटकने लगे, मानो माको दिखा रहे हों कि मैं कितना भूखा हूँ।
प्रेमी भक्तोंके ‘पुरुषार्थ’ भगवान् नहीं हैं, भगवान्की सेवा है। ये भगवान्की सेवाके लिये भगवान्का भी त्याग कर सकते हैं। मैयाके अपने हाथों दुहा हुआ यह पद्मगन्धा गायोंका दूध श्रीकृष्णके लिये ही गरम हो रहा था। थोड़ी देरके बाद ही उनको पिलाना था। दूध उफन जायगा तो मेरे लाला भूखे रहेंगे—रोयेंगे, इसीलिये माताने उन्हें नीचे उतारकर दूधको सँभाला।
श्रीसुदर्शनसूरिः
दृषदश्मना पेषण्यश्मना हैयङ्गवं नवनीतं हैयङ्गवशब्दः तद्धितः ॥ ६ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तार्य गोपी सुशृतं पयः पुनः
प्रविश्य संदृश्य च दध्यमत्रकम्।
भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म त-
ज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती॥
मूलम्
उत्तार्य गोपी सुशृतं पयः पुनः
प्रविश्य संदृश्य च दध्यमत्रकम्।
भग्नं विलोक्य स्वसुतस्य कर्म त-
ज्जहास तं चापि न तत्र पश्यती॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदाजी औंटे हुए दूधको उतारकर* फिर मथनेके घरमें चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दहीका मटका (कमोरा) टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि यह सब मेरे लालाकी ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं॥ ७॥
पादटिप्पनी
- यशोदा माता दूधके पास पहुँचीं। प्रेमका अद्भुत दृश्य! पुत्रको गोदसे उतारकर उसके पेयके प्रति इतनी प्रीति क्यों? अपनी छातीका दूध तो अपना है, वह कहीं जाता नहीं। परन्तु यह सहस्रों छटी हुई गायोंके दूधसे पालित पद्मगन्धा गायका दूध फिर कहाँ मिलेगा? वृन्दावनका दूध अप्राकृत, चिन्मय, प्रेमजगत्का दूध—माँको आते देखकर शर्मसे दब गया। ‘अहो! आगमें कूदनेका संकल्प करके मैंने माँके स्नेहानन्दमें कितना बड़ा विघ्न कर डाला? और माँ अपना आनन्द छोड़कर मेरी रक्षाके लिये दौड़ी आ रही है। मुझे धिक्कार है।’ दूधका उफनना बंद हो गया और वह तत्काल अपने स्थानपर बैठ गया।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनुत्तानप्रदेशमुत्तार्य आश्रयणस्थानादन्यत्र निधाय दृध्यमत्रकं दधिभाजनम् ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उलूखलाङ्घ्रेरुपरि व्यवस्थितं
मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम्।
हैयङ्गवं चौर्यविशङ्कितेक्षणं
निरीक्ष्य पश्चात् सुतमागमच्छनैः॥
मूलम्
उलूखलाङ्घ्रेरुपरि व्यवस्थितं
मर्काय कामं ददतं शिचि स्थितम्।
हैयङ्गवं चौर्यविशङ्कितेक्षणं
निरीक्ष्य पश्चात् सुतमागमच्छनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर-उधर ढूँढ़नेपर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखलपर खड़े हैं और छींकेपरका माखन ले-लेकर बंदरोंको खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिये चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा-रानी पीछेसे धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँचीं*॥ ८॥
पादटिप्पनी
- ‘माँ! तुम अपनी गोदमें नहीं बैठाओगी तो मैं किसी खलकी गोदमें जा बैठूँगा’—यही सोचकर मानो श्रीकृष्ण उलटे ऊखलके ऊपर जा बैठे। उदार पुरुष भले ही खलोंकी संगतिमें जा बैठें, परन्तु उनका शील-स्वभाव बदलता नहीं है। ऊखलपर बैठकर भी वे बन्दरोंको माखन बाँटने लगे। सम्भव है रामावतारके प्रति जो कृतज्ञताका भाव उदय हुआ था, उसके कारण अथवा अभी-अभी क्रोध आ गया था, उसका प्रायश्चित्त करनेके लिये!
श्रीकृष्णके नेत्र हैं ‘चौर्यविशंकित’ ध्यान करनेयोग्य। वैसे तो उनके ललित, कलित, छलित, बलित, चकित आदि अनेकों प्रकारके ध्येय नेत्र हैं, परन्तु ये प्रेमीजनोंके हृदयमें गहरी चोट करते हैं।
श्रीसुदर्शनसूरिः
उलूखलाङ्घ्रेरुपरि अधोमुखविन्यस्तोलूखलस्योपरीत्यर्थः । मर्कटाय मार्जारायेति केचित् मर्क्कार्थं दधिसारार्थमागताय सखीजनायेति केचित् । अथ पूर्णलक्षणोपहतं हैयङ्गव मर्काय मर्कटाय कामं ददतमित्यन्वयः ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वर-
स्ततोऽवरुह्यापससार भीतवत्।
गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां
क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः॥
मूलम्
तामात्तयष्टिं प्रसमीक्ष्य सत्वर-
स्ततोऽवरुह्यापससार भीतवत्।
गोप्यन्वधावन्न यमाप योगिनां
क्षमं प्रवेष्टुं तपसेरितं मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब श्रीकृष्णने देखा कि मेरी माँ हाथमें छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रही है, तब झटसे ओखलीपरसे कूद पड़े और डरे हुएकी भाँति भागे। परीक्षित्! बड़े-बड़े योगी तपस्याके द्वारा अपने मनको अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पानेकी बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान्के पीछे-पीछे उन्हें पकड़नेके लिये यशोदाजी दौड़ी*॥ ९॥
पादटिप्पनी
- भीत होकर भागते हुए भगवान् हैं। अपूर्व झाँकी है! ऐश्वर्यको तो मानो मैयाके वात्सल्य प्रेमपर न्योछावर करके व्रजके बाहर ही फेंक दिया है! कोई असुर अस्त्र-शस्त्र लेकर आता तो सुदर्शन चक्रका स्मरण करते। मैयाकी छड़ीका निवारण करनेके लिये कोई भी अस्त्र-शस्त्र नहीं! भगवान्की यह भयभीत मूर्ति कितनी मधुर है! धन्य है इस भयको।
श्रीसुदर्शनसूरिः
न यमाप तपसेरितं योगिनां मनः यं प्रवेष्टुं न क्षममासीदित्यर्थः ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वञ्चमाना जननी बृहच्चल-
च्छ्रोणीभराक्रान्तगतिः सुमध्यमा।
जवेन विस्रंसितकेशबन्धन-
च्युतप्रसूनानुगतिः परामृशत्॥
मूलम्
अन्वञ्चमाना जननी बृहच्चल-
च्छ्रोणीभराक्रान्तगतिः सुमध्यमा।
जवेन विस्रंसितकेशबन्धन-
च्युतप्रसूनानुगतिः परामृशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्णके पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देरमें बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बोंके कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेगसे दौड़नेके कारण चोटीकी गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़तीं, पीछे-पीछे चोटीमें गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं*॥ १०॥
पादटिप्पनी
- माता यशोदाके शरीर और शृंगार दोनों ही विरोधी हो गये—तुम प्यारे कन्हैयाको क्यों खदेड़ रही हो। परन्तु मैयाने पकड़कर ही छोड़ा।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्वञ्चमाना अनुगच्छन्ति परामृशत ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतागसं तं प्ररुदन्तमक्षिणी
कर्षन्तमञ्जन्मषिणी स्वपाणिना।
उद्वीक्षमाणं भयविह्वलेक्षणं
हस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत्॥
मूलम्
कृतागसं तं प्ररुदन्तमक्षिणी
कर्षन्तमञ्जन्मषिणी स्वपाणिना।
उद्वीक्षमाणं भयविह्वलेक्षणं
हस्ते गृहीत्वा भिषयन्त्यवागुरत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णका हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने-धमकाने लगीं। उस समय श्रीकृष्णकी झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकनेपर भी न रुकती थी। हाथोंसे आँखें मल रहे थे, इसलिये मुँहपर काजलकी स्याही फैल गयी थी, पिटनेके भयसे आँखें ऊपरकी ओर उठ गयी थीं, उनसे व्याकुलता सूचित होती थी*॥ ११॥
पादटिप्पनी
- विश्वके इतिहासमें, भगवान्के सम्पूर्ण जीवनमें पहली बार स्वयं विश्वेश्वरभगवान् माँके सामने अपराधी बनकर खड़े हुए हैं। मानो अपराधी भी मैं ही हूँ—इस सत्यका प्रत्यक्ष करा दिया। बायें हाथसे दोनों आँखें रगड़-रगड़कर मानो उनसे कहलाना चाहते हों कि ये किसी कर्मके कर्त्ता नहीं हैं। ऊपर इसलिये देख रहे हैं कि जब माता ही पीटनेके लिये तैयार है, तब मेरी सहायता और कौन कर सकता है? नेत्र भयसे विह्वल हो रहे हैं, ये भले ही कह दें कि मैंने नहीं किया, हम कैसे कहें। फिर तो लीला ही बंद हो जायगी।
माँने डाँटा—अरे, अशान्तप्रकृते! वानरबन्धो! मन्थनीस्फोटक! अब तुझे मक्खन कहाँसे मिलेगा? आज मैं तुझे ऐसा बाँधूँगी, ऐसा बाँधूँगी कि न तो तू ग्वालबालोंके साथ खेल ही सकेगा और न माखन-चोरी आदि ऊधम ही मचा सकेगा।
श्रीसुदर्शनसूरिः
पस्पर्श अञ्जन्मषिणी अञ्जितकज्जले अवागुरत् उद्यतहस्ता अभूत् ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला।
इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीर्यकोविदा॥
मूलम्
त्यक्त्वा यष्टिं सुतं भीतं विज्ञायार्भकवत्सला।
इयेष किल तं बद्धुं दाम्नातद्वीर्यकोविदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यशोदाजीने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके हृदयमें वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फेंक दी। इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सीसे बाँध देना चाहिये (नहीं तो यह कहीं भाग जायगा)। परीक्षित्! सच पूछो तो यशोदा मैयाको अपने बालकके ऐश्वर्यका पता न था*॥ १२॥
पादटिप्पनी
- ‘अरी मैया! मोहि मत मार।’ माताने कहा—‘यदि तुझे पिटनेका इतना डर था तो मटका क्यों फोड़ा?’ श्रीकृष्ण—‘अरी मैया! मैं अब ऐसा कभी नहीं करूँगा। तू अपने हाथसे छड़ी डाल दे।’
श्रीकृष्णका भोलापन देखकर मैयाका हृदय भर आया, वात्सल्य-स्नेहके समुद्रमें ज्वार आ गया। वे सोचने लगीं—लाला अत्यन्त डर गया है। कहीं छोड़नेपर यह भागकर वनमें चला गया तो कहाँ-कहाँ भटकता फिरेगा, भूखा-प्यासा रहेगा। इसलिये थोड़ी देरतक बाँधकर रख लूँ। दूध-माखन तैयार होनेपर मना लूँगी। यही सोच-विचारकर माताने बाँधनेका निश्चय किया। बाँधनेमें वात्सल्य ही हेतु था।
भगवान्के ऐश्वर्यका अज्ञान दो प्रकारका होता है, एक तो साधारण प्राकृत जीवोंको और दूसरा भगवान्के नित्यसिद्ध प्रेमी परिकरको। यशोदा मैया आदि भगवान्की स्वरूपभूता चिन्मयी लीलाके अप्राकृत नित्य-सिद्ध परिकर हैं। भगवान्के प्रति वात्सल्यभाव, शिशु-प्रेमकी गाढ़ताके कारण ही उनका ऐश्वर्य-ज्ञान अभिभूत हो जाता है; अन्यथा उनमें अज्ञानकी संभावना ही नहीं है। इनकी स्थिति तुरीयावस्था अथवा समाधिका भी अतिक्रमण करके सहज प्रेममें रहती है। वहाँ प्राकृत अज्ञान, मोह, रजोगुण और तमोगुणकी तो बात ही क्या, प्राकृत सत्त्वकी भी गति नहीं है। इसलिये इनका अज्ञान भी भगवान्की लीलाकी सिद्धिके लिये उनकी लीलाशक्तिका ही एक चमत्कार विशेष है।
तभीतक हृदयमें जड़ता रहती है, जबतक चेतनका स्फुरण नहीं होता। श्रीकृष्णके हाथमें आ जानेपर यशोदा माताने बाँसकी छड़ी फेंक दी—यह सर्वथा स्वाभाविक है।
मेरी तृप्तिका प्रयत्न छोड़कर छोटी-मोटी वस्तुपर दृष्टि डालना केवल अर्थ-हानिका ही हेतु नहीं है, मुझे भी आँखोंसे ओझल कर देता है। परन्तु सब कुछ छोड़कर मेरे पीछे दौड़ना मेरी प्राप्तिका हेतु है। क्या मैयाके चरितसे इस बातकी शिक्षा नहीं मिलती?
मुझे योगियोंकी भी बुद्धि नहीं पकड़ सकती, परन्तु जो सब ओरसे मुँह मोड़कर मेरी ओर दौड़ता है, मैं उसकी मुट्ठीमें आ जाता हूँ। यही सोचकर भगवान् यशोदाके हाथों पकड़े गये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अतद्वीर्यकोविदेति पदम् ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्।
पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च यः॥
मूलम्
न चान्तर्न बहिर्यस्य न पूर्वं नापि चापरम्।
पूर्वापरं बहिश्चान्तर्जगतो यो जगच्च यः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न चान्तरिति बन्धनस्य परितो वेष्टनरूपत्वात् तदशक्यत्वायापरिच्छिन्नत्वमुक्तम् ॥ १३-१७ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं मत्वाऽऽत्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्गमधोक्षजम्।
गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा॥
मूलम्
तं मत्वाऽऽत्मजमव्यक्तं मर्त्यलिङ्गमधोक्षजम्।
गोपिकोलूखले दाम्ना बबन्ध प्राकृतं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत्के पहले भी थे, बादमें भी रहेंगे; इस जगत्के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपोंमें भी हैं; और तो क्या, जगत्के रूपमें भी स्वयं वही हैं;१ यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियोंसे परे और अव्यक्त हैं—उन्हीं भगवान्को मनुष्यका-सा रूप धारण करनेके कारण पुत्र समझकर यशोदारानी रस्सीसे ऊखलमें ठीक वैसे ही बाँध देती हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक२ हो॥ १३-१४॥
पादटिप्पनी
१. इस श्लोकमें श्रीकृष्णकी ब्रह्मरूपता बतायी गयी है। ‘उपनिषदोंमें जैसे ब्रह्मका वर्णन है—अपूर्वम् अनपरम् अनन्तरम् अबाह्यम्’ इत्यादि। वही बात यहाँ श्रीकृष्णके सम्बन्धमें है। वह सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, सर्वातीत, सर्वान्तर्यामी, सर्वोपादान एवं सर्वरूप ब्रह्म ही यशोदा माताके प्रेमके वश बँधने जा रहा है। बन्धनरूप होनेके कारण उसमें किसी प्रकारकी असङ्गति या अनौचित्य भी नहीं है।
२. यह फिर कभी ऊखलपर जाकर न बैठे इसके लिये ऊखलसे बाँधना ही उचित है; क्योंकि खलका अधिक संग होनेपर उससे मनमें उद्वेग हो जाता है।
यह ऊखल भी चोर ही है, क्योंकि इसने कन्हैयाके चोरी करनेमें सहायता की है। दोनोंको बन्धनयोग्य देखकर ही यशोदा माताने दोनोंको बाँधनेका उद्योग किया।
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः।
द्व्यङ्गुलोनमभूत्तेन सन्दधेऽन्यच्च गोपिका॥
मूलम्
तद् दाम बध्यमानस्य स्वार्भकस्य कृतागसः।
द्व्यङ्गुलोनमभूत्तेन सन्दधेऽन्यच्च गोपिका॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़केको रस्सीसे बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी*॥ १५॥
पादटिप्पनी
- यशोदा माता ज्यों-ज्यों अपने स्नेह, ममता आदि गुणों (सद्गुणों या रस्सियों) से श्रीकृष्णका पेट भरने लगीं, त्यों-त्यों अपनी नित्यमुक्तता, स्वतन्त्रता आदि सद्गुणोंसे भगवान् अपने स्वरूपको प्रकट करने लगे।
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाऽऽसीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे।
तदपि द्व्यङ्गुलं न्यूनं यद् यदादत्त बन्धनम्॥
मूलम्
यदाऽऽसीत्तदपि न्यूनं तेनान्यदपि सन्दधे।
तदपि द्व्यङ्गुलं न्यूनं यद् यदादत्त बन्धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी*, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लातीं और जोड़ती गयीं, त्यों-त्यों जुड़नेपर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं*॥ १६॥
पादटिप्पनी
- १. संस्कृत-साहित्यमें ‘गुण’ शब्दके अनेक अर्थ हैं—सद्गुण, सत्त्व आदि गुण और रस्सी। सत्त्व, रज आदि गुण भी अखिल ब्रह्माण्डनायक त्रिलोकीनाथ भगवान्का स्पर्श नहीं कर सकते। फिर यह छोटा-सा गुण ( दो बित्तेकी रस्सी) उन्हें कैसे बाँध सकता है। यही कारण है कि यशोदा माताकी रस्सी पूरी नहीं पड़ती थी।
२. संसारके विषय इन्द्रियोंको ही बाँधनेमें समर्थ हैं—विषिण्वन्ति इति विषयाः। ये हृदयमें स्थित अन्तर्यामी और साक्षीको नहीं बाँध सकते। तब गो-बन्धक (इन्द्रियों या गायोंको बाँधनेवाली) रस्सी गो-पति (इन्द्रियों या गायोंके स्वामी) को कैसे बाँध सकती है?
३. वेदान्तके सिद्धान्तानुसार अध्यस्तमें ही बन्धन होता है, अधिष्ठानमें नहीं। भगवान् श्रीकृष्णका उदर अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंका अधिष्ठान है। उसमें भला बन्धन कैसे हो सकता है?
४. भगवान् जिसको अपनी कृपाप्रसादपूर्ण दृष्टिसे देख लेते हैं, वही सर्वदाके लिये बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यशोदा माता अपने हाथमें जो रस्सी उठातीं, उसीपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ जाती। वह स्वयं मुक्त हो जाती, फिर उसमें गाँठ कैसे लगती?
५. कोई साधक यदि अपने गुणोंके द्वारा भगवान्को रिझाना चाहे तो नहीं रिझा सकता। मानो यही सूचित करनेके लिये कोई भी गुण (रस्सी) भगवान्के उदरको पूर्ण करनेमें समर्थ नहीं हुआ। - रस्सी दो अंगुल ही कम क्यों हुई? इसपर कहते हैं—
१. भगवान्ने सोचा कि जब मैं शुद्धहृदय भक्तजनोंको दर्शन देता हूँ, तब मेरे साथ एकमात्र सत्त्वगुणसे ही सम्बन्धकी स्फूर्ति होती है, रज और तमसे नहीं। इसलिये उन्होंने रस्सीको दो अंगुल कम करके अपना भाव प्रकट किया।
२. उन्होंने विचार किया कि जहाँ नाम और रूप होते हैं, वहीं बन्धन भी होता है। मुझ परमात्मामें बन्धनकी कल्पना कैसे? जब कि ये दोनों ही नहीं। दो अंगुलकी कमीका यही रहस्य है।
३. दो वृक्षोंका उद्धार करना है। यही क्रिया सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम पड़ गयी।
४. भगवत्कृपासे द्वैतानुरागी भी मुक्त हो जाता है और असंग भी प्रेमसे बँध जाता है। यही दोनों भाव सूचित करनेके लिये रस्सी दो अंगुल कम हो गयी।
५. यशोदा माताने छोटी-बड़ी अनेकों रस्सियाँ अलग-अलग और एक साथ भी भगवान्की कमरमें लगायीं, परन्तु वे पूरी न पड़ीं; क्योंकि भगवान्में छोटे-बड़ेका कोई भेद नहीं है। रस्सियोंने कहा—भगवान्के समान अनन्तता, अनादिता और विभुता हमलोगोंमें नहीं है। इसलिये इनको बाँधनेकी बात बंद करो। अथवा जैसे नदियाँ समुद्रमें समा जाती हैं वैसे ही सारे गुण (सारी रस्सियाँ) अनन्तगुण भगवान्में लीन हो गये, अपना नाम-रूप खो बैठे। ये ही दो भाव सूचित करनेके लिये रस्सियोंमें दो अंगुलकी न्यूनता हुई।
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि।
गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत्॥
मूलम्
एवं स्वगेहदामानि यशोदा सन्दधत्यपि।
गोपीनां सुस्मयन्तीनां स्मयन्ती विस्मिताभवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदारानीने घरकी सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान् श्रीकृष्णको न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखनेवाली गोपियाँ मुसकराने लगीं और वे स्वयं भी मुसकराती हुई आश्चर्यचकित हो गयीं*॥ १७॥
पादटिप्पनी
- वे मन-ही-मन सोचतीं—इसकी कमर मुट्ठीभरकी है, फिर भी सैकड़ों हाथ लम्बी रस्सीसे यह नहीं बँधता है। कमर तिलमात्र भी मोटी नहीं होती, रस्सी एक अंगुल भी छोटी नहीं होती, फिर भी वह बँधता नहीं। कैसा आश्चर्य है। हर बार दो अंगुलकी ही कमी होती है, न तीनकी, न चारकी, न एककी। यह कैसा अलौकिक चमत्कार है।
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः।
दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने॥
मूलम्
स्वमातुः स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रजः।
दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्णः कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरी माँका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया है, चोटीमें गुँथी हुई मालाएँ गिर गयी हैं और वे बहुत थक भी गयी हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँके बन्धनमें बँध गये*॥ १८॥
पादटिप्पनी
- १. भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि जब माँके हृदयसे द्वैत-भावना दूर नहीं हो रही है, तब मैं व्यर्थ अपनी असंगता क्यों प्रकट करूँ। जो मुझे बद्ध समझता है उसके लिये बद्ध होना ही उचित है। इसलिये वे बँध गये।
२. मैं अपने भक्तके छोटे-से गुणको भी पूर्ण कर देता हूँ—यह सोचकर भगवान्ने यशोदा माताके गुण (रस्सी) को अपने बाँधनेयोग्य बना लिया।
३. यद्यपि मुझमें अनन्त, अचिन्त्य कल्याण-गुण निवास करते हैं, तथापि तबतक वे अधूरे ही रहते हैं, जबतक मेरे भक्त अपने गुणोंकी मुहर उनपर नहीं लगा देते। यही सोचकर यशोदा मैयाके गुणों (वात्सल्य, स्नेह आदि और रज्जु) से अपनेको पूर्णोदर—दामोदर बना लिया।
४. भगवान् श्रीकृष्ण इतने कोमलहृदय हैं कि अपने भक्तके प्रेमको पुष्ट करनेवाला परिश्रम भी सहन नहीं करते हैं। वे अपने भक्तको परिश्रमसे मुक्त करनेके लिये स्वयं ही बन्धन स्वीकार कर लेते हैं।
५. भगवान्ने अपने मध्यभागमें बन्धन स्वीकार करके यह सूचित किया कि मुझमें तत्त्वदृष्टिसे बन्धन है ही नहीं; क्योंकि जो वस्तु आगे-पीछे, ऊपर-नीचे नहीं होती, केवल बीचमें भासती है, वह झूठी होती है। इसी प्रकार यह बन्धन भी झूठा है।
६. भगवान् किसीकी शक्ति, साधन या सामग्रीसे नहीं बँधते। यशोदाजीके हाथों श्यामसुन्दरको न बँधते देखकर पास-पड़ोसकी ग्वालिनें इकट्ठी हो गयीं और कहने लगीं—यशोदाजी! लालाकी कमर तो मुट्ठीभरकी ही है और छोटी-सी किंकिणी इसमें रुन-झुन कर रही है। अब यह इतनी रस्सियोंसे नहीं बँधता तो जान पड़ता है कि विधाताने इसके ललाटमें बन्धन लिखा ही नहीं है। इसलिये अब तुम यह उद्योग छोड़ दो।
यशोदा मैयाने कहा—चाहे सन्ध्या हो जाय और गाँवभरकी रस्सी क्यों न इकट्ठी करनी पड़े, पर मैं तो इसे बाँधकर ही छोड़ूँगी। यशोदाजीका यह हठ देखकर भगवान्ने अपना हठ छोड़ दिया; क्योंकि जहाँ भगवान् और भक्तके हठमें विरोध होता है, वहाँ भक्तका ही हठ पूरा होता है। भगवान् बँधते हैं तब, जब भक्तकी थकान देखकर कृपा परवश हो जाते हैं। भक्तके श्रम और भगवान्की कृपाकी कमी ही दो अंगुलकी कमी है। अथवा जब भक्त अहंकार करता है कि मैं भगवान्को बाँध लूँगा, तब वह उनसे एक अंगुल दूर पड़ जाता है और भक्तकी नकल करनेवाले भगवान् भी एक अंगुल दूर हो जाते हैं। जब यशोदा माता थक गयीं, उनका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, तब भगवान्की सर्वशक्तिचक्रवर्तिनी परम भास्वती भगवती कृपा-शक्तिने भगवान्के हृदयको माखनके समान द्रवित कर दिया और स्वयं प्रकट होकर उसने भगवान्की सत्य-संकल्पितता और विभुताको अन्तर्हित कर दिया। इसीसे भगवान् बँध गये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वबन्धने कृपयाऽऽसीत् अनुगुण आसीदित्यर्थः ॥ १८-१९-२० ।।
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संदर्शिता ह्यङ्ग हरिणा भृत्यवश्यता।
स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे॥
मूलम्
एवं संदर्शिता ह्यङ्ग हरिणा भृत्यवश्यता।
स्ववशेनापि कृष्णेन यस्येदं सेश्वरं वशे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण परम स्वतन्त्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके साथ यह सम्पूर्ण जगत् उनके वशमें है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसारको यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तोंके वशमें हूँ*॥ १९॥
पादटिप्पनी
- यद्यपि भगवान् स्वयं परमेश्वर हैं, तथापि प्रेमपरवश होकर बँध जाना परम चमत्कारकारी होनेके कारण भगवान्का भूषण ही है, दूषण नहीं। आत्माराम होनेपर भी भूख लगना, पूर्णकाम होनेपर भी अतृप्त रहना, शुद्ध सत्त्वस्वरूप होनेपर भी क्रोध करना, स्वाराज्य-लक्ष्मीसे युक्त होनेपर भी चोरी करना, महाकाल यम आदिको भय देनेवाले होनेपर भी डरना और भागना, मनसे भी तीव्र गतिवाले होनेपर भी माताके हाथों पकड़ा जाना, आनन्दमय होनेपर भी दुःखी होना, रोना, सर्वव्यापक होनेपर भी बँध जाना—यह सब भगवान्की स्वाभाविक भक्तवश्यता है। जो लोग भगवान्को नहीं जानते हैं, उनके लिये तो इसका कुछ उपयोग नहीं है, परन्तु जो श्रीकृष्णको भगवान्के रूपमें पहचानते हैं, उनके लिये यह अत्यन्त चमत्कारी वस्तु है और यह देखकर—जानकर उनका हृदय द्रवित हो जाता है, भक्तिप्रेमसे सराबोर हो जाता है। अहो! विश्वेश्वर प्रभु अपने भक्तके हाथों ऊखलमें बँधे हुए हैं।
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्गसंश्रया।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात्॥
मूलम्
नेमं विरिञ्चो न भवो न श्रीरप्यङ्गसंश्रया।
प्रसादं लेभिरे गोपी यत्तत् प्राप विमुक्तिदात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ग्वालिनी यशोदाने मुक्तिदाता मुकुन्दसे जो कुछ अनिर्वचनीय कृपाप्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होनेपर भी, शंकर आत्मा होनेपर भी और वक्षःस्थलपर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होनेपर भी न पा सके, न पा सके*॥ २०॥
पादटिप्पनी
- इस श्लोकमें तीनों नकारोंका अन्वय ‘लेभिरे’ क्रियाके साथ करना चाहिये। न पा सके, न पा सके, न पा सके।
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुतः।
ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह॥
मूलम्
नायं सुखापो भगवान् देहिनां गोपिकासुतः।
ज्ञानिनां चात्मभूतानां यथा भक्तिमतामिह॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह गोपिकानन्दन भगवान् अनन्यप्रेमी भक्तोंके लिये जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियोंको तथा अपने स्वरूपभूत ज्ञानियोंके लिये भी नहीं हैं*॥ २१॥
पादटिप्पनी
- ज्ञानी पुरुष भी भक्ति करें तो उन्हें इन सगुण भगवान्की प्राप्ति हो सकती है, परन्तु बड़ी कठिनाईसे। ऊखल-बँधे भगवान् सगुण हैं, वे निर्गुण प्रेमीको कैसे मिलेंगे?
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुखापः सुखेन प्राप्यः ॥ २१-२३ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीये नवमोऽयायः ९ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः।
अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ॥
मूलम्
कृष्णस्तु गृहकृत्येषु व्यग्रायां मातरि प्रभुः।
अद्राक्षीदर्जुनौ पूर्वं गुह्यकौ धनदात्मजौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद नन्दरानी यशोदाजी तो घरके काम-धंधोंमें उलझ गयीं और ऊखलमें बँधे हुए भगवान् श्यामसुन्दरने उन दोनों अर्जुनवृक्षोंको मुक्ति देनेकी सोची, जो पहले यक्षराज कुबेरके पुत्र थे*॥ २२॥
पादटिप्पनी
- स्वयं बँधकर भी बन्धनमें पड़े हुए यक्षोंकी मुक्तिकी चिन्ता करना, सत्पुरुषके सर्वथा योग्य है।
जब यशोदा माताकी दृष्टि श्रीकृष्णसे हटकर दूसरेपर पड़ती है, तब वे भी किसी दूसरेको देखने लगते हैं और ऐसा ऊधम मचाते हैं कि सबकी दृष्टि उनकी ओर खिंच आये। देखिये, पूतना, शकटासुर, तृणावर्त आदिका प्रसंग।
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात्।
नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियान्वितौ॥
मूलम्
पुरा नारदशापेन वृक्षतां प्रापितौ मदात्।
नलकूबरमणिग्रीवाविति ख्यातौ श्रियान्वितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्यकी पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजीने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे*॥ २३॥
पादटिप्पनी
- ये अपने भक्त कुबेरके पुत्र हैं, इसलिये इनका अर्जुन नाम है। ये देवर्षि नारदके द्वारा दृष्टिपूत किये जा चुके हैं, इसलिये भगवान्ने उनकी ओर देखा।
जिसे पहले भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है, उसपर कृपा करनेके लिये स्वयं बँधकर भी भगवान् जाते हैं।
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गोपीप्रसादो नाम नवमोऽध्यायः॥ ९॥