[अष्टमोऽध्यायः]
भागसूचना
नामकरण-संस्कार और बाललीला
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः।
व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः॥
मूलम्
गर्गः पुरोहितो राजन् यदूनां सुमहातपाः।
व्रजं जगाम नन्दस्य वसुदेवप्रचोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! यदुवंशियोंके कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेवजीकी प्रेरणासे वे एक दिन नन्दबाबाके गोकुलमें आये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम्॥
मूलम्
तं दृष्ट्वा परमप्रीतः प्रत्युत्थाय कृताञ्जलिः।
आनर्चाधोक्षजधिया प्रणिपातपुरःसरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणोंमें प्रणाम किया। इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान् ही हैं’—इस भावसे उनकी पूजा की॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तं गर्गं प्रीतः नन्दः सूनृतया मधुरया ॥ २-३ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूपविष्टं कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम्।
नन्दयित्वाब्रवीद् ब्रह्मन् पूर्णस्य करवाम किम्॥
मूलम्
सूपविष्टं कृतातिथ्यं गिरा सूनृतया मुनिम्।
नन्दयित्वाब्रवीद् ब्रह्मन् पूर्णस्य करवाम किम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब गर्गाचार्यजी आरामसे बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबाने बड़ी ही मधुर वाणीसे उनका अभिनन्दन किया और कहा—‘भगवन्! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
महद्विचलनं नॄणां गृहिणां दीनचेतसाम्।
निःश्रेयसाय भगवन् कल्पते नान्यथा क्वचित्॥
मूलम्
महद्विचलनं नॄणां गृहिणां दीनचेतसाम्।
निःश्रेयसाय भगवन् कल्पते नान्यथा क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप-जैसे महात्माओंका हमारे-जैसे गृहस्थोंके घर आ जाना ही हमारे परम कल्याणका कारण है। हम तो घरोंमें इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचोंमें हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रमतक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याणके सिवा आपके आगमनका और कोई हेतु नहीं है॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
महद्विचलनं महतामागमनम् ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम्।
प्रणीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम्॥
मूलम्
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम्।
प्रणीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियोंकी पहुँचके बाहर है अथवा भूत और भविष्यके गर्भमें निहित है, वह भी ज्यौतिष-शास्त्रके द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्यौतिष-शास्त्रकी रचना की है॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्योतिषामयनं ज्योतिःशास्त्रं ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं ज्ञानसाधनम् अतीन्द्रियम् अतीन्द्रियविषयं परावरम् अतीतमागामि च ।। ५-२० ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान् कर्तुमर्हसि।
बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः॥
मूलम्
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठः संस्कारान् कर्तुमर्हसि।
बालयोरनयोर्नॄणां जन्मना ब्राह्मणो गुरुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। इसलिये मेरे इन दोनों बालकोंके नामकरणादि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्मसे ही मनुष्यमात्रका गुरु है’॥ ६॥
श्लोक-७
मूलम् (वचनम्)
गर्ग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदूनामहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वतः।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम्॥
मूलम्
यदूनामहमाचार्यः ख्यातश्च भुवि सर्वतः।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
गर्गाचार्यजीने कहा—नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियोंके आचार्यके रूपमें प्रसिद्ध हूँ। यदि मैं तुम्हारे पुत्रके संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकीका पुत्र है॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः।
देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति॥
मूलम्
कंसः पापमतिः सख्यं तव चानकदुन्दुभेः।
देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सञ्चिन्तयञ्छ्रुत्वा देवक्या दारिकावचः।
अपि हन्ताऽऽगताशङ्कस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत्॥
मूलम्
इति सञ्चिन्तयञ्छ्रुत्वा देवक्या दारिकावचः।
अपि हन्ताऽऽगताशङ्कस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंसकी बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेवजीके साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जबसे देवकीकी कन्यासे उसने यह बात सुनी है कि उसको मारनेवाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकीके आठवें गर्भसे कन्याका जन्म नहीं होना चाहिये। यदि मैं तुम्हारे पुत्रका संस्कार कर दूँ और वह इस बालकको वसुदेवजीका लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अन्याय हो जायगा॥ ८-९॥
श्लोक-१०
मूलम् (वचनम्)
नन्द उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलक्षितोऽस्मिन् रहसि मामकैरपि गोव्रजे।
कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम्॥
मूलम्
अलक्षितोऽस्मिन् रहसि मामकैरपि गोव्रजे।
कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबाने कहा—आचार्यजी! आप चुपचाप इस एकान्त गोशालामें केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालकका द्विजातिसमुचित नामकरण-संस्कारमात्र कर दीजिये। औरोंकी कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बातको न जानने पावें॥ १०॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सम्प्रार्थितो विप्रः स्वचिकीर्षितमेव तत्।
चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः॥
मूलम्
एवं सम्प्रार्थितो विप्रः स्वचिकीर्षितमेव तत्।
चकार नामकरणं गूढो रहसि बालयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—गर्गाचार्यजी तो संस्कार करना चाहते ही थे। जब नन्दबाबाने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्तमें छिपकर गुप्तरूपसे दोनों बालकोंका नामकरण-संस्कार कर दिया॥ ११॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
गर्ग उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन् सुहृदो गुणैः।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदुः।
यदूनामपृथग्भावात् सङ्कर्षणमुशन्त्युत॥
मूलम्
अयं हि रोहिणीपुत्रो रमयन् सुहृदो गुणैः।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदुः।
यदूनामपृथग्भावात् सङ्कर्षणमुशन्त्युत॥
अनुवाद (हिन्दी)
गर्गाचार्यजीने कहा—‘यह रोहिणीका पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रोंको अपने गुणोंसे अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिये इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’। इसके बलकी कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी है। यह यादवोंमें और तुमलोगोंमें कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगोंमें फूट पड़नेपर मेल करावेगा, इसलिये इसका एक नाम ‘संकर्षण’ भी है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसन् वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥
मूलम्
आसन् वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनूः।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युगमें शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगोंमें इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत—ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अबकी यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः सम्प्रचक्षते॥
मूलम्
प्रागयं वसुदेवस्य क्वचिज्जातस्तवात्मजः।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञाः सम्प्रचक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजीके घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्यको जाननेवाले लोग इसे ‘श्रीमान् वासुदेव’ भी कहते हैं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥
मूलम्
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे पुत्रके और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामोंको जानता हूँ, परन्तु संसारके साधारण लोग नहीं जानते॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ॥
मूलम्
एष वः श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दनः।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तुमलोगोंका परम कल्याण करेगा। समस्त गोप और गौओंको यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायतासे तुमलोग बड़ी-बड़ी विपत्तियोंको बड़ी सुगमतासे पार कर लोगे॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः॥
मूलम्
पुरानेन व्रजपते साधवो दस्युपीडिताः।
अराजके रक्ष्यमाणा जिग्युर्दस्यून् समेधिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्रजराज! पहले युगकी बात है। एक बार पृथ्वीमें कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओंने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्रने सज्जन पुरुषोंकी रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगोंने लुटेरोंपर विजय प्राप्त की॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः॥
मूलम्
य एतस्मिन् महाभागाः प्रीतिं कुर्वन्ति मानवाः।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशुसे प्रेम करते हैं। वे बड़े भाग्यवान् हैं। जैसे विष्णुभगवान्के करकमलोंकी छत्रछायामें रहनेवाले देवताओंको असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करनेवालोंको भीतर या बाहर किसी भी प्रकारके शत्रु नहीं जीत सकते॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्नन्दात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहितः॥
मूलम्
तस्मान्नन्दात्मजोऽयं ते नारायणसमो गुणैः।
श्रिया कीर्त्यानुभावेन गोपायस्व समाहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी! चाहे जिस दृष्टिसे देखें—गुणमें, सम्पत्ति और सौन्दर्यमें, कीर्ति और प्रभावमें तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान् नारायणके समान है। तुम बड़ी सावधानी और तत्परतासे इसकी रक्षा करो’॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते।
नन्दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम्॥
मूलम्
इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते।
नन्दः प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार नन्दबाबाको भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्यजी अपने आश्रमको लौट गये। उनकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन व्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ।
जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिङ्गमाणौ विजह्रतुः॥
मूलम्
कालेन व्रजताल्पेन गोकुले रामकेशवौ।
जानुभ्यां सह पाणिभ्यां रिङ्गमाणौ विजह्रतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कुछ ही दिनोंमें राम और श्याम घुटनों और हाथोंके बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुलमें खेलने लगे॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रिङ्गमाणौ चङ्क्रमणं कुर्वन्तौ ॥ २१ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावङ्घ्रियुग्ममनुकृष्य सरीसृपन्तौ
घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु।
तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं
मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरन्ति मात्रोः॥
मूलम्
तावङ्घ्रियुग्ममनुकृष्य सरीसृपन्तौ
घोषप्रघोषरुचिरं व्रजकर्दमेषु।
तन्नादहृष्टमनसावनुसृत्य लोकं
मुग्धप्रभीतवदुपेयतुरन्ति मात्रोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों भाई अपने नन्हे-नन्हे पाँवोंको गोकुलकी कीचड़में घसीटते हुए चलते। उस समय उनके पाँव और कमरके घुँघरू रुनझुन बजने लगते। वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता। वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते। कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्तिके पीछे हो लेते। फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओं—रोहिणीजी और यशोदाजीके पास लौट आते॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सरीसृपन्तौ घोषप्रघोषरुचिरं घोषस्य प्रघोषेण घोषस्य श्लाघाध्वनिना रुचिरं यथा भवति तथा व्रजकर्दमेषु सरीसृपन्तौ इति क्रियाविशेषणं तन्नादहृष्टमनसौ घोषस्य श्लाघाध्वनिहृष्टमनसौ मात्रोरन्ति यशोदारोहिण्योरन्तिकम् ॥ २२-२३ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौ
पङ्काङ्गरागरुचिरावुपगुह्य दोर्भ्याम्।
दत्त्वा स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य
मुग्धस्मिताल्पदशनं ययतुः प्रमोदम्॥
मूलम्
तन्मातरौ निजसुतौ घृणया स्नुवन्त्यौ
पङ्काङ्गरागरुचिरावुपगुह्य दोर्भ्याम्।
दत्त्वा स्तनं प्रपिबतोः स्म मुखं निरीक्ष्य
मुग्धस्मिताल्पदशनं ययतुः प्रमोदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेहसे भर जातीं। उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगती थी। जब उनके दोनों नन्हे-नन्हे-से शिशु अपने शरीरमें कीचड़का अंगराग लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी। माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथोंसे गोदमें लेकर हृदयसे लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीचमें मुसकरा-मुसकराकर अपनी माताओंकी ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दँतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्दके समुद्रमें डूबने-उतराने लगतीं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यर्ह्यङ्गनादर्शनीयकुमारलीला-
वन्तर्व्रजे तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः।
वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौ
प्रेक्षन्त्य उज्झितगृहा जहृषुर्हसन्त्यः॥
मूलम्
यर्ह्यङ्गनादर्शनीयकुमारलीला-
वन्तर्व्रजे तदबलाः प्रगृहीतपुच्छैः।
वत्सैरितस्तत उभावनुकृष्यमाणौ
प्रेक्षन्त्य उज्झितगृहा जहृषुर्हसन्त्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब व्रजमें घरके बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं। जब वे किसी बैठे हुए बछड़ेकी पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी जोरसे पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगते। गोपियाँ अपने घरका काम-धंधा छोड़कर यही सब देखती रहतीं और हँसते-हँसते लोटपोट होकर परम आनन्दमें मग्न हो जातीं॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यर्हि यदा तत्तदा प्रेक्षन्त्यः प्रेक्षमाणाः उज्झितगृहा उन्मर्दितगृहाः जहृषुर्हृष्टा अभवन् ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृङ्ग्यग्निदंष्ट्र्यसिजलद्विजकण्टकेभ्यः
क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम्।
गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ
शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम्॥
मूलम्
शृङ्ग्यग्निदंष्ट्र्यसिजलद्विजकण्टकेभ्यः
क्रीडापरावतिचलौ स्वसुतौ निषेद्धुम्।
गृह्याणि कर्तुमपि यत्र न तज्जनन्यौ
शेकात आपतुरलं मनसोऽनवस्थाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चंचल और बड़े खिलाड़ी थे। वे कहीं हरिन, गाय आदि सींगवाले पशुओंके पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आगसे खेलनेके लिये कूद पड़ते। कभी दाँतसे काटनेवाले कुत्तोंके पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते। कभी कूएँ या गड्ढेके पास जलमें गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियोंके निकट चले जाते और कभी काँटोंकी ओर बढ़ जाते थे। माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु उनकी एक न चलती। ऐसी स्थितिमें वे घरका काम-धंधा भी नहीं सँभाल पातीं। उनका चित्त बच्चोंको भयकी वस्तुओंसे बचानेकी चिन्तासे अत्यन्त चंचल रहता था॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शृङ्गिणो विषाणिनः दंष्ट्रिणः श्वप्रभृतयः असिः खड्गः द्विजाः मयूराद्याः गृह्याणि गृहकार्याणि मनसोऽनः वस्थानम् ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले।
अघृष्टजानुभिः पद्भिर्विचक्रमतुरञ्जसा॥
मूलम्
कालेनाल्पेन राजर्षे रामः कृष्णश्च गोकुले।
अघृष्टजानुभिः पद्भिर्विचक्रमतुरञ्जसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षे! कुछ ही दिनोंमें यशोदा और रोहिणीके लाड़ले लाल घुटनोंका सहारा लिये बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुलमें चलने-फिरने लगे*॥ २६॥
पादटिप्पनी
- जब श्यामसुन्दर घुटनोंका सहारा लिये बिना चलने लगे, तब वे अपने घरमें अनेकों प्रकारकी कौतुकमयी लीला करने लगे—
शून्ये चोरयतः स्वयं निजगृहे
हैयंगवीनं मणि-
स्तम्भे स्वप्रतिबिम्बमीक्षितवत-
स्तेनैव सार्द्धं भिया।
भ्रातर्मा वद मातरं मम समो
भागस्तवापीहितो
भुङ्क्ष्वेत्यालपतो हरेः कलवचो
मात्रा रहः श्रूयते॥
एक दिन साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार श्रीकन्हैयालालजी अपने सूने घरमें स्वयं ही माखन चुरा रहे थे । उनकी दृष्टि मणिके खम्भेमें पड़े हुए अपने प्रतिविम्बपर पड़ी। अब तो वे डर गये। अपने प्रतिविम्बसे बोले—‘अरे भैया! मेरी मैयासे कहियो मत। तेरा भाग भी मेरे बराबर ही मुझे स्वीकार है; ले, खा। खा ले, भैया!’ यशोदा माता अपने लालाकी तोतली बोली सुन रही थीं।
उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, वे घरमें भीतर घुस आयीं। माताको देखते ही श्रीकृष्णने अपने प्रतिविम्बको दिखाकर बात बदल दी—
मातः क एष नवनीतमिदं त्वदीयं
लोभेन चोरयितुमद्य गृहं प्रविष्टः।
मद्वारणं न मनुते मयि रोषभाजि
रोषं तनोति न हि मे नवनीतलोभः॥
‘मैया! मैया! यह कौन है? लोभवश तुम्हारा माखन चुरानेके लिये आज घरमें घुस आया है। मैं मना करता हूँ तो मानता नहीं है और मैं क्रोध करता हूँ तो यह भी क्रोध करता है। मैया! तुम कुछ और मत सोचना। मेरे मनमें माखनका तनिक भी लोभ नहीं है।’
अपने दुध-मुँहे शिशुकी प्रतिभा देखकर मैया वात्सल्य-स्नेहके आनन्दमें मग्न हो गयीं।
×××××
एक दिन श्यामसुन्दर माताके बाहर जानेपर घरमें ही माखन-चोरी कर रहे थे। इतनेमें ही दैववश यशोदाजी लौट आयीं और अपने लाड़ले लालको न देखकर पुकारने लगीं—
कृष्ण! क्वासि करोषि किं पितरिति
श्रुत्वैव मातुर्वचः
साशंकं नवनीतचौर्यविरतो
विश्रभ्य तामब्रवीत्।
मातः कंकणपद्मरागमहसा
पाणिर्ममातप्यते
तेनायं नवनीतभाण्डविवरे
विन्यस्य निर्वापितः॥
‘कन्हैया! कन्हैया! अरे ओ मेरे बाप! कहाँ है, क्या कर रहा है?’ माताकी यह बात सुनते ही माखनचोर श्रीकृष्ण डर गये और माखन-चोरीसे अलग हो गये। फिर थोड़ी देर चुप रहकर यशोदाजीसे बोले—‘मैया, री मैया! यह जो तुमने मेरे कंकणमें पद्मराग जड़ा दिया है, इसकी लपटसे मेरा हाथ जल रहा था। इसीसे मैंने इसे माखनके मटकेमें डालकर बुझाया था।’
माता यह मधुर-मधुर कन्हैयाकी तोतली बोली सुनकर मुग्ध हो गयीं और ‘आओ बेटा!’ ऐसा कहकर लालाको गोदमें उठा लिया और प्यारसे चूमने लगीं।
×××××
क्षुण्णाभ्यां करकुड्मलेन विगल-
द्वाष्पाम्बुदृग्भ्यां रुदन्
हुं हुं हूमिति रुद्धकण्ठकुहरा-
दस्पष्टवाग्विभ्रमः।
मात्रासौ नवनीतचौर्यकुतुके
प्राग्भर्त्सितः स्वांचले-
नामृज्यास्य मुखं तवैतदखिलं
वत्सेति कण्ठे कृतः॥
एक दिन माताने माखनचोरी करनेपर श्यामसुन्दरको धमकाया, डाँटा-फटकारा। बस, दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी। कर-कमलसे आँखें मलने लगे। ऊँ-ऊँ-ऊँ करके रोने लगे। गला रुँध गया। मुँहसे बोला नहीं जाता था। बस, माता यशोदाका धैर्य टूट गया। अपने आँचलसे अपने लाला कन्हैयाका मुँह पोंछा और बड़े प्यारसे गले लगाकर बोलीं—‘लाला! यह सब तुम्हारा ही है, यह चोरी नहीं है।’
एक दिनकी बात है—पूर्णचन्द्रकी चाँदनीसे मणिमय आँगन धुल गया था। यशोदा मैयाके साथ गोपियोंकी गोष्ठी जुड़ रही थी। वहीं खेलते-खेलते कृष्णचन्द्रकी दृष्टि चन्द्रमापर पड़ी। उन्होंने पीछेसे आकर यशोदा मैयाका घूँघट उतार लिया। और अपने कोमल करोंसे उनकी चोटी खोलकर खींचने लगे और बार-बार पीठ थपथपाने लगे। ‘मैं लूँगा, मैं लूँगा’—तोतली बोलीसे इतना ही कहते। जब मैयाकी समझमें बात नहीं आयी, तब उसने स्नेहार्द्र दृष्टिसे पास बैठी ग्वालिनोंकी ओर देखा। अब वे विनयसे, प्यारसे फुसलाकर श्रीकृष्णको अपने पास ले आयीं और बोलीं—‘लालन! तुम क्या चाहते हो, दूध!’ श्रीकृष्ण-‘ना’। ‘क्या बढ़िया दही?’ ‘ना’। ‘क्या खुरचन?’ ‘ना’। ‘मलाई?’ ‘ना’। ‘ताजा माखन? ‘ना’ ग्वालिनोंने कहा—‘बेटा! रूठो मत, रोओ मत। जो माँगोगे सो देंगी।’ श्रीकृष्णने धीरेसे कहा—‘घरकी वस्तु नहीं चाहिये’ और अँगुली उठाकर चन्द्रमाकी ओर संकेत कर दिया। गोपियाँ बोलीं—‘ओ मेरे बाप! यह कोई माखनका लौंदा थोड़े ही है? हाय! हाय! हम यह कैसे देंगी? यह तो प्यारा-प्यारा हंस आकाशके सरोवरमें तैर रहा है।’ श्रीकृष्णने कहा—‘मैं भी तो खेलनेके लिये इस हंसको ही माँग रहा हूँ, शीघ्रता करो। पार जानेके पूर्व ही मुझे ला दो।’
अब और भी मचल गये। धरतीपर पाँव पीट-पीटकर और हाथोंसे गला पकड़-पकड़कर ‘दो-दो’ कहने लगे और पहलेसे भी अधिक रोने लगे। दूसरी गोपियोंने कहा—‘बेटा! राम-राम। इन्होंने तुमको बहला दिया है। यह राजहंस नहीं है, यह तो आकाशमें ही रहनेवाला चन्द्रमा है।’ श्रीकृष्ण हठ कर बैठे—‘मुझे तो यही दो; मेरे मनमें इसके साथ खेलनेकी बड़ी लालसा है। अभी दो, अभी दो। ‘जब बहुत रोने लगे, तब यशोदा माताने गोदमें उठा लिया और प्यार करके बोलीं—‘मेरे प्राण! न यह राजहंस है और न तो चन्द्रमा। है यह माखन ही, परन्तु तुमको देने योग्य नहीं है। देखो, इसमें वह काला-काला विष लगा हुआ है। इससे बढ़िया होनेपर भी इसे कोई नहीं खाता है।’ श्रीकृष्णने कहा—‘मैया! मैया! इसमें विष कैसे लग गया।’ बात बदल गयी। मैयाने गोदमें लेकर मधुर-मधुर स्वरसे कथा सुनाना प्रारम्भ किया। मा-बेटेमें प्रश्नोत्तर होने लगे।
यशोदा—‘लाला! एक क्षीरसागर है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! वह कैसा है।’
यशोदा—‘बेटा! यह जो तुम दूध देख रहे हो, इसीका एक समुद्र है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! कितनी गायोंने दूध दिया होगा जब समुद्र बना होगा।
यशोदा—‘कन्हैया! वह गायका दूध नहीं है।’
श्रीकृष्ण—‘अरी मैया! तू मुझे बहला रही है, भला बिना गायके दूध कैसे?’
यशोदा—‘वत्स! जिसने गायोंमें दूध बनाया है, वह गायके बिना भी दूध बना सकता है।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! वह कौन है?’
यशोदा—‘वह भगवान् हैं; परन्तु अग (उनके पास कोई जा नहीं सकता। अथवा ‘ग’ कार रहित) हैं।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा ठीक है, आगे कहो।’
यशोदा—‘एक बार देवता और दैत्योंमें लड़ाई हुई। असुरोंको मोहित करनेके लिये भगवान्ने क्षीरसागरको मथा। मंदराचलकी रई बनी। वासुकि नागकी रस्सी। एक ओर देवता लगे, दूसरी ओर दानव।’
श्रीकृष्ण—‘जैसे गोपियाँ दही मथती हैं, क्यों मैया?’
यशोदा—‘हाँ बेटा! उसीसे कालकूट नामका विष पैदा हुआ।’
श्रीकृष्ण—‘मैया! विष तो साँपोंमें होता है, दूधमें कैसे निकला?’
यशोदा—‘बेटा! जब शंकर भगवान्ने वही विष पी लिया, तब उसकी जो फुइयाँ धरतीपर गिर पड़ीं, उन्हें पीकर साँप विषधर हो गये। सो बेटा! भगवान्की ही ऐसी कोई लीला है, जिससे दूधमेंसे विष निकला।’
श्रीकृष्ण—‘अच्छा मैया! यह तो ठीक है।’
यशोदा—‘बेटा! (चन्द्रमाकी ओर दिखाकर) यह मक्खन भी उसीसे निकला है। इसलिये थोड़ा-सा विष इसमें भी लग गया। देखो, देखो, इसीको लोग कलंक कहते हैं। सो मेरे प्राण! तुम घरका ही मक्खन खाओ।’
कथा सुनते-सुनते श्यामसुन्दरकी आँखोंमें नींद आ गयी और मैयाने उन्हें पलंगपर सुला दिया।
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईषद् घृष्टजानुभिः पद्भिः विचक्रमतुः कदाचिज्जानुभ्यां कदाचित्पद्भयां गमनं चक्रतुरित्यर्थः ॥ २६-२८ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु भगवान् कृष्णो वयस्यैर्व्रजबालकैः।
सहरामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन् मुदम्॥
मूलम्
ततस्तु भगवान् कृष्णो वयस्यैर्व्रजबालकैः।
सहरामो व्रजस्त्रीणां चिक्रीडे जनयन् मुदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये व्रजवासियोंके कन्हैया स्वयं भगवान् हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्रके ग्वालबालोंको अपने साथ लेकर खेलनेके लिये व्रजमें निकल पड़ते और व्रजकी भाग्यवती गोपियोंको निहाल करते हुए तरह-तरहके खेल खेलते॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम्।
शृण्वत्याः किल तन्मातुरिति होचुः समागताः॥
मूलम्
कृष्णस्य गोप्यो रुचिरं वीक्ष्य कौमारचापलम्।
शृण्वत्याः किल तन्मातुरिति होचुः समागताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बचपनकी चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियोंको तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्द-बाबाके घर आयीं और यशोदा माताको सुना-सुनाकर कन्हैयाके करतूत कहने लगीं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्सान् मुञ्चन् क्वचिदसमये
क्रोशसंजातहासः
स्तेयं स्वाद्वत्त्यथ दधि पयः
कल्पितैः स्तेययोगैः।
मर्कान् भोक्ष्यन् विभजति स चे-
न्नात्ति भाण्डं भिनत्ति
द्रव्यालाभे स गृहकुपितो
यात्युपक्रोश्य तोकान्॥
मूलम्
वत्सान् मुञ्चन् क्वचिदसमये
क्रोशसंजातहासः
स्तेयं स्वाद्वत्त्यथ दधि पयः
कल्पितैः स्तेययोगैः।
मर्कान् भोक्ष्यन् विभजति स चे-
न्नात्ति भाण्डं भिनत्ति
द्रव्यालाभे स गृहकुपितो
यात्युपक्रोश्य तोकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहनेका समय न होनेपर भी यह बछड़ोंको खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरीके बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल अपने ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरोंको बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जानेपर नहीं खा पाते, तब यह हमारे माटोंको ही फोड़ डालता है। यदि घरमें कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालोंपर बहुत खीझता है और हमारे बच्चोंको रुलाकर भाग जाता है॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्रोशसञ्जातहासः जनानामाक्रोशे जातहासः अत्ति भुङ्क्ते स्तेययोगैः चौर्यरूपैरुपायैः चौर्यस्योपायैर्वा मर्कान् दधिसारस्य नवनीतं प्रचक्षते इत्याह- तं विभजति सखिभ्य इति शेषः । यद्वा मर्कं मर्कटं प्रति विभजति स्वोपभोक्तव्यमधिकं कर्कटादिभ्यो ददातीत्यर्थः । सचेन्नात्ति स मर्कः कृत्स्नोपभोगान्नात्ति चेत् केवलं भाण्डं भिनत्ति कृत्स्नं च क्षयित्वा भाण्डं च भिनत्तीत्यर्थः । यद्वा मर्कटको नात्ति चेत् भुक्तावशिष्टगव्यसहितं भाण्डं भिनत्तीत्यर्थः । द्रव्यालाभे दधिक्षीरादेः कृष्णभयात् प्रच्छन्ननिहिततया तदलाभे सति स्वगृहे कुपितः तस्मिन् गृहे कुपितः तोकान् बालानुपक्रोश्य प्रहारतोदनादिभिः कुपितान् कृत्वेत्यर्थः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्ताग्राह्ये रचयति विधिं
पीठकोलूखलाद्यै-
श्छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः
शिक्यभाण्डेषु तद्वित्।
ध्वान्तागारे धृतमणिगणं
स्वाङ्गमर्थप्रदीपं
काले गोप्यो यर्हि गृहकृ-
त्येषु सुव्यग्रचित्ताः॥
मूलम्
हस्ताग्राह्ये रचयति विधिं
पीठकोलूखलाद्यै-
श्छिद्रं ह्यन्तर्निहितवयुनः
शिक्यभाण्डेषु तद्वित्।
ध्वान्तागारे धृतमणिगणं
स्वाङ्गमर्थप्रदीपं
काले गोप्यो यर्हि गृहकृ-
त्येषु सुव्यग्रचित्ताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब हम दही-दूधको छीकोंपर रख देती हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँतक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है। कहीं दो-चार पीढ़ोंको एकके ऊपर एक रख देता है। कहीं ऊखलपर चढ़ जाता है तो कहीं ऊखलपर पीढ़ा रख देता है, (कभी-कभी तो अपने किसी साथीके कंधेपर ही चढ़ जाता है।) जब इतनेपर भी काम नहीं चलता, तब यह नीचेसे ही उन बर्तनोंमें छेद कर देता है। इसे इस बातकी पक्की पहचान रहती है कि किस छींकेपर किस बर्तनमें क्या रखा है। और ऐसे ढंगसे छेद करना जानता है कि किसीको पतातक न चले। जब हम अपनी वस्तुओंको बहुत अँधेरेमें छिपा देती हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत-से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाशसे अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीरमें भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घरके काम-धंधोंमें उलझी रहती हैं, तब यह अपना काम बना लेता है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्तर्निहितवयुनो अन्तर्निहितनवनीतादिभोग्यद्रव्यज्ञानवान् शिक्यस्थभाण्डे दृषद्भिः छिद्रं रचयतीत्यन्वयः । ध्वान्तागारे अन्धकारावृतागारे धृतमणिगणं स्वान्नम् अर्कप्रदीपं प्रकाशं स्वरङ्गं रचयति सन्निधापयति ॥ ३० ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते
मेहनादीनि वास्तौ
स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः
सुप्रतीको यथाऽऽस्ते।
इत्थं स्त्रीभिः सभयनयन-
श्रीमुखालोकिनीभि-
र्व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी
न ह्युपालब्धुमैच्छत्॥
मूलम्
एवं धार्ष्ट्यान्युशति कुरुते
मेहनादीनि वास्तौ
स्तेयोपायैर्विरचितकृतिः
सुप्रतीको यथाऽऽस्ते।
इत्थं स्त्रीभिः सभयनयन-
श्रीमुखालोकिनीभि-
र्व्याख्यातार्था प्रहसितमुखी
न ह्युपालब्धुमैच्छत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा करके भी ढिठाईकी बातें करता है—उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घरका मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरोंमें मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरीके अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थरकी मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहती जातीं और श्रीकृष्णके भीत-चकित नेत्रोंसे युक्त मुखकमलको देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदाजी उनके मनका भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदयमें स्नेह और आनन्दकी बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैयाको इस बातका उलाहना भी न दे पातीं, डाँटनेकी बाततक नहीं सोच पातीं*॥ ३१॥
पादटिप्पनी
- भगवान्की लीलापर विचार करते समय यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान्का लीलाधाम, भगवान्के लीलापात्र, भगवान्का लीलाशरीर और उनकी लीला प्राकृत नहीं होती। भगवान्में देह-देहीका भेद नहीं है। महाभारतमें आया है—
न भूतसंघसंस्थानो देवस्य परमात्मनः।
यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः॥
स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः।
मुखं तस्यावलोक्यापि सचैलः स्नानमाचरेत्॥
‘परमात्माका शरीर भूतसमुदायसे बना हुआ नहीं होता। जो मनुष्य श्रीकृष्ण परमात्माके शरीरको भौतिक जानता-मानता है, उसका समस्त श्रौत-स्मार्त कर्मोंसे बहिष्कार कर देना चाहिये अर्थात् उसका किसी भी शास्त्रीय कर्ममें अधिकार नहीं है। यहाँतक कि उसका मुँह देखनेपर भी सचैल (वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिये।’
श्रीमद्भागवतमें ही ब्रह्माजीने भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए कहा है—
अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।
‘आपने मुझपर कृपा करनेके लिये ही यह स्वेच्छामय सच्चिदानन्दस्वरूप प्रकट किया है, यह पांचभौतिक कदापि नहीं है।’
इससे यह स्पष्ट है कि भगवान्का सभी कुछ अप्राकृत होता है। इसी प्रकार यह माखनचोरीकी लीला भी अप्राकृत—दिव्य ही है।
यदि भगवान्के नित्य परम धाममें अभिन्नरूपसे नित्य निवास करनेवाली नित्यसिद्धा गोपियोंकी दृष्टिसे न देखकर केवल साधनसिद्धा गोपियोंकी दृष्टिसे देखा जाय तो भी उनकी तपस्या इतनी कठोर थी, उनकी लालसा इतनी अनन्य थी, उनका प्रेम इतना व्यापक था और उनकी लगन इतनी सच्ची थी कि भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रेमरसमय भगवान् उनके इच्छानुसार उन्हें सुख पहुँचानेके लिये माखनचोरीकी लीला करके उनकी इच्छित पूजा ग्रहण करें, चीरहरण करके उनका रहा-सहा व्यवधानका परदा उठा दें और रासलीला करके उनको दिव्य सुख पहुँचायें तो कोई बड़ी बात नहीं है।
भगवान्की नित्यसिद्धा चिदानन्दमयी गोपियोंके अतिरिक्त बहुत-सी ऐसी गोपियाँ और थीं, जो अपनी महान् साधनाके फलस्वरूप भगवान्की मुक्तजन-वांछित सेवा करनेके लिये गोपियोंके रूपमें अवतीर्ण हुई थीं। उनमेंसे कुछ पूर्वजन्मकी देवकन्याएँ थीं, कुछ श्रुतियाँ थीं, कुछ तपस्वी ऋषि थे और कुछ अन्य भक्तजन। इनकी कथाएँ विभिन्न पुराणोंमें मिलती हैं। श्रुतिरूपा गोपियाँ, जो ‘नेति-नेति’ के द्वारा निरन्तर परमात्माका वर्णन करते रहनेपर भी उन्हें साक्षात्-रूपसे प्राप्त नहीं कर सकतीं, गोपियोंके साथ भगवान्के दिव्य रसमय विहारकी बात जानकर गोपियोंकी उपासना करती हैं और अन्तमें स्वयं गोपीरूपमें परिणत होकर भगवान् श्रीकृष्णको साक्षात् अपने प्रियतमरूपसे प्राप्त करती हैं। इनमें मुख्य श्रुतियोंके नाम हैं—उद्गीता, सुगीता, कलगीता, कलकण्ठिका और विपंची आदि।
भगवान्के श्रीरामावतारमें उन्हें देखकर मुग्ध होनेवाले—अपने-आपको उनके स्वरूप-सौन्दर्यपर न्योछावर कर देनेवाले सिद्ध ऋषिगण, जिनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें गोपी होकर प्राप्त करनेका वर दिया था, व्रजमें गोपीरूपसे अवतीर्ण हुए थे। इसके अतिरिक्त मिथिलाकी गोपी, कोसलकी गोपी, अयोध्याकी गोपी—पुलिन्दगोपी, रमावैकुण्ठ, श्वेतद्वीप आदिकी गोपियाँ और जालन्धरी गोपी आदि गोपियोंके अनेकों यूथ थे, जिनको बड़ी तपस्या करके भगवान्से वरदान पाकर गोपीरूपमें अवतीर्ण होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। पद्मपुराणके पातालखण्डमें बहुत-से ऐसे ऋषियोंका वर्णन है, जिन्होंने बड़ी कठिन तपस्या आदि करके अनेकों कल्पोंके बाद गोपीस्वरूपको प्राप्त किया था। उनमेंसे कुछके नाम निम्नलिखित हैं—
१. एक उग्रतपा नामके ऋषि थे। वे अग्निहोत्री और बड़े दृढ़व्रती थे। उनकी तपस्या अद्भुत थी। उन्होंने पंचदशाक्षर-मन्त्रका जाप और रासोन्मत्त नवकिशोर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका ध्यान किया था। सौ कल्पोंके बाद वे सुनन्द नामक गोपकी कन्या ‘सुनन्दा’ हुए।
२. एक सत्यतपा नामके मुनि थे। वे सूखे पत्तोंपर रहकर दशाक्षरमन्त्रका जाप और श्रीराधाजीके दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करते थे। दस कल्पके बाद वे सुभद्र नामक गोपकी कन्या ‘सुभद्रा’ हुए।
३. हरिधामा नामके एक ऋषि थे। वे निराहार रहकर ‘क्लीं’ कामबीजसे युक्त विंशाक्षरी मन्त्रका जाप करते थे और माधवीमण्डपमें कोमल-कोमल पत्तोंकी शय्यापर लेटे हुए युगल-सरकारका ध्यान करते थे। तीन कल्पके पश्चात् वे सारंग नामक गोपके घर ‘रंगवेणी’ नामसे अवतीर्ण हुए।
४. जाबालि नामके एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि थे, उन्होंने एक बार विशाल वनमें विचरते-विचरते एक जगह बहुत बड़ी बावली देखी। उस बावलीके पश्चिम तटपर बड़के नीचे एक तेजस्विनी युवती स्त्री कठोर तपस्या कर रही थी। वह बड़ी सुन्दर थी। चन्द्रमाकी शुभ्र किरणोंके समान उसकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी। उसका बायाँ हाथ अपनी कमरपर था और दाहिने हाथसे वह ज्ञानमुद्रा धारण किये हुए थी। जाबालिके बड़ी नम्रताके साथ पूछनेपर उस तापसीने बतलाया—
ब्रह्मविद्याहमतुला योगीन्द्रैर्या च मृग्यते।
साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः॥
ब्रह्मानन्देन पूर्णाहं तेनानन्देन तृप्तधीः।
चराम्यस्मिन् वने घोरे ध्यायन्ती पुरुषोत्तमम्॥
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना॥
‘मैं वह ब्रह्मविद्या हूँ, जिसे बड़े-बड़े योगी सदा ढूँढ़ा करते हैं। मैं श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी प्राप्तिके लिये इस घोर वनमें उन पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई दीर्घकालसे तपस्या कर रही हूँ। मैं ब्रह्मानन्दसे परिपूर्ण हूँ और मेरी बुद्धि भी उसी आनन्दसे परितृप्त है। परन्तु श्रीकृष्णका प्रेम मुझे अभी प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये मैं अपनेको शून्य देखती हूँ।’ ब्रह्मज्ञानी जाबालिने उसके चरणोंपर गिरकर दीक्षा ली और फिर व्रजवीथियोंमें विहरनेवाले भगवान्का ध्यान करते हुए वे एक पैरसे खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या करते रहे। नौ कल्पोंके बाद प्रचण्ड नामक गोपके घर वे ‘चित्रगन्धा’ के रूपमें प्रकट हुए।
५. कुशध्वज नामक ब्रह्मर्षिके पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्त्वज्ञ थे। उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्रका जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्षकी उम्रके भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए घोर तपस्या की। कल्पके बाद वे व्रजमें सुधीर नामक गोपके घर उत्पन्न हुए।
इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियोंके पूर्वजन्मकी कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभयसे उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया। भगवान्के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगनके साथ कल्पोंतक साधना करके जिन त्यागी भगवत्प्रेमियोंने गोपियोंका तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये, उन्हें आनन्द-दान देनेके लिये यदि भगवान् उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचारकी कौन-सी बात है? रासलीलाके प्रसंगमें स्वयं भगवान्ने श्रीगोपियोंसे कहा है—
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां
स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेहशृंखलाः
संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना॥
(१०। ३२। २२)
‘गोपियो! तुमने लोक और परलोकके सारे बन्धनोंको काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममेंसे प्रत्येकके लिये अलग-अलग अनन्त कालतक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेमका बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधुस्वभावसे ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो। यही उत्तम है।’ सर्वलोकमहेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभागा गोपियोंके ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा, इच्छा होनेसे पूर्व ही भगवान् पूर्ण कर दें—यह तो स्वाभाविक ही है।
भला विचारिये तो सही श्रीकृष्णगतप्राणा, श्रीकृष्णरसभावितमति गोपियोंके मनकी क्या स्थिति थी। गोपियोंका तन, मन, धन—सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्णका था। वे संसारमें जीती थीं श्रीकृष्णके लिये, घरमें रहती थीं श्रीकृष्णके लिये और घरके सारे काम करती थीं श्रीकृष्णके लिये। उनकी निर्मल और योगीन्द्रदुर्लभ पवित्र बुद्धिमें श्रीकृष्णके सिवा अपना कुछ था ही नहीं। श्रीकृष्णके लिये ही, श्रीकृष्णको सुख पहुँचानेके लिये ही, श्रीकृष्णकी निज सामग्रीसे ही श्रीकृष्णको पूजकर—श्रीकृष्णको सुखी देखकर वे सुखी होती थीं। प्रातःकाल निद्रा टूटनेके समयसे लेकर रातको सोनेतक वे जो कुछ भी करती थीं, सब श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये ही करती थीं। यहाँतक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्णमें ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनोंमें ही वे श्रीकृष्णकी मधुर और शान्त लीला देखतीं और अनुभव करती थीं। रातको दही जमाते समय श्यामसुन्दरकी माधुरी छबिका ध्यान करती हुई प्रेममयी प्रत्येक गोपी यह अभिलाषा करती थी कि मेरा दही सुन्दर जमे, श्रीकृष्णके लिये उसे बिलोकर मैं बढ़िया-सा और बहुत-सा माखन निकालूँ और उसे उतने ही ऊँचे छीकेपर रखूँ, जितनेपर श्रीकृष्णके हाथ आसानीसे पहुँच सकें। फिर मेरे प्राणधन श्रीकृष्ण अपने सखाओंको साथ लेकर हँसते और क्रीड़ा करते हुए घरमें पदार्पण करें, माखन लूटें और अपने सखाओं और बंदरोंको लुटायें, आनन्दमें मत्त होकर मेरे आँगनमें नाचें और मैं किसी कोनेमें छिपकर इस लीलाको अपनी आँखोंसे देखकर जीवनको सफल करूँ और फिर अचानक ही पकड़कर हृदयसे लगा लूँ। सूरदासजीने गाया है—
मैया री, मोहि माखन भावै।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहि नहीं रुचि आवै॥
ब्रज-जुवती इक पाछैं ठाढ़ी, सुनत स्यामकी बात।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात॥
बैठैं जाइ मथनियाँकें ढिग, मैं तब रहौं छपानी।
सूरदास प्रभु अंतरजामी, ग्वालिनि-मन की जानी॥
एक दिन श्यामसुन्दर कह रहे थे, ‘मैया! मुझे माखन भाता है; तू मेवा-पकवानके लिये कहती है, परन्तु मुझे तो वे रुचते ही नहीं।’ वहीं पीछे एक गोपी खड़ी श्यामसुन्दरकी बात सुन रही थी। उसने मन-ही-मन कामना की—‘मैं कब इन्हें अपने घर माखन खाते देखूँगी; ये मथानीके पास जाकर बैठेंगे, तब मैं छिप रहूँगी?’ प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, गोपीके मनकी जान गये और उसके घर पहुँचे तथा उसके घरका माखन खाकर उसे सुख दिया—‘गये स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर।’
उसे इतना आनन्द हुआ कि वह फूली न समायी। सूरदासजी गाते हैं—
फूली फिरति ग्वालि मनमें री।
पूछति सखी परस्पर बातैं पायो पर्यौ कछू कहुँ तैं री?॥
पुलकित रोम-रोम, गदगद मुख बानी कहत न आवै।
ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यों न सुनावै॥
तन न्यारा, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप।
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप॥
वह खुशीसे छककर फूली-फूली फिरने लगी। आनन्द उसके हृदयमें समा नहीं रहा था। सहेलियोंने पूछा—‘अरी, तुझे कहीं कुछ पड़ा धन मिल गया क्या?’ वह तो यह सुनकर और भी प्रेमविह्वल हो गयी। उसका रोम-रोम खिल उठा, वह गद्गद हो गयी, मुँहसे बोली नहीं निकली। सखियोंने कहा—‘सखि! ऐसी क्या बात है, हमें सुनाती क्यों नहीं? हमारे तो शरीर ही दो हैं, हमारा जी तो एक ही है—हम-तुम दोनों एक ही रूप हैं। भला, हमसे छिपानेकी कौन सी बात है?’ तब उसके मुँहसे इतना ही निकला—‘मैंने आज अनूप रूप देखा है।’ बस, फिर वाणी रुक गयी और प्रेमके आँसू बहने लगे! सभी गोपियोंकी यही दशा थी।
ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात।
दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात॥
ब्रज-बनिता यह सुनि मन हरषित, सदन हमारैं आवैं।
माखन खात अचानक पावैं, भुज भरि उरहिं छुपावैं॥
मनहीं मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान।
सूरदास प्रभु कौं घरमें लै, दैहों माखन खान॥
चली ब्रज घर-घरनि यह बात।
नंद-सुत, सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात॥
कोउ कहति, मेरे भवन भीतर, अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारैं, उतहिं गए पराइ॥
कोउ कहति, किहिं भाँति हरिकौं, देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउँ आछौ, खाइ जितनौ स्याम॥
कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवार।
कोउ कहति, मैं बाँधि राखौं, को सकै निरवार॥
सूर प्रभुके मिलन कारन, करति बिबिध बिचार।
जोरि कर बिधि कौं मनावति पुरुष नंदकुमार॥
रातों गोपियाँ जाग-जागकर प्रातःकाल होनेकी बाट देखतीं। उनका मन श्रीकृष्णमें लगा रहता । प्रातःकाल जल्दी-जल्दी दही मथकर, माखन निकालकर छीकेपर रखतीं; कहीं प्राणधन आकर लौट न जायँ, इसलिये सब काम छोड़कर वे सबसे पहले यही काम करतीं और श्यामसुन्दरकी प्रतीक्षामें व्याकुल होती हुई मन-ही-मन सोचतीं—‘हा! आज प्राणप्रियतम क्यों नहीं आये? इतनी देर क्यों हो गयी? क्या आज इस दासीका घर पवित्र न करेंगे? क्या आज मेरे समर्पण किये हुए इस तुच्छ माखनका भोग लगाकर स्वयं सुखी होकर मुझे सुख न देंगे? कहीं यशोदा मैयाने तो उन्हें नहीं रोक लिया? उनके घर तो नौ लाख गौएँ हैं । माखनकी क्या कमी है। मेरे घर तो वे कृपा करके ही आते हैं!’ इन्हीं विचारोंमें आँसू बहाती हुई गोपी क्षण-क्षणमें दौड़कर दरवाजेपर जाती, लाज छोड़कर रास्तेकी ओर देखती, सखियोंसे पूछती। एक-एक निमेष उसके लिये युगके समान हो जाता! ऐसी भाग्यवती गोपियोंकी मनःकामना भगवान् उनके घर पधारकर पूर्ण करते।
सूरदासजीने गाया है—
प्रथम करी हरि माखन-चोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी॥
मनमें यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाउँ।
गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकैं माखन खाउँ॥
बालरूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं ये मेरे ब्रज लोग॥
अपने निजजन व्रजवासियोंको सुखी करनेके लिये ही तो भगवान् गोकुलमें पधारे थे। माखन तो नन्दबाबाके घरपर कम न था। लाख-लाख गौएँ थीं। वे चाहे जितना खाते-लुटाते। परन्तु वे तो केवल नन्दबाबाके ही नहीं; सभी व्रजवासियोंके अपने थे, सभीको सुख देना चाहते थे। गोपियोंकी लालसा पूरी करनेके लिये ही वे उनके घर जाते और चुरा-चुराकर माखन खाते। यह वास्तवमें चोरी नहीं, यह तो गोपियोंकी पूजा-पद्धतिका भगवान्के द्वारा स्वीकार था । भक्तवत्सल भगवान् भक्तकी पूजा स्वीकार कैसे न करें?
भगवान्की इस दिव्यलीला—माखनचोरीका रहस्य न जाननेके कारण ही कुछ लोग इसे आदर्शके विपरीत बतलाते हैं। उन्हें पहले समझना चाहिये चोरी क्या वस्तु है, वह किसकी होती है और कौन करता है। चोरी उसे कहते हैं जब किसी दूसरेकी कोई चीज, उसकी इच्छाके बिना, उसके अनजानमें और आगे भी वह जान न पाये—ऐसी इच्छा रखकर ले ली जाती है। भगवान् श्रीकृष्ण गोपियोंके घरसे माखन लेते थे उनकी इच्छासे, गोपियोंके अनजानमें नहीं—उनकी जानमें, उनके देखते-देखते और आगे जनानेकी कोई बात ही नहीं—उनके सामने ही दौड़ते हुए निकल जाते थे। दूसरी बात महत्त्वकी यह है कि संसारमें या संसारके बाहर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो श्रीभगवान्की नहीं है और वे उसकी चोरी करते हैं। गोपियोंका तो सर्वस्व श्रीभगवान्का था ही, सारा जगत् ही उनका है। वे भला, किसकी चोरी कर सकते हैं? हाँ, चोर तो वास्तवमें वे लोग हैं, जो भगवान्की वस्तुको अपनी मानकर ममता-आसक्तिमें फँसे रहते हैं और दण्डके पात्र बनते हैं। उपर्युक्त सभी दृष्टियोंसे यही सिद्ध होता है कि माखनचोरी चोरी न थी, भगवान्की दिव्य लीला थी। असलमें गोपियोंने प्रेमकी अधिकतासे ही भगवान्का प्रेमका नाम ‘चोर’ रख दिया था, क्योंकि वे उनके चित्तचोर तो थे ही।
जो लोग भगवान् श्रीकृष्णको भगवान् नहीं मानते, यद्यपि उन्हें श्रीमद्भागवतमें वर्णित भगवान्की लीलापर विचार करनेका कोई अधिकार नहीं है, परन्तु उनकी दृष्टिसे भी इस प्रसंगमें कोई आपत्तिजनक बात नहीं है। क्योंकि श्रीकृष्ण उस समय लगभग दो-तीन वर्षके बच्चे थे और गोपियाँ अत्यधिक स्नेहके कारण उनके ऐसे-ऐसे मधुर खेल देखना चाहती थीं। आशा है, इससे शंका करनेवालोंको कुछ सन्तोष होगा।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
श्रीसुदर्शनसूरिः
यस्मिन् कृष्णः द्वारे देहल्यादिप्रदेशे विरचितकृतिः विरचितचौर्यव्यापारः सुप्रतीको यथास्ते सुप्रतीकाख्यदिग्गज इव अप्रधृष्य आस्ते सभयनयनं भयसूचकनयनसहितं श्रीमुखं कृष्णस्य श्रीमुखमालोकयन्तीभिः व्याख्यातार्था निवेदितशौर्यादिव्यापारान् उपालब्धुं भर्स्नादिकर्त्तुम् ॥ ३१-३५ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारकाः।
कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्यवेदयन्॥
मूलम्
एकदा क्रीडमानास्ते रामाद्या गोपदारकाः।
कृष्णो मृदं भक्षितवानिति मात्रे न्यवेदयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्णके साथ खेल रहे थे। उन लोगोंने माँ यशोदाके पास आकर कहा—‘माँ! कन्हैयाने मिट्टी खायी है’*॥ ३२॥
पादटिप्पनी
- मृद्-भक्षणके हेतु—
१—भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्त्वगुण ही रहता है और आगे बहुत-से रजोगुणी कर्म करने हैं। उसके लिये थोड़ा-सा ‘रज’ संग्रह कर लें।
२—संस्कृत-साहित्यमें पृथ्वीका एक नाम ‘क्षमा’ भी है। श्रीकृष्णने देखा कि ग्वालबाल खुलकर मेरे साथ खेलते हैं; कभी-कभी अपमान भी कर बैठते हैं। उनके साथ क्षमांश धारण करके ही क्रीडा करनी चाहिये, जिससे कोई विघ्न न पड़े।
३—संस्कृत-भाषामें पृथ्वीको ‘रसा’ भी कहते हैं। श्रीकृष्णने सोचा सब रस तो ले ही चुका हूँ, अब रसा-रसका आस्वादन करूँ।
४—इस अवतारमें पृथ्वीका हित करना है। इसलिये उसका कुछ अंश अपने मुख्य (मुखमें स्थित) द्विजों (दाँतों) को पहले दान कर लेना चाहिये।
५—ब्राह्मण शुद्ध सात्त्विक कर्ममें लग रहे हैं, अब उन्हें असुरोंका संहार करनेके लिये कुछ राजस कर्म भी करने चाहिये। यही सूचित करनेके लिये मानो उन्होंने अपने मुखमें स्थित द्विजोंको (दाँतोंको) रजसे युक्त किया।
६—पहले विष भक्षण किया था, मिट्टी खाकर उसकी दवा की।
७—पहले गोपियोंका मक्खन खाया था, उलाहना देनेपर मिट्टी खा ली, जिससे मुँह साफ हो जाय।
८—भगवान् श्रीकृष्णके उदरमें रहनेवाले कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंके जीव व्रज-रज—गोपियोंके चरणोंकी रज— प्राप्त करनेके लिये व्याकुल हो रहे थे। उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये भगवान्ने मिट्टी खायी।
९—भगवान् स्वयं ही अपने भक्तोंकी चरण-रज मुखके द्वारा अपने हृदयमें धारण करते हैं।
१०—छोटे बालक स्वभावसे ही मिट्टी खा लिया करते हैं।
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैषिणी।
यशोदा भयसम्भ्रान्तप्रेक्षणाक्षमभाषत॥
मूलम्
सा गृहीत्वा करे कृष्णमुपालभ्य हितैषिणी।
यशोदा भयसम्भ्रान्तप्रेक्षणाक्षमभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
हितैषिणी यशोदाने श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया१। उस समय श्रीकृष्णकी आँखें डरके मारे नाच रही थीं२। यशोदा मैयाने डाँटकर कहा—॥ ३३॥
पादटिप्पनी
१. यशोदाजी जानती थीं कि इस हाथने मिट्टी खानेमें सहायता की है। चोरका सहायक भी चोर ही है। इसलिये उन्होंने हाथ ही पकड़ा।
२. भगवान्के नेत्रमें सूर्य और चन्द्रमाका निवास है। वे कर्मके साक्षी हैं। उन्होंने सोचा कि पता नहीं श्रीकृष्ण मिट्टी खाना स्वीकार करेंगे कि मुकर जायँगे। अब हमारा कर्तव्य क्या है। इसी भावको सूचित करते हुए दोनों नेत्र चकराने लगे।
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मान्मृदमदान्तात्मन् भवान् भक्षितवान् रहः।
वदन्ति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम्॥
मूलम्
कस्मान्मृदमदान्तात्मन् भवान् भक्षितवान् रहः।
वदन्ति तावका ह्येते कुमारास्तेऽग्रजोऽप्ययम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेलेमें छिपकर मिट्टी क्यों खायी? देख तो तेरे दलके तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हींकी ओरसे गवाही दे रहे हैं’॥ ३४॥
श्लोक-३५
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः।
यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम्॥
मूलम्
नाहं भक्षितवानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिनः।
यदि सत्यगिरस्तर्हि समक्षं पश्य मे मुखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहे हैं। यदि तुम इन्हींकी बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखोंसे देख लो॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवं तर्हि व्यादेहीत्युक्तः स भगवान् हरिः।
व्यादत्ताव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः॥
मूलम्
यद्येवं तर्हि व्यादेहीत्युक्तः स भगवान् हरिः।
व्यादत्ताव्याहतैश्वर्यः क्रीडामनुजबालकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदाजीने कहा—‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माताके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने अपना मुँह खोल दिया*। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीलाके लिये ही मनुष्यके बालक बने हुए हैं॥ ३६॥
पादटिप्पनी
- १—माँ! मिट्टी खानेके सम्बन्धमें ये मुझ अकेलेका ही नाम ले रहे हैं। मैंने खायी, तो सबने खायी, देख लो मेरे मुखमें सम्पूर्ण विश्व!
२-श्रीकृष्णने विचार किया कि उस दिन मेरे मुखमें विश्व देखकर माताने अपने नेत्र बंद कर लिये थे। आज भी जब मैं अपना मुँह खोलूँगा, तब यह अपने नेत्र बंद कर लेगी। इस विचारसे मुख खोल दिया।
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यादेहि आस्यं विवृतं कुरु ॥ ३६-३७ ।।
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तत्र ददृशे विश्वं जगत् स्थास्नु च खं दिशः।
साद्रिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नीन्दुतारकम्॥
मूलम्
सा तत्र ददृशे विश्वं जगत् स्थास्नु च खं दिशः।
साद्रिद्वीपाब्धिभूगोलं सवाय्वग्नीन्दुतारकम्॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान् वियदेव च।
वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः॥
मूलम्
ज्योतिश्चक्रं जलं तेजो नभस्वान् वियदेव च।
वैकारिकाणीन्द्रियाणि मनो मात्रा गुणास्त्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदाजीने देखा कि उनके मुँहमें चर-अचर सम्पूर्ण जगत् विद्यमान है। आकाश (वह शून्य जिसमें किसीकी गति नहीं), दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रोंके सहित सारी पृथ्वी, बहनेवाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारोंके साथ सम्पूर्ण ज्योतिमर्ण्डल, जल, तेज, पवन, वियत् (प्राणियोंके चलने-फिरनेका आकाश), वैकारिक अहंकारके कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्णके मुखमें दीख पड़े॥ ३७-३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विचित्रं सह जीवकाल-
स्वभावकर्माशयलिङ्गभेदम्।
सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्ये
व्रजं सहात्मानमवाप शङ्काम्॥
मूलम्
एतद् विचित्रं सह जीवकाल-
स्वभावकर्माशयलिङ्गभेदम्।
सूनोस्तनौ वीक्ष्य विदारितास्ये
व्रजं सहात्मानमवाप शङ्काम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जीव, काल, स्वभाव, कर्म, उनकी वासना और शरीर आदिके द्वारा विभिन्न रूपोंमें दीखनेवाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण व्रज और अपने-आपको भी यशोदाजीने श्रीकृष्णके नन्हेसे खुले हुए मुखमें देखा। वे बड़ी शंकामें पड़ गयीं॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैकारिकाणि साहङ्कारकार्याणि इन्द्रियाणि मनश्चेत्यन्वयः मात्रास्तन्मात्राणि पञ्च आशयो वासना लिङ्गं शरीरम् ॥ ३८-३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं स्वप्न एतदुत देवमाया
किं वा मदीयो बत बुद्धिमोहः।
अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य
यः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः॥
मूलम्
किं स्वप्न एतदुत देवमाया
किं वा मदीयो बत बुद्धिमोहः।
अथो अमुष्यैव ममार्भकस्य
यः कश्चनौत्पत्तिक आत्मयोगः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान्की माया? कहीं मेरी बुद्धिमें ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालकमें ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो’॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ममार्भकस्य मम सुतस्य औत्पत्तिकः स्वगतोऽणिमाद्यैश्वर्य्ययोगः ॥ ४० ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथो यथावन्न वितर्कगोचरं
चेतोमनःकर्मवचोभिरञ्जसा।
यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते
सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम्॥
मूलम्
अथो यथावन्न वितर्कगोचरं
चेतोमनःकर्मवचोभिरञ्जसा।
यदाश्रयं येन यतः प्रतीयते
सुदुर्विभाव्यं प्रणतास्मि तत्पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणीके द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमतासे अनुमानके विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्तासे ही इसकी प्रतीति होती है, जिनका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है—उन प्रभुको मैं प्रणाम करती हूँ॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
चेतः षष्ठो बुद्धिपरः मनःकर्मणो व्यापाराः यदाश्रयं यदाधेयं यतः उत्पद्यते येन सर्वं तिष्ठति प्रलीयते यत्रेत्यध्याहारः अतीयत इति पाठे अतीयव्यजत उत्पद्यत इत्यर्थः । दुर्विभाव्यम् अप्रतर्क्यं पदं प्राप्यतत्त्वं प्रणतास्मीत्यर्थः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो
व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती।
गोप्यश्च गोपाः सहगोधनाश्च मे
यन्माययेत्थं कुमतिः स मे गतिः॥
मूलम्
अहं ममासौ पतिरेष मे सुतो
व्रजेश्वरस्याखिलवित्तपा सती।
गोप्यश्च गोपाः सहगोधनाश्च मे
यन्माययेत्थं कुमतिः स मे गतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं व्रजराजकी समस्त सम्पत्तियोंकी स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ, गोप और गोधन मेरे अधीन हैं—जिनकी मायासे मुझे इस प्रकारकी कुमति घेरे हुए है, वे भगवान् ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं—मैं उन्हींकी शरणमें हूँ’॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वित्तपास्मीत्यर्थः । यन्माययेत्थं कुमतिरिति भवामीति शेषः स मे गतिरस्तीत्यर्थः ॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः।
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः॥
मूलम्
इत्थं विदिततत्त्वायां गोपिकायां स ईश्वरः।
वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेहमयीं विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्णका तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक प्रभुने अपनी पुत्रस्नेहमयी वैष्णवी योगमायाका उनके हृदयमें संचार कर दिया॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रजास्नेहमयीम् ॥४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्योनष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्यारोहमात्मजम्।
प्रवृद्धस्नेहकलिलहृदयाऽऽसीद् यथा पुरा॥
मूलम्
सद्योनष्टस्मृतिर्गोपी साऽऽरोप्यारोहमात्मजम्।
प्रवृद्धस्नेहकलिलहृदयाऽऽसीद् यथा पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
यशोदाजीको तुरंत वह घटना भूल गयी। उन्होंने अपने दुलारे लालको गोदमें उठा लिया। जैसे पहले उनके हृदयमें प्रेमका समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आरोहमङ्कम् ॥४४-४६॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय्या चोपनिषद्भिश्च सांख्ययोगैश्च सात्वतैः।
उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम्॥
मूलम्
त्रय्या चोपनिषद्भिश्च सांख्ययोगैश्च सात्वतैः।
उपगीयमानमाहात्म्यं हरिं सामन्यतात्मजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे वेद, उपनिषद्, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्म्यका गीत गाते-गाते अघाते नहीं—उन्हीं भगवान्को यशोदाजी अपना पुत्र मानती थीं॥ ४५॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दः किमकरोद् ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम्।
यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः॥
मूलम्
नन्दः किमकरोद् ब्रह्मन् श्रेय एवं महोदयम्।
यशोदा च महाभागा पपौ यस्याः स्तनं हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! नन्दबाबाने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मंगलमय साधन किया था? और परमभाग्यवती यशोदाजीने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान्ने अपने श्रीमुखसे उनका स्तनपान किया॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम्।
गायन्त्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम्॥
मूलम्
पितरौ नान्वविन्देतां कृष्णोदारार्भकेहितम्।
गायन्त्यद्यापि कवयो यल्लोकशमलापहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णकी वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदिको छिपाकर ग्वालबालोंमें करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करनेवाले लोगोंके भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं। त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं । वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेवजीको तो देखनेतकको न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं। इसका क्या कारण है?॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पितरौ देवकीवसुदेवौ कृष्णरामार्भकेहितं कृष्णरामादेहार्भकौ तयोश्चेष्टितं यल्लोकनं यद्दर्शनं शमलापहं पापापहम् ॥४७॥
श्लोक-४८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्यया।
करिष्यमाण आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह॥
मूलम्
द्रोणो वसूनां प्रवरो धरया सह भार्यया।
करिष्यमाण आदेशान् ब्रह्मणस्तमुवाच ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! नन्दबाबा पूर्वजन्ममें एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नीका नाम था धरा। उन्होंने ब्रह्माजीके आदेशोंका पालन करनेकी इच्छासे उनसे कहा—॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातयोर्नौ महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ।
भक्तिः स्यात् परमा लोके ययाञ्जो दुर्गतिं तरेत्॥
मूलम्
जातयोर्नौ महादेवे भुवि विश्वेश्वरे हरौ।
भक्तिः स्यात् परमा लोके ययाञ्जो दुर्गतिं तरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! जब हम पृथ्वीपर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो—जिस भक्तिके द्वारा संसारमें लोग अनायास ही दुर्गतियोंको पार कर जाते हैं’॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्वित्युक्तः स भगवान् व्रजे द्रोणो महायशाः।
जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत्॥
मूलम्
अस्त्वित्युक्तः स भगवान् व्रजे द्रोणो महायशाः।
जज्ञे नन्द इति ख्यातो यशोदा सा धराभवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा—‘ऐसा ही होगा।’ वे ही परमयशस्वी भगवन्मय द्रोण व्रजमें पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द। और वे ही धरा इस जन्ममें यशोदाके नामसे उनकी पत्नी हुईं॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने।
दम्पत्योर्नितरामासीद् गोपगोपीषु भारत॥
मूलम्
ततो भक्तिर्भगवति पुत्रीभूते जनार्दने।
दम्पत्योर्नितरामासीद् गोपगोपीषु भारत॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अब इस जन्ममें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेवाले भगवान् उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियोंकी अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजीका उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः।
सहरामो वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया॥
मूलम्
कृष्णो ब्रह्मण आदेशं सत्यं कर्तुं व्रजे विभुः।
सहरामो वसंश्चक्रे तेषां प्रीतिं स्वलीलया॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीकी बात सत्य करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजीके साथ व्रजमें रहकर समस्त व्रजवासियोंको अपनी बाल-लीलासे आनन्दित करने लगे॥ ५२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जातयोनौ जाते अवतीर्णो भवति सतीत्यर्थः ॥ ४८- ५२ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीयेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विश्वरूपदर्शनेऽष्टमोऽध्यायः॥ ८॥