०६

[षष्ठोऽध्यायः]

भागसूचना

पूतना-उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दः पथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन्।
हरिं जगाम शरणमुत्पातागमशङ्कितः॥

मूलम्

नन्दः पथि वचः शौरेर्न मृषेति विचिन्तयन्।
हरिं जगाम शरणमुत्पातागमशङ्कितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबा जब मथुरासे चले, तब रास्तेमें विचार करने लगे कि वसुदेवजीका कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मनमें उत्पात होनेकी आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान् ही शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु॥

मूलम्

कंसेन प्रहिता घोरा पूतना बालघातिनी।
शिशूंश्चचार निघ्नन्ती पुरग्रामव्रजादिषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूतना नामकी एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था—बच्चोंको मारना। कंसकी आज्ञासे वह नगर, ग्राम और अहीरोंकी बस्तियोंमें बच्चोंको मारनेके लिये घूमा करती थी॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि॥

मूलम्

न यत्र श्रवणादीनि रक्षोघ्नानि स्वकर्मसु।
कुर्वन्ति सात्वतां भर्तुर्यातुधान्यश्च तत्र हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँके लोग अपने प्रतिदिनके कामोंमें राक्षसोंके भयको दूर भगानेवाले भक्तवत्सल भगवान‍्के नाम, गुण और लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते—वहीं ऐसी राक्षसियोंका बल चलता है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा खेचर्येकदोपेत्य पूतना नन्दगोकुलम्।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी॥

मूलम्

सा खेचर्येकदोपेत्य पूतना नन्दगोकुलम्।
योषित्वा माययाऽऽत्मानं प्राविशत् कामचारिणी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह पूतना आकाशमार्गसे चल सकती थी और अपनी इच्छाके अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबाके गोकुलके पास आकर उसने मायासे अपनेको एक सुन्दरी युवती बना लिया और गोकुलके भीतर घुस गयी॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां केशबन्धव्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितम्बस्तनकृच्छ्रमध्यमाम्।
सुवाससं कम्पितकर्णभूषण-
त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम्॥

मूलम्

तां केशबन्धव्यतिषक्तमल्लिकां
बृहन्नितम्बस्तनकृच्छ्रमध्यमाम्।
सुवाससं कम्पितकर्णभूषण-
त्विषोल्लसत्कुन्तलमण्डिताननाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियोंमें बेलेके फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमकसे मुखकी ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वल्गुस्मितापाङ्गविसर्गवीक्षितै-
र्मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम्।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम्॥

मूलम्

वल्गुस्मितापाङ्गविसर्गवीक्षितै-
र्मनो हरन्तीं वनितां व्रजौकसाम्।
अमंसताम्भोजकरेण रूपिणीं
गोप्यः श्रियं द्रष्टुमिवागतां पतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपनी मधुर मुसकान और कटाक्षपूर्ण चितवनसे व्रजवासियोंका चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणीको हाथमें कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पतिका दर्शन करनेके लिये आ रही हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपाङ्गविसर्गः सपाङ्गमोक्षः अमंसत अमन्यन्त ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम्।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि॥

मूलम्

बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्
यदृच्छया नन्दगृहेऽसदन्तकम्।
बालं प्रतिच्छन्ननिजोरुतेजसं
ददर्श तल्पेऽग्निमिवाहितं भसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूतना बालकोंके लिये ग्रहके समान थी। वह इधर-उधर बालकोंको ढूँढ़ती हुई अनायास ही नन्द-बाबाके घरमें घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण शय्यापर सोये हुए हैं। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण दुष्टोंके काल हैं। परन्तु जैसे आग राखकी ढेरीमें अपनेको छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेजको छिपा रखा था॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहं
चराचरात्माऽऽस निमीलितेक्षणः।
अनन्तमारोपयदङ्कमन्तकं
यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः॥

मूलम्

विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहं
चराचरात्माऽऽस निमीलितेक्षणः।
अनन्तमारोपयदङ्कमन्तकं
यथोरगं सुप्तमबुद्धिरज्जुधीः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियोंके आत्मा हैं। इसलिये उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चोंको मार डालनेवाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये।* जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँपको रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान् श्रीकृष्णको पूतनाने अपनी गोदमें उठा लिया॥ ८॥

पादटिप्पनी
  • पूतनाको देखकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने नेत्र बंद कर लिये, इसपर भक्त कवियों और टीकाकारोंने अनेकों प्रकारकी उत्प्रेक्षाएँ की हैं, जिनमें कुछ ये हैं—
    १. श्रीमद्वल्लभाचार्यने सुबोधिनीमें कहा है—अविद्या ही पूतना है। भगवान् श्रीकृष्णने सोचा कि मेरी दृष्टिके सामने अविद्या टिक नहीं सकती, फिर लीला कैसे होगी, इसलिये नेत्र बन्द कर लिये।
    २. यह पूतना बाल-घातिनी है ‘पूतानपि नयति’। यह पवित्र बालकोंको भी ले जाती है। ऐसा जघन्य कृत्य करनेवालीका मुँह नहीं देखना चाहिये, इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    ३. इस जन्ममें तो इसने कुछ साधन किया नहीं है। संभव है मुझसे मिलनेके लिये पूर्व जन्ममें कुछ किया हो। मानो पूतनाके पूर्व-पूर्व जन्मोंके साधन देखनेके लिये ही श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये।
    ४. भगवान‍्ने अपने मनमें विचार किया कि मैंने पापिनीका दूध कभी नहीं पिया है। अब जैसे लोग आँख बंद करके चिरायतेका काढ़ा पी जाते हैं, वैसे ही इसका दूध भी पी जाऊँ। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    ५. भगवान‍्के उदरमें निवास करनेवाले असंख्य कोटि ब्रह्माण्डोंके जीव यह जानकर घबरा गये कि श्यामसुन्दर पूतनाके स्तनमें लगा हलाहल विष पीने जा रहे हैं। अतः उन्हें समझानेके लिये ही श्रीकृष्णने नेत्र बंद कर लिये।
    ६. श्रीकृष्णशिशुने विचार किया कि मैं गोकुलमें यह सोचकर आया था कि माखन-मिश्री खाऊँगा। सो छठीके दिन ही विष पीनेका अवसर आ गया। इसलिये आँख बंद करके मानो शंकरजीका ध्यान किया कि आप आकर अपना अभ्यस्त विष-पान कीजिये, मैं दूध पीऊँगा।
    ७. श्रीकृष्णके नेत्रोंने विचार किया कि परम स्वतन्त्र ईश्वर इस दुष्टाको अच्छी-बुरी चाहे जो गति दे दें, परन्तु हम दोनों इसे चन्द्रमार्ग अथवा सूर्यमार्ग दोनोंमेंसे एक भी नहीं देंगे। इसलिये उन्होंने अपने द्वार बंद कर लिये।
    ८. नेत्रोंने सोचा पूतनाके नेत्र हैं तो हमारी जातिके; परन्तु ये इस क्रूर राक्षसीकी शोभा बढ़ा रहे हैं। इसलिये अपने होनेपर भी ये दर्शनके योग्य नहीं हैं। इसलिये उन्होंने अपनेको पलकोंसे ढक लिया।
    ९. श्रीकृष्णके नेत्रोंमें स्थित धर्मात्मा निमिने उस दुष्टाको देखना उचित न समझकर नेत्र बंद कर लिये।
    १०. श्रीकृष्णके नेत्र राज-हंस हैं। उन्हें बकी पूतनाके दर्शन करनेकी कोई उत्कण्ठा नहीं थी। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    ११. श्रीकृष्णने विचार किया कि बाहरसे तो इसने माताका-सा रूप धारण कर रखा है, परन्तु हृदयमें अत्यन्त क्रूरता भरे हुए हैं। ऐसी स्त्रीका मुँह न देखना ही उचित है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    १२. उन्होंने सोचा कि मुझे निडर देखकर कहीं यह ऐसा न समझ जाय कि इसके ऊपर मेरा प्रभाव नहीं चला और फिर कहीं लौट न जाय। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    १३. बाल-लीलाके प्रारम्भमें पहले-पहल स्त्रीसे ही मुठभेड़ हो गयी, इस विचारसे विरक्तिपूर्वक नेत्र बंद कर लिये।
    १४. श्रीकृष्णके मनमें यह बात आयी कि करुणा-दृष्टिसे देखूँगा तो इसे मारूँगा कैसे, और उग्र दृष्टिसे देखूँगा तो यह अभी भस्म हो जायगी। लीलाकी सिद्धिके लिये नेत्र बंद कर लेना ही उत्तम है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    १५. यह धात्रीका वेष धारण करके आयी है, मारना उचित नहीं है। परन्तु यह और ग्वालबालोंको मारेगी। इसलिये इसका यह वेष देखे बिना ही मार डालना चाहिये। इसलिये नेत्र बंद कर लिये।
    १६. बड़े-से-बड़ा अनिष्ट योगसे निवृत्त हो जाता है। उन्होंने नेत्र बंद करके मानो योगदृष्टि सम्पादित की।
    १७. पूतना यह निश्चय करके आयी थी कि मैं व्रजके सारे शिशुओंको मार डालूँगी, परन्तु भक्तरक्षापरायण भगवान‍्की कृपासे व्रजका एक भी शिशु उसे दिखायी नहीं दिया और बालकोंको खोजती हुई वह लीलाशक्तिकी प्रेरणासे सीधी नन्दालयमें आ पहुँची, तब भगवान‍्ने सोचा कि मेरे भक्तका बुरा करनेकी बात तो दूर रही, जो मेरे भक्तका बुरा सोचता है, उस दुष्टका मैं मुँह नहीं देखता; व्रज-बालक सभी श्रीकृष्णके सखा हैं, परम भक्त हैं, पूतना उनको मारनेका संकल्प करके आयी है, इसलिये उन्होंने नेत्र बंद कर लिये।
    १८. पूतना अपनी भीषण आकृतिको छिपाकर राक्षसी मायासे दिव्य रमणी रूप बनाकर आयी है। भगवान‍्की दृष्टि पड़नेपर माया रहेगी नहीं और इसका असली भयानक रूप प्रकट हो जायगा। उसे सामने देखकर यशोदा मैया डर जायँ और पुत्रकी अनिष्टाशंकासे कहीं उनके हठात् प्राण निकल जायँ, इस आशंकासे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये।
    १९. पूतना हिंसापूर्ण हृदयसे आयी है, परन्तु भगवान् उसकी हिंसाके लिये उपयुक्त दण्ड न देकर उसका प्राण-वधमात्र करके परम कल्याण करना चाहते हैं। भगवान् समस्त सद‍्गुणोंके भण्डार हैं। उनमें धृष्टता आदि दोषोंका लेश भी नहीं है, इसीलिये पूतनाके कल्याणार्थ भी उसका प्राण-वध करनेमें उन्हें लज्जा आती है। इस लज्जासे ही उन्होंने नेत्र बंद कर लिये।
    २०. भगवान् जगत्पिता हैं—असुर-राक्षसादि भी उनकी सन्तान ही हैं। पर वे सर्वथा उच्छृंखल और उद्दण्ड हो गये हैं, इसलिये उन्हें दण्ड देना आवश्यक है। स्नेहमय माता-पिता जब अपने उच्छृंखल पुत्रको दण्ड देते हैं, तब उनके मनमें दुःख होता है। परन्तु वे उसे भय दिखलानेके लिये उसे बाहर प्रकट नहीं करते। इसी प्रकार भगवान् भी जब असुरोंको मारते हैं, तब पिताके नाते उनको भी दुःख होता है; पर दूसरे असुरोंको भय दिखलानेके लिये वे उसे प्रकट नहीं करते। भगवान् अब पूतनाको मारनेवाले हैं, परन्तु उसकी मृत्युकालीन पीड़ाको अपनी आँखों देखना नहीं चाहते, इसीसे उन्होंने नेत्र बंद कर लिये।
    २१. छोटे बालकोंका स्वभाव है कि वे अपनी माके सामने खूब खेलते हैं, पर किसी अपरिचितको देखकर डर जाते हैं और नेत्र मूँद लेते हैं। अपरिचित पूतनाको देखकर इसीलिये बाल-लीला-विहारी भगवान‍्ने नेत्र बंद कर लिये। यह उनकी बाललीलाका माधुर्य है।
श्रीसुदर्शनसूरिः

भसि भस्मनि ॥ ७-८ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा कोशपरिच्छदासिवत्।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्षमाणे जननी ह्यतिष्ठताम्॥

मूलम्

तां तीक्ष्णचित्तामतिवामचेष्टितां
वीक्ष्यान्तरा कोशपरिच्छदासिवत्।
वरस्त्रियं तत्प्रभया च धर्षिते
निरीक्षमाणे जननी ह्यतिष्ठताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मखमली म्यानके भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवारके समान पूतनाका हृदय तो बड़ा कुटिल था; किन्तु ऊपरसे वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखनेमें वह एक भद्र महिलाके समान जान पड़ती थी। इसलिये रोहिणी और यशोदाजीने उसे घरके भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभासे हतप्रतिभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखती रहीं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं
घोराङ्कमादाय शिशोर्ददावथ।
गाढं कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत्॥

मूलम्

तस्मिन् स्तनं दुर्जरवीर्यमुल्बणं
घोराङ्कमादाय शिशोर्ददावथ।
गाढं कराभ्यां भगवान् प्रपीड्य तत्
प्राणैः समं रोषसमन्वितोऽपिबत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर भयानक राक्षसी पूतनाने बालक श्रीकृष्णको अपनी गोदमें लेकर उनके मुँहमें अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकनेवाला विष लगा हुआ था। भगवान‍्ने क्रोधको अपना साथी बनाया और दोनों हाथोंसे उसके स्तनोंको जोरसे दबाकर उसके प्राणोंके साथ उसका दूध पीने लगे (वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा!)*॥ १०॥

पादटिप्पनी
  • भगवान् रोषके साथ पूतनाके प्राणोंके सहित स्तन-पान करने लगे, इसका यह अर्थ प्रतीत होता है कि रोष (रोषाधिष्ठातृ-देवता रुद्र) ने प्राणोंका पान किया और श्रीकृष्णने स्तनका।

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह॥

मूलम्

सा मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी
निष्पीड्यमानाखिलजीवमर्मणि।
विवृत्य नेत्रे चरणौ भुजौ मुहुः
प्रस्विन्नगात्रा क्षिपती रुरोद ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तो पूतनाके प्राणोंके आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी—‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर!’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटककर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वामं प्रतिकूलं कोशपरिच्छदासिवत् कोशपरिच्छन्नखड्गवत् अन्तः क्रूरतरेत्यभिप्रायः ( जननीवत् ) ॥ ९-११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः क्षितौ वज्रनिपातशङ्कया॥

मूलम्

तस्याः स्वनेनातिगभीररंहसा
साद्रिर्मही द्यौश्च चचाल सग्रहा।
रसा दिशश्च प्रतिनेदिरे जनाः
पेतुः क्षितौ वज्रनिपातशङ्कया॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी चिल्लाहटका वेग बड़ा भयंकर था। उसके प्रभावसे पहाड़ोंके साथ पृथ्वी और ग्रहोंके साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपातकी आशंकासे पृथ्वीपर गिर पड़े॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसु-
र्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप॥

मूलम्

निशाचरीत्थं व्यथितस्तना व्यसु-
र्व्यादाय केशांश्चरणौ भुजावपि।
प्रसार्य गोष्ठे निजरूपमास्थिता
वज्राहतो वृत्र इवापतन्नृप॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस प्रकार निशाचरी पूतनाके स्तनोंमें इतनी पीड़ा हुई कि वह अपनेको छिपा न सकी, राक्षसीरूपमें प्रकट हो गयी। उसके शरीरसे प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्रके वज्रसे घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठमें आकर गिर पड़ी॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रसा पातालं निजरूपं पूर्वरूपम् ।। १२-१३ ।।

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतमानोऽपि तद्देहस्त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान्।
चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत्तदद‍्भुतम्॥

मूलम्

पतमानोऽपि तद्देहस्त्रिगव्यूत्यन्तरद्रुमान्।
चूर्णयामास राजेन्द्र महदासीत्तदद‍्भुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! पूतनाके शरीरने गिरते-गिरते भी छः कोसके भीतरके वृक्षोंको कुचल डाला। यह बड़ी ही अद‍्भुत घटना हुई॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गव्यूतिः क्रोशद्वयं त्रिगव्युत्यन्तरं सार्द्धयोजनावकाशम् ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकन्दरनासिकम्।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम्॥

मूलम्

ईषामात्रोग्रदंष्ट्रास्यं गिरिकन्दरनासिकम्।
गण्डशैलस्तनं रौद्रं प्रकीर्णारुणमूर्धजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूतनाका शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हलके समान तीखी और भयंकर दाढ़ोंसे युक्त था। उसके नथुने पहाड़की गुफाके समान गहरे थे और स्तन पहाड़से गिरी हुई चट्टानोंकी तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम्।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्घ्रि शून्यतोयह्रदोदरम्॥

मूलम्

अन्धकूपगभीराक्षं पुलिनारोहभीषणम्।
बद्धसेतुभुजोर्वङ्घ्रि शून्यतोयह्रदोदरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आँखें अंधे कूएँके समान गहरी नितम्ब नदीके करारकी तरह भयंकर; भुजाएँ, जाँघें और पैर नदीके पुलके समान तथा पेट सूखे हुए सरोवरकी भाँति जान पड़ता था॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तत्रसुः स्मतद् वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम्।
पूर्वं तु तन्निःस्वनितभिन्नहृत्कर्णमस्तकाः॥

मूलम्

सन्तत्रसुः स्मतद् वीक्ष्य गोपा गोप्यः कलेवरम्।
पूर्वं तु तन्निःस्वनितभिन्नहृत्कर्णमस्तकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूतनाके उस शरीरको देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सिर तो पहले ही फट-से रहे थे॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तमकुतोभयम्।
गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसम्भ्रमाः॥

मूलम्

बालं च तस्या उरसि क्रीडन्तमकुतोभयम्।
गोप्यस्तूर्णं समभ्येत्य जगृहुर्जातसम्भ्रमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब गोपियोंने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छातीपर निर्भय होकर खेल रहे हैं,* तब वे बड़ी घबराहट और उतावलीके साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्णको उठा लिया॥ १८॥

पादटिप्पनी
  • पूतनाके वक्षःस्थलपर क्रीडा करते हुए मानो मन-ही-मन कह रहे थे—
    स्तनन्धयस्य स्तन एव जीविका
    दत्तस्त्वया स स्वयमानने मम।
    मया च पीतो म्रियते यदि त्वया
    किं वा ममागः स्वयमेव कथ्यताम्॥
    ‘मैं दुधमुँहाँ शिशु हूँ, स्तनपान ही मेरी जीविका है। तुमने स्वयं अपना स्तन मेरे मुँहमें दे दिया और मैंने पिया। इससे यदि तुम मर जाती हो तो स्वयं तुम्हीं बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है।’
    राजा बलिकी कन्या थी रत्नमाला। यज्ञशालामें वामन भगवान‍्को देखकर उसके हृदयमें पुत्रस्नेहका भाव उदय हो आया। वह मन-ही-मन अभिलाषा करने लगी कि यदि मुझे ऐसा बालक हो और मैं उसे स्तन पिलाऊँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वामन भगवान‍्ने अपने भक्त बलिकी पुत्रीके इस मनोरथका मन-ही-मन अनुमोदन किया। वही द्वापरमें पूतना हुई और श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसकी लालसा पूर्ण हुई।

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशोदारोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः।
रक्षां विदधिरे सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभिः॥

मूलम्

यशोदारोहिणीभ्यां ताः समं बालस्य सर्वतः।
रक्षां विदधिरे सम्यग्गोपुच्छभ्रमणादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद यशोदा और रोहिणीके साथ गोपियोंने गायकी पूँछ घुमाने आदि उपायोंसे बालक श्रीकृष्णके अंगोंकी सब प्रकारसे रक्षा की॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम्।
रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाङ्गेषु नामभिः॥

मूलम्

गोमूत्रेण स्नापयित्वा पुनर्गोरजसार्भकम्।
रक्षां चक्रुश्च शकृता द्वादशाङ्गेषु नामभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्णको गोमूत्रसे स्नान कराया, फिर सब अंगोंमें गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगोंमें गोबर लगाकर भगवान‍्के केशव आदि नामोंसे रक्षा की॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यः संस्पृष्टसलिला अङ्गेषु करयोः पृथक्।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत॥

मूलम्

गोप्यः संस्पृष्टसलिला अङ्गेषु करयोः पृथक्।
न्यस्यात्मन्यथ बालस्य बीजन्यासमकुर्वत॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद गोपियोंने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रोंसे अपने शरीरोंमें अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालकके अंगोंमें बीजन्यास किया॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ईषा युगाप्रयष्टिः गण्डशैलः पर्वताद् गलितस्थूलपाषाणः ।। १५-२१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्यादजोऽङ्घ्रि मणिमांस्तव जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः।
हृत् केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम्॥

मूलम्

अव्यादजोऽङ्घ्रि मणिमांस्तव जान्वथोरू
यज्ञोऽच्युतः कटितटं जठरं हयास्यः।
हृत् केशवस्त्वदुर ईश इनस्तु कण्ठं
विष्णुर्भुजं मुखमुरुक्रम ईश्वरः कम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगीं—‘अजन्मा भगवान् तेरे पैरोंकी रक्षा करें, मणिमान् घुटनोंकी, यज्ञपुरुष जाँघोंकी, अच्युत कमरकी, हयग्रीव पेटकी, केशव हृदयकी, ईश वक्षःस्थलकी, सूर्य कण्ठकी, विष्णु बाँहोंकी, उरुक्रम मुखकी और ईश्वर सिरकी रक्षा करें॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अजशब्दवाच्यतत्त्वद्वयनियन्ता सर्वजगत्कारणं श्रीमन्नारायण इति तासां परतत्त्वज्ञानित्वमनेनोच्यते उत्तरतन्नामसु तदेवतत्त्वं विख्याप्यत इति भावः ॥ २२-३४ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाजनश्च।
कोणेषु शङ्ख उरुगाय उपर्युपेन्द्र-
स्तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः समन्तात्॥

मूलम्

चक्र्यग्रतः सहगदो हरिरस्तु पश्चात्
त्वत्पार्श्वयोर्धनुरसी मधुहाजनश्च।
कोणेषु शङ्ख उरुगाय उपर्युपेन्द्र-
स्तार्क्ष्यः क्षितौ हलधरः पुरुषः समन्तात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

चक्रधर भगवान् रक्षाके लिये तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदन और अजन दोनों बगलमें, शंखधारी उरुगाय चारों कोनोंमें, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वीपर और भगवान् परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षाके लिये रहें॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि हृषीकेशः प्राणान् नारायणोऽवतु।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु॥

मूलम्

इन्द्रियाणि हृषीकेशः प्राणान् नारायणोऽवतु।
श्वेतद्वीपपतिश्चित्तं मनो योगेश्वरोऽवतु॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृषीकेशभगवान् इन्द्रियोंकी और नारायण प्राणोंकी रक्षा करें। श्वेतद्वीपके अधिपति चित्तकी और योगेश्वर मनकी रक्षा करें॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं भगवान् परः।
क्रीडन्तं पातु गोविन्दः शयानं पातु माधवः॥

मूलम्

पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धिमात्मानं भगवान् परः।
क्रीडन्तं पातु गोविन्दः शयानं पातु माधवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृश्निगर्भ तेरी बुद्धिकी और परमात्मा भगवान् तेरे अहंकारकी रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रजन्तमव्याद् वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रियः पतिः।
भुञ्जानं यज्ञभुक् पातु सर्वग्रहभयङ्करः॥

मूलम्

व्रजन्तमव्याद् वैकुण्ठ आसीनं त्वां श्रियः पतिः।
भुञ्जानं यज्ञभुक् पातु सर्वग्रहभयङ्करः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलते समय भगवान् वैकुण्ठ और बैठते समय भगवान् श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजनके समय समस्त ग्रहोंको भयभीत करनेवाले यज्ञभोक्ता भगवान् तेरी रक्षा करें॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः।
भूतप्रेतपिशाचाश्च यक्षरक्षोविनायकाः॥

मूलम्

डाकिन्यो यातुधान्यश्च कूष्माण्डा येऽर्भकग्रहाः।
भूतप्रेतपिशाचाश्च यक्षरक्षोविनायकाः॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः।
उन्मादा ये ह्यपस्मारा देहप्राणेन्द्रियद्रुहः॥

मूलम्

कोटरा रेवती ज्येष्ठा पूतना मातृकादयः।
उन्मादा ये ह्यपस्मारा देहप्राणेन्द्रियद्रुहः॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धबालग्रहाश्च ये।
सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरवः॥

मूलम्

स्वप्नदृष्टा महोत्पाता वृद्धबालग्रहाश्च ये।
सर्वे नश्यन्तु ते विष्णोर्नामग्रहणभीरवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष,राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियोंका नाश करनेवाले उन्माद (पागलपन) एवं अपस्मार (मृगी) आदि रोग; स्वप्नमें देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि—ये सभी अनिष्ट भगवान् विष्णुका नामोच्चारण करनेसे भयभीत होकर नष्ट हो जायँ*॥ २७—२९॥

पादटिप्पनी
  • इस प्रसंगको पढ़कर भावुक भक्त भगवान‍्से कहता है—‘भगवन्! जान पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाममें शक्ति अधिक है; क्योंकि आप त्रिलोकीकी रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है।’

श्लोक-३०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रणयबद्धाभिर्गोपीभिः कृतरक्षणम्।
पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम्॥

मूलम्

इति प्रणयबद्धाभिर्गोपीभिः कृतरक्षणम्।
पाययित्वा स्तनं माता संन्यवेशयदात्मजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार गोपियोंने प्रेमपाशमें बँधकर भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षा की। माता यशोदाने अपने पुत्रको स्तन पिलाया और फिर पालनेपर सुला दिया॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः।
विलोक्य पूतनादेहं बभूवुरतिविस्मिताः॥

मूलम्

तावन्नन्दादयो गोपा मथुराया व्रजं गताः।
विलोक्य पूतनादेहं बभूवुरतिविस्मिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरासे गोकुलमें पहुँचे। जब उन्होंने पूतनाका भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं बतर्षिः संजातो योगेशो वा समास सः।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो यदाहानकदुन्दुभिः॥

मूलम्

नूनं बतर्षिः संजातो योगेशो वा समास सः।
स एव दृष्टो ह्युत्पातो यदाहानकदुन्दुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे—‘यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, अवश्य ही वसुदेवके रूपमें किसी ऋषिने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेवजी पूर्वजन्ममें कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखनेमें आ रहा है॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलेवरं परशुभिश्छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः।
दूरे क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन् काष्ठधिष्ठितम्॥

मूलम्

कलेवरं परशुभिश्छित्त्वा तत्ते व्रजौकसः।
दूरे क्षिप्त्वावयवशो न्यदहन् काष्ठधिष्ठितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबतक व्रजवासियोंने कुल्हाड़ीसे पूतनाके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुलसे दूर ले जाकर लकड़ियोंपर रखकर जला दिया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः।
उत्थितः कृष्णनिर्भुक्तसपद्याहतपाप्मनः॥

मूलम्

दह्यमानस्य देहस्य धूमश्चागुरुसौरभः।
उत्थितः कृष्णनिर्भुक्तसपद्याहतपाप्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमेंसे ऐसा धूँआ निकला, जिसमेंसे अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान‍्ने जो उसका दूध पी लिया था—जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप सद‍्गतिम्॥

मूलम्

पूतना लोकबालघ्नी राक्षसी रुधिराशना।
जिघांसयापि हरये स्तनं दत्त्वाऽऽप सद‍्गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूतना एक राक्षसी थी। लोगोंके बच्चोंको मार डालना और उनका खून पी जाना—यही उसका काम था। भगवान‍्को भी उसने मार डालनेकी इच्छासे ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषोंको मिलती है॥ ३५॥

वीरराघवः

सद्गतिमगमत् प्राणापहारकथनेन बुद्धिदोषस्य प्रायश्चित्तं कृतम् अतः पापीयस्या अपि भगवत्सम्बन्धात् सुगतिलाभो युक्त: ॥ ३५-३९ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने।
यच्छन् प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा॥

मूलम्

किं पुनः श्रद्धया भक्त्या कृष्णाय परमात्मने।
यच्छन् प्रियतमं किं नु रक्तास्तन्मातरो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी स्थितिमें जो परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको श्रद्धा और भक्तिसे माताके समान अनुरागपूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगनेवाली वस्तु समर्पित करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद‍्भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः।
अङ्गं यस्याः समाक्रम्य भगवानपिबत् स्तनम्॥

मूलम्

पद‍्भ्यां भक्तहृदिस्थाभ्यां वन्द्याभ्यां लोकवन्दितैः।
अङ्गं यस्याः समाक्रम्य भगवानपिबत् स्तनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओंके द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तोंके हृदयकी पूँजी हैं। उन्हीं चरणोंसे भगवान‍्ने पूतनाका शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम्।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावो नु मातरः॥

मूलम्

यातुधान्यपि सा स्वर्गमवाप जननीगतिम्।
कृष्णभुक्तस्तनक्षीराः किमु गावो नु मातरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माना कि वह राक्षसी थी, परन्तु उसे उत्तम-से-उत्तम गति—जो माताको मिलनी चाहिये—प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तनका दूध भगवान‍्ने बड़े प्रेमसे पिया, उन गौओं और माताओंकी* तो बात ही क्या है॥ ३८॥

पादटिप्पनी
  • जब ब्रह्माजी ग्वालबाल और बछड़ोंको हर ले गये, तब भगवान् स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये, उस समय अपने विभिन्न रूपोंसे उन्होंने अपने साथी अनेकों गोप और वत्सोंकी माताओंका स्तनपान किया। इसीलिये यहाँ बहुवचनका प्रयोग किया गया है।

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पयांसि यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम्।
भगवान् देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः॥

मूलम्

पयांसि यासामपिबत् पुत्रस्नेहस्नुतान्यलम्।
भगवान् देवकीपुत्रः कैवल्याद्यखिलप्रदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! देवकीनन्दन भगवान् कैवल्य आदि सब प्रकारकी मुक्ति और सब कुछ देनेवाले हैं। उन्होंने व्रजकी गोपियों और गौओंका वह दूध, जो भगवान‍्के प्रति पुत्र-भाव होनेसे वात्सल्य-स्नेहकी अधिकताके कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम्।
न पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसम्भवः॥

मूलम्

तासामविरतं कृष्णे कुर्वतीनां सुतेक्षणम्।
न पुनः कल्पते राजन् संसारोऽज्ञानसम्भवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान् श्रीकृष्णको अपने पुत्रके ही रूपमें देखती थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें कभी नहीं पड़ सकतीं; क्योंकि यह संसार तो अज्ञानके कारण ही है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सुतेक्षणं सुतबुद्धिं “न पुनः कल्पते राजन् ! संसारः” इति अस्मिन्नवतारे ईश्वरत्वस्य प्रकटत्वात् ईश्वरः पुत्रत्वं गत इति ज्ञातत्वान्मोक्षो युज्यते ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कटधूमस्य सौरभ्यमवघ्राय व्रजौकसः।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः॥

मूलम्

कटधूमस्य सौरभ्यमवघ्राय व्रजौकसः।
किमिदं कुत एवेति वदन्तो व्रजमाययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्दबाबाके साथ आनेवाले व्रजवासियोंकी नाकमें जब चिताके धूएँकी सुगन्ध पहुँची, तब ‘यह क्या है? कहाँसे ऐसी सुगन्ध आ रही है?’ इस प्रकार कहते हुए वे व्रजमें पहुँचे॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कटधूमस्य शवधूमस्य ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तत्र वर्णितं गोपैः पूतनागमनादिकम्।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन् सुविस्मिताः॥

मूलम्

ते तत्र वर्णितं गोपैः पूतनागमनादिकम्।
श्रुत्वा तन्निधनं स्वस्ति शिशोश्चासन् सुविस्मिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ गोपोंने उन्हें पूतनाके आनेसे लेकर मरनेतकका सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वे लोग पूतनाकी मृत्यु और श्रीकृष्णके कुशलपूर्वक बच जानेकी बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः।
मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह॥

मूलम्

नन्दः स्वपुत्रमादाय प्रेत्यागतमुदारधीः।
मूर्ध्न्युपाघ्राय परमां मुदं लेभे कुरूद्वह॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उदारशिरोमणि नन्दबाबाने मृत्युके मुखसे बचे हुए अपने लालाको गोदमें उठा लिया और बार-बार उसका सिर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतत् पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद‍्भुतम्।
शृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम्॥

मूलम्

य एतत् पूतनामोक्षं कृष्णस्यार्भकमद‍्भुतम्।
शृणुयाच्छ्रद्धया मर्त्यो गोविन्दे लभते रतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान् श्रीकृष्णकी अद‍्भुत बाल-लीला है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रेम प्राप्त होता है॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शिशोः स्वस्ति सुखेनावस्थानम् ।। ४२-४४ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृते शुकपक्षीये षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥