०७ तृणावर्तमोक्षः

[सप्तमोऽध्यायः]

भागसूचना

शकट-भंजन और तृणावर्त-उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन येनावतारेण भगवान् हरिरीश्वरः।
करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो॥

मूलम्

येन येनावतारेण भगवान् हरिरीश्वरः।
करोति कर्णरम्याणि मनोज्ञानि च नः प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—प्रभो! सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुननेमें मधुर लीलाएँ करते हैं। वे सभी मेरे हृदयको बहुत प्रिय लगती हैं॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

येनेति येन केनापीत्यर्थः । कर्णरस्यानि कर्णरसावहानि ॥ १ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा
सत्त्वं च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः।
भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं
तदेव हारं वद मन्यसे चेत्॥

मूलम्

यच्छृण्वतोऽपैत्यरतिर्वितृष्णा
सत्त्वं च शुद्ध्यत्यचिरेण पुंसः।
भक्तिर्हरौ तत्पुरुषे च सख्यं
तदेव हारं वद मन्यसे चेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके श्रवणमात्रसे भगवत्-सम्बन्धी कथासे अरुचि और विविध विषयोंकी तृष्णा भाग जाती है। मनुष्यका अन्तःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है। भगवान‍्के चरणोंमें भक्ति और उनके भक्तजनोंसे प्रेम भी प्राप्त हो जाता है। यदि आप मुझे उनके श्रवणका अधिकारी समझते हों, तो भगवान‍्की उन्हीं मनोहर लीलाओंका वर्णन कीजिये॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद‍्भुतम्।
मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः॥

मूलम्

अथान्यदपि कृष्णस्य तोकाचरितमद‍्भुतम्।
मानुषं लोकमासाद्य तज्जातिमनुरुन्धतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्यलोकमें प्रकट होकर मनुष्य-जातिके स्वभावका अनुसरण करते हुए जो बाललीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद‍्भुत हैं, इसलिये आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओंका भी वर्णन कीजिये॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपैति अपगच्छति अरतिर्बुद्धेरस्वास्थ्यं यस्मिन् सति सुखहेतवोऽपि न सुखाय भवन्ति वितृष्णा विविधा तृष्णा हारं मनोहारि चेष्टितम् ॥ २-३ ॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे
जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्।
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-
श्चकार सूनोरभिषेचनं सती॥

मूलम्

कदाचिदौत्थानिककौतुकाप्लवे
जन्मर्क्षयोगे समवेतयोषिताम्।
वादित्रगीतद्विजमन्त्रवाचकै-
श्चकार सूनोरभिषेचनं सती॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार* भगवान् श्रीकृष्णके करवट बदलनेका अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घरमें बहुत-सी स्त्रियोंकी भीड़ लगी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उन्हीं स्त्रियोंके बीचमें खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे॥ ४॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ कदाचित् (एक बार) से तात्पर्य है तीसरे महीनेके जन्मनक्षत्रयुक्त कालसे। उस समय श्रीकृष्णकी झाँकीका ऐसा वर्णन मिलता है—
    स्निग्धाः पश्यति सेष्मयीति भुजयो-
    र्युग्मं मुहुश्चालय-
    न्नत्यल्पं मधुरं च कूजति परि-
    ष्वंगाय चाकांक्षति।
    लाभालाभवशादमुष्य लसति
    क्रन्दत्यपि क्वाप्यसौ
    पीतस्तन्यतया स्वपित्यपि पुन-
    र्जाग्रन्मुदं यच्छति॥
    ‘स्नेहसे तर गोपियोंको आँख उठाकर देखते हैं और मुसकराते हैं। दोनों भुजाएँ बार-बार हिलाते हैं। बड़े मधुर स्वरसे थोड़ा-थोड़ा कूजते हैं। गोदमें आनेके लिये ललकते हैं। किसी वस्तुको पाकर उससे खेलने लग जाते हैं और न मिलनेसे क्रन्दन करते हैं। कभी-कभी दूध पीकर सो जाते हैं और फिर जागकर आनन्दित करते हैं।’
श्रीसुदर्शनसूरिः

उत्थापनकौतुकाप्लवे उत्थापनं गृहाद्बहिः प्रवेशः निष्क्रमणं तत्र कौतुके यत् स्नानकार्यं तस्मिन् तद्योगकाले इत्यर्थः ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं
विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः।
अन्नाद्यवासः स्रगभीष्टधेनुभिः
संजातनिद्राक्षमशीशयच्छनैः॥

मूलम्

नन्दस्य पत्नी कृतमज्जनादिकं
विप्रैः कृतस्वस्त्ययनं सुपूजितैः।
अन्नाद्यवासः स्रगभीष्टधेनुभिः
संजातनिद्राक्षमशीशयच्छनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्दरानी यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया। उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं। जब यशोदाने उन ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे शय्यापर सुला दिया॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अशीशयत शायितवती ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी
समागतान् पूजयती व्रजौकसः।
नैवाशृणोद् वै रुदितं सुतस्य सा
रुदन् स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत्॥

मूलम्

औत्थानिकौत्सुक्यमना मनस्विनी
समागतान् पूजयती व्रजौकसः।
नैवाशृणोद् वै रुदितं सुतस्य सा
रुदन् स्तनार्थी चरणावुदक्षिपत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी आँखें खुलीं, तो वे स्तनपानके लिये रोने लगे। उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय हो रही थीं। इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा। तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

औत्थानिकम् उत्थापनमङ्गलम् ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधः शयानस्य शिशोरनोऽल्पक-
प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं व्यवर्तत।
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं
व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम्॥

मूलम्

अधः शयानस्य शिशोरनोऽल्पक-
प्रवालमृद्वङ्घ्रिहतं व्यवर्तत।
विध्वस्तनानारसकुप्यभाजनं
व्यत्यस्तचक्राक्षविभिन्नकूबरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़ेके नीचे सोये हुए थे। उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे। परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया*। उस छकड़ेपर दूध-दही आदि अनेक रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया॥ ७॥

पादटिप्पनी
  • हिरण्याक्षका पुत्र था उत्कच। वह बहुत बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था। एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके वृक्षोंको कुचल डाला। लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया—‘अरे दुष्ट! जा, तू देहरहित हो जा।’ उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा। वह धड़ामसे लोमश ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की—‘कृपासिन्धो! मुझपर कृपा कीजिये। मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था। मेरा शरीर लौटा दीजिये।’ लोमशजी प्रसन्न हो गये। महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है। उन्होंने कहा—‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे तेरी मुक्ति हो जायगी।’ वही असुर छकड़ेमें आकर बैठ गया था और भगवान् श्रीकृष्णके चरणस्पर्शसे मुक्त हो गया।

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय
औत्थानिके कर्मणि याः समागताः।
नन्दादयश्चाद‍्भुतदर्शनाकुलाः
कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात्॥

मूलम्

दृष्ट्वा यशोदाप्रमुखा व्रजस्त्रिय
औत्थानिके कर्मणि याः समागताः।
नन्दादयश्चाद‍्भुतदर्शनाकुलाः
कथं स्वयं वै शकटं विपर्यगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये। वे आपसमें कहने लगे—‘अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?’॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊचुरव्यवसितमतीन् गोपान् गोपीश्च बालकाः।
रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः॥

मूलम्

ऊचुरव्यवसितमतीन् गोपान् गोपीश्च बालकाः।
रुदतानेन पादेन क्षिप्तमेतन्न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके। वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा कि ‘इस कृष्णने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं’॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत।
अप्रमेयं बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः॥

मूलम्

न ते श्रद्दधिरे गोपा बालभाषितमित्युत।
अप्रमेयं बलं तस्य बालकस्य न ते विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु गोपोंने उसे ‘बालकोंकी बात’ मानकर उसपर विश्वास नहीं किया। ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त बलको नहीं जानते थे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशङ्किता।
कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत्॥

मूलम्

रुदन्तं सुतमादाय यशोदा ग्रहशङ्किता।
कृतस्वस्त्ययनं विप्रैः सूक्तैः स्तनमपाययत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशोदाजीने समझा यह किसी ग्रह आदिका उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लालको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंसे वेदमन्त्रोंके द्वारा शान्तिपाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्ववत् स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम्।
विप्रा हुत्वार्चयाञ्चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभिः॥

मूलम्

पूर्ववत् स्थापितं गोपैर्बलिभिः सपरिच्छदम्।
विप्रा हुत्वार्चयाञ्चक्रुर्दध्यक्षतकुशाम्बुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् गोपोंने छकड़ेको फिर सीधा कर दिया। उसपर पहलेकी तरह सारी सामग्री रख दी गयी। ब्राह्मणोंने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जलके द्वारा भगवान् और उस छकड़ेकी पूजा की॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽसूयानृतदम्भेर्ष्याहिंसामानविवर्जिताः।
न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः॥

मूलम्

येऽसूयानृतदम्भेर्ष्याहिंसामानविवर्जिताः।
न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफलाः कृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो किसीके गुणोंमें दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमानसे रहित हैं—उन सत्यशील ब्राह्मणोंका आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनः शकटं व्यवर्त्तत विपर्यस्तमभवत् रसानां कुप्यानां भाजनं रसकुप्यभाजनं हेमव्यतिरिक्तं वस्तु कुप्यं स्थापितं शकटमिति शेषः ॥ ७-१३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः।
जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः॥

मूलम्

इति बालकमादाय सामर्ग्यजुरुपाकृतैः।
जलैः पवित्रौषधिभिरभिषिच्य द्विजोत्तमैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सोचकर नन्दबाबाने बालकको गोदमें उठा लिया और ब्राह्मणोंसे साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा संस्कृत एवं पवित्र ओषधियोंसे युक्त जलसे अभिषेक कराया॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सामर्ग्यजुरुपाकृतैः तन्मन्त्रसंस्कृतेः “शतमन्वपुः लेभिरे” ॥ १४–१६ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोपः समाहितः।
हुत्वा चाग्निं द्विजातिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम्॥

मूलम्

वाचयित्वा स्वस्त्ययनं नन्दगोपः समाहितः।
हुत्वा चाग्निं द्विजातिभ्यः प्रादादन्नं महागुणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने बड़ी एकाग्रतासे स्वस्त्ययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणोंको अति उत्तम अन्नका भोजन कराया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

गावः सर्वगुणोपेता वासः स्रग्रुक्ममालिनीः।
आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुञ्जत॥

मूलम्

गावः सर्वगुणोपेता वासः स्रग्रुक्ममालिनीः।
आत्मजाभ्युदयार्थाय प्रादात्ते चान्वयुञ्जत॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद नन्दबाबाने अपने पुत्रकी उन्नति और अभिवृद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंको सर्वगुणसम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोनेके हारोंसे सजी हुई थीं। ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाऽऽशिषः।
ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम्॥

मूलम्

विप्रा मन्त्रविदो युक्तास्तैर्याः प्रोक्तास्तथाऽऽशिषः।
ता निष्फला भविष्यन्ति न कदाचिदपि स्फुटम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

या आशिषः प्रोक्तास्तास्तथेत्यर्थः ॥ १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदाऽऽरोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती।
गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत्॥

मूलम्

एकदाऽऽरोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती।
गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्लाको गोदमें लेकर दुलार रही थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टानके समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सकीं॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गिरिकूटवदिति भाविकार्योपयोगाय गुरुत्वापत्तिः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता।
महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु॥

मूलम्

भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता।
महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने भारसे पीड़ित होकर श्रीकृष्णको पृथ्वीपर बैठा दिया। इस नयी घटनासे वे अत्यन्त चकित हो रही थीं। इसके बाद उन्होंने भगवान् पुरुषोत्तमका स्मरण किया और घरके काममें लग गयीं॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जगतां भारेण पीडिता महापुरुषम् आदध्यौ कर्मसु गृहकृत्त्येषु आस अवर्त्तत ॥ १९-२४ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः।
चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम्॥

मूलम्

दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः।
चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तृणावर्त नामका एक दैत्य था। वह कंसका निजी सेवक था। कंसकी प्रेरणासे ही बवंडरके रूपमें वह गोकुलमें आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्णको उड़ाकर आकाशमें ले गया॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोकुलं सर्वमावृण्वन् मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः।
ईरयन् सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिशः॥

मूलम्

गोकुलं सर्वमावृण्वन् मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः।
ईरयन् सुमहाघोरशब्देन प्रदिशो दिशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने व्रजरजसे सारे गोकुलको ढक दिया और लोगोंकी देखनेकी शक्ति हर ली। उसके अत्यन्त भयंकर शब्दसे दसों दिशाएँ काँप उठीं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तमभवद् गोष्ठं रजसा तमसाऽऽवृतम्।
सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन् न्यस्तवती यतः॥

मूलम्

मुहूर्तमभवद् गोष्ठं रजसा तमसाऽऽवृतम्।
सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन् न्यस्तवती यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारा व्रज दो घड़ीतक रज और तमसे ढका रहा। यशोदाजीने अपने पुत्रको जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नापश्यत् कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः।
तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः॥

मूलम्

नापश्यत् कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः।
तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय तृणावर्तने बवंडररूपसे इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे। उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति खरपवनचक्रपांसुवर्षे
सुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता।
अतिकरुणमनुस्मरन्त्यशोचद्
भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः॥

मूलम्

इति खरपवनचक्रपांसुवर्षे
सुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता।
अतिकरुणमनुस्मरन्त्यशोचद्
भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस जोरकी आँधी और धूलकी वर्षामें अपने पुत्रका पता न पाकर यशोदाको बड़ा शोक हुआ। वे अपने पुत्रकी याद करके बहुत ही दीन हो गयीं और बछड़ेके मर जानेपर गायकी जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी। वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो
भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः।
रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं
पवन उपारतपांसुवर्षवेगे॥

मूलम्

रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो
भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः।
रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं
पवन उपारतपांसुवर्षवेगे॥

अनुवाद (हिन्दी)

बवंडरके शान्त होनेपर जब धूलकी वर्षाका वेग कम हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं। नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको न देखकर उनके हृदयमें भी बड़ा संताप हुआ, आँखोंसे आँसूकी धारा बहने लगी। वे फूट-फूटकर रोने लगीं॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पवन इति सप्तमी स्पृशि स्प्रष्टुमशक्यम् ॥ २५-२७ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणावर्तः शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन्।
कृष्णं नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद् भूरिभारभृत्॥

मूलम्

तृणावर्तः शान्तरयो वात्यारूपधरो हरन्।
कृष्णं नभोगतो गन्तुं नाशक्नोद् भूरिभारभृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर तृणावर्त बवंडररूपसे जब भगवान् श्रीकृष्णको आकाशमें उठा ले गया, तब उनके भारी बोझको न सँभाल सकनेके कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमश्मानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया।
गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद‍्भुतार्भकम्॥

मूलम्

तमश्मानं मन्यमान आत्मनो गुरुमत्तया।
गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद‍्भुतार्भकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तृणावर्त अपनेसे भी भारी होनेके कारण श्रीकृष्णको नीलगिरिकी चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद‍्भुत शिशुको अपनेसे अलग नहीं कर सका॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलोचनः।
अव्यक्तरावो न्यपतत् सहबालो व्यसुर्व्रजे॥

मूलम्

गलग्रहणनिश्चेष्टो दैत्यो निर्गतलोचनः।
अव्यक्तरावो न्यपतत् सहबालो व्यसुर्व्रजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने इतने जोरसे उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं। बोलती बंद हो गयी। प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्णके साथ वह व्रजमें गिर पड़ा*॥ २८॥

पादटिप्पनी
  • पाण्डुदेशमें सहस्राक्ष नामके एक राजा थे। वे नर्मदा-तटपर अपनी रानियोंके साथ विहार कर रहे थे। उधरसे दुर्वासा ऋषि निकले, परन्तु उन्होंने प्रणाम नहीं किया। ऋषिने शाप दिया—‘तू राक्षस हो जा।’ जब वह उनके चरणोंपर गिरकर गिड़गिड़ाया, तब दुर्वासाजीने कह दिया—‘भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहका स्पर्श होते ही तू मुक्त हो जायगा।’ वही राजा तृणावर्त होकर आया था और श्रीकृष्णका संस्पर्श प्राप्त करके मुक्त हो गया।
श्रीसुदर्शनसूरिः

व्यसुः गतप्राणः ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्तरिक्षात् पतितं शिलायां
विशीर्णसर्वावयवं करालम्।
पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धं
स्त्रियो रुदत्यो ददृशुः समेताः॥

मूलम्

तमन्तरिक्षात् पतितं शिलायां
विशीर्णसर्वावयवं करालम्।
पुरं यथा रुद्रशरेण विद्धं
स्त्रियो रुदत्यो ददृशुः समेताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाशसे एक चट्टानपर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् शंकरके बाणोंसे आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रादाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः
कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम्।
तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं
विहायसा मृत्युमुखात् प्रमुक्तम्।
गोप्यश्च गोपाः किल नन्दमुख्या
लब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम्॥

मूलम्

प्रादाय मात्रे प्रतिहृत्य विस्मिताः
कृष्णं च तस्योरसि लम्बमानम्।
तं स्वस्तिमन्तं पुरुषादनीतं
विहायसा मृत्युमुखात् प्रमुक्तम्।
गोप्यश्च गोपाः किल नन्दमुख्या
लब्ध्वा पुनः प्रापुरतीव मोदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थलपर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं। उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्णको गोदमें ले लिया और लाकर उन्हें माताको दे दिया। बालक मृत्युके मुखसे सकुशल लौट आया। यद्यपि उसे राक्षस आकाशमें उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्णको फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपोंको अत्यन्त आनन्द हुआ॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वस्तिमन्तम् अपेतभयम् ॥ ३०-३१ ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बतात्यद‍्भुतमेष रक्षसा
बालो निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात् पुनः।
हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः
साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते॥

मूलम्

अहो बतात्यद‍्भुतमेष रक्षसा
बालो निवृत्तिं गमितोऽभ्यगात् पुनः।
हिंस्रः स्वपापेन विहिंसितः खलः
साधुः समत्वेन भयाद् विमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे—‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। देखो तो सही, यह कितनी अद‍्भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षसके द्वारा मृत्युके मुखमें डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्टको उसके पाप ही खा गये! सच है, साधुपुरुष अपनी समतासे ही सम्पूर्ण भयोंसे बच जाता है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं
पूर्तेष्टदत्तमुत भूतसौहृदम्।
यत्संपरेतः पुनरेव बालको
दिष्ट्या स्वबन्धून् प्रणयन्नुपस्थितः॥

मूलम्

किं नस्तपश्चीर्णमधोक्षजार्चनं
पूर्तेष्टदत्तमुत भूतसौहृदम्।
यत्संपरेतः पुनरेव बालको
दिष्ट्या स्वबन्धून् प्रणयन्नुपस्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने ऐसा कौन-सा तप, भगवान‍्की पूजा, प्याऊ-पौसला, कूआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवोंकी भलाई की थी, जिसके फलसे हमारा यह बालक मरकर भी अपने स्वजनोंको सुखी करनेके लिये फिर लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्यकी बात है’॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पूर्त्तं तटाकनिर्माणादि ॥ ३२-३५ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वाद‍्भुतानि बहुशो नन्दगोपो बृहद्वने।
वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः॥

मूलम्

दृष्ट्वाद‍्भुतानि बहुशो नन्दगोपो बृहद्वने।
वसुदेववचो भूयो मानयामास विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब नन्दबाबाने देखा कि महावनमें बहुत-सी अद‍्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेवजीकी बातका बार-बार समर्थन किया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदार्भकमादाय स्वाङ्कमारोप्य भामिनी।
प्रस्नुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता॥

मूलम्

एकदार्भकमादाय स्वाङ्कमारोप्य भामिनी।
प्रस्नुतं पाययामास स्तनं स्नेहपरिप्लुता॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशुको अपनी गोदमें लेकर बड़े प्रेमसे स्तनपान करा रही थीं। वे वात्सल्य-स्नेहसे इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनोंसे अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीतप्रायस्य जननी सा तस्य रुचिरस्मितम्।
मुखं लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम्॥

मूलम्

पीतप्रायस्य जननी सा तस्य रुचिरस्मितम्।
मुखं लालयती राजञ्जृम्भतो ददृशे इदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुसकानसे युक्त मुखको चूम रही थीं उसी समय श्रीकृष्णको जँभाई आ गयी और माताने उनके मुखमें यह देखा*॥ ३५॥

पादटिप्पनी
  • स्नेहमयी जननी और स्नेहके सदा भूखे भगवान्! उन्हें दूध पीनेसे तृप्ति ही नहीं होती थी। माँके मनमें शंका हुई—कहीं अधिक पीनेसे अपच न हो जाय। प्रेम सर्वदा अनिष्टकी आशंका उत्पन्न करता है। श्रीकृष्णने अपने मुखमें विश्वरूप दिखाकर कहा—‘अरी मैया! तेरा दूध मैं अकेले ही नहीं पीता हूँ। मेरे मुखमें बैठकर सम्पूर्ण विश्व ही इसका पान कर रहा है। तू घबरावे मत’—
    स्तन्यं कियत् पिबसि भूर्यलमर्भकेति
    वर्तिष्यमाणवचनां जननीं विभाव्य।
    विश्वं विभागि पयसोऽस्य न केवलोऽह-
    मस्माददर्शि हरिणा किमु विश्वमास्ये॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः
सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च।
द्वीपान् नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि
भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि॥

मूलम्

खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः
सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च।
द्वीपान् नगांस्तद्दुहितॄर्वनानि
भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पर्वतादुहितृः नदीः ॥ ३६-३७ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन् सञ्जातवेपथुः।
सम्मील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत् सुविस्मिता॥

मूलम्

सा वीक्ष्य विश्वं सहसा राजन् सञ्जातवेपथुः।
सम्मील्य मृगशावाक्षी नेत्रे आसीत् सुविस्मिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अपने पुत्रके मुँहमें इस प्रकार सहसा सारा जगत् देखकर मृगशावकनयनी यशोदाजीका शरीर काँप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं*। वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं॥ ३७॥

पादटिप्पनी
  • वात्सल्यमयी यशोदा माता अपने लालाके मुखमें विश्व देखकर डर गयीं, परन्तु वात्सल्य-प्रेमरस-भावित हृदय होनेसे उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने यह विचार किया कि यह विश्वका बखेड़ा लालाके मुँहमें कहाँसे आया? हो-न-हो यह मेरी इन निगोड़ी आँखोंकी ही गड़बड़ी है। मानो इसीसे उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिये।
अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे तृणावर्तमोक्षो नाम सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥